अरविंद गुप्ते

आमतौर पर हमारे आसपास के जीव-जंतुओं में नर-मादा का फर्क हम आसानी से कर पाते हैं क्योंकि इनमें लैंगिक द्विरूपता होती है। लेकिन कुछ ऐसे भी जीव हैं जिनमें नर-मादा का भेद कर पाना खासा कठिन है। क्यों होती है यह लैंगिक द्विरूपता और कुछ जीवों में क्यों होती है?

ज्ञान शिक्षकों की एक गोष्ठी राव में किसी ने यह प्रश्न उठा दिया कि क्या नर और मादा कौओं को भिन्न-भिन्न पहचाना जा सकता है? एक शिक्षिका ने कहा, “यह तो बहुत आसान है। जिसका रंग पूरी तरह काला होता है वह तो है मादा कौआ या कागली, और जिसके सिर और गर्दन पर राख जैसा रंग होता है। वह है नर।''
किंतु मामला इतना सरल नहीं है। पूरे काले रंग वाला और भूरे रंग वाला कौआ वास्तव में कौओं की दो अलग-अलग प्रजातियां हैं। इन दोनों में मादा और नर होते हैं किंतु इन्हें भिन्न-भिन्न पहचानना आसान नहीं होता।
नर और मादा को लेकर एक अलग प्रकार का भ्रम कोयल के बारे में होता है। इतने कवियों ने काली कोयलिया' का गुणगान किया है कि यह आम धारणा बन गई है कि वसंत ऋतु में कुहू-कुहू की रट लगाने वाली मादा कोयल होती है। वस्तुस्थिति यह है कि कुकने वाला, काले रंग का नर कोयल होता है; मादा का शरीर तो चितकबरा होता है यानी वह हल्के कत्थई रंग की होती है और उस पर सफेद धब्बे होते हैं। मादा कोयल कुक ही नहीं सकती, वह केवल किकू-किकू की आवाज़ कर सकती है।

यदि किमी प्रजाति के नर और मादा बाहर से देखने में भिन्न-भिन्न हों यानी उन्हें अलग-अलग पहचाना जा सके तो इसे लैंगिक द्विरूपता (सेक्सुअल ड्राइमॉर्फिज़म) कहते हैं। जैसा कि हम कौए में देख चुके हैं, जंतुओं की कुछ प्रजातियों में लैंगिक द्विपता होती ही नहीं है। जिन जंतुओं में लैंगिक द्विरूपता होती है उनमें नर और मादा की बनावट के अंतर के वावजूद यह तो पहचाना जा सकता है कि वे एक ही प्रजाति के जंतु हैं। किंतु कुछ प्रजातियों में इतनी अधिक लैंगिक द्विरूपता होती है कि नर और मादा भिन्न-भिन्न प्रजातियों के सदस्य लगते हैं। इसका उदाहरण हम कोयल में देख चुके हैं।

क्यों होती है लैंगिक द्विरूपता
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, लैंगिक द्विरूपता का संबंध नर और मादा लिंगों से यानी लैंगिक प्रजनन से है। मूल रूप से लैंगिक प्रजनन पूरी तरह एकल कोशिकाओं का खेल है। जंतु चाहे छोटे-से-छोटा हो या बड़े-से- बड़ा, उसकी शुरुआत अंडाणु नाम की एक कोशिका से होती है जो मादा के शरीर में स्थित एक ग्रंथि, अंडाशय में बनती है। किंतु अंडाणु से एक जीवधारी तब तक नहीं बन सकता जब तक उसका मिलन नर जंतु की वृषण ग्रंथि में बनी एक अन्य कोशिका, शुक्राणु से नहीं हो जाता। अंडाणु और शुक्राणु दोनों को युग्मक कहते हैं और इनके आपस में मिलने की प्रक्रिया को निषेचन।
अंडाशय और वृषण प्राथमिक प्रजनन अंग कहलाते हैं, प्रजनन तंत्र के शेष सभी अंगों को सहायक प्रजनन अंग कहते हैं।
केवल नर स्तनधारियों में प्राथमिक प्रजनन अंग यानी वृषण शरीर के बाहर एक थैली या वृषण-कोश में लटके होते हैं; और इनके कारण नर स्तनधारी को सरलता से पहचाना जा सकता है। शेष सभी जंतुओं में अंडाशय और वृषण शरीर के भीतर स्थित होते हैं। यदि कौए का विच्छेदन किया जाए तो उसके शरीर के भीतर अंडाशय या वृषण होने से उसके मादा या नर होने का पता तो चल ही जाता है, किंतु बाहर से देखने पर लैंगिक द्विरूपता नहीं होती।
अधिकांश जंतुओं में कोई-न-कोई सहायक प्रजनन अंग शरीर के बाहर स्थित होते हैं और इनकी सहायता से नर और मादा में अंतर किया जा सकता है।
कुछ जंतुओं में ऐसे लक्षण पाए जाते हैं जिनका प्रजनन से सीधा संबंध तो नहीं होता किंतु चूंकि ये लक्षण केवल मादा या नर में होते हैं इसलिए इनकी मदद से जंतु का लिंग पहचाना जा सकता है। मुर्गे के सिर पर पाई जाने वाली कलगी, नर कोयल का काला रंग, पुरुष की दाढ़ी-मूंछ और मादा स्तनधारी के स्तन इनके उदाहरण हैं। इन्हें गौण लैंगिक लक्षण कहते हैं।

प्रजनन की विविध विधियां
पानी में रहने वाले ऐसे जंतु, जिनकी शरीर रचना काफी सरल होती है, प्रायः अपने अंडाणुओं और शुक्राणुओं को पानी में छोड़ देते हैं।

नर और मादा मेंढक मैथुन की प्रक्रिया से गुजरते हुए। मादा को आकर्षित करने के लिए मौजूद स्वरकोष और मैथुन के दौरान मादा को पकड़कर रखने के लिए नर के अगले पंजे में बनी विशेष रचना - इन्हें आगे दिए चित्रों में दिखाया गया है।
 
चूंकि ये जंतु बड़ी संख्या में एक स्थान पर रहते हैं और प्रत्येक जंतु लाखों युग्मकों का निर्माण करता है, अनगिनत अंडाणु और शुक्राणु पानी में छोड़ दिए जाते हैं ताकि निषेचन सुनिश्चित हो सके। अंडाणुओं से निकलने वाले रसायन शुक्राणुओं को आकर्षित करते हैं और निषेचन की प्रक्रिया पानी में ही सम्पन्न हो जाती है। सहायक प्रजनन अंगों के रूप में इन जंतुओं को केवल एक ऐसी नलिका की आवश्यकता होती है जो युग्मकों को शरीर के बाहर निकाल सके। मादा की ऐसी नलिका को अंडवाहिनी और नर की नलिका को शुक्रवाहिनी कहते हैं।
भूमि पर रहने वाले जंतुओं में प्रजनन की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती। युग्मकों को शरीर के बाहर नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि वे जल के सुरक्षात्मक आवरण के बिना जीवित नहीं रह सकते। इस समस्या से निपटने के लिए भूमिचर जंतु दो तरीके अपनाते हैं। मेंढक और उनके संबंधी जंतु (वर्ग एम्फिबिया) अधिकांश समय रहते तो जमीन पर हैं, किंतु प्रजनन के लिए पानी में चले जाते हैं और अपने युग्मकों को पानी में छोड़ देते हैं। इस प्रकार युग्मक सूखने से सुरक्षित रहते हैं और निषेचन तथा निषेचन के फलस्वरूप बनने वाले भ्रूण के विकास की प्रक्रियाएं पानी में हो जाती हैं।

अधिकांश भूमिचर जंतुओं ने प्रजनन का अधिक सुरक्षित तरीका अपनाया है। अंडाणु मादा के शरीर में ही रहते हैं और नर अपने शुक्राणु मादा के शरीर में पहुंचा देता है। निषेचन की प्रक्रिया मादा के शरीर के अंदर, अंडवाहिनी में होती है। कुछ जंतु अपने भ्रूणों को कड़े कवच में लपेट कर शरीर के बाहर निकाल देते हैं। इन जंतुओं की अंडवाहिनी में ऐसी ग्रंथियां पाई जाती हैं जो अंडे के कवच का निर्माण करती हैं।
अन्य जंतुओं में मादा भ्रूण को अपने शरीर में तब तक रखे रहती है जब तक उसका विकास पूरा नहीं हो जाता। यह विकास गर्भाशय नाम के अंग में होता है।
अंडवाहिनी के साथ जुड़ी ग्रंथियां, गर्भाशय और उसके साथ जुड़ी ग्रंथियां, तथा अंडाशय को छोड़कर प्रजनन तंत्र के अन्य अंग मादा के सहायक प्रजनन अंग हैं।
नर जंतु के सहायक प्रजनन अंगों में शुक्रवाहिनी के अतिरिक्त ऐसे अंग शामिल होते हैं जो शुक्राणुओं को संचित करने के या शुक्राणुओं को मादा के शरीर में पहुंचाने के काम आते हैं। मादा के शरीर में शुक्राणुओं को पहुंचाने की क्रिया को मैथुन कहते हैं और कई जंतुओं में ऐसे अंगों का विकास होता है जो मैथुन के दौरान मादा को थामे रखने का काम करते हैं।
 
अरीढ़धारियों में लैंगिक द्विरूपता
जंतु जगत पर नजर डाली जाए तो लैंगिक प्रजनन करने वाले सभी समूहों में लैंगिक द्विरूपता किसी-न- किसी रूप में दिखाई देती है। कहीं-कहीं तो इसका काफी रोचक स्वरूप नज़र आता है।
केंचुए का बहुत दूर का संबंधी बोनेलिया ( फायलम एकियुरा ) नामक जंतु गहरे समुद्र में कीचड़ में धंसा रहता है। स्थिर प्रकृति के इस जंतु में नर और मादा के मिलने के लिए एक रोचक व्यवस्था की गई है।
बोनेलिया का लार्वा स्वतंत्र रूप से समुद्र में तैरता रहता है और इस समय इसका लिंग निर्धारित नहीं होता। वयस्क बनने से पहले लार्वा समुद्र के तल की ओर बढ़ता है। यदि वह तल तक पहुंच जाए तो वह मादी बन जाता है; किंतु लार्वा यदि किसी मादा की फैली हुई भुजाओं पर गिर जाए तो वह नर बन जाता है और मादा के शरीर पर स्थाई रूप से परजीवी के रूप में रहता है।
मादा बोनेलिया को अपने जीवनसाथी को परजीवी के रूप में हमेशा ढोने का कठिन काम करना पड़ता है, किंतु इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि प्रजनन के समय उसके अंडाणुओं को निषेचित करने के लिए शुक्राणु मिल ही जाएंगे।

नर मादा बोनेलियाः समुद्र में रहने ले बोनेलिया का नर आकार में छोटा होने के साथ-साथ पूरी तरह जीवी होता है। इसे अपनी ज़रूरतों लिए मादा पर आश्रित होना पड़ता बोनेलिया लार्वा के नर या मादा। ने का फैसला ही इस बात से तय करता है कि वह मादा की भुजाओं में गिरता है या समुद्र की तली पर।

जोड़ीदार टांगों वाले जंतु (फायलम आथ्रोपोड़ा) संसार में बहुत अधिक संख्या में और बड़ी विविधता में पाए जाते हैं। इनके विभिन्न वर्गों में भिन्न-भिन्न प्रकार की लैंगिक द्विरूपता पाई जाती है। केकड़ों में प्रायः नर की अगली टांगें मादा की अगली टांगों की तुलना में अधिक बड़ी होती हैं। इनका उपयोग मैथुन के समय मादा को थामने और शुक्राणुओं को उसके शरीर में स्थानांतरित करने के लिए किया जाता है।

कीट वर्ग (इनसेक्टा) में नर और मादा के उदर के पिछले भाग में प्रजनन से संबंधित अलग-अलग अंग पाए जाते हैं, और इनके कारण बाहर से देखकर नर और मादा की पहचान करना संभव हो जाता है। कुछ कीटों में लैंगिक द्विरूपता का एक अतिरिक्त कारण होता है। इन प्रजातियों के नर, मादा को आकर्षित करने के लिए तेज आवाज़ पैदा करते हैं। किंतु रोचक बात यह है कि यह आवाज़ मुंह या गले से नहीं निकलती। नर के पंख या टांग पर ऐसी रचना होती है जिसे शरीर पर रगड़ने पर आवाज़ पैदा होती है, अतः इसे ‘घर्षण नाद' कहते हैं। चूंकि मादा में यह अंग नहीं होता, नर को आसानी से पहचाना जा सकता है।

आथ्रोपोड़ा समूह में ही सम्मिलित मकड़ियों में लैंगिक द्विरूपता मुख्य रूप से नर और मादा के बीच आकार के अंतर में होती है। कुछ प्रजातियों में मादा मकड़ी नर से काफी बड़ी होती है। उसे मैथुन के लिए प्रेरित करने के लिए नर उसके सामने नृत्य करता है। इसके फलस्वरूप वह नर को अपने पास तो आने देती है, किंतु मैथुन के तुरंत बाद यदि नर फुर्ती दिखा कर भाग न जाए तो वह उसे खा भी जाती है।

सीप और घोंघों में बाहर से देखकर नर और मादा में अंतर कर पाना कठिन होता है, किंतु इसी समूह फायलम मॉलस्का में सम्मिलित समुद्री जंतु ऑक्टोपस में स्पष्ट रूप से लैंगिक द्विरूपता पाई जाती है। नर और मादा दोनों की आठ-आठ भुजाएं होती हैं, किंतु नर की एक भुजा का अगला सिरा चौड़ा हो जाता है और इसका उपयोग मैथुन के समय मादा के शरीर में शुक्राणु पहुंचाने के लिए किया जाता है। विशेष कार्य के लिए परिवर्तित इस भुजा को हेक्टोकोटाइलस कहते हैं।
अब तक हम बिना रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं में लैंगिक द्विरूपता के कुछ उदाहरण देख चुके हैं। रीढ़ की हड्डी वाले जंतुओं में भी इसी प्रकार की विविधता पाई जाती है।
 
   
नर-मादा फिडलर केकड़ाः
दोनों की तुलना करें तो नर केकड़े की अगली टांग बड़ी होती है। इन टांगों का इस्तेमाल नर जनन के दौरान मादा को थामे रखने के लिए करता है।
कीट वर्ग के नर-मादाः कीट वर्ग में नर और मादा की पहचान उनके पेट के पिछले हिस्से में दिखाई देने वाले जनन अंगों की मदद से हो जाती है।
नर ऑक्टोपसः यूं तो नर और मादा ऑक्टोपस दोनों में ही आठ-आठ भुजाएं होती हैं। लेकिन नर ऑक्टोपस की आठ भुजाओं में से एक भुजा का अगला सिरा काफी चौड़ा होता है।इसका उपयोग मैथुन के समय मादा के शरीर में शुक्राणु पहुंचाने के लिए किया जाता है।
नर शार्क के आलिंगकः नर शार्क के शरीर की निचली सतह पर छड़नुमा विशेष रचना होती है जिसे आलिंगक कहा जाता है। मादा के शरीर पर यह रचना नहीं होती।

रीढ़धारियों में लैंगिक द्विरूपता
मछलियां प्रायः अपने युग्मकों को पानी में छोड़ देती हैं और निषेचन भी मादा के शरीर के बाहर ही होता है। इसके कुछ अपवाद भी होते हैं। शार्क मछलियों और उनके संबंधियों में शरीर की निचली सतह पर छड़ के समान दो आलिंगक होते हैं जिनका उपयोग मैथुन के समय मादा को थामने और शुक्राणुओं को उसके शरीर में पहुंचाने के लिए किया जाता है।
घोड़े के समान मुंह होने के कारण एक मछली का नाम समुद्री घोड़ा (सी हॉर्स) पड़ा है। इस मछली में लैंगिक द्विरूपता का एक रोचक स्वरूप पाया जाता है। नर के पेट पर एक थैली होती है जिसमें मादा अपने अंडे छोड़ देती है। ये अंडे और इनसे निकलने वाले बच्चे पिता की इस जेबनुमा थैली में सुरक्षित रहते हैं। बच्चे कुछ बड़े होने पर थैली से बाहर आकर पानी में तैरते रहते हैं, किंतु खतरे की आहट पाते ही वापस थैली में चले जाते हैं।

बोनेलिया के समान व्यवस्था गहरे समुद्र में रहने वाली कुछ मछलियों में भी पाई जाती है। ये मछलियां गहरे समुद्र में ऐसे स्थान पर रहती हैं जहां सूर्य का प्रकाश कभी पहुंचता ही नहीं है। ऐसी गहराइयों में नर और मादा का एक-दूसरे को ढूंढ पाना लगभग असंभव होता है। अतः नर चाहे प्रजनन के लिए परिपक्व हो या न हो, संयोग से मिलने वाली किसी भी मादा के शरीर पर चिपक जाता है और जीवन भर उस पर परजीवी के रूप में रहता है।
उभयचर वर्ग एम्फिबिया का सबसे परिचित जंतु मेंढक है। पानी और जमीन दोनों स्थानों पर रह सकने के कारण इन्हें उभयचर कहते हैं। प्रजनन काल में मादा को आकर्षित करने के लिए नर मेंढक टर्राते हैं। टने की आवाज़ पैदा करने के लिए नर मेंढक के गले में दो थैलीनुमा रचनाएं या स्वरकोश होते हैं। इसी प्रकार, मैथुन के समय मादा को मजबूती से पकड़ने के लिए नर की अगली टांगों की एक उंगली फूली रहती है।
 
लिनोफ्रिन नर-मादा: गहरे समुद्र में रहने वाली लिनोफ्रिन मछलियों के साथ समस्या यह है कि नर या मादा को ढूंढ पाना टेढ़ी खीर है। इसलिए जैसे ही किसी नर को मादा दिख जाती है वह तुरंत उसके शरीर से चिपक जाता है और सारी उम्र परजीवी बना मादा के शरीर पर निवास करता है। नर को अपने शरीर से चिपकाए घूमने में मादा की समस्या भी हल हो जाती है, जब भी प्रजनन का समय आता है उसके पास नर लिनोफ्रिन उपलब्ध होता है।

सांप, कछुए, मगर, छिपकलियां, आदि जंतु सरीसृप वर्ग (रेप्टीलिया) कहलाते हैं। इनमें आमतौर पर लैंगिक द्विरूपता नहीं पाई जाती है। अतः नाग और नागिन को पहचान पाने के सपेरों के दावे को शक की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। कई सपेरे तो धामिन सांप (जो सांपों की एक अलग प्रजाति है) को ही नागिन कह देते हैं। यह बात जरूर है कि नर सांप के जनन छिद्र के आसपास उंगलियों से दबाव डालने पर उसके दो अर्ध-शिश्न (हेमिपेनिस) दिखाई देते हैं। किंतु दूर से देखकर नर और मादी में अंतर कर पाना संभव नहीं होता।

पक्षियों में लैंगिक द्विरूपता के बारे में पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अधिकांश पक्षियों के शरीर विविध रंगों से सजे रहते हैं जिसके कारण लैंगिक द्विरूपता में बहुत अधिक विविधता पाई जाती है। दूसरे, अधिकांश पक्षी दिनचर होते हैं और उड़ने के स्वभाव के कारण इन्हें सरलता में देखा जा सकता है। मोटे अनुमान से कहा जा सकता है कि पक्षियों की लगभग आधी प्रजातियों में लैंगिक द्विरूपता होती है और शेष में नर और मादा एक समान दिखते हैं।
पक्षियों की जिन प्रजातियों में लैंगिक द्विरूपता होती है उनमें आमतौर पर नर का रंग चटख और आसानी में दिखाई पड़ने वाला होता है, या पूंछ या सिर पर बड़े पिच्छ होते हैं, या सिर पर कलगी होती है। इसे सारी सजावट का उद्देश्य मादा को आकर्षित करना होता है। इसके विपरीत, मादा का रंग मटमैला और परिवेश से मिलता-जुलता होता है ताकि उसे आसानी से न देखा जा सके। अंडों पर वैठ कर उन्हें मेती हुई, बच्चों की देखभाल करती हुई मादा को आक्रमणकारी जंतु आसानी से शिकार बना सकते हैं। अतः छुपाने वाला रंगरूप ही उसके हित में होता है। पक्षियों की जिन प्रजातियों के रंग भड़कीले नहीं होते या बड़े पिच्छों या कलगियों जैमी सजावट के अंग नहीं होते, उन्हें प्रायः मुरीले स्वर की देन होती है; ताकि वे गायन के द्वारा मादा को आकर्षित कर सकें।

कुछ नर पक्षी मादा को रिझाने के लिए नाचते या अन्य हावभाव करते हैं। इसका सबसे परिचित उदाहरण कबूतर है। प्रजनन काल में नर कबूतर अपने गले के पिच्छ फुलाकर मादा के सामने नृत्य करता है। ऐसे पक्षियों की मादाएं प्रायः अधिक संकोची और शर्मिली होती हैं।
लैंगिक द्विरूपता के अभाव में होने वाली कठिनाई का बहुत रोचक उदाहरण पेंगुइन नामक पक्षी में पाया जाता है जो दक्षिण ध्रुवीय प्रदेशों में हज़ारों के झुंडों में रहते हैं। लैंगिक द्विरूपता न होने के कारण वे आपस में भी नहीं पहचान सकते कि कौन नर है और कौन मादा। नर पेंगुइन कर्कश आवाज निकाल सकता है किन्तु वह न गा सकता है, न नाच सकता है। कर्कश आवाज़ मादा भी निकालती है। ऐसे में जब किसी नर पेंगुइन को घर बसाने की इच्छा होती है तब वह एक कंकड़ चोंच में उठा कर चल पड़ता है और अपने झुंड के दूसरे पेंगुइन को देने की पेशकश करता है। यदि दूसरा पेंगुइन लड़ने पर उतारू हो जाए तो पहला पेंगुइन समझ जाता है कि उसने भयंकर भूल कर दी है और दूसरे नर के सामने प्रेम प्रस्ताव रख दिया है। यदि दूसरा पेंगुइन उसे दिए जा रहे कंकड़ को पूरी तरह अनदेखा कर दे तो पहला पेंगुइन समझ जाता है कि उसने ऐसी मादा से संपर्क किया है। जो या तो प्रजनन के लिए तैयार नहीं है या किसी अन्य नर की हो चुकी है। यदि दूसरा पेंगुइन ऐसी मादा हो जो पहले पेंगुइन का प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार है तो वह कंकड़ को अपनी चोंच में उठा लेती है और दोनों मिलकर परिवार बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं।

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, वाह्य जननांगों और स्तनों के कारण स्तनधारी जंतुओं में लैंगिक द्विरूपता होती ही है। कुछ प्रजातियों में लैंगिक द्विरूपता के अन्य लक्षण भी होते हैं।
पुरुषके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ होती है और उसकी आवाज़ मोटी होती है, जबकि स्त्रियों में ये दोनों लक्षण नहीं होते। नर सिंह (बब्बर शेर) के सिर और गर्दन पर लंबे बाल होते हैं जो मादा में नहीं पाए जाते। नर नीलगाय का रंग मादा की तुलना में बहुत अधिक गहरा होता है, उसके सिर पर दो सींग पाए जाते हैं और गले पर दाढ़ी के समान बालों का गुच्छा होता है। मादा का रंग हल्का कत्थई होता है और उसके सिर पर न सींग होते हैं, न गले पर बालों का गुच्छा।

लैंगिक द्विरूपता का विकास
जंतु जगत में व्यापक रूप से पाई जाने वाली लैंगिक द्विरूपता के कुछ उदाहरण हमने देखे। इससे यह तथ्य उभरता है कि लैंगिक प्रजनन करने वाले जंतुओं में प्रजनन से संबंधित भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए अलग-अलग प्रकार से लैंगिक द्विरूपता का विकास हुआ है।

1. मादा तक पहुंचना - जो जंतु गहरे समुद्र के समान ऐसे स्थानों पर रहते हैं जहां नर और मादा के मिलने की संभावना बहुत कम हो तो नर स्थाई रूप से मादा के शरीर पर परजीवी के रूप में रहता है, जैसा हम बोनेलिया और लिनोफ्रिन में देख चुके हैं। यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या मादा परजीवी के रूप में नर के शरीर पर रह सकती है? जीव-शास्त्र की दृष्टि से इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक ही हो सकता है। अंडाणु और शुक्राणु दोनों युग्मक कहलाते हैं, फिर भी इन दोनों कोशिकाओं में काफी गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर होता है। अंडाणु में पोषक पदार्थ संचित होते हैं और उसका आकार शुक्राणु की तुलना में सैकड़ों गुना बड़ा होता है। स्वाभाविक ही है। कि अंडाशय का आकार भी वृषण की तुलना में बड़ा होता है।

छोटे आकार का वृषण छोटे आकार के नर के शरीर में समा सकता है, किंतु बड़े आकार के अंडाशय को शरीर में धारण करने के लिए यह जरूरी है। कि मादा का आकार भी बड़ा हो। स्पष्ट है कि यदि नर का आकार छोटा हो सकता है, और यह जरूरी है कि मादा का आकार बड़ा हो, तो नर ही मादा के शरीर पर परजीवी के रूप में रह सकता है। जैसा कि बोनेलिया और लिनोफ्रिन के चित्रों से स्पष्ट है, मादा के शरीर पर परजीवी के रूप में रहने वाले नर में वृषण को छोड़कर शेष अंगों का अपविकास यानी ह्रास हो जाता है ताकि उन्हें मादा के शरीर से कम-से-कम भोजन लेने की आवश्यकता पड़े।

2. मादा को आकर्षित करना - मादा को आकर्षित करने के लिए नरों में विभिन्न प्रकार की युक्तियों का विकास हुआ है। रात के अंधेरे में अपनी उपस्थिति का विज्ञापन करने के लिए झींगुर और नर मेंढक आवाज़ का सहारा लेते हैं किंतु पक्षियों के समान दिनचर जंतु मादा को प्रभावित करने के लिए दृश्य और श्रव्य दोनों तरीके अपनाते हैं। या तो नर के रंग चटख होते हैं, या उसके शरीर का कोई भाग सामान्य से अधिक बड़ा होता है, या फिर वह हाव-भाव के द्वारा (जिसे हम नाच या नृत्य कहते हैं) अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करता है। जब किसी ऊंचे स्थान पर बैठ कर नर अपनी तान छेड़ता है तो वह दूसरे नरों को अपने क्षेत्र की सूचना भी देता है और साथ ही यह चेतावनी भी कि वे उसके क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास न करें।

3. दूसरे नरों को खदेड़ना - जंतु जगत में लैंगिक प्रजनन की प्रक्रिया प्रायः प्रतिस्पद्धात्मक होती है और नरों के बीच मादा पर अधिकार जमाने की होड़ रहती है। अधिकतर यह होड़ शांतिपूर्ण होती है। यदि कोई नर पक्षी किसी ऊंचे स्थान से गाकर यह घोषणा कर दे कि कोई क्षेत्र उसका है तो आमतौर पर दूसरे नर उसके क्षेत्र में घुसपैठ नहीं करते। नर स्तनधारी प्रायः पेड़ों, पत्थरों, आदि पर अपनी गंध छोड़ कर अपनी क्षेत्र की सीमा निर्धारित कर देते हैं। अन्य नर इस सीमा का सम्मान करते हैं। फिर भी यदि एक मादा के लिए दो नरों में लड़ाई की नौबत आ ही जाए तो सींग, अयाल, रंग आदि लक्षण उनके काम आते हैं।
हिरन के सींग ऐसे समय हथियार का काम करते हैं। किंतु यह लड़ाई केवल पहलवानों की जोर आजमाइश की तरह होती है और शायद ही कोई योद्धा गंभीर रूप से घायल होता है। नर के सिर और गर्दन पर अयाल होना और उसका रंग गहरा होना, उसे अधिक डरावना और खतरनाक दिखने में सहायक होते हैं ताकि शत्रु यथासंभव लड़ने से पहले ही डर कर भाग जाए।

4. मैथुन के समय मादा को जकड़े रखना - नर केकड़ों, कीटों और मेंढकों में ऐसे अंग पाए जाते हैं जो मैथुन क्रिया के समय मादा को जकड़े रखने में सहायक होते हैं।

5. शुक्राणुओं की मादा के शरीर में पहुंचाना - प्रजनन की प्रक्रिया में यह बड़ी महत्वपूर्ण कड़ी होती है क्योंकि शुक्राणु इतने नाजुक और संवेदनशील होते हैं कि उन्हें नर के शरीर से मादा के शरीर में पहुंचाना एक चुनौती पूर्ण काम होता है।
इस काम को पूरा करने के लिए विभिन्न समूहों के नर जंतुओं में विशिष्ट अंगों का विकास हुआ है और इनकी सहायता में नर को पहचाना भी जा सकता है। नर ऑक्टोपस का हेक्टोकोटाइलस, नर शार्क का आलिंगक और नर स्तनधारी का शिश्न ऐसे अंगों के उदाहरण हैं।

6. बच्चों की सुरक्षा और उनका पोषण - समुद्री घोड़े का भ्रूणकोष बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए बनी संरचना है। आत्मनिर्भर होने तक बच्चे भ्रूणकोष में रहते हैं। इसके विपरीत, मादा स्तनधारी की स्तनग्रंथियां विशुद्ध रूप से शिशु के पोषण के लिए होती हैं। इस प्रकार के अंगों को प्रजनन की प्रक्रिया से सीधा संबंध न भी हो तो भी इनके कारण लैंगिक द्विरूपता तो होती ही है।

7. अन्य कारण - इन सबके अलावा लैंगिक द्विरूपता के और भी कई कारण हो सकते हैं। कई बार ऐसा होता है। कि अगर शरीर के किसी अंग में कुछ बदलाव हो रहे हों तो उस वजह से साथ-साथ कुछ अन्य अंगों में भी परिवर्तन होने लगते हैं।
मान लीजिए किसी प्रजाति के नर में कुछ अंदरूनी परिवर्तन हो रहे हैं। संभव है कि अंदरूनी अंगों में हो रहे इन बदलावों के कारण बाहरी स्वरूप पर भी प्रभाव पड़ रहा हो और उस में भी परिवर्तन होने लगे। ये परिवर्तन एक तरह से अकारण ही हैं। इनके बारे में जानना इसलिए भी जरूरी है। कि कहीं यह बात दिमाग में न बैठ जाए कि किसी भी प्रजाति में होने वाले सब परिवर्तनों के पीछे कुछ न कुछ कारण होता ही है। यानी कि यह जरूरी नहीं है कि हर प्रजाति में पाई जाने वाली लैंगिक द्विरूपता का कोई न कोई कारण हो ही।


अरविंद गुप्तेः प्राणी शास्त्र के पूर्व प्राध्यापक। एकलव्य के होशंगाबाद वेज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं।