नवनीत कुमार गुप्ता


आज मानव ने अनेक रोगों पर विजय पा ली है। स्मॉल पॉक्स के बाद अब पोलियो की भी जल्द ही इस दुनिया से विदाई होने वाली है। लेकिन कुछ बीमारियां ऐसी हैं जो अधिक भयावह हो उठी हैं। मलेरिया ऐसी ही एक बीमारी है। सदियों से दुनिया भर में करोड़ों लोगों की जान लेने वाले मलेरिया के खिलाफ मनुष्य की लड़ाई लगातार जारी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1955 में घोषणा की थी कि मलेरिया पर मनुष्य की विजय का समय आ गया है और जल्दी ही यह रोग दुनिया से समाप्त हो जाएगा। मगर, मलेरिया ने पलट कर हमला किया और आज यह रोग दुनिया भर में हर साल करीब 22-50 करोड़ लोगों पर हमला करके लाखों लोगों की जान ले रहा है।

भयावह तस्वीर
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2015 में विश्व भर में करीब 21 करोड़ 40 लाख लोग मलेरिया से पीड़ित हुए और लगभग 4 लाख 38 हज़ार मरीज़ों की मृत्यु हो गई। हालांकि कई लोगों का अनुमान तो यह है कि मलेरिया के मरीज़ों और इससे मरने वालों की वास्तविक संख्या इससे भी कहीं अधिक हो सकती है। विश्व की तकरीबन सवा तीन अरब आबादी को मलेरिया होने का खतरा है। वर्ष 2015 में करीब 97 देशों में मलेरिया का प्रभाव देखा गया। मलेरिया से होने वाली मौतों में से कुल 80 प्रतिशत मौतें मलेरिया से सबसे अधिक प्रभावित 15 देशों में हुई। विश्व भर में मलेरिया से होने वाली मौतों में से नाइजीरिया और कांगो इन दो देशों में 35 प्रतिशत मौतें होती हैं। मलेरिया से मरने वालों में 78 प्रतिशत बच्चे शामिल होते हैं। प्रत्यक्ष तौर पर मलेरिया के कारण वैश्विक स्तर पर प्रति वर्ष 12 अरब अमेरिकी डॉलर की हानि होती है। मलेरिया से निपटने के लिए विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 5.1 अरब डॉलर की राशि की आवश्यकता होगी जो फिलहाल उपलब्ध राशि से दुगनी है।

भारत में मलेरिया
भारत के संदर्भ में बात करें तो हर साल मलेरिया से करीब 20 लाख लोग प्रभावित होते हैं। जिनमें से प्रत्येक वर्ष एक हज़ार लोगों की मौत मलेरिया के कारण हो जाती है। आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड एवं उड़ीसा राज्य सर्वाधिक मलेरिया प्रभावित राज्यों में शामिल हैं। पिछले लगभग 300 वर्षों से मलेरिया के इलाज में काम आने वाली कड़वी कुनैन आज बेअसर साबित हो रही है। क्लोरोक्विन से भी इसका कारगर इलाज नहीं हो पा रहा है। डी.डी.टी. और दूसरे कीटनाशकों के छिड़काव से आस जगी थी कि अब मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का सफाया हो जाएगा लेकिन वे ग्रामीण इलाकों ही नहीं बल्कि शहरी इलाकों में भी पूरी ताकत से हमला बोल रहे हैं। जहां मलेरिया को पहले ग्रामीण क्षेत्रों का रोग माना जाता था वहीं अब यह शहरी इलाकों का भी एक गंभीर रोग बन चुका है। हालांकि आज भी हमारे देश की कुल आबादी में से 80.5 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं जहां मलेरिया का खतरा सबसे अधिक है। मलेरिया के वैश्विक खतरे को देखते हुए प्रत्येक वर्ष 25 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस मनाया जाता है जिससे इस रोग की भयानकता और इससे बचाव का संदेश प्रचारित किया जा सके। इस वर्ष के मलेरिया दिवस का विषय ‘सदा के लिए मलेरिया का खात्मा’ है।

भारत में मलेरिया का प्रकोप सदियों से रहा है। चरक संहिता आदि प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख किया गया है। आज़ादी से पहले तक देश की लगभग एक चौथाई आबादी मलेरिया से प्रभावित होती थी। 1947 में भारत की 33 करोड़ आबादी में से 7.5 करोड़ लोग मलेरिया से पीड़ित हुए और 8 लाख लोग मारे गए हालांकि भारत में सन 1946 से डीडीटी का उपयोेग आरंभ हो गया था।
राष्ट्रीय कार्यक्रम
इस घातक रोग पर काबू पाने के लिए भारत सरकार ने 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम लागू किया। यह कार्यक्रम काफी सफल रहा और इससे मलेरिया के रोगियों की संख्या में कमी आई। इस कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित होकर सरकार ने 1958 में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शु डिग्री किया। डीडीटी आदि कीटनाशकों के छिड़काव में ढिलाई के कारण 1960 और 1970 के दशक में मलेरिया के मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ गई और 1976 में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के तहत देश भर में 60 लाख 45 हज़ार केस दर्ज किए गए। मलेरिया की रोकथाम के तमाम प्रयासों के कारण रोगियों की संख्या काफी घट गई लेकिन 1990 के दशक में यह रोग नई ताकत के साथ वापस लौट आया। इसकी वापसी के कारणों में मुख्य रूप से कीटनाशकों के लिए मच्छरों की प्रतिरोधकता एवं खुले स्थानों में मच्छरों की बढ़ती तादाद शामिल हैं।

नन्हे मच्छर, भयावह रोग
मलेरिया की समस्या के लिए ज़िम्मेदार जीव है नन्हा-सा मच्छर। मच्छर खतरनाक रोगाणु वाहक कीट हैं। एनॉफिलीज़ प्रजाति के मादा मच्छर मलेरिया फैलाते हैं। मादा मच्छर मनुष्य का खून चूसते हैं जबकि इसी प्रजाति के नर मच्छर फूलों आदि का रस चूसते हैं। असल में मलेरिया एक सूक्ष्म परजीवी प्लाज़्मोडियम के कारण होता है। इसकी चार प्रजातियों प्लाज़्मोडियम फाल्सिपेरम, प्लाज़्मोडियम वाइवैक्स, प्लाज़्मोडियम ओवेल और प्लाज़्मोडियम मलेरी से मनुष्यों को मलेरिया रोग होता है। इसकी पांचवीं प्रजाति प्लाज़्मोडियम नोलेसी ज़ुओनोटिक है। यानी, इससे मैकाक बन्दरों और मनुष्यों को मलेरिया होता है जो एक-दूसरे में फैल सकता है।
इस बात का पता 1880 में फ्रांसीसी चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंसे लेवेरान ने लगाया कि मलेरिया एक सूक्ष्म प्रोटोज़ोआ परजीवी के कारण होता है। लेकिन तब तक यह पता नहीं था कि यह परजीवी मनुष्यों के शरीर में कहां से आता है। इस रहस्य का पता लगाया 1898 में भारतीय सेना के चिकित्सक रोनाल्ड रॉस ने। उन्होंने सिकंदराबाद व कलकत्ता में मच्छरों पर लगातार परीक्षण किए और मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के आमाशय की परत में उभरे मस्सों से फूटते हंसिए के आकार के हज़ारों सूक्ष्मजीव देखे। वे मच्छर की लार ग्रंथियों में जा रहे थे। तब रॉस ने कहा कि मलेरिया के रोगाणु मनुष्यों के शरीर में मच्छर फैलाते हैं। रोनाल्ड रॉस को मनुष्यों के शरीर में मच्छरों द्वारा परजीवी पहुंचाने की खोज के लिए 1902 में और चार्ल्स लेवेरान को मलेरिया परजीवी की खोज के लिए 1907 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इस परजीवी सूक्ष्मजीव को एनॉफिलीज़ प्रजाति के मादा मच्छर फैलाते हैं। जब वे किसी मलेरिया के रोगी का खून चूसते हैं तो मलेरिया परजीवी यानी स्पोरोज़ॉइट उनकी लार ग्रंथियों में पहुंच जाते हैं। वहां से रक्त वाहिनियों के ज़रिए लिवर यानी यकृत में पहुंचते हैं। वहां परिपक्व होकर लाखों मेरोज़ॉइट बनाते हैं। वे रक्त प्रणाली में पहुंच कर लाल रक्त कोशिकाओं में लाखों की तादाद में बढ़ते हैं। 48 से 72 घंटे के भीतर वे लाल रक्त कोशिकाएं फट जाती हैं। इस तरह लाल रक्त कोशिकाएं बड़ी संख्या में नष्ट हो जाती हैं और मलेरिया का मरीज़ एनीमिया का शिकार हो जाता है। मलेरिया के मुख्य लक्षण हैं- एनीमिया, ठंड के साथ कंपकंपी, जूड़ी बुखार, ऐंठन, सिर दर्द, मल में खून, उल्टी, पसीना निकलना और बेहोशी। मलेरिया के लक्षण परजीवी के प्रवेश के बाद आम तौर पर 10 दिन से 4 सप्ताह के भीतर प्रकट हो जाते हैं। बुखार वगैरह हर 48 से 72 घंटे बाद प्रकट होते हैं।

कुनैन और मलेरिया
मलेरिया की पुरानी प्रचलित दवा कुनैन थी। इसे सिन्कोना के पेड़ की छाल से बनाया जाता था। 1943 में क्लोरोक्विन दवा की खोज हुई जिससे मलेरिया के उपचार में बहुत मदद मिली। मनुष्यों को मलेरिया से बचाने के लिए टीके की खोज भी जारी है। आनुवंशिकीविद मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के जीन्स में हेर-फेर करके ऐसे मच्छर तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं, जिनके शरीर में परजीवी जाना ही न चाहें या ऐसे मच्छर मनुष्य का खून न चूसना चाहें। वैसे हमारे देश में मलेरिया के उपचार के लिए व्यापक स्तर पर कार्य किया जा रहा है। केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान, लखनऊ ने भी कुछ समय पूर्व मलेरिया के इलाज के लिए ‘ई-माल’ तथा ‘आब्लाक्विन’ नामक औषधियों का विकास किया है। इसके अलावा अनेक संस्थाएं मलेरिया की नई दवाओं के विकास के लिए कार्यरत हैं।

मलेरिया की रोकथाम के लिए वैज्ञानिकों का ध्यान पुराने प्रचलित और प्राकृतिक तरीकों की ओर भी गया है। मच्छरदानियों को रसायनों में भिगा-सुखा कर काम में लाया जा रहा है। ऐसी दवा-बुझी मच्छरदानियों से कई विकासशील देशों में लोग मलेरिया की मार से बच रहे हैं। मच्छरों के लार्वा-भक्षी मछलियों की संख्या बढ़ाने पर भी बल दिया जा रहा है। इनके अलावा मेंढक और अन्य जलचर जीवों की संख्या बढ़ाने पर भी विचार किया जा रहा है। अर्थात पूरी दुनिया में मलेरिया से निपटने के विभिन्न उपाय खोजे जा रहे हैं। इस कार्य में हमें भी अपने घरों के आसपास पानी जमा नहीं होने देना चाहिए, साथ ही कूलरों में भी नियमित तौर पर पानी बदलते रहना चाहिए ताकि वहां मच्छर न पनप सकें। अब तो भारत सरकार भी स्वच्छता अभियान चला रही है। अत: मलेरिया से बचाव के लिए जागरूकता का प्रचार-प्रसार किया जाना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)