डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन


कुछ दिनों पहले की बात है जब मीडिया में यह बात प्रकाश में आई थी कि कैसे एक जर्मन टीम द्वारा एचआईवी (मानव इम्युनो डेफिशिएन्सी वायरस) के आनुवंशिक पदार्थ के प्रमुख भाग को अलग करने में सफलता हासिल की गई। यही वायरस एड्स बीमारी का कारण है। यह सफलता हैम्बर्ग और ड्रेसडेन के शोधकर्ताओं को एक दशक की कड़ी मेहनत के बाद प्राप्त हुई है। इस उपलब्धि के पीछे की कहानी बहुत रोचक है कि यह हासिल करने के लिए कैसे उन्होंने प्रकृति की नकलपट्टी का सहारा लिया।
बैक्टीरिया और फंगस किसी कोशिका में आप्रवासियों के रूप में प्रवेश करते हैं। इनमें से कुछ मददगार होते हैं, कुछ चुपचाप बैठे रहते हैं जबकि कुछ होते हैं जो मेज़बान (व्यक्ति को इनका मेज़बान कहना वाकई वैज्ञानिकों का एक तकलीफदायक लतीफा ही है) को तकलीफ पहुंचाते हैं या रोगजनक होते हैं। एंटीबॉडीज़ आप्रवासी जीवाणुओं को नष्ट करने का काम करती हैं।

बैक्टीरिया और फंगस के विपरीत, वायरस एक कदम आगे रहते हैं। वे अपना आनुवंशिक पदार्थ यानी डीएनए मेज़बान जीव में डाल देते हैं। इस प्रकार वे सगे सम्बंधियों की तरह हो जाते हैं और अंगीकृत होकर औपचारिक रूप से मेज़बान के साथ पीढ़ियों तक रहते हैं।
एचआईवी और भी चालाक होता है। इसका आनुवंशिक पदार्थ डीएनए नहीं बल्कि उसका रिशतेदार आरएनए होता है। फिर भी यह मेज़बान डीएनए में जुड़ जाता है। इसके लिए पहले वह इस आरएनए की प्रतिलिपि डीएनए के रूप में बनाता है। आम तौर पर डीएनए से आरएनए बनाया जाता है, इसलिए वायरस की इस क्रिया को विलोम-प्रतिलिपिकरण कहते हैं। डीएनए का यह संस्करण प्रोवायरस कहलाता है, जो मेज़बान के डीएनए से जुड़ जाता है। इसकी वजह से मेज़बान को बड़ी क्षति का सामना करना पड़ता है।
हम मेज़बानों के लिए इसका आदर्श इलाज यह होगा कि हमारे पास एक एन्ज़ाइम हो जो इस परदेसी डीएनए को पहचान ले और उसे काटकर अलग कर दे। हमारे पास इस तरह के एन्ज़ाइम होते भी हैं, जिन्हें रिकॉम्बीनेस कहते हैं। इस तरह के एक रिकॉम्बीनेस एन्ज़ाइम च्र्द्धड्ढ की खोज एक दशक पहले डॉ. इन्द्राणी सरकार ने जर्मन समूह के साथ काम करते हुए की थी।

लेकिन यह पर्याप्त नहीं था क्योंकि एड्स का प्रोवायरस जल्दी-जल्दी अपनी डीएनए श्रृंखला के हिस्सों में उत्परिवर्तन और बदलाव करता रहता है। हमारे शरीर में गैर-उत्परिवर्तित एचआईवी प्रोवायरस का मात्र एक सेट नहीं होता बल्कि एक मिश्रण होता है और इसके अलावा कई सारे उत्परिवर्तित संस्करण या उप-किस्में भी होती हैं। च्र्द्धड्ढ कुछ उप-किस्मों को तो काटकर अलग कर सकता है लेकिन सभी को नहीं। जो बच जाते हैं वे बरकरार रहते हैं और बीमारी उत्पन्न कर सकते हैं।
फिलहाल हमारे पास केवल एक दवा उपलब्ध है जिसे cART कहते हैं। किंतु यह बहुत महंगी है (इसका खर्चा 20,000 डॉलर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है)। एक परोपकारी गांधीवादी प्रयास से यह दवा सभी को उपलब्ध हो पाई है। सिप्ला के डॉ. युसूफ हामिद ने दवा को अफ्रीका के कई राष्ट्रों में सस्ते दामों में उपलब्ध कराने की घोषणा की और उपलब्ध कराई। बड़े दवा उत्पादक गठबंधनों के विरोध के बावजूद उनका यह दृढ़ कदम अत्यंत सफल रहा है और इसकी काफी सराहना हुई है।
अलबत्ता, साइड प्रभाव, वायरस की दवा-प्रतिरोधी किस्मों का विकास और इसी तरह की अन्य पेचीदगियों के चलते  हमें कई और दवाइयों की ज़रूरत है ताकि एचआईवी और एड्स के खिलाफ जीत हासिल की जा सके।

जर्मन समूह की सफलता इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण है। उन्होंने जो तरीका अपनाया है उसे निर्देशित जैव विकास कहते हैं। शब्दों पर ध्यान दें। यह जानी-मानी बात है कि जैव विकास बिना सोचे समझे और बेतरतीबी से होने वाली प्रक्रिया है - यह किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए चलने वाली प्रक्रिया नहीं है। जैव विकास में प्रमुख आण्विक घटना यह होती है कि आनुवंशिक पदार्थ (डीएनए या आरएनए) की श्रृंखला में उत्परिवर्तन हो जाता है। लेकिन शुक्र है दोहरे नोबेल विजेता सैंगर का कि अब हमारे पास इस श्रृंखला को पढ़ने की विधि मौजूद है। और साथ ही नोबेल विजेता खुराना की बदौलत इस श्रृंखला को संश्लेषित करने की क्षमता भी है। अत: डीएनए/आरएनए श्रृंखला को बनाना और बदलना या स्थल-विशेष पर परिवर्तन करना अब वास्तविकता बन चुकी है। इसके लिए हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जीव वैज्ञानिक माइकेल स्मिथ के शुक्रगुज़ार हैं।
शोधकर्ताओं ने किया यह कि सबसे पहले डैटाबैस लाइब्रेरी का इस्तेमाल करते हुए एचआईवी प्रोटोवायरस की डीएनए श्रृंखला के कई प्रकारों का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण के आधार पर वे डीएनए श्रृंखला का एक विशिष्ट क्षेत्र खोज पाए जो 90 प्रतिशत प्रकारों में संरक्षित था। इसका नाम है loxBTR अर्थात loxBTR अब तक ज्ञात ज़्यादातर एचआईवी उप-किस्मों की दुखती रग है। यदि हम लैब में एक एन्ज़ाइम बना लें जो एचआईवी प्रोटोवायरल जीनोम के इस क्षेत्र को काट सके तो हमारे पास एक अणु होगा जो उन वायरसों के खिलाफ भी कारगर साबित होगा जो अभी शरीर में निष्क्रिय पड़े हुए हैं।

इस उद्देश्य से समूह ने उपरोक्त tre नामक रीकॉम्बिनेस को चुना। उसकी श्रृंखला और संरचना में कदम-दर-कदम बदलाव किया। पूरी प्रक्रिया में हर कदम में उससेे पहले वाले कदम से आगे सुधार पर आधारित था। 145 चरणोंें के बाद उन्हें एक अत्यधिक सक्रिय द्यद्धड्ढ रीकॉम्बिनेस एन्ज़ाइम प्राप्त हुआ जो 90 प्रतिशत से ज़्यादा ज्ञात एचआईवी उप-किस्मों के खिलाफ कारगर है। यह कदम-दर-कदम निर्देशित विकास है जिसका लक्ष्य एक व्यापक रीकॉम्बिनेस है। इसे उन्होंने Brec1 नाम दिया। यह एंज़ाइम लैब में संक्रमित कोशिकाओं से और एचआईवी-संक्रमित चूहों में वायरस को सफलतापूर्वक हटाने में कामयाब रहा। इस प्रकार इसमें ज़्यादातर एचआईवी उप-किस्मों और एड्स जैसी बीमारी के इलाज की क्षमता है।
यदि निर्देशित विकास की यह प्रक्रिया एचआईवी के खिलाफ सफलतापूर्वक इस्तेमाल हो सकती है तो क्यों नहीं इसे टीबी जैसी दूसरी गंभीर बीमारियों के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जाए है। कॉर्नेल के डॉ. मैथ्यू डिलिसा के समूह का तर्क यही है। हम उम्मीद करें कि कुछ भारतीय समूह इस पर काम करेंगे। (स्रोत फीचर्स)