समाज को विकसित करने में इन समुदायों के शुरुआती योगदान के बारे में और पढ़ने के लिए  श्रम की गरिमा पुस्तक के कुछ 
अंश देखें।

हाथ से किए जाने वाले श्रम के प्रति होने वाले इस तरह के भेदभावपूर्ण रवैये को हमारी वर्तमान सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के नज़रिए से भी टटोलने की आवश्यकता है। आज वैश्वीकरण के समय में सरकार द्वारा निजी कम्पनियों और कॉर्पोरेटों को बढ़ावा देना भी लोगों के हाथ से काम छिन जाने का एक कारण है। इस तरह कहने को तो भारत की विकास दर बढ़ रही है, लेकिन साथ में गरीबी भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ रही है। इस मुद्दे को अमित भादुड़ी की What is the core of Economics? में बहुत अच्छे से उभारा गया है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच स्पष्ट विभाजन दिखाई देता है। जैसे-जैसे बच्चे बड़ी कक्षाओं में पहुँचते हैं उनमें हाथ से करने वाले श्रम को लेकर हीन भावना पनपने लगती है और वे बौद्धिक श्रम को ऊँचा और ज़्यादा सम्माननीय मानने लगते हैं। इस विभाजन को पाटने और बच्चों को श्रम के प्रति संवेदनशील बनाने में पाठ्यसामग्री एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। 


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) द्वारा 2005 में जारी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (NCF) के तहत काम और शिक्षा के महत्व पर Work and Education नाम से एक फोकस पेपर तैयार किया है। इसका एक अंश देखें –

नए पिटारा...
दिल्ली,  मुम्बई और बोकारो स्टील सिटी में पिटारा की शुरुआत हुई है। 
दिल्ली - संसर्ग एजुकेशनल ट्रस्ट, 12 ए/15 लेन 6, विजय मोहल्ला मौजपुरा व टीचर रिसोर्स सेंटर, डाइट, दरियागंज 
            अंसारी रोड, नई दिल्ली
बोकारो स्टील सिटी - द्वारा रेनू शर्मा, केबी-7, सिटी सेंटर, सेक्टर-4, बोकारो स्टील सिटी झारखण्ड - 827 004
मुम्बई - द्वारा वन्दना शेतकर, 16/8 बी, अश्लेषा, प्लॉट नं. 5-1, एन.एन.पी., गोरेगाँव (पूर्व)


इस बार चर्चा हाथ से किए जाने वाले श्रम की। अपनी कला व हुनर से कुछ नया गढ़ने के बाद भी हाथ से काम करने वाले श्रमिकों, कारीगरों को समाज में वो दर्जा नहीं मिला जिनके वो हकदार हैं। हालाँकि उनके कामों और उनके योगदान को सामने लाने के कुछेक प्रयास समय-समय पर हुए हैं। ऐसी ही कुछ कोशिशें एकलव्य ने भी अपने प्रकाशनों के ज़रिए की है। उन्हीं में से एक है कांचा आइलैया द्वारा लिखित किताब हमारे समय में श्रम की गरिमा। इसमें आदिवासियों, चर्मकारों, कुम्हारों, बुनकरों, धोबियों, नाइयों जैसी श्रम करने वाली जातियों और समुदायों के बारे में ज़िक्र है जिन्होंने शुरुआती विज्ञान और तकनीक को जन्म दिया। इसके बावजूद हमारे समाज के जातिगत ढाँचे में उनके श्रम को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। कांचा अपनी इस किताब में नाइयों के विज्ञान, उनकी कलाओं और हुनर की चर्चा करते हुए कहते हैं,

सभी को मज़दूर दिवस की मुबारकबाद! 
एकलव्य ने बाल वैज्ञानिक,  अपने हाथ विज्ञान,  कबाड़ से जुगाड़,  कुछ-कुछ बनाना,   अपना जुगाड़ी सूक्ष्मदर्शी जैसी किताबें प्रकाशित कर कुछ हद तक यह प्रयास किया है। इनमें अपने हाथों से काम करके आसपास की चीज़ों से मज़े-मज़े में काम की चीज़ें बनाने, प्रयोगों के ज़रिए विज्ञान को समझने, सवाल उठाने और जवाब खोजने को प्रोत्साहित करने वाली रोचक गतिविधियाँ दी गई हैं।
बाल काटने की वैज्ञानिक प्रक्रिया तो नाइयों ने ही विकसित की। आधुनिक युग के पहले नाइयों के अलावा किसी भी अन्य जाति के लोग बीमारियों से पीड़ित लोगों को नहीं छूते थे। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अस्तित्व में आने तक नाई ही कई छोटी-मोटी शल्यक्रियाएँ करते थे। शरीर के उस हिस्से पर जहाँ शल्यचिकित्सा होनी होती है, बालों की उपस्थिति के कारण संक्रमण हो सकता है। इसलिए शल्यक्रिया से पहले बालों को पूरी तरह साफ करना अनिवार्य होता है। यह चलन आज भी जारी है। अत: नाइयों ने अपने काम के अलावा विश्व के पहले चिकित्सकों और शल्यकर्मी की दोहरी भूमिका निभाई। 

इसी प्रकार नाई समुदाय की महिलाओं ने गाँवों में प्रसव करवाने की ज़िम्मेदारी निभाई है। उत्तर भारत में वे दाई कहलाती हैं और प्रसूति-विशेषज्ञ का काम करते हुए प्रसव में महिलाओं की मदद करती हैं। आज भी भारत में 50 प्रतिशत से ज़्यादा प्रसूतियाँ इन अति-कुशल ग्रामीण दाइयों द्वारा कराई जाती हैं।
We all know that India grew at around 8 percent for the last 20 years. The rest of the world grew at something around 3 percent in the last 20 years. So India grew at an impressive rate. Now you look at the data on poverty. You will see absolutely something striking and this will explain what I am trying to say. 20-25 percent of the poorest people in the world were in India in 1980. Since then, India has grown twice the world average. This means that rest of the world including sub-Saharan Africa reduced poverty faster than India though they grew slower. One way to link output growth with the question of inequality is to try to explain this. The rest of the world have reduced poverty faster and grown slower!
The exclusionary character of the education system in India is to a great extent founded on the artificially instituted dichotomy between work and knowledge (also reflected in the widening gap between school and society). Those who work with their hands and produce wealth are denied access to formal education while those who have aceess to formal education not only denigrate productive manual work but also lack the necessory skilतs for the same. The socio-economic, religio-cultural, gender and disability-related dimensions of this dichotomy have serious implications for education in India.
eklavya books
की गपशप
मई 2014
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