मार्टिन गार्डनर (1914-2010) [Hindi PDF, 445 kB]
मार्टिन गार्डनर 96 साल की उम्र तक सक्रिय बने रहे। जीवन के अन्तिम दिनों में भी मार्टिन गार्डनर लिखने व सम्पादन के कई प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक के लिए हमने चार पत्रिकाओं द्वारा उनके साथ लिए गए साक्षात्कारों का सहारा लिया है।
स्केप्टिक : संशयवादी आन्दोलन में हमारी चिन्ता इस बात को लेकर होती है कि ऊटपटांग विश्वासों को लेकर स्थिति कितनी ‘खराब’ है। मसलन, 1980 के दशक के मुकाबले क्या आज हालात कुछ बेहतर हुए हैं?
मार्टिन गार्डनर: मुझे नहीं मालूम कि मैं इसका क्या जवाब दूँ। कई लिहाज़ से तो हमने अच्छी-खासी प्रगति की है, लेकिन किन्हीं मामलों में हम उलटी ही दिशा में चले गए हैं। मसलन, आज के इस युग में ज्योतिष में विश्वास रखने वालों की तादाद 19वीं शताब्दी के मुकाबले तो पक्के तौर पर बढ़ी ही है। आप यदि सौ बरस पुराने अखबार खंगालें तो बमुश्किल ही आपको उनमें कोई ज्योतिष का कॉलम मिलेगा, और अब आलम यह है कि ऐसा अखबार आज आपको ढूँढ़े न मिलेगा, जिसमें ऐसा कोई कॉलम न हो!
स्केप्टिक: संशयवाद अनिवार्य रूप से ईश्वर के प्रश्न पर आ धमकता है। आप तो अपने आपको फाइडिस्ट (आस्थावादी) कहते हैं।
मार्टिन गार्डनर: मैं अपने आपको एक दार्शनिक आस्तिक कहता हूँ, और यदा-कदा एक ऐसा आस्थावादी कहता हूँ जो बौद्धिक कारणों के बनिस्बत भावनात्मक कारणों से किसी चीज़ में विश्वास करता है।
स्केप्टिक: तो फिर आपके इस पुराने कथन में कि आस्तिकों के तर्कों के मुकाबले नास्तिकों के तर्क बेहतर होते हैं, आपका आशय यही होगा कि दरअसल थोड़े-से बेहतर।
मार्टिन गार्डनर: खैर, वे बेहतर इस लिहाज़ से हैं कि आस्तिक के सामने एक बड़ी चुनौती है - बुराई के अस्तित्व की व्याख्या करने की चुनौती। और मेरी नज़र में तो, ईश्वर के विरुद्ध यही सबसे सशक्त तर्क बनता है। ईश्वर यदि है, और वह यदि सर्वशक्तिमान व सर्वकल्याणकारी है, तो फिर वह बुराई को दुनिया में क्यों रहने देता है? बुराई तो है, तो फिर ईश्वर क्या सर्व-हितकारी भर है, सर्वशक्तिमान नहीं? या फिर सर्वशक्तिशाली है, पर सर्व-हितकारी नहीं? बड़ा दमदार है यह तर्क, और इसका जवाब मुझे किस विध सूझता ही नहीं।
स्केप्टिक: राजनैतिक-प्रणालियों के सन्दर्भ में भी क्या आप यही तर्क इस्तेमाल करेंगे? मसलन, क्या आप यह तर्क देंगे कि सारे लोग ज़्यादा-से-ज़्यादा खुशी चाहते हैं, और फिर इसी के सहारे वैज्ञानिक ढंग से यह साबित करेंगे कि उस राजनैतिक प्रणाली के मुकाबले यह राजनैतिक प्रणाली बेहतर है? लेकिन आप अगर औरों को भी इस बहस में शामिल करें तो कुछ लोग कहेंगे ये, तो कुछ कहेंगे वो। और यही तो प्रजातंत्र है, है न? देखा जाए तो आप एक भावनात्मक तरीके से लोगों से यह पूछ रहे होते हैं कि उन्हें भला कौन-सी व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ लगती है।
मार्टिन गार्डनर: एक तरह से, यहाँ अनुभवमूलक पद्धति आ जाती है, कारण कि आप यह पूछ सकते हैं कि मानवीय आवश्यकताएँ पूरी करने के हिसाब से यह पद्धति बेहतर है या वह। यानी कि आप, हर लिहाज़ से, अपनी मूल्य-आधारित राय रख सकते हैं। लेकिन अन्तत: मूल्यगत विचारों की नींव भी तो भावनात्मक मानदण्डों पर जाकर टिकती है। मेरे खयाल से, आप संस्कृतियों की तुलना कर सकते हैं, और कह सकते हैं कि अपने लोगों की ज़रूरतें पूरी करने के हिसाब से यह संस्कृति/सभ्यता, उस सभ्यता के मुकाबले बेहतर ठहरती है। आप यह भी कह सकते हैं कि कुछ सांस्कृतिक परम्पराएँ अच्छी हैं या बुरी। उदाहरण के लिए, लाखों अफ्रीकी महिलाओं के जननांगों का अंगच्छेदन कर दिया जाता है। मेरी दृष्टि में यह कहना एकदम तर्कसंगत होगा कि यह एक बुरी प्रथा है, और इसका निषेध किया जाना चाहिए।
स्केप्टिक: स्केप्टिक में विकासवादी नैतिकता विषय पर अपने निबन्ध में मैंने इसी उदाहरण का हवाला दिया था। पर कैरॅल टॅवरिस के साथ अपनी बातचीत में मैंने जब यह सुझाया कि इन महिलाओं से यह पूछ कर कि उन्हें कैसा महसूस होता है हम इस नैतिक सिद्धान्त पर पहुँच सकते हैं कि यह गलत है, टॅवरिस ने कहा कि उनमें से बहुत-सी तो इस अंगच्छेदन को सही ठहराएँगी, कारण कि उनकी संस्कृति यही कहती है। तो क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि हम अपने मूल्य किसी और पर थोप रहे हैं? ऐसे में, किसी भी प्रकार की तात्विक बहस में पड़े बिना हम इस नैतिक सिद्धान्त को कैसे साबित करें कि जननांगों का अंगच्छेदन एक अनैतिक कृत्य है?
मार्टिन गार्डनर: मेरे अनुमान से अन्तत: आपको इसे कुछ इस हिसाब से सही ठहराना होगा कि किसी संस्कृति के टिके रहने, बरकरार रहने की सम्भावनाएँ अच्छी हैं या नहीं। यह एक समस्या है क्योंकि कुछेक महिलाएँ वास्तव में इस अंगच्छेदन की प्रक्रिया के अनुभव से गुज़रना चाहती हैं। एक सांस्कृतिक मानव-विज्ञानी शायद इस आधार पर इस प्रथा को जायज़ ठहराएगा कि उन संस्कृतियों में यह प्रथा अपना मकसद पूरा करती है। हालाँकि इस आधार पर तो आप होलॉकॉस्ट (नाज़ियों द्वारा यहूदियों का कत्लेआम) को भी तर्कसंगत ठहरा सकते हैं - कारण कि नाज़ियों का विश्वास था कि यहूदियों का सर्वनाश अच्छी बात है।
स्केप्टिक: क्या जीवन-समर्थी, गर्भपात-विरोधी लोगों का तर्क यह नहीं हो सकता कि एक भ्रूण के लिए जीवित रहना अच्छी बात है, क्योंकि इसमें कम-से-कम एक सम्भावित मानव तो है? इस तर्क से भला आप कैसे रूब डिग्री होंगे?
मार्टिन गार्डनर: मुझे नहीं मालूम। कारण कि अब हम ऐसे नैतिक सवालों से उलझ रहे हैं जिनके लिए वास्तव में कोई ठोस नियम नहीं हैं। मेरे विचार से मस्तिष्क से स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं होता। मैं नहीं सोचता कि एक भ्रूण इतना विकसित होता है कि उसे एक स्वतंत्र मानव का दर्ज़ा दिया जा सके। पर फिर भी यह तर्क दमदार तो है क्योंकि यह एक सातत्य (कॉन्टिन्युअम) पर टिका है, जिस पर कहीं कोई सीमा-रेखा नहीं खिंची।
स्केप्टिक: आपकी पॉलिटिक्स क्या है?
मार्टिन गार्डनर: मैं खुद को एक लोकतांत्रिक समाजवादी कहता हूँ क्योंकि मेरे हिसाब से सरकारी नियंत्रण ज़रूरी हैं। आपके पास एक ऐसी सरकार होना ही चाहिए जो किसी भी प्रकार की अव्यवस्था पर रोक लगाए और जो अपने नागरिकों की खुशहाली को अधिकतम करने की योजनाएँ बनाए। मेरे ख्याल से प्रामाणिक प्रतिद्वन्द्विता के लिए एकाधिकारों पर लगाम कसनी ही होगी, और यह काम सरकार के बगैर नहीं हो सकता। सो जब मैं खुद को एक लोकतांत्रिक समाजवादी जताता हूँ तब मैं यह मान कर चलता हूँ कि अमेरिका एक लोकतांत्रिक समाजवादी देश बन चुका है। दरअसल, बहुत-से रूढ़िवादी अर्थशास्त्री यही तो कहते हैं।
लेकिन जिस तरह अपनी पुस्तक द वाइज़ ऑफ अ फिलॉसॅफिकल स्क्राइवनर में मैं यह दलील देता हूँ, उस बिनह पर हो सकता है कि सर्वश्रेष्ठ सरकारी व्यवस्था नाम की कोई चीज़ ही न हो। हो सकता है कि ऐसी अलग-अलग व्यवस्थाएँ हों जो सब अपने नागरिकों की ज़रूरतें पूरी करने के लिहाज़ से एक-समान अच्छी हों।
स्केप्टिक: आप कोई सांस्कृतिक सापेक्षवादी नहीं हैं, इसलिए आप यह नहीं कह रहे हैं कि सभी राजनैतिक पद्धतियाँ बराबर होती हैं। ठीक?
मार्टिन गार्डनर: नहीं, वे सब बराबर नहीं हैं। लेकिन इतना तो सम्भव है कि किसी समाज को चलाने के हिसाब से ऐसे समतुल्य विकल्प मौजूद हों जो समान रूप से अच्छे हों। प्रजातंत्र की यही तो समस्या है कि कौन-सी वोटिंग प्रणाली भला सगरे लोगों की इच्छा को सर्वश्रेष्ठ ढंग से व्यक्त करती है? इस मामले में एक-दूसरे से होड़ मचाने वाली सैकड़ों प्रणालियाँ हैं और यह तय करना बड़ा मुश्किल है कि इनमें से कौन-सी व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ है। और उन सबमें अपनी-अपनी कमियाँ हैं।
स्केप्टिक: आप जब ये चतुर गणितीय खेल बना या लिख रहे होते हैं तब आपके फितूरी दिमाग में क्या कुछ घट रहा होता है?
मार्टिन गार्डनर: मैं किसी भी हिसाब से एक रचनाशील गणितज्ञ नहीं हूँ। हाँ, मैंने कुछेक पहेलियाँ रची तो हैं पर उनका गणित काफी निम्न स्तर का है। मैं जर्नल्स मंगवाता हूँ और वह सब पढ़ता हूँ जो असल गणितज्ञ उनमें लिखते हैं। निस्सन्देह मेरे कॉलम की सफलता का राज़ यही है। अब चूँकि गणित कुछ अधिक नहीं जानता था सो मेरे लिए भी वह सब समझना बड़ा कठिन होता था जिसके बारे में मैं लिखता था। ऐसे में, मुझे उस सब की ऐसी व्याख्या करना सीखना पड़ा कि किसी भी सामान्य पाठक को मेरे लिखे का अर्थ समझ आ जाए।
कार्ड कॉम (सी.सी.)
सी.सी।.: पच्चीस बरसों से भी अधिक समय तक आप साइंटिफिक अमेरिकन के लिए लिखते रहे। आपने बहुतेरी गणितीय खबरें सबसे पहले प्रस्तुत कीं - हेक्ज़ाफ्लेक्सागॉन, कॉनवे का गेम ऑफ लाइफ, पेनरोज़ टाइलिंग्स व पब्लिक की क्रिप्टोग्राफी। आगे चल कर, आप ही वे सबसे पहले व्यक्ति बने, जिसने ताश के पत्तों को लेकर खास तौर पर बहुत-से गणितीय सिद्धान्तों की ओर लोगों का ध्यान खींचा।
मार्टिन गार्डनर: इस सन्दर्भ में मैं उन तमाम गणितज्ञों का तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने मेरे इस स्तम्भ के लिए सामग्री भेजी। जब मैंने यह स्तम्भ शु डिग्री किया था तब मैं किसी भी गणितज्ञ के सम्पर्क में नहीं था, और फिर धीरे-धीरे जो गणितज्ञ इस क्षेत्र में सक्रिय थे उन्हें मेरे इस कॉलम के बारे में पता चला और उन्होंने मुझ से पत्र-व्यवहार किया। इस तरह मेरे सबसे दिलचस्प लेख वे रहे जो इन गणितज्ञों द्वारा मिली सामग्री पर आधारित थे।
सी.सी.: आपकी पहली जादुई ट्रिक कोई 75 बरस पहले प्रकाशित हुई थी।
मार्टिन गार्डनर (मुस्कुराते हुए): अरे हाँ। पर तुम्हें कैसे पता चला?
सी.सी.: आपके इतने लम्बे व सफल लेखकीय जीवन के पीछे क्या राज़ है?
मार्टिन गार्डनर: अरे बाप रे! पता नहीं। मैंने हमेशा बर्टे्रंड रसल की सलाह मानी है। लेखन शैली के बारे में पूछे जाने पर उनका जवाब था कि जब भी उन्हें मौका मिलता वे किसी कठिन शब्द के स्थान पर कोई सरल शब्द चुनते और उपयोग करते रहे। उनकी इसी सलाह पर चलने की मैंने भरसक कोशिश की है। वैसे, उनकी शैली मुझे बड़ी भाती है, और वे मेरे हीरो रहे आए हैं।
एक सक्रिय दिमाग: मार्टिन गार्डनर के साथ एक साक्षात्कार
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: द नाइट इज़ लार्ज: कलेक्टेड एसेज़, 1938-1995 नामक अपने निबन्ध संग्रह में आपने अपनी आजीवन बौद्धिक अभिरुचियों को सात वर्गों में वर्गीकृत किया है: भौतिक विज्ञान, समाज-विज्ञान, छद्म-विज्ञान, गणित, कलाएँ, दर्शन और धर्म। आपकी ये अभिरुचियाँ आपके लिए समान महत्व रखती हैं? अपनी या दूसरों की रुचि के सन्दर्भ में इनके महत्व के हिसाब से आप इन्हें कैसे क्रमबद्ध करेंगे? आप इन्हें एक सुसंगत विश्व-दृष्टि के पूरक तत्व मानते हैं या थोड़े अलग-थलग पहलू?
मार्टिन गार्डनर: मुख्यत: मेरी रुचि दर्शन व धर्म में है। दर्शन में भी मेरा खास रुझान विज्ञान के दर्शन की तरफ है। मैंने युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो से दर्शनशास्त्र में विशेषज्ञता हासिल की (वर्ष 1936)। प्रथम वर्ष में तल्सा युनिवर्सिटी से आए एक प्रोटेस्टंट रूढ़िवादी के बतौर दाखिला लेने के चलते शीघ्र ही क्रिश्चियनिटी में मेरी सारी की सारी आस्था जाती रही। अर्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास द फ्लाइट ऑफ पीटर फ्रॉम में मैंने अपने इस कष्टकर परिवर्तन के बारे में कुछ लिखा है। दरअसल, जॉर्ज मॅकक्रीडी प्राइस से प्रभावित होने के चलते जीवों के विकास के सिद्धान्त पर एक तरह से मुझे सन्देह था। भूविज्ञान के एक कोर्स की वजह से मुझे यह विश्वास हुआ कि ये बन्दा प्राइस जो है, सिरफिरा है। हालाँकि जलप्रलय का सिद्धान्त इतना चतुर है कि यह समझने के लिए कि यह सिद्धान्त कहाँ, किस जगह गच्चा खाता है, आपको कुछ प्रारम्भिक भू-विज्ञान पढ़ना पड़ेगा। और शायद इसी के चलते छद्म-विज्ञान की पोल खोलने में मेरी दिलचस्पी जागी।
मुझ पर कार्नप का बड़ा प्रभाव रहा। उसी ने मुझे आश्वस्त किया कि ये सारे आध्यात्मिक/ पारलौकिक सवाल इस लिहाज़ से निरर्थक हैं कि इनका जवाब तर्क के आधार पर प्रयोगाश्रित तरीके से नहीं दिया जा सकता। इनका समर्थन केवल भावनात्मक आधार पर ही किया जा सकता है। कार्नप एक निरीश्वरवादी था, पर मैं किसी तरह अपने तरुण आस्तिकवाद को उस रूप में बचा पाया जिसे ‘आस्थावाद’ (फाइडिज़्म) कहा जाता है। पर मैं इसे ‘धर्मशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद (थिऑ-लॉजिकल पॉज़िटिवज़्म)’ का नाम देना चाहूँगा जो कि कार्नप के ‘तर्कशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद (लॉजिकल पॉज़िटिवज़्म)’ का एक अपभ्रंश होगा।
अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले कार्ल सेगन ने लिखा था कि उन्होंने मेरी पुस्तक वाइज़ ऑफ अ फिलॉसॉफिकल स्क्राइवनर फिर से पढ़ी और यह कहना ठीक होगा कि मैं ईश्वर में इसलिए विश्वास रखता हूँ क्योंकि इससे मुझे ‘अच्छा’ लगता है। मैंने जवाब दिया था बिलकुल सही, हालाँकि यह ‘अच्छा लगना’ उस ‘अच्छे लगने’ से कहीं अधिक गहरा है जो हम तीन पेग चढ़ा लेने के बाद महसूस करते हैं। यह एक तरह से कहीं गहरे पैठी उदासी से बचने का रास्ता है। विलियम जेम्स का निबन्ध ‘द विल टु बिलीव’ ऐसी भावनात्मक ‘आस्थावादी छलांग’ लगाने के अधिकार की एक पुरज़ोर वकालत है। मेरा आस्थावाद किसी भी प्रकार के धार्मिक आन्दोलन से स्वतंत्र है। यह उस परम्परा का अंग है जो प्लेटो से शु डिग्री होती है और जिसके प्रवाह में कांट और चार्ल्स पियेर्स, विलियम जेम्स और मिगुएल दि उनॅम्युनो जैसे बाद की पीढ़ियों के तमाम दार्शनिक आते हैं। अपनी पुस्तक वाइज़ ... में मैंने इसकी पुरज़ोर वकालत की है।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: क्या आप कभी सोचते हैं कि काश आपने अपने द्वारा चुने गए विषयों में से किसी एक विषय के बदले कोई और विषय चुना होता?
मार्टिन गार्डनर: मैं खुश हूँ कि मैंने दर्शनशास्त्र में विशेषज्ञता हासिल की। हालाँकि अगर मैं यह जानता कि आगे चलकर, कभी मैं गणित पर एक कॉलम लिखूँगा, तो मैं गणित का एकाध कोर्स ज़रूर लेता, पर मैंने एक भी ऐसा कोर्स पढ़ा ही नहीं। आप यदि साइंटिफिक अमेरिकन में मेरे स्तम्भों पर गौर करें तो पाएँगे कि जैसे-जैसे मैंने गणित की किताबें पढ़ना और गणित के बारे में ज़्यादा-से-ज़्यादा सीखना शु डिग्री किया, वैसे-वैसे मेरा कॉलम निखरता गया। किसी भी विषय को सीखने का सबसे बढ़िया तरीका है उसके बारे में लिखने लगना।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आपकी अभिरुचियों के विस्तार और उनकी विविधता को देखते हुए आप अपने पेशे के सन्दर्भ में अपने आप को कैसे परिभाषित करेंगे? आप क्या हैं?
मार्टिन गार्डनर: मैं खुद को एक ऐसा पत्रकार मानता हूँ जो मुख्यत: गणित व विज्ञान के बारे में लिखता है, और जिसकी रुचियाँ कुछ और क्षेत्रों में भी हैं।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आपकी विनम्रता सराहनीय है, पर मेरे खयाल से इतनी भी विनम्रता ठीक नहीं। डग्लस हॉफ्स्डर ने कहा है, “मार्टिन गार्डनर इस शताब्दी में पैदा हुई इस देश की सबसे महत्वपूर्ण प्रतिभाओं में से एक हैं।” और स्टीफन जे. गूल्ड का कहना है कि आप “हमारे आस-पास फैले रहस्यवाद व बौद्धिकता-विरोधी सोच के खिलाफ बुद्धिवाद व खरे विज्ञान का परचम फहराने वाले सबसे प्रखर सितारे रहे हैं।” सो निश्चित ही इतना अधिक सम्मान आपको गदगद तो करता होगा।
मार्टिन गार्डनर: हाँ, मैं खुश हूँ। हालाँकि एक अच्छा मित्र होने के नाते हॉफ्स्डर निश्चित ही यहाँ अतिरेक के शिकार हैं। और, जिनसे मिलने की तमन्ना लिए बैठा हूँ, ऐसे शानदार लेखक गूल्ड भी कुछ ज़्यादा ही बोल गए।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आपके हिसाब से विज्ञान-लेखन में आपकी रुचि और छद्म-विज्ञान की बखिया उधेड़ने में आपके जुनून के बीच भला क्या रिश्ता है? आपको ज़्यादा रस किसमें मिलता है?
मार्टिन गार्डनर: जहाँ तक छद्म-विज्ञान का भण्डा फोड़ने की बात है, एक तरह से तो मुझे इस बात का रंज होता है कि मैं इस पर इतना समय खर्च करता हूँ। देखा जाए तो इसमें लगने वाला समय एक तरह से व्यर्थ ही है। इससे कहीं ज़्यादा मज़ा तो मुझे ... द एॅम्बीडेक्स्ट्रस युनिवर्स व गणित और विज्ञान पर अन्य पुस्तकें लिखने में आया।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आपको कौन-सी चीज़ प्रेरित करती है? कम-से-कम 1950 से तो आप लगातार छद्म विज्ञान पर लिखते आए हैं। वॉशिंग्टन पोस्ट के समीक्षक ने द नाइट इज़ लार्ज की अपनी समीक्षा में, मेरे हिसाब से, सही ही लिखा है कि आप “द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, छद्म-विज्ञान के कमोबेश सबसे उत्कृष्ट विध्वंसक रहे हैं।” क्या आपको छद्म-विज्ञान व अतीन्द्रिय दावे मूलत: सम्मोही लगते हैं -- या फिर आप एक फर्ज़ समझकर उनकी चीरफाड़ करते हैं? यदि आपका जवाब दूसरा है तो फिर कौन-सी चीज़ आपको इस काम के लिए प्रेरित करती है?
मार्टिन गार्डनर: मुझे नहीं पता कि मुझे इस चीरफाड़ में मज़ा क्यों आता है। इसका एक निश्चित कारण तो सच्चे विश्वासियों की मूढ़ता पर बरबस हँसी आ जाना है। और दूसरे, बोगस विज्ञान के परखच्चे उड़ाना असल विज्ञान सीखने का एक आसान तरीका है। उदाहरण के लिए, आपको सापेक्षता का सिद्धान्त थोड़ा-बहुत तो समझ में आना ही चाहिए ताकि आप जान पाएँ कि आइंस्टाइन के विरोधी गच्चा कहाँ खाते हैं। माइकल ड्रॉनिन की द बाइबिल कोड कूड़ा है यह जानने के लिए आपको सम्भाविता व सांख्यिकी का कुछ ज्ञान तो होना ही चाहिए। आपको प्लेसिबो व आस्था की शक्ति का भान तो होना ही चाहिए ताकि आप जान पाएँ कि मॅरी बेकर एडी नीम-हकीम-खतरे-जान का एक विशिष्ट नमूना है।
यह पर्दाफाश ज़रूरी है, इसका एक और कारण है कि बोगस विज्ञान हमारे देश की मति को लगातार खोटा किए जाता है। अनगढ़ आस्थाएँ निरन्तर राजनैतिक नेताओं तक पहुँचती रहती हैं, जिसके चलते समाज को घोर नुकसान पहुँचता है। आज हम इस मूढ़ता को धार्मिक दक्षिणपन्थ के तेज़ रफ्तार उत्थान में घटित होते देख रहे हैं। और देख रहे हैं कि किस तेज़ी से इसने रिपब्लिकन पार्टी के एक बड़े धड़े को अपने पाश में जकड़ लिया है।
मैं खुश हूँ कि खोटे विज्ञान की खाल उधेड़ने का ज़िम्मा अब औरों ने ले लिया है, खास कर कार्ल सेगन जैसे वैज्ञानिकों ने, जिन्होंने डट कर बोलने के महत्व को जाना। यू.एफ.ओ. (अनजानी उड़न तश्तरी) की बकवास से निपटने को लेकर फिलिप क्लास इतना बढ़िया काम कर रहे हैं, इससे मुझे इस बेहूदा विषय से परे जाने का अवकाश मिलता है। एकबारगी तो बाइबिल कोड पढ़ने का मन मैंने बना लिया था। लेकिन अब स्केप्टिकल इनक्वाइरर में डेव थॉमस द्वारा इसे पड़े ज़ोरदार घूँसे के बाद यह ज़हमत उठाने की ज़रूरत न रही।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आम तौर पर आपकी गिनती अतीन्द्रिय/अपसामान्य के सबसे निष्ठुर आलोचकों में होती रही है। इस सम्बन्ध में आप अपने बारे में क्या कहना चाहेंगे?
मार्टिन गार्डनर: मेरे खयाल से मैं केवल तभी अत्यधिक कठोर रुख अपनाता हूँ जब मेरा पाला ऐसे छद्म-विज्ञान से पड़ता है जो खरे विज्ञान व खोटे विज्ञान के बीच पसरे फैलाव में खोटे विज्ञान का करीबी रिश्तेदार हो, और जब मैं सम्बन्धित विषय के तमाम विशेषज्ञों के विचार रख रहा होता हूँ। और जब मामला जाने-माने वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित रूढ़ियों के करीब का होता है तो मैं कुछ अधिक ही अज्ञेयवादी बन जाता हूँ। उदाहरण के लिए, इसे लेकर तो मैं एकदम निश्चित हूँ कि ज्योतिष व होमियोपैथी एकदम व्यर्थ हैं, लेकिन सुपरस्टिं्रग्स सिद्धान्त को लेकर मैं कुछ उलझन में हूँ। सुपरस्टिं्रग्स में प्रयोग-आधारित साक्ष्य सिरे से ना-मौजूद हैं लेकिन उनकी सैद्धान्तिकी गज़ब की परिष्कृत सैद्धान्तिकी है, जो विषय की व्याख्या बड़े अच्छे से करती है। मेरी चाहत है कि मैं पचास साल बाद तक जीवित रहूँ ताकि पता चले कि वाकई यह एक उपयोगी परिकल्पना साबित होती है या फिर ‘सर्वव्यापी सिद्धान्त’ की खोज में एक और अन्धी गली।
ऐसे दर्जनों महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर मेरा जवाब होगा, “मैं नहीं जानता।” जैसे कि मैं नहीं जानता कि ब्रह्माण्ड में, बुद्धिमान जीवन कहीं और भी है कि नहीं, या कि जीवन इतना असम्भाव्य है कि पूरे जगत में बस हम अकेले ही हैं। मैं नहीं जानता कि सिर्फ यही एकमात्र ब्रह्माण्ड है, या फिर कोई बहु-ब्रह्माण्ड है जिसमें हमारी अपनी सृष्टि समेत अनेकों सृष्टियाँ धमाके के साथ अस्तित्व में आती हैं, जीती हैं, मरती हैं, हरेक के अपने नियम और भौतिक स्थिरांक हैं। मुझे नहीं मालूम कि क्वांटम यांत्रिकी कभी उससे कहीं अधिक गूढ़ किसी सिद्धान्त के आगे नतमस्तक होगी। मैं नहीं जानता कि भौतिकी के मूलभूत नियम एक निश्चित संख्या में हैं, या अपरिमित चाइनीज़ डिब्बों के समूह की तरह संरचना की नितल गहराइयाँ हैं। क्या कभी पता चलेगा कि इलेक्ट्रॉन की भी आन्तरिक संरचना है? काश मैं जानता!
इतना तो कहूँगा। मेरा विश्वास है कि मानव मन, यहाँ तक कि बिल्ली का मन भी, अपनी जटिलता में एक जीवन रहित आकाशगंगा के मुकाबले कहीं अधिक रोचक होता है। मैं ‘मिस्टीरियन्स’ नाम के एक चिन्तक-समूह का सदस्य हूँ। इसमें रॉजर पेनरोज़, थॉमस नॅगिल, जॉन सर्ल, नोएम चोम्स्की, कॉलिन मैकगिन और कई ऐसे नाम शामिल हैं जो मानते हैं कि जिस किस्म के कम्प्यूटर हम बनाना जानते हैं, उनमें से एक भी कम्प्यूटर कभी आत्म-बोधी न होगा, और न ही कभी मानव मन जैसी रचनात्मक शक्ति हासिल कर पाएगा। मेरा विश्वास है कि मस्तिष्क की जटिलता बढ़ने के साथ-साथ चेतना के आविर्भाव को लेकर एक गहरा भेद है। मानव मस्तिष्क किस विध काम करता है, इसे समझने के लिए तंत्रिका-वैज्ञानिकों को अभी काफी लम्बा सफर तय करना है।
स्केप्टिकल इनक्वाइरर: आपकी रचनाएँ जाने-माने वैज्ञानिकों व विद्वानों की दो पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायी रही हैं। संसार-प्रसिद्ध व व्यापक रूप से इतने आदरणीय होने के बावजूद आप अक्सर अकेले ही काम करते आए हैं। आप बहुत कम, अगर जाते भी हैं तो, सम्मेलनों और मीटिंगों में जाते हैं। आपके प्रशंसकों व पाठकों में से बहुत कम ने आपको कभी रूब डिग्री देखा या सुना है। क्यों? क्या इससे आपको अपना काम करने में आसानी होती है -- कोई विघ्न नहीं, लिखने के लिए ज़्यादा समय? क्या इस तरह एकाकी लेखन की कुछ कमियाँ भी रही हैं?
मार्टिन गार्डनर: मुझे अक्सर संकोची कहा जाता है, और काफी हद तक यह सच भी है। भीड़ की बजाय मुझे व्यक्तिगत स्तर पर बात करना भाता है। पार्टियों में जाना, व्याख्यान देना मुझे ज़रा भी नहीं भाता। मुझे एकरसता भली लगती है। कमरे में अकेले बैठ किताब पढ़ने या टाइपराइटर की खटखट पर अपने लेख लिखने में जो मज़ा मिलता है, किसी और चीज़ में कहाँ! मैं अपने आपको इस हिसाब से खुशकिस्मत समझता हूँ कि मैं अपनी रोज़ी-रोटी वह काम करके कमाता हूँ जो काम मुझे सबसे अच्छा लगता है। जैसा कि आज से काफी पहले मेरी पत्नी समझ गई थी, मैं वाकई कुछ काम नहीं करता। दरअसल मैं तो हर वक्त खेलता ही रहता हूँ, और उस पर तुर्रा ये कि मुझे उसके पैसे भी मिलते हैं।
मार्टिन गार्डनर के साथ साक्षात्कार
नोटिसेस।: आपको हेक्ज़ा-फ्लेक्सागॉन्स के बारे में पता कैसे चला?
मार्टिन गार्डनर: मानो या न मानो, मेरे जादुई सम्पर्कों से। न्यूयॉर्क सिटी में रॉयल हीथ नाम का एक स्टॉक ब्रोकर होता था, जो जादू का रसिया था। एक दिन मैं जब उसके घर गया तो उसने मुझे कपड़े का बना एक विशाल हेक्ज़ाफ्लेक्सागॉन दिखाया। इससे पहले मैंने हेक्ज़ाफ्लेक्सागॉन नहीं देखा था। हीथ ने मुझे बताया कि पिं्रस्टन के एक ग्रुप ने यह आविष्कार किया है। सो मुझे इस खबर में एक लेख की बू आई। मैं पिं्रस्टन गया और वहाँ मैंने इसके एक सह-आविष्कारक, जॉन टुकी का इंटरव्यू लिया। बहुत आगे चलकर वह बड़ा नामवर गणितज्ञ बना। मेरा वह लेख दिसम्बर 1956 में साइंटिफिक अमेरिकन में छपा। प्रकाशक गेरी पियेल ने मुझे अपने कार्यालय में बुलाया और पूछा, “क्या इस तरह की सामग्री इतनी मात्रा में उपलब्ध है कि उसे एक नियमित फीचर का रूप दिया जा सके?” मैंने कहा, “है तो।” अगले अंक, जनवरी 1957 के अंक में इस विषय पर पहला स्तम्भ छपा। हम्टी-डम्टी से अपना त्यागपत्र देकर मैं भागा न्यूयॉर्क की पुरानी किताबों की दुकानों, गलियों की खाक छानने, ताकि गणित की वे सगरी किताबें जुगाड़ सकूँ जिनमें मनोरंजक गणित पर सामग्री दी गई हो।
मार्टिन गार्डनर ने हाथ से बनाए हुए कुछ हेक्ज़ाफ्लेक्सागॉन इकट्ठा किए। फिर साइंटिफक अमेरिकन पत्रिका में अपने कॉलम में इन्हें प्रकाशित करके सबका ध्यान इनकी ओर खींचा था।
नोटिसेस: मेरे ख्याल से हेक्ज़ा-फ्लेक्सागॉन के लेख को बढ़िया रिस्पॉन्स मिला था?
मार्टिन गार्डनर: बिलकुल। छा गया। सारे न्यूयॉर्क में। खास कर, विज्ञापनों की दुनिया में लोग-बाग हेक्ज़ा-फ्लेक्सागॉनों से खेलने लग गए थे। लेख छपने के एक साल बाद तक ढेरों ऐेसे विज्ञापन आए जो असल में कागज़ के हेक्ज़ाफ्लेक्सागॉन थे जिन पर विज्ञापनों के लिए जगह थी।
नोटिसेस: आप कभी उन प्रदर्शनों में गए जहाँ यूरी गेलर जैसे अलौकिकता-वादी चम्मच वगैरह मोड़ देते हैं?
मार्टिन गार्डनर: असल में मैंने यूरी गेलर को कभी देखा नहीं है। हालाँकि, यूरिआ फुलर के छद्म नाम से मैंने दो पुस्तिकाएँ ज़रूर लिखी हैं जिनमें उसके तरीकों का भण्डाफोड किया गया है। उसके तरीके जादूगरों को खूब आते हैं। जादूगर लोग तो एकदम शु डिग्री से ही जान गए थे कि वह क्या करता है।
नोटिसेस: वे पुस्तिकाएँ लिखते समय क्या आपने जादूगरों की आचरण संहिता का उल्लंघन नहीं किया जिसके अनुसार दिखाए गए करतबों के राज़ खोले नहीं जाते?
मार्टिन गार्डनर: देखा जाए तो बिलकुल नहीं, क्योंकि यूरी गेलर द्वारा किए जा रहे करतब जादूगरों द्वारा नहीं किए जाते। किसी भी जादूगर को अपने दर्शकों के सामने खड़े होकर चम्मच मोड़ने में शर्म ही आएगी। एकदम बचकानी हरकत है यह! मेरी पुस्तिकाएँ जादूगरों के करतबों के भेद नहीं खोलतीं। उनमें तो सिर्फ गेलर के करतबों की पोल खोली गई है।
नोटिसेस: अच्छा तो चम्मच मोड़ता किस विध है वो बन्दा?
मार्टिन गार्डनर: प्रदर्शन शु डिग्री होने से पहले ही वह चम्मच को अपने कब्ज़े में कर लेता है। एक साधारण चम्मच को मोड़ना बड़ा आसान है। आप उसे, बारी-बारी से आगे-पीछे कर मोड़ें। इस तरह कुछ बार में ही वह चम्मच इतना कमज़ोर पड़ जाता है कि प्रदर्शन के समय आपके छूने भर से ही वह मुड़-मुड़ा जाता है। धातु की चीज़ें मोड़ने के पीछे यूरी गेलर की तरकीब ही यही है -- प्रदर्शन से पहले ही उसे कुछेक-बार मोड़-माड़ कर इतना तैयार कर लो कि बाद में आप ‘प्रदर्शन’ कर लोगों को बेवकूफ बना सको।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनोहर नोतानी: शिक्षा से स्नातकोत्तर इंजीनियर। पिछले 20 वर्षों से अनुवाद व सम्पादन उद्यम से स्वतंत्र रूप से जुड़े हैं। उन्होंने प्रसिद्ध नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे के उपन्यास थिंग्स फॉल अपार्ट के कुछ अंशों और अरविन्द अडिग के मॅन बुकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यास द वाइट टाइगर का अधिकृत हिन्दी अनुवाद किया है। भोपाल में रहते हैं।
साभार: स्केप्टिक, कार्ड कॉम, स्केप्टिकल इनक्वाइरर एवं नोटिसेस।