दुनिया में हम सब एक शरीर के साथ आते हैं। शरीर जो हमारी पहचान होता है। शरीर जिससे दूसरे लोगों के साथ हमारे रिश्ते तय होते हैं। हमारा शरीर अगर लड़की का है तो हम बहन, माँ, चाची, मामी, मौसी, पत्नी.. वगैरह वगैरह होती हैं। अगर शरीर लड़के का है तो भाई, पिता, मौसा, मामा, पति होते हैं। तो मामला है कि हम किस से कैसे जुड़ेंगे? क्या रिश्ता होगा? हम क्या पहनेंगे? क्या कैरियर चुनेंगे? क्या शौक रखेंगे? कैसे दोस्त बनाएँगे? यह सब हमारे शरीर की पहचान से तय होता है। यानी शरीर हमें हमारी सामाजिक पहचान देता है।
पर, हम दुनिया में केवल शरीर के साथ नहीं आते हैं। हमारा एक मन भी होता है। मन और दिमाग भी। मन और शरीर मिलकर हमें एक व्यक्तित्व देते हैं। सीधी भाषा में कहें तो अगर मन लड़का है तो शरीर भी लड़का ... और मन लड़की है तो शरीर भी लड़की पर, सोचो अगर कभी मन और शरीर का तालमेल बिगड़ जाए तो? तुम्हारा शरीर लड़के का हो और मन लड़की का । या इससे उलट तुम्हारा शरीर लड़की का हो और मन लड़के का । तो क्या होगा? यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे, कभी नमक और चीनी की बोतल के लेबल बदल दिए जाएँ। चीनी की बोतल पर नमक लिखा हो और नमक की बोतल पर चीनी! लेबल जो भी हो क्या इससे नमक और चीनी के स्वाद पर कोई फर्क पड़ता है?
ऐसा ही कुछ गुठली के साथ हुआ। गुठली एक लड़के के रूप में दुनिया में आई पर उसका मन लड़की का था। उसे हर उस चीज़ में रुचि थी जो उसकी उम्र की लड़कियों की होती है। गुठली को गुरूजी लड़कों की लाइन में खड़ा होने को कहते जब वो लड़कियों की लाइन में खड़ी होती थी। वो भी फ्रॉक पहनकर नाचना चाहती थी। गुड़ियों के साथ खेलना चाहती थी। भाई को राखी बाँधना चाहती थी। पर, उसे इस बात की इजाज़त नहीं थी क्योंकि उसकी सामाजिक पहचान लड़के की थी। किसी ने उसके मन के बारे में नहीं सोचा | माँ कभी-कभी प्यार से उसे “चिरैया” बुलाया करती थी। स्कूल में जब उसे चिढ़ाया जाता कि गुठली लड़की??” बस यही कुछ पल होते थे जब गुठली अपने मन की पहचान के साथ जी पाती थी। |
यह तो सोचने वाली बात है कि हम किसे ज़्यादा महत्व दें - शरीर की पहचान को या मन की? और यह भी कि हम किस तरह पहचाना जाना चाहते हैं? इसका हमें कोई हक है या नहीं? जब गुठली बहुत छोटी थी तब वह खुशमिज़ाज, बातूनी और बेबाक थी। जैसे-जैसे वो बड़ी होती गई सबने उसे उसके शरीर की पहचान का ज़्यादा अहसास दिलाया। इससे शरीर और मन में उलझी गुठली अपने आप में सिमट गई। और चुपचाप रहने लगी। बिना झिझके अपने बनाए गाने गाने वाली गुठली अब लोगों के बीच चुपचाप ही रहती। वो ज़्यादातर अकेले रहने की कोशिश करती। अकेले में उसे अपने शरीर की पहचान की एक्टिंग नहीं करनी पड़ती । वहाँ उसे कोई अहसास नहीं कराता कि वह लड़की नहीं लड़का है। लड़के की एक्टिंग करते हुए उसे लगता जैसे वो एक बड़े से ड्रम में कैद है। जिसमें चलना, उठना-बैठना... बात करना..नामुमकिन है। वो घण्टों अपनी बहन के कपड़े पहनकर बन्द दरवाज़े में नाचा करती। लेकिन लोगों के सामने वो अपनी सामाजिक पहचान” का मुखौटा लगाए रहती। ऐसा कर के गुठली खुश नहीं थी। पर, गुठली जानती थी उसे कोई समझ नहीं पाएगा। इसलिए गुठली ने अपनी सारी दुनिया अपने अन्दर बसा ली थी।
बचपन से बड़े होने तक जो चीज़ हमें सबसे ज़्यादा सिखाई जाती है वो है - मन को मारना। भले ही वो अपने शौक हों जो बड़ों को या दुनिया को नापसन्द हों, या अपनी रुचि के विषयों को छोड़कर उन विषयों को चुनना जो पिताजी चाहते हों । हम में से हर एक कभी ना कभी मन को मारता है। पर गुठली ने तय किया कि वो अपने मन को नहीं मारेगी। और उसी तरह जिएगी जैसा उसका मन है।
अगर तुम गुठली की जगह होते तो तुम्हें कैसा महसूस होता? या अगर तुम गुठली से किसी भी रिश्ते में जुड़े होते, तो क्या उसके मन की पहचान को महत्व देते? उसे समझने की कोशिश करते? या उसे सलाह देते कि मन की पहचान को भूलकर वो शरीर की पहचान के साथ जीना सीखे?
बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि गुठली के अन्दर एक भरापूरा पेड़ है, जिसके पत्तों से भरी शाखों पर चिड़ियों की चहचहाहट गूंजती है। पर जब तक हम गुठली को सिर्फ गुठली समझेंगे हम उसकी इस दुनिया का हिस्सा नहीं बन पाएँगे।
चित्र व डिज़ाइनः कनक
चकमक बाल विज्ञान पत्रिका अप्रैल 2010