स्निग्धा दास
लेख की शुरुआत दो अनुभवों से करती हूँ। पहला अनुभव उन दिनों का है जब होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम चल रहा था। उन दिनों स्कूली बच्चे अपनी जिज्ञासाएँ सवालीराम को खत लिखकर भेजते थे। एक बच्चे ने अपना सवाल लिख भेजा - सवालीराम जी, घी का स्वाद कैसा होता है? सवाल का जवाब क्या दें, यह समझ में नहीं आ रहा था। हमारे चार बुनियादी स्वाद - मीठा, कड़वा, नमकीन और खट्टा, इनमें से कोई भी स्वाद नहीं होता घी में। बच्चे को कैसे समझाया जाए कि वसा में इनमें से कोई स्वाद नहीं होता। खान-पान की वस्तुओं में ज़ायका (फ्लेवर) महत्वपूर्ण होता है। और ज़ायका सिर्फ ज़ुबान से नहीं बल्कि इसमें नाक की भूमिका भी होती है। खाना गरम है या ठण्डा, पदार्थ किस तरह के रेशों से बना है आदि बातें भी स्वाद का अहसास कराने में मदद करती हैं। उस समय मैं खुद को बड़ी ऊहापोह में फँसा हुआ महसूस कर रही थी।
दूसरा अनुभव, पिछले साल के एक शिक्षक प्रशिक्षण का है। शिक्षकों के साथ जीभ के विभिन्न हिस्सों की अलग-अलग स्वादों के प्रति संवेदनशीलता का परीक्षण चल रहा था। उद्देश्य यह था कि इसे करते हुए शिक्षक खुद ही महसूस कर पाएँ कि मोटेतौर पर जीभ के सभी हिस्से स्वाद के बुनियादी प्रकारों के प्रति संवेदनशील हैं। साथ ही, यह भी उम्मीद थी कि टंग मैप - जीभ के पाठ्य-पुस्तकीय मानचित्र (जिस में जीभ के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग स्वाद ग्रन्थियों को दर्शाया जाता है) पर बहस की शुरुआत हो पाएगी। हम अपने अवलोकनों की विविधता के आधार पर स्वाद के नक्शे के वजूद पर सवाल उठा सकेंगे, कुछ सार्थक चर्चा कर पाएँगे।
इस प्रशिक्षण का अनुभव बताता है कि जीभ का यह चित्र बरसों से दिमाग में इस तरह रच-बस गया है कि प्रयोग के दौरान मिले विरोधाभासी अवलोकन या परिणाम भी शिक्षकों को नहीं चौंकाते। विरोधाभासी परिणाम पाकर शिक्षक यह मान लेते हैं कि प्रयोग के दौरान सावधानी न बरतने से ऐसा हुआ होगा। शायद यही वजह है कि हम जीभ के मानचित्र की निरर्थकता पर कोई चर्चा नहीं कर पाए।
इन दो अनुभवों के बाद शुरुआत करते हैं जीभ के इस भ्रामक मानचित्र से (देखिए चित्र)। जीभ के मानचित्र की उत्पत्ति हुई जर्मन वैज्ञानिक डी.पी. हेनिंग के अवलोकनों से। हेनिंग ने कुछ स्वयं-सेवकों के साथ किए प्रयोगों से निष्कर्ष निकाला कि जीभ के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग स्वाद को पहचानने वाली स्वाद ग्रन्थियों की संवेदनशीलता में अन्तर है। 1901 में प्रकाशित उनके शोध में मीठे, कड़वे, खट्टे और नमकीन स्वाद के लिए संवेदनशील स्वाद ग्रन्थियों की स्थिति को दर्शाया गया था।
जर्मन भाषा में प्रकाशित उनके शोध पर 1942 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एडविन बोरिंग की निगाह पड़ी। बोरिंग ने हेनिंग के शोध और आँकड़ों को ध्यान से देखा और स्वाद ग्रन्थियों की इस संवेदनशीलता को ग्राफ के रूप में दिखाने की कोशिश की। ऐसा माना जाता है कि गफलत यहीं से शु डिग्री हुई। कम संवेदनशीलता को असंवेदनशील मानकर जीभ पर अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग स्वाद ग्रन्थियों की मौजूदगी की अवधारणा बन गई।
स्वाद का तंत्र - इन्सानी जीभ पर आम तौर पर दिखाई देने वाली चार रचनाएँ या उभार यहाँ दिखाए गए हैं - सर्कमविलेट पेपिला, फंजीफॉर्म पेपिला, फोलिएट पेपिला और फिलीफॉर्म पेपिला। पेपिला यानी उभार। इनमें से सर्कमविलेट और फंजीफॉर्म पेपिला में ही स्वाद ग्रन्थि पाई जाती है। शेष दो का सम्बन्ध खाद्य पदार्थ के स्पर्श और रेशों को महसूस करने से है।
भोजन को चबाते समय उसके रसायन, जिन्हें टेस्टेंट कहा जाता है, स्वाद कलिकाओं के छेद से होकर भीतर प्रवेश करते हैं और अँगुलीनुमा रचना - माइक्रोविली - से अन्तर्क्रिया करते हैं। माइक्रोविली स्वाद कोशिकाओं की सतह पर मौजूद होते हैं। इस अन्तर्क्रिया की वजह से स्वाद कोशिका के भीतर विद्युत रासायनिक परिवर्तन होते हैं और एक संकेत दिमाग की ओर भेजा जाता है। इस संकेत और गन्ध कोशिकाओं से मिले संकेतों (ज़ायका) को मिलाकर दिमाग स्वाद के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है।
विज्ञान के सन्दर्भ ग्रन्थों, पाठ्य-पुस्तकों आदि में लगातार प्रकाशित होने की वजह से स्वाद मानचित्र लोगों के दिलो-दिमाग में भी पैठ कर गया। साफ-साफ कहा जाए तो एक गलत तथ्य को बढ़ावा दिया गया था।
ऐसा नहीं है कि चार स्वाद वाला नक्शा सभी को उचित लग रहा था। 1974 में पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय (पेनसिल्वेनिया) की वर्जीनिया कोलिंग्स ने इस विषय पर बाकायदा शोधकार्य किया और बताया कि वे हेनिंग की इस बात से सहमत हैं कि चार बुनियादी स्वाद के प्रति जीभ पर संवेदनशीलता में अन्तर है, लेकिन यह अन्तर बेहद मामूली या ‘इनसिग्निफिकेंट’ है।
वे अपने शोधकार्य में टेस्ट रिसेप्टर के काम और स्वाद की सूचना को दिमाग तक पहुँचाने के तरीके पर विचार करते हुए इस बात को सिरे से खारिज करती हैं कि अलग-अलग स्वाद के लिए जीभ पर अलग-अलग स्थानों पर तयशुदा स्वाद ग्रन्थियाँ मौजूद हैं।
जीभ के स्वाद नक्शे पर हमेशा से ही वैज्ञानिक बिरादरी की भृकुटियाँ तनी हुई थीं। लेकिन इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात है, स्वाद को महसूस करने की प्रणाली को समग्र रूप से समझ पाना।
स्वाद कलिकाएँ
स्वाद कोशिकाओं से मिलकर बनी स्वाद कलिकाएँ (टेस्ट बड) जीभ, तालू, गले तक फैली हुई हैं। यदि आप इन्हें देखना चाहते हैं तो अपनी जीभ पर दूध की कुछ बूंदें टपकाकर उन्हें जीभ पर फैल जाने दीजिए। फिर शीशे में जीभ पर उभरी हुई संरचनाएँ देखने की कोशिश कीजिए। जामुन खाने या रंगा-रंग बर्फ का गोला खाने के बाद भी जीभ रंगीन हो जाती है और रंगीन जीभ पर स्वाद कलिकाएँ आसानी से दिखाई दे जाती हैं। लेकिन ज़्यादा बेहतर होगा अगर आप अपने किसी दोस्त की जीभ को हैंड-लेंस की मदद से देखकर स्वाद कलिकाओं को पहचानने की कोशिश करें।
उम्मीद है, आप जीभ पर कई सारी दानेदार, उभरी हुई रचनाएँ देख पाएँगे। इन्हें स्वाद कलिका कहते हैं। क्या जीभ पर स्वाद कलिकाओं के अलावा भी कुछ और रचनाएँ जैसे - लहरदार, मोड़नुमा, गहरी लकीरें आदि दिखाई देती हैं? यदि थोड़ा गौर करेंगे तो जीभ के पिछले हिस्से की सतह पर उभरे हुए हिस्से कुछ मोड़दार से दिखते हैं।
खैर, जो दानेनुमा उभार आप अपनी जीभ पर आसानी से देख पाएँगे उनका व्यास लगभग 1 मिलीमीटर के आस-पास होगा। मोटेतौर पर स्वाद कलिका प्याज़ के आकार जैसी संरचना है, जो 50-100 स्वाद कोशिकाओं से मिलकर बनी है। इन पर अँगुलियों जैसी रचना वाले माइक्रोविली होते हैं। माइक्रोविली स्वाद कोशिका की बाहरी सतह पर स्थित होते हैं। स्वाद कलिका के ऊपरी हिस्से में एक छेद होता है।
जब भी हम कुछ खाते हैं तो खाद्य पदार्थों के रसायन लार में घुलकर स्वाद कलिका के छिद्र के मार्फत माइक्रोविली के सम्पर्क में आते हैं। जो भी रसायन स्वाद कलिका के सम्पर्क में आता है वह या तो स्वाद कोशिका की सतह पर मौजूद टेस्ट रिसेप्टर (प्रोटीन) से या छेददार प्रोटीन (आयन चैनल) से अन्तर्क्रिया करता है। इसके कारण स्वाद कोशिका के भीतर मौजूद विविध आयनों के सान्द्रण में बदलाव आते हैं और स्वाद कोशिका दिमाग की ओर, एक संकेत भेजती है जिसे समझकर दिमाग पदार्थ का स्वाद बताता है। साथ ही, वह पदार्थ खाने योग्य है अथवा नहीं, इसका निर्णय करता है। हालाँकि, अक्सर दिमाग पूर्व संग्रहित सूचनाओं के आधार पर ही, हमें क्या खाना है और क्या नहीं खाना है, यह तय कर लेता है। जीभ को कष्ट नहीं देता।
स्वाद की पहचान
भोज्य पदार्थ के रसायनों और स्वाद कोशिकाओं के बीच की अन्तर्क्रिया के फलस्वरूप दिमाग की ओर भेजे गए विद्युत रासायानिक संकेत को दिमाग मीठे, नमकीन, खट्टे, कड़वे और यूमामी स्वाद के रूप में पहचानता है। यहाँ पाँचों स्वाद के लिए अलग-अलग जैवरासायनिक मार्ग दिखाए गए हैं। वैसे यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि ये सभी चित्र समझ के लिए हैं। हकीकत में एक स्वाद कोशिका इस तरह ट्यूण्ड या प्रोग्राम्ड नहीं होती है कि वह सिर्फ एक ही स्वाद के लिए उद्दीप्त हो।
नमकीन स्वाद: सोडियम क्लोराइड के सोडियम आयन स्वाद कोशिका तक पहुँच जाने के पश्चात कोशिका के भीतर पहुँचने के लिए माइक्रोविली के आयन चैनल का रास्ता चुन सकते हैं। या कोशिका के बाइसोलेटरल (किनारे पर स्थित) चैनल वाला रास्ता भी पकड़ सकते हैं। सोडियम आयनों के एकत्रित होने से कोशिका में डिपोलराइज़ेशन की स्थिति निर्मित होती है। इस स्थिति में कैल्शियम आयन अन्दर प्रवेश करके कोशिका को एक रासायनिक संकेत भेजने का सन्देश देते हैं। नर्व कोशिका ग्रहण करके इसे दिमाग की ओर भेज देती है। कोशिका से पोटेशियम आयन बाहर निकलकर कोशिका को पहले की तरह पोलेराइज़ कर देते हैं।
खट्टा: खट्टे स्वाद का कारण है हाइड्रोजन आयन का निर्माण होना। ये आयन स्वाद कोशिका से तीन तरह से अन्तर्क्रिया करते हैं। पहला, आयन सीधे-सीधे कोशिका में प्रवेश कर जाते हैं। दूसरा, माइक्रोविली पर पोटेशियम चैनल को रोककर। तीसरा, माइक्रोविली पर अन्य चैनल खोलना ताकि अन्य धनावेशित आयन भीतर प्रवेश कर पाएँ। धन आवेशों के एकत्रित होने से कोशिका डिपोलेराइज़ हो जाती है और नर्व कोशिका की ओर एक संकेत भेजा जाता है। | मीठापन: शक्कर या कृत्रिम मीठा स्वाद पैदा करने वाले पदार्थ कोशिका के भीतर प्रवेश नहीं करते। बल्कि ये कोशिका की ऊपरी सतह पर मौजूद जी-प्रोटीन अणु से बन्ध बना लेते हैं। जी-प्रोटीन अल्फा, बीटा और गामा तीन इकाइयों से मिलकर बना होता है। जी-प्रोटीन अपनी इकाइयों को अल्फा और बीटा-गामा की टीम में टूटने के संकेत देता है। ऐसा होते ही कोशिका में एन्ज़ाइम क्रियाशील हो जाता है। पोटेशियम चैनल बन्द हो जाता है और नर्व कोशिका की ओर एक संकेत पहुँचता है। |
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कड़वापन: कुनैन जैसे पदार्थ भी जी-प्रोटीन के मार्फत काम करते हैं। इस मामले में एंडोप्लाज़्मिक रेटिक्युलम से कैल्शियम आयन छोड़ा जाता है। फलस्वरूप कोशिका डिपोलेराइज़ होती है और एक संकेत नर्व कोशिका की ओर जाता है। | एमीनो एसिड (यूमामी): ग्लुटामेट जैसे पदार्थ ही यूमामी स्वाद के लिए ज़िम्मेदार हैं। ग्लुटामेट जी-प्रोटीन से जुड़ते हैं, और कोशिका के भीतर द्वितीय सन्देश चल पड़ता है। अभी यूमामी के बारे में हम इस तरह की मोटी बातें ही जानते हैं। इस स्वाद के सन्दर्भ में कोशिका के भीतर और क्या-क्या होता है, किस तरह होता है, यह सब जानना अभी भी बाकी है। मांस, मछली और लेग्युम्स के प्रोटीन को बनाने वाले 20 अमीनो अम्ल में से एक है ग्लुटामेट। |
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जीभ की फितरत
जैसा कि आपने देखा कि स्वाद कलिकाएँ पूरे मुँह में फैली हुई हैं। हर कलिका ढेर सारी स्वाद कोशिकाओं से मिलकर बनी है। इनमें से हरेक कोशिका उन रसायनों को प्रत्युत्तर देती है जो मीठे, नमकीन, कड़वे, खट्टे और युमामी की संवेदना पैदा करें। कोई भी स्वाद कोशिका सिर्फ और सिर्फ किसी एक उद्दीपन को प्रत्युत्तर नहीं देती; बल्कि पाँच में से एक के लिए सबसे ज़्यादा प्रत्युत्तर देती है और बाकी चार के लिए कम।
कई अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि मीठे और कड़वे स्वाद में स्वाद की गुणवत्ता और रसायनों की क्लास (समूह) के बीच कोई सहसम्बन्ध नहीं दिखाई देता। उदाहरण के लिए कई कार्बोहाइड्रेड शुरुआत में ही मीठा स्वाद देते हैं (उदाहरणत: पोहा), लेकिन कई कार्बोहाइड्रेट ऐसा नहीं करते। इससे भी आगे बढ़ें तो कई अलग-अलग रसायन एक जैसी संवेदना पैदा करते हैं; जैसे क्लोरोफॉर्म, सेकरिन एवं कृत्रिम स्वीटनर की रासायनिक संरचना शक्कर के जैसी न होने के बावजूद ये तीनों जीभ पर मीठे पदार्थ की संवेदना पैदा करते हैं। जबकि खारे और खट्टे पदार्थों में ऐसा कम देखने में आता है। इसकी यह वजह बताई जाती है कि खारेपन और खट्टेपन का अहसास करवाने वाले रसायन सीधे ही कोशिका के आयन-चैनल से जुड़ जाते हैं। लेकिन मीठे और कड़वे के मामले में रसायन कोशिका की सतह पर मौजूद ग्राहियों से जुड़ते हैं। फलस्वरूप कोशिका के भीतर संकेतों की ब्रिगेड भेजी जाती है जिसकी वजह से आयन चैनल को खोलने और बन्द करने की कवायद हो पाती है। संकेतों की ब्रिगेड के प्रमुख अणु को जी-प्रोटीन के नाम से जाना जाता है।
हर ज़ुबान का अपना स्वाद, अपना ज़ायका |
जी-प्रोटीन की भूमिका को पहचानने के लिए मारगोल्सकी और उनके साथियों ने दो चूहों पर प्रयोग किए। इनमें से एक चूहे में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से मीठे और कड़वे की पहचान के लिए ज़िम्मेदार जी-प्रोटीन की कमी कर दी गई। अवलोकनों से मालूम हुआ कि बदलाव किया गया चूहा मीठे भोजन को प्राथमिकता नहीं देता, और कड़वे भोजन को लेना टालता भी नहीं। वह मीठा पानी पीने के लिए लालायित नहीं है लेकिन कड़वे पानी को साधारण पानी की तरह पी रहा है। बदलाव वाले चूहे की स्वाद कलिकाओं से दिमाग की ओर जाने वाली नर्व का अध्ययन करने पर यह भी समझ में आया कि मीठे और कड़वे पदार्थों के लिए विद्युतीय प्रत्युत्तर में कमी आई थी। परन्तु खारे और खट्टे के लिए नर्व में विद्युतीय प्रत्युत्तर सामान्य चूहे जितना ही था।
स्वाद पर नए शोध
पिछले तीस साल में हरेक प्रकार की स्वाद कलिकाओं के न्यूरॉन और न्यूरॉन समूहों के कार्य को समझने की कोशिश चल रही है। टेस्ट न्यूरॉन पर किए गए शोधकार्य से यह अवधारणा काफी पुख्ता हुई है कि वे वैसे तो विविध स्वाद उद्दीपनों को प्रत्युत्तर देते हैं लेकिन मीठे, नमकीन, कड़वे, खट्टे में से किसी एक को ज़बरदस्त प्रत्युत्तर देते हैं।
जब एक ही न्यूरॉन अलग-अलग आयाम का संकेत दिमाग की ओर भेजता है तो दिमाग इसे किस तरह से पढ़कर स्वाद के सही निर्णय तक पहुँच पाता होगा? क्या दिमाग विविध स्वाद न्यूरॉन्स से किसी स्वाद के लिए मिले इम्पल्स के पैटर्न के आधार पर स्वाद की पहचान करता है या कोई और तरीका अपनाता है?
अभी भी, न्यूरॉन की कार्य प्रणाली को गहराई से समझना बाकी है। इससे स्वाद प्रणाली की पूरी तस्वीर साफ-साफ उभर सकेगी। स्वाद की पुख्ता समझ से आने वाले समय में नए, कृत्रिम मिठास वाले पदार्थ खोज पाना आसान हो जाएगा और नमक व वसा के विस्थापन योग्य पदार्थों को विकसित करने एवं फूड प्रोसेसिंग जैसे कार्यों को गति मिलेगी।
स्निग्धा दास: पाँच साल एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम में काम करने के बाद अब गंगटोक की सिक्किम मनिपाल यूनिवर्सिटी के डिस्टेंस एज्यूकेशन प्रोग्राम से जुड़ी हैं।