डॉ. रामप्रताप गुप्ता
इन दिनों पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन के गम्भीर परिणामों के प्रति चिन्तित है और इसके दुष्परिणामों का शिकार भी हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के मूल में सबसे बड़ा योगदान ऊर्जा उत्पादन में प्रयुक्त जीवाश्म पदार्थों जैसे कोयला, डीज़ल, पेट्रोल की बढ़ती खपत है, जिसके फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड आदि के उत्सर्जन में वृद्धि होती है। अत: जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से बचने के लिए ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश की जाने लगी है, उनका दोहन भी किया जाने लगा है।
परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में जीवाश्म पदार्थों का उपयोग नहीं होता है। अत: इसके उत्पादन से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होने से इससे जलवायु परिवर्तन की कोई आशंका नहीं रहती है। इसीलिए इसे स्वच्छ ऊर्जा या क्लीन एनर्जी भी कहा जाता है।
इन्हीं तर्कों से प्रभावित होकर तथा परमाणु ऊर्जा उत्पादन के प्रतिकूल प्रभावों की संभावनाओं को अनदेखा करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश में अनेक परमाणु ऊर्जा घरों की स्थापना की योजना बनाई थी ताकि देश के ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा के हिस्से को वर्तमान 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया जा सके। इस दिशा में आगे बढ़ने के प्रयास में वे अनेक परमाणु बिजली घरों का शिलान्यास भी करना चाहते थे, परन्तु स्थानीय जनता के विरोध और संघर्ष की पृष्ठभूमि में वे ऐसा नहीं कर सके। मनमोहन सिंह की सरकार के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार भी परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि की दिशा में प्रयासरत रहेगी, इसके साफ संकेत मिल रहे हैं।
भारत द्वारा परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि की इस नीति को विश्व के अन्य राष्ट्रों की परमाणु ऊर्जा नीति के परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा। विश्व के अधिकांश अन्य राष्ट्र परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि के प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इस दिशा में उन्हें भी अनेक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ रहा है। इसी वजह से विश्व के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का हिस्सा बढ़ नहीं पा रहा है, बल्कि गिर रहा है। वर्ल्ड न्यूक्लीयर इंडस्ट्री स्टेटस रिपोर्ट सन 2014 एवं 2015 के अनुसार परमाणु ऊर्जा का सर्वाधिक उत्पादन सन 2006 में हुआ था और परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करने वाली इकाइयों की संख्या सन 2002 में 438 थी जो अब गिरकर 391 ही रह गई है। परमाणु ऊर्जा घरों की आयु औसतन 28.5 वर्ष होती है। इस जानकारी से ऐसा लगता है कि जो परमाणु बिजली-घर समयातीत होते जा रहे हैं, उनके स्थान पर नयों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2015 में विश्व में 62 नए परमाणु ऊर्जा घरों का निर्माण हो रहा था जिनकी प्रस्तावित ऊर्जा उत्पादन क्षमता 59 गीगावाट थी। इनमें से 49 इकाइयां अकेले चीन में थी। इन सबका निर्माण कार्य समय से पीछे चल रहा था। सन 1996 में विश्व के कुल ऊर्जा उत्पादन में परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 17.6 प्रतिशत था, मगर परमाणु ऊर्जा घरों के समयातीत होने तथा नए निर्माण समय से पीछे चलने के कारण यह सन 2012 में गिरकर 10.8 प्रतिशत ही रह गया। बाद के तीन वर्षों में भी इस अनुपात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। उत्पादनरत परमाणु इकाइयों की संख्या सन 2002 में 438 थी जो अब तक की सर्वाधिक थी। वर्तमान में तो यह संख्या गिरकर 391 ही रह गई है।
परमाणु बिजली घरों के समयातीत होते जाने तथा नयों के निर्माण स्थलों पर होने वाले विरोध के कारण तथा नए प्रोजेक्ट्स का कार्य समय-योजना की तुलना में पिछड़ जाने के कारण परमाणु बिजली का कुल आपूर्ति में हिस्सा कम होता जा रहा है। इनके प्रस्तावित निर्माण स्थलों पर इनके विरोध के पीछे इनसे निकलने वाले विकिरण और उसका स्थानीय एवं आसपास की आबादी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव होने की आशंका तो थी ही, साथ ही जापान में फुकुशिमा परमाणु बिजली घर में विस्फोट के चलते दुर्घटनाओं की संभावनाओं ने इस विरोध को ताकत दी है।
फिर परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की प्रति इकाई लागत ऊर्जा के अन्य स्रोतों की तुलना में काफी अधिक होती है। परमाणु ऊर्जा इकाई की स्थापना करने और उसे चालू करने में काफी समय लगता है। वास्तविक निर्माण कार्य समय योजना की तुलना में पिछड़ते जाते हैं जिससे लागतों में और वृद्धि हो जाती है। जुलाई सन 2015 में निर्माणाधीन 59 गीगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता वाली 62 इकाइयों का निर्माण कार्य समय की दृष्टि से पिछड़ जाने के कारण उनकी लागतों में काफी वृद्धि हो गई थी। इन 62 इकाइयों में 49 चीन में थी और पिछले वर्षों में चीन की विकास दर में गिरावट के कारण उसके लिए आवश्यक निवेश जुटाना भी मुश्किल होता जा रहा है।
तकनीकी दृष्टि से नवीनतम और तीसरी पीढ़ी की परमाणु इकाइयों का कार्य भी इतना पिछड़ गया है कि अब निर्माण कंपनियों ने निर्माण की समय योजना देना ही बंद कर दिया है। पिछले कुछ वर्षों में विश्व के राष्ट्रों की गैर-जलविद्युत नवीकरणीय ऊर्जा में रुचि बढ़ी है। परमाणु ऊर्जा का सर्वाधिक उत्पादन करने वाले राष्ट्रों, जिनमें ब्राज़ील, चीन, जर्मनी, भारत, जापान, मेक्सिको, नेदरलैण्ड और स्पेन शामिल हैं, में नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परमाणु ऊर्जा से अधिक हो गया है। भारत में भी यही स्थिति है। अमेरिका में नवीनीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन सन 2000 में कुल का 8.5 प्रतिशत था, जो सन 2014 में 13 प्रतिशत हो गया है। ये आंकड़े प्रमाणित करते हैं कि इन वर्षों में सभी राष्ट्रों में नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन को प्राथमिकता प्रदान की जाने लगी है। सन 1997 में क्योटो जलवायु समझौते के पश्चात सन 2014 तक की अवधि में विश्व भर पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगभग 964 गीगावाट और सौर ऊर्जा के उत्पादन में लगभग 185 गीगावाट की वृद्धि हुई है।
जापान के फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में हुई दुर्घटना के बाद उसने अपने 51 में से 50 परमाणु बिजलीघरों में उत्पादन करना बंद कर दिया है। जर्मनी ने भी अपने सभी 17 परमाणु बिजली घरों को अंतत: बंद करने का निर्णय ले लिया है और 9 को तो बंद कर भी दिया गया है। चीन में निर्माणाधीन दो दर्जन परमाणु बिजली घरों का कार्य समय सीमा से काफी पीछे चल रहा है। फिर इन वर्षों में गैस की कीमतों में काफी गिरावट आ जाने से उससे निर्मित बिजली परमाणु बिजली की तुलना में काफी सस्ती हो गई है और परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में राष्ट्रों की रुचि कम होती जा रही है।
परमाणु ऊर्जा के लिए माहौल काफी प्रतिकूल होने की पृष्ठभूमि में वर्ल्ड इकानॉमिक आउटलुक ने टिप्पणी की है कि अब परमाणु ऊर्जा का उत्पादन उन राष्ट्रों में केन्द्रित होता जाएगा जहां बिजली की कीमत का निर्धारण प्रतिस्पर्धा के आधार पर नहीं, सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है और उसके लिए सरकारी अनुदान दिया जाता है। जिन राष्ट्रों में बिजली की कीमत का निर्धारण प्रतिस्पर्धा के आधार पर होता है, वहां परमाणु बिजली को गम्भीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
इसी संदर्भ में वर्तमान में भारत में परमाणु ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि की संभावनाओं पर नज़र डालना उपयोगी होगा। अगस्त 2015 में भारत सरकार ने संसद को बताया कि उसका सन 2032 तक परमाणु ऊर्जा के उत्पादन को 6,30,000 मेगावाट तक पहुंचाने का लक्ष्य यथावत है। यही बात अक्टूबर 2015 मेंे फिर दोहराई गई कि भारत-अमेरिका के बीच समझौते के फलस्वरूप अब भारत विदेशों में निर्मित परमाणु बिजलीघरों में प्रयुक्त होने वाली मशीनों का आयात कर सकेगा और इस तरह 6,30,000 मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य हासिल कर सकेगा। परन्तु जब हम सन 2008 से 2014 के मध्य की अवधि में परमाणु ऊर्जा के वास्तविक उत्पादन पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि इस अवधि में उत्पादन में मात्र 14,500 मेगावाट की ही वृद्धि है। फ्रांसीसी कंपनी अरेवा द्वारा जैतापुर में परमाणु ऊर्जा की स्थापना अब अटक गई है। कारण कि परमाणु ऊर्जा घरों के कारण क्षेत्र में संभावित क्षति का कोई दायित्व कंपनी का होगा या नहीं यह तय नहीं है। कंपनी ने संभावित क्षति का कोई दायित्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया है।
जैतापुर समझौते के साथ-साथ अमेरिकी कंपनी वेस्टिंगहाउस द्वारा गुजरात में मिथिलवर्दी और जी.ई.सी.कंपनी द्वारा आंध्र प्रदेश के कोवाड्डा में परमाणु बिजलीघरों की स्थापना पर भी आशंकाओं के अनेक बादल छा गए है। इसके पीछे भी यह प्रश्न था कि दुर्घटनाओं की स्थिति में क्षतिपूर्ति का दायित्व किसका होगा? परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष शेखर वासिल ने परमाणु ऊर्जा उद्योग को आश्वस्त तो किया है कि दुर्घटना की स्थिति में उपकरण निर्माताओं का कोई दायित्व नहीं होगा। इसके बावजूद परमाणु उपकरण निर्माता कंपनियां पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाई हैं। जी.ई.सी.कंपनी ने कहा है कि जब तक नागरिक परमाणु कानून में दायित्व के बारे में स्पष्ट नहीं हो जाता है, वह कोई निवेश नहीं करेगी। विदेशी परमाणु ऊर्जा कंपनियों का यह भी कथन है कि भारत में बिजली के क्षेत्र में प्रदत्त अनुदानों को भी कम किया जाना चाहिए, ताकि बिजली की कीमतें वास्तविक उत्पादन लागत के अनुरूप हो सके और परमाणु ऊर्जा की लागतों और अन्य स्रोतों से उत्पादित लागतों में अंतर कम हो सके।
भारत के परमाणु हथियारों के उत्पादन के कार्यक्रम में शामिल होने के कारण भारत के लिए परमाणु ऊर्जा इकाइयों एवं पदार्थों सम्बंधी व्यापार वर्जित है। इस समय भारत में अनेक नए परमाणु घरों के निर्माण का कार्य चल रहा है जो मुख्य रूप से देशी तकनीकों पर आधारित है। भारत में परमाणु बिजली घरों में प्रयुक्त युरेनियम का पर्याप्त स्रोत उपलब्ध नहीं है। भारत को प्रति वर्ष 1077 टन युरेनियम की आवश्यकता होती है परन्तु इसका उत्पादन मात्र 385 टन ही है।
हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान एन.एस.जी. के साथ हुए समझौते के पश्चात भारत अब युरेनियम का आयात कर युरेनियम की कमी को तो दूर कर सकेगा परन्तु भारत द्वारा युरेनियम के स्थान पर निर्माणाधीन परमाणु बिजली घरों में थोरियम आधारित ईंधन चक्र विकसित किया गया है। अत: युरेनियम की कमी पहले भी कोई समस्या थी ही नहीं।
इस समय भारत में निर्माणधीन 6 परमाणु बिजली घरों का कार्य चल रहा है। फुकुशिमा के 13 माह पश्चात 11 अप्रैल 2012 को इंडोनेशिया में समुद्र के तल में 8.5 रिएक्टर स्केल की शक्ति वाला भूंकप आया था जिसके कारण 30 फुट ऊंची समुद्री लहरें उठी थीं जो तमिलनाड़ु के तट तक पहुंची थी। चैन्नई के निकट कल्पक्कम स्थित परमाणु बिजलीघर उस समय बंद होने से देश भारी बरबादी से बच गया था। सुनामी के संभावित संकट वाले इलाकों में परमाणु बिजली घरों की स्थापना से हर समय संकट की संभावना बनी रहेगी, इसी को ध्यान में रखते हुए कुडनकूलम में परमाणु बिजली के निर्माण का भारी विरोध चल रहा है। इस विरोध की वजह से ही सोवियत संघ के सहयोग से चलने वाले इस परमाणु बिजलीघर का कार्य शु डिग्री नहीं हो सका। इसी बीच सोवियत संघ के विघटन के कारण इस योजना को बंद करना पड़ा। बाद में रूस के सहयोग से 950 मेगावाट उत्पादन क्षमता वाले बिजली घर के निर्माण का कार्य शु डिग्री किया गया जो पूर्ण हो गया है। ऐसे 4 परमाणु बिजलीघरों की योजना यहां प्रस्तावित है।
परमाणु बिजली घरों के सुरक्षा प्रावधानों की देखरेख का दायित्व परमाणु ऊर्जा नियमन आयोग का है। परमाणु ऊर्जा नियमन आयोग का कथन है कि परमाणु ऊर्जा इकाई के पास 60 दिनों के लिए सुरक्षित पानी का भंडार हमेशा रहना चाहिए ताकि भारी गर्म ईंधन इकाइयों को ठंडा किया जा सके। परन्तु इस प्रावधान का पालन नहीं किया जा रहा है। चूंकि परमाणु ऊर्जा नियमन आयोग परमाणु ऊर्जा निगम के अधीन ही कार्य करता है अत: यह आयोग निष्प्रभावी हो गया है। परमाणु ऊर्जा इकाइयों को सुरक्षा प्रावधानों के पालन के लिए बाध्य करने के लिए यह आवश्यक है कि परमाणु ऊर्जा नियमन आयोग को एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली संस्था के रूप में विकसित किया जाए। विशेषज्ञ समिति ने अनेक अन्य प्रश्न चिन्ह भी लगाए हैं जैसा कि परमाणु इकाई की स्थापना कमज़ोर चूने के पत्थरों की चट्टानों पर होना, संभावित सुनामी लहरों वाले क्षेत्र के निकट स्थित होना आदि। फिर परमाणु बिजली घरों से निकलने वाले अत्यंत गर्म पानी के कारण समुद्र में मछलियों की संख्या में कमी हो जाने से मछुआरों की आजीविका पर भी संकट आ जाता है।
इन प्रतिकूल प्रभावों की संभावना को देखते हुए प्रस्तावित निर्माण स्थलों पर अनेक आंदोलन खड़े हो रहे हैं। अरब सागर से लगे जैतापुर में स्थापित की जाने वाली 9900 मेगावाट की विशाल क्षमता वाली परमाणु ऊर्जा इकाइयों की स्थापना का भारी विरोध चल रहा है। जिन लोगों की भूमि अर्जित की जानी है, वे भूमि को किसी भी कीमत पर देने को तैयार नहीं है। इसी वजह से वहां परमाणु इकाई का निर्माण शु डिग्री नहीं हो पा रहा है।
भारत सरकार द्वारा परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की दिशा में निरन्तर प्रयासों के बावजूद इनकी सुरक्षा, बिजली की उच्च उत्पादन लागत, स्थानीय आबादी द्वारा इनके विरोध में चलाए जा रहे शक्तिशाली आंदोलनों की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि देश में ऊर्जा की बढ़ती मांग की आपूर्ति में परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की किसी प्रभावी भूमिका की संभावना नहीं है।
परमाणु ऊर्जा इकाइयों के प्रतिकूल पर्यावरण प्रभावों के कारण भी इन पर ऐतराज़ किए जा रहे हैं। इन कारणों से इनकी स्थापना में देरी तो हो ही रही है, साथ ही सरकार नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन की दिशा में अधिकाधिक प्रयास कर रही है। उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि निकट भविष्य में भारत सहित पूरे विश्व में ऊर्जा की बढ़ती आपूर्ति में परमाणु ऊर्जा की कोई ठोस भूमिका होने की कोई संभावना नहीं है। वर्तमान में भी यह पूरी तरह सरकारी अनुदान पर आधारित है। (स्रोत फीचर्स)