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अलविदा, दिलीप जी
चित्र : दिलीप चिंचालकर
चकमक के डिज़ाइनर, चित्रकार व लेखक दिलीप चिंचालकर नहीं रहे। दिलीप जी की कमी तो हमेशा महसूस होगी। पर अपनी कला और लेखनी के ज़रिए वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे। चकमक के पाठकों के लिए जो अनमोल खज़ाना वह छोड़ गए है उसकी एक झलक और साथियों की उनसे जुड़ी कुछ यादें इस अंक में प्रस्तुत हैं।
मेरा दोस्त दिलीप चिंचा
लकर - अतनु राय
चित्र : तापोशी घोषाल“नई मंज़िलों की तलाश में अपनी नई दुनिया में सधी चाल चलते दिलीप के मुस्कराते चेहरे को मैं देख सकता हूँ...”
चित्रकार अतनु राय ने दिलीप जी के साथ गुज़ारे हुए लम्हों को याद किया है।
एक चित्रकार - तापोषी घोषाल
चित्र : दिलीप चिंचालकर
चित्रकार तापोशी घोषाल दिलीप जी को याद करते हुए लिखती हैं-
“जब भी मुलाकात होती दिलीप जी हर बार मुझे एक नई वेशभूषा में मिलते। कभी एक कॉमरेड की तरह, कभी एक चित्रकार के रूप में, तो कभी पड़ोस के घर के एक अति साधारण टोपी पहने पहाड़ी व्यक्ति के वेश में...”
लव यू दिलीप सर - अबीरा बंधोपाध्याय, शिवांगी, निहारिका, प्रशान्त सोनी
चित्र : अबीरा और मयूख घोष
रियाज़ चित्रकला अकादमी के शागिर्दों ने अपने मेंटर दिलीप जी से जुड़ी कुछ यादें साझा की है...
मेरे बगीचे का पीर, नीम बाबा - दिलीप चिंचालकर
चित्र : दिलीप चिंचालकर
“घर बनाने के लिए ज़मीन का यह टुकड़ा पिताजी ने इस नीम की साझेदारी में लिया था। आपसी समझ यह थी कि इधर नीचे हम रहेंगे और उधर तुम अपने कुनबे यानी झिंगुर, गिलहरियों, गिरगिट वगैरह के साथ बने रहना।”
दिलीप जी का यह लेख प्रकृति के साथ उनके करीबी रिश्ते को खूबसूरती से बयाँ करता है।
क्यों-क्यों
क्यों-क्यों में इस बार का सवाल था : “गोल चीज़ें लुढ़कती क्यों हैं?” इस सवाल के ढेरों जवाब हमें मिले। इनमें से कुछ आपको यहाँ पढ़ने को मिलेंगे, और साथ ही बच्चों के बनाए कुछ चित्र भी देखने को मिलेंगे।
तालाबन्दी में बचपन : लॉकडाउन में नानी - तनिष्का
चित्र : शुभम लखेरा
‘तालाबन्दी में बचपन’ यह नया कॉलम इस अंक से शुरू हो रहा है। इसमें हर माह दिल्ली की अंकुर संस्था से जुड़े किसी बच्चे का संस्मरण होगा। इस बार पढ़िए नौंवी कक्षा की तनिष्का के लॉकडाउन के समय का अनुभव...।
तुम भी जानो
जब महिलाएँ भी शिकार करती थीं, रीछ को भगाने का एक नया उपाय और नमक से बढ़ जाती है मिठास
एक पत्ते का जीवन – नेचर कॉन्ज़र्वेशन फाउंडेशन
देखने से लगता है कि पौधे दिन भर बस आराम से धूप सेंकते हैं, पर ऐसा है नहीं। इनके पत्ते कड़ी मेहनत कर रहे होते हैं। तो पत्ते आखिर दिन भर करते क्या हैं? और कैसे करते हैं? जानने के लिए पढ़िए...
बड़ों का बचपन : बचपन ...कुछ ही समय पहले - प्रोइति रॉय
'बड़ों का बचपन' नाम के इस कॉलम हर माह अलग-अलग लेखक अपने बचपन का कोई मज़ेदार, यादगार किस्सा हमारे साथ साझा करेंगे। इस बार चित्रकार प्रोइति रॉय ने अपने बचपन की कुछ यादें इन पन्नों पर सजाई हैं...
भूलभुलैया
कुत्ता-बिल्ली ढूँढ़ें रस्ता, बड़ी कठिन ये भूलभुलैया
छोटा धागा - नेहा बहुगुणा
छोटा धागा ज़ोर-से भागा...
नेहा की दिलकश चित्रकारी के साथ उन्हीं की एक कविता।
सारा और ज़ारा - मंजरी शुक्ला
चित्र : हबीब अली
दो बहनों की नोंकझोंक की एक मज़ेदार कहानी...
मेरा पन्ना
वाकया – मेला
वाकया – उपहार
कहानी – चिनी, मिनी और प्रताब बा
कविता – हम
कहानी – सुनहरा हिरण
और बच्चों के दिलकश चित्र...
एक ही हाण्डी के चटपटे, अट्टे-बट्टे - दिलीप चिंचालकर
दिलीपजी अपने एक दोस्त से मिलने महाराष्ट्र के एक आदिवासी अंचल में गए। दोस्त और उनकी पत्नी ने कुछेक कंदों को मिलाकर लेखक के लिए एक बड़ा ही चटपटा भोजन तैयार किया। दिलीप जी ने भोजन की रेसिपी के साथ-साथ उस मौके की कुछ तस्वीरें भी साझा की हैं।
99.9 मार दिए... - सुशील जोशी
आजकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स, कपड़े धोने के डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स, फर्श साफ करने, बरतन साफ करने, सब्ज़ियाँ धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जर्म्स को मारते हैं। क्या ऐसा वाकई में है? जानने के लिए यह आलेख पढ़िए...
अन्तर ढूँढ़ो
दिलीप जी के बनाए दो चित्र। सरसरी निगाह से देखने पर तो दोनों हूबहू एक-से दिखते हैं, लेकिन दोनों में कुछ अन्तर हैं।
माथापच्ची
कुछ मज़ेदार सवालों और पहेलियों से भरे दिमागी कसरत के पन्ने।
चित्रपहेली
चित्रों में दिए इशारों को समझकर पहेली को बूझना।
ग्रे स्लैंन्डर लोरिस – रोहन चक्रवर्ती
रात को जागने वाले और दिन में सोने वाले एक वानर की कुछ बातें, कार्टूनिस्ट रोहन की कूची से...