मुकेश मालवीय
बच्चे का दिमाग कोरी स्लेट नहीं होता जिस पर कोई भी इबारत लिख दी जाए। स्कूल में दाखिला लेने वाले बच्चे अपने साथ बहुत-सा ज्ञान लेकर आते हैं। यह ज्ञान कुछ जानकारी और कुछ अनुभव के रूप में होता है जो उसे अपने परिवेश से मिलता है। परिवेश -- जहाँ वह रहता है, जिनके साथ खेलता है और जिनके भी सम्पर्क में आता है। बच्चे का यह पूर्वज्ञान किताबों में दी गई नई जानकारियों को समझने और उन्हें अपनी क्षमता अनुरूप ग्रहण करने में काफी मदद कर सकता है।
माध्यमिक कक्षाओं का शिक्षक हूँ। इन कक्षाओं में एक अध्याय होता है जिसमें बच्चों को पृथ्वी से सम्बन्धित तमाम जानकारियाँ पढ़ाई जाती हैं पर अक्सर इनमें से कई जानकारियाँ उनके अनुभव से मेल नहीं खातीं। जैसे:
1. पृथ्वी एक ग्रह है।
2. पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल का तीन भाग पानी और एक भाग ज़मीन है।
3. पृथ्वी गोल है।
4. पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है।
5. पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
6. पृथ्वी के धुरी पर घूमने के कारण दिन-रात बनते हैं।
इस तरह की और भी कई जानकारियाँ हैं जिन्हें समझने-समझाने की कोशिश में अगर हम केवल अवलोकन और अनुभव का सहारा लें तो विवाद होगा ही होगा। तो क्या इस मामले में बड़ों व पुस्तकों की बात मान लेना ही सिर्फ एक रास्ता बचता है? आइए, एक उदाहरण देखते हैं कि ऐसे में और क्या विकल्प हो सकते हैं।
पृथ्वी का आकार
एक दिन कक्षा में पृथ्वी के आकार पर बातचीत हुई।
“सोचो, पृथ्वी कितनी बड़ी होगी।”
बच्चों ने कहा, बहुत बड़ी है। एक बच्चे ने कहा कि पूरी दुनिया इसमें आ जाती है। एक ने कहा, आकाश जितना बड़ा है उतनी बड़ी है पृथ्वी।
पृथ्वी बहुत बड़ी है, यह बात तो सच है पर सिर्फ इतना कह भर देने से तो बात नहीं बनती। ऐसे में इस बड़ी पृथ्वी का अन्दाज़ करने के लिए हमने जगह की समझ के कुछ अनुभवों पर बातचीत की। इसके लिए मैंने पहावाड़ी गाँव जहाँ यह स्कूल है, को पैमाना बनाया क्योंकि अपने अनुभव के रूप में यह क्षेत्रफल ही बच्चों के लिए सबसे करीब और जाना-पहचाना था।
“हमारा गाँव कितना बड़ा है?”
यह अनुमान बना कि हमारा गाँव लगभग दो किलोमीटर लम्बा तथा तीन किलोमीटर चौड़ा है जिसमें घर, खेत, नदी, कुएँ, खाली जगह आदि हैं। यानी गाँव लगभग छ: वर्ग किलो-मीटर क्षेत्र का है।
“क्या हम अन्दाज़ लगा सकते हैं कि हमारे गाँव जैसे कितने गाँव पृथ्वी में आ सकते हैं?”
यह बच्चों के लिए रोमांचकारी था और उन्हें कुछ-कुछ खेल-सा लग रहा था। बच्चों का अन्दाज़ा बढ़ते-बढ़ते 1000 तक पहुँचा। इस हिसाब से हमने गणना की तो पृथ्वी का क्षेत्रफल 6000 वर्ग किलोमीटर हुआ।
पृथ्वी का सही क्षेत्रफल लगभग 51,00,00,000 वर्ग किलोमीटर है। और हम तो महज़ 6000 वर्ग कि.मी. ही पहुँच सके थे, ऐसे में गणना का स्वरूप ही बदलना पड़ा। हमने गणना करके पता लगाया कि पृथ्वी पर पहावाड़ी जैसे 6 वर्ग किलोमीटर के 8,50,00,000 गाँव आ सकते हैं। यह जानना बच्चों के लिए आश्चर्यजनक था। अब बच्चों की यह बहुत बड़ी पृथ्वी कुछ और बड़ी हो गई थी। साथ ही उन्होंने गणना का तुलनात्मक तरीका भी सीखा जिसका आगे भी इस्तेमाल हुआ।
पर हमें यह भी मालूम है कि पृथ्वी पर सब जगह ज़मीन नहीं है, इसके बहुत बड़े हिस्से में पानी है। मैंने बच्चों को बताया कि गणना के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि पृथ्वी के कुल ज़मीन वाले क्षेत्र से पानी वाला क्षेत्र तीन गुना अधिक है।
इन दोनों हिस्सों के क्षेत्रफल का अनुमान भी हमने हमारे गाँव के क्षेत्रफल से तुलना करके लगाया।
यहाँ के बच्चों ने समुद्र तो देखा नहीं है, ऐसे में समुद्र की समझ के लिए किताबों में छपे समुद्र के चित्रों का सहारा लिया गया।
अब मैं आसान से लगने वाले एक ज़्यादा मुश्किल सवाल पर था कि पूरी पृथ्वी की आकृति कैसी है?
इस सवाल का जवाब सभी बच्चों के पास था कि पृथ्वी गोल है। यह सूचना आधारित जवाब था जो उनकी पाठ्यपुस्तकों में भी दिया गया है। पाठ्यपुस्तकों में तो गोल पृथ्वी के चित्र भी होते हैं। पर क्या वास्तव में बच्चों की समझ में भी पृथ्वी गोल है? इसे समझने और बोध के लिए हमने कुछ परिस्थितियों पर बातचीत की।
“हम अपने चारों तरफ कहीं भी जाएँ पृथ्वी सपाट ही दिखती है, तो हम यह कैसे मानें कि पृथ्वी गोल है? पृथ्वी गोल है इसका क्या आधार है?”
बच्चों ने कहा, “हमने सुना है पृथ्वी गोल है। पर हमको लगता है कि पृथ्वी चपटी है।”
कुछ देर की बातचीत से मुझे एक तरीका सूझा। तरीका एक प्राथमिक प्रश्न था - हम कैसे पता करते हैं कि कोई वस्तु गोल है या चपटी?
मैंने एक किताब ली और पूछा, “यह गोल है या चपटी?”
बच्चों ने कहा, “चपटी।”
“क्यों?”
“इसकी सतह चपटी है।”
अब मैंने प्लेट ली। बच्चों ने इसे गोल कहा।
“क्यों?”
बच्चे - इसका किनारा गोल है।
मैं - पर सतह तो इसकी चपटी है।
बच्चे - हाँ।
मैं - तो क्या हमारी पृथ्वी गोल है? और क्या वह प्लेट की तरह गोल है?
बच्चे - हमें पृथ्वी के किनारे देखकर पता चल सकता है कि पृथ्वी गोल है।
मैं - पर पृथ्वी के किनारे कैसे देखें? पृथ्वी तो बहुत बड़ी है।
कुछ देर में एक बच्ची ने कहा कि चिड़िया देख सकती है। इसी तर्क के आधार पर दूसरे ने कहा, हवाई-जहाज़ से देख सकते हैं। इन बातों का निष्कर्ष यह था कि पृथ्वी से ऊपर जाकर, जहाँ से पूरी पृथ्वी दिखाई देती हो, यह पता चल सकता है कि पृथ्वी गोल है या नहीं।
यहीं मुझे याद आया कि इसी तरह के प्रश्नों वाला एक लेख मैंने ‘शैक्षणिक संंदर्भ’ पत्रिका में पढ़ा था। घर आकर मैंने ‘संदर्भ’ का वह अंक खोजा। दीपक वर्मा के इस लेख से पृथ्वी को गोल बनाने में हमें बहुत मदद मिली। इस लेख के अनुसार, कई सालों तक लोग यही मानते थे कि पृथ्वी चपटी है, और उसके ऊपर उल्टे कटोरे की तरह आकाश रखा है।
इसमें छपे चित्रों को बच्चों को दिखाते हुए हमारी चर्चा आगे बढ़ी।
“अगर पृथ्वी को हम प्लेट की तरह चपटा और गोल मान लें, तब क्या परेशानी होगी?”
हमने एक प्लेट लेकर इन प्रश्नों पर संवाद किया।
“क्या पृथ्वी के किनारे से आगे जाने पर नीचे गिर जाएँगे?”
“पृथ्वी के किनारे तो हर तरफ पानी है, इस पानी को कौन रोके हुए है?”
इस प्रश्न के जवाब में बच्चों का तर्क यह था कि पृथ्वी की गोलाई में चारों तरफ पहाड़ होने ही चाहिए जो पानी को रोके हैं।
“यह चपटी पृथ्वी टिकी किस पर है?”
इस सन्दर्भ में हमारी बात इस पर भी हुई कि पृथ्वी के नीचे क्या है और चपटी पृथ्वी कितनी मोटी होगी।
इन सवालों पर तर्क करते हुए हमने एक कटोरी लेकर कटोरीनुमा पृथ्वी की परिकल्पना पर बातचीत की।
सन्दर्भ सामग्री की मदद से हमने यह जाना कि पुराने समय में लोगों ने किस तरह से यह पता लगाया कि पृथ्वी गोल है। उन दिनों कुछ लोगों ने आसमान और पृथ्वी के अवलोकन ध्यान से किए जैसे, चाँद के आकार में बदलाव के अवलोकन; सूर्य का प्रतिदिन पूर्व से निकलकर पश्चिम में अस्त होना और अगले दिन फिर पूर्व से निकलना; चन्द्रग्रहण के रहस्यों का अवलोकन। वहीं कुछ लोगों ने आसमान की बजाय पृथ्वी के समुद्र पर दूर जाते हुए जहाज़ का अवलोकन किया। इन अवलोकनों से पृथ्वी के गोल होने के तर्क की पुष्टि हुई।
इस तरह प्रत्यक्ष अनुभव, तर्क एवं प्रश्न-प्रतिप्रश्न के ज़रिए उभरे चिन्तन तथा सन्दर्भ सामग्री के साथ संवाद के सहारे हमने पृथ्वी के गोल होने की जानकारी कुछ नज़दीक से समझनेे की कोशिश की।
यहाँ मैं यह दावा नहीं कर रहा हूँ कि कक्षा में इस चर्चा की मदद से पृथ्वी के गोल होने के सच से बच्चों को आत्मसात कराया जा सका या नहीं, पर बच्चों ने यह अवश्य जाना कि उनके पूर्वज्ञान का भी महत्व होता है। साथ ही यह भी कि किताबों में दी गई जानकारियाँ कोई दैवीय सच नहीं हैं बल्कि उनकी ही तरह सोचकर, उनका सत्यापन करके ही स्थापित की गई हैं जिनमें से कई बातों को अनुभव के सहारे समझा जा सकता है। इस उम्र के बच्चों के साथ ज्ञान के निर्माण में प्रत्यक्षीकरण एवं संवाद के अवसर उपलब्ध करना निश्चित ही सहायक होता है।
मुकेश मालवीय: शासकीय माध्यमिक शाला, पहावाड़ी में शिक्षक हैं।