कमलेश चन्द्र जोशी

बच्चों  की  प्रारम्भिक  साक्षरता पर काम करते हुए हमें अपने शिक्षण के उद्देश्यों को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही, यह समझना भी ज़रूरी है कि बच्चों में पढ़कर समझ बनाने के लिए उनको उत्साही पाठक बनाने की कोशिश करना चाहिए। कक्षा में किसी पाठ को पढ़ाने का उद्देश्य केवल इतना ही न हो कि पाठ पूरा कर दिया गया या किताब पढ़ा दी, पाठ के प्रश्नोत्तर, अभ्यास पूरे करा दिए। बच्चों को पाठक बनाने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें किताबें पढ़ने के अवसर नियमित रूप से मिलें। उनसे किताबों पर बात हो। बच्चे अपने अनुभवों को लिखें। कक्षा की ये प्रक्रियाएँ बच्चों की पढ़कर समझ बनाने में मदद करती हैं। कक्षा में किताब पढ़ने के दौरान बच्चे पढ़ने का आनन्द ले रहे होते हैं। किताब पर चर्चा के दौरान वे अपने अनुभवों, भावनाओं व विचारों को जोड़ रहे होते हैं। वे पाठ्य व चित्रों की बारीकियों में भी जाते हैं और अनुमान के माध्यम से आगे की कहानी सोचते हैं। लेकिन इसके लिए शिक्षक को संजीदा प्रयास करने होते हैं। उन्हें स्वयं भी एक अच्छा पाठक बनने की ज़रूरत होती है।
यहाँ पर अमेरिकी शिक्षाविद लुईस रोज़ेनब्लॉट की कही बात याद आती है -- “हमारा काम आम तौर पर किताबों को लोगों के पास लाना माना जाता है लेकिन किताबें यूँ ही लोगों की ज़िन्दगी में नहीं दाखिल होतीं। लोग भी किताबों की दुनिया में दाखिल होते हैं। एक कहानी या कविता या नाटक तब तक कागज़ पर फैली स्याही से ज़्यादा नहीं है, जब तक पाठक उन्हें सार्थक चित्रों के एक समूह में तब्दील नहीं कर देता।”
इस आलेख में इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए एक प्राथमिक स्तर की कक्षा के बच्चों से एक किताब पर हुई बातचीत के द्वारा कक्षा में बाल साहित्य के उपयोग पर समझ बनाने का प्रयास करेंगे। साथ ही यह समझेंगे कि स्कूल में बच्चों के लिए मात्र किताब रख देने से काम नहीं बनता। इन किताबों को बच्चों के समक्ष, उनकी दुनिया से जोड़ते हुए खोलना भी पड़ता है जिससे बच्चे बाद में खुद किताबों को देखने-पढ़ने के लिए प्रेरित हों।

बच्चों का किताब घर
ऊधमसिंह नगर ज़िले के सितारगंज ब्लॉक की एक प्राथमिक शाला की पाँचवीं कक्षा में करीब चालीस बच्चे उपस्थित हैं। इस विद्यालय की शिक्षिका ने खुद की पहल पर स्कूल में बच्चों के लिए एक पुस्तकालय स्थापित किया है। बच्चों को पुस्तक पढ़ने के मौके मिलते हैं। उनके साथ किताब पर चर्चा भी होती है। बच्चे किताब घर भी ले जाते हैं।
आज तूलिका बुक्स, चेन्नई द्वारा प्रकशित किताब काली और धामिन साँप बच्चों को पढ़के सुनाने व उस पर चर्चा करने की योजना है। यह एक चित्रात्मक किताब है। यह किताब ज़ाई व्हिटेकर द्वारा मूलत: अँग्रेज़ी में लिखी गई है जिनका पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण में काफी काम रहा है और वे एक शिक्षिका भी रही हैं। उन्होंने बच्चों की करीब दर्ज़न भर किताबें लिखी हैं। यह किताब उनके इरूला जनजाति के बीच करीब से किए गए काम के अनुभवों पर आधारित है। किताब का हिन्दी अनुवाद सुबीर शुक्ला ने किया है तथा इसके चित्र श्रीविद्या नटराजन ने बनाए हैं।
काली और धामिन साँप की कहानी तमिलनाडु के साँप पकड़ने वाली इरूला जनजाति के बच्चे काली पर केन्द्रित है जिसमें काली की अन्य बच्चों से दोस्ती न होने को दर्शाया गया है क्योंकि वह समाज के निचले वर्ग से आता है। काली पढ़ने में तो ठीक है और शिक्षक उसकी प्रशंसा भी करते हैं। वह साँप पकड़ने में भी बहुत होशियार है जो अन्य बच्चे नहीं कर सकते। यह उसने अपने समुदाय से अच्छे से सीखा है। यह किताब बहुसांस्कृतिक अस्मिता को कक्षा में जगह देने का सन्देश देती है। इसमें यह बात भी है कि हम अपने आस-पड़ोस की ‘निम्न’ जातियों को कैसे देखते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, उनके खान-पान, पहनावे आदि को कैसे देखते हैं।

काली और उसकी कक्षा
कहानी की शुरुआत में काली कक्षा की पिछली बेंच पर अकेला बैठा हुआ है क्योंकि कक्षा में उसका कोई दोस्त नहीं है क्योंकि वह निम्न जाति का है और उसके पिता साँप पकड़ने का काम करते हैं। उसका स्कूल आने का मन नहीं करता। काली मध्यान्तर के समय स्कूल में अलग बैठकर भोजन में दीमक खाता है ताकि उसे कोई देख न ले और उसका मज़ाक न उड़ाए। किताब में यह भी दिखाया गया है कि समाज का हाशियाकृत तबका समाज में फैली ऊँच-नीच की वजह से अपने ही खान-पान को सन्देह की दृष्टि से देखता है।
ऐसे में एक दिन उनकी कक्षा में धामिन साँप आ जाता है और कक्षा में अफरा-तफरी मच जाती है। बच्चे व मास्टर जी डर जाते हैं। उस दिन काली का साँप पकड़ने का कौशल काम आता है। वह साँप को होशियारी से पकड़कर एक बोरी में डाल देता है और फिर बच्चे उसके दोस्त बन जाते हैं। कहानी में मास्टर जी के चरित्र में एक द्वैत है। वे शुरुआत में काली के प्रति सकारात्मक हैं, उसका सहयोग भी करते हैं क्योंकि वह पढ़ने में ठीक है; परन्तु वे कक्षा में भेदभाव मिटाने का कोई प्रयास नहीं करते और जब कक्षा में साँप आ जाता है तो खुद मेज़ के नीचे छिप जाते हैं और काली के द्वारा साँप पकड़ लिए जाने पर उसको शाबाशी देने की बजाय अन्य बच्चों से कहते हैं, “तुम लोग डर क्यों गए? वह ज़हरीला साँप नहीं था” और चुपचाप कक्षा से निकल जाते हैं।
यह किताब इस मायने में ठीक लगती है कि यह निम्न-वर्गीय प्रसंग एवं सामाजिक भेदभाव को चर्चा में लाती है और कक्षा में बच्चों से इस पर संवाद का सन्दर्भ बनाती है। बच्चों के साहित्य में इस तरह की किताबें काफी कम हैं जिसका मुख्य पात्र एक हाशियाकृत समाज से हो और जिसमें उनके जीवन की झलक मिलती हो। यह किताब साँप पकड़ने वाले समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सामने लाने का भी प्रयास करती है।
किताब के चित्र और बच्चे
कक्षा में बच्चे गोल घेरे में बैठे हुए हैं और बीच में घूमते हुए उन्हें यह किताब दिखाई-सुनाई जा रही है ताकि सभी बच्चे किताब से जुड़ सकें। किताब की शुरुआत काली और धामिन साँप के मुखपृष्ठ को दिखाकर की गई। बच्चों से पूछा गया, “काली कौन है?” बच्चों ने कहा, “काली उस लड़के का नाम है जो इसमें बना हुआ है और धामिन साँप का नाम है।” आगे उन्होंने बताया, “चित्र से ऐसा लग रहा है जैसे साँप और लड़का आपस में दोस्त होंगे।” फिर बच्चों को बताया गया कि जिस तरह दुमुँहा साँप होता है, पनिहा साँप होता है, नाग होता है, अजगर होता है, उसी तरह धामिन साँप भी होता है जो लम्बा होता है और चूहे खाता है।
फिर शिक्षिका ने बच्चों से पूछा, “इस चित्र को देखकर आगे की क्या कहानी समझ में आ रही है?”

साहिबा: नदी के पास साँप होगा। लड़का वहाँ जाएगा और अपना दोस्त बना लेगा।
मुस्कान: लड़का जाएगा। वह साँप को देखकर कहेगा -- मुझसे दोस्ती करोगे?
लकी: काली बहुत गरीब होगा। वह साँप को दिखाकर पैसे कमाएगा।
सम्मो: काली उदास होगा।
तौसीफ: काली को नहर पर साँप दिखाई पड़ेगा।
इसी तरह अन्य बच्चों ने भी कुछ इसी तरह के अपने-अपने अनुमान बताए।
अगले चित्र में बच्चों से पूछा गया, “काली स्कूल जाता हुआ कैसा दिख रहा है?” तो बच्चों ने कहा, “उदास दिखाई पड़ रहा है। वह स्कूल नहीं जाना चाहता होगा।” यहाँ बच्चे चित्र के भाव को सही से पकड़ पा रहे थे। शिक्षिका ने आगे पूछा, “वह उदास क्यों होगा?” एक बच्ची ने कहा, “इसकी मम्मी स्कूल जाने को कह रही होगी और इसका जाने का मन नहीं होगा।”
फिज़ा ने कहा, “इसकी दादी ने इसे स्कूल भेजा होगा।”
एक और बच्चे ने कहा, “वह स्कूल जाने को लेट हो जाएगा और स्कूल में उसे डाँट पड़ेगी।”

फिर शिक्षिका ने पूछा, “इसमें लिखा है इसका कोई दोस्त नहीं है। तो इसका कोई दोस्त क्यों नहीं होगा?” बच्चों ने बताया, “क्योंकि इसके पिता साँप पकड़ते हैं तो इसको कोई दोस्त नहीं बनाता होगा।” बच्चों की इन बातों से लग रहा था कि वे सही अनुमान लगा पा रहे थे। इससे यह भी पता चल रहा था कि सामाजिक भेदभाव को उन्होंने बिना पढ़े, केवल अनुमान के सहारे पकड़ लिया क्योंकि वे अपने आसपास ऐसा होते देखते हैं।
जब बच्चों ने बल्ली पर लटके साँप का चित्र देखा तो एकाएक कहानी उनकी पकड़ में आ गई। यहाँ सुनाने वाले को लगता है कि कहानी सुनाने का मज़ा समाप्त हो गया लेकिन वह अपनी बातचीत से बच्चों का जुड़ाव बनाने का प्रयास करता है। बच्चे कहने लगे, “अब काली साँप को पकड़ लेगा और फिर उसकी बच्चों से दोस्ती हो जाएगी।” यहाँ यह लगा कि कहानी में बाँधे रखने वाला तनाव एकदम-से खत्म हो गया जो बच्चों को कहानी से जोड़े रखता है कि आगे क्या होने वाला है। आगे की कहानी में काली द्वारा साँप को पकड़कर बोरे में डालना, काली के लिए कक्षा के बच्चों द्वारा ताली बजाना और उसके दोस्त बन जाने के लिए तैयार हो जाना, मास्टर जी का मेज़ के नीचे से बाहर आना आदि दृश्यों को बच्चों ने पसन्द किया। और बच्चे खुश हुए कि कई बच्चे काली के दोस्त बनने को तैयार हो गए।

बच्चों का कहानी से जुड़ाव
इस किताब पर बातचीत के दौरान यह देखने को मिला कि कक्षा के एक बच्चे गुलफाम ने इस कहानी को अपने से काफी जुड़ा हुआ महसूस किया। गुलफाम खेल-तमाशा दिखाने वाले एक कलन्दर परिवार से सम्बन्ध रखता है और छुट्टियों के दौरान अपने दादा के साथ वह अलग-अलग जगहों पर खेल दिखाने जाता रहता है। उसके दादा इस खेल में अपने पास एक साँप भी रखते हैं और उसे भी दिखाते हैं। कक्षा में बातचीत के दौरान उसने इस बात को रखने का प्रयास किया कि पहले कक्षा में सम्मो और अकील उसे कलन्दर-कलन्दर बोलकर चिढ़ाते थे। इस पर सम्मो व अकील ने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा लगा कि इस कहानी को पढ़ने के उपरान्त सम्मो व अकील कुछ सोच में पड़ गए। वे कुछ नहीं बोले और हमने भी उस समय इस पर कोई बात नहीं की।
आगे जाकर कक्षा के साथियों के खान-पान एवं जातिगत भेदभाव पर भी बातचीत हुई। इस पर कुछ ही बच्चों ने चर्चा में उत्साह से हिस्सा लिया। बहुत-से बच्चे अभी व्यवस्थित ढंग से सोच नहीं पा रहे थे। सम्मो व गुलफाम ने ही कहा, “जिसका जो खाना है वह उसे खाना चाहिए। कक्षा में हमें ऐसा भेदभाव नहीं करना चाहिए।”
फिर बच्चों से पूछा गया कि कहानी के कौन-से हिस्से उन्हें अच्छे लगे तो बच्चों ने बताया, “जब काली ने साँप को पकड़ लिया और बच्चों ने ताली बजाई।” जब बच्चों से पूछा गया, “कहानी में मास्टर जी कैसे थे?” तो सभी बच्चों ने कहा, “डरपोक थे। पहले वे काली की तारीफ करते थे और बाद में कहने लगे कि तुम सब डर क्यों गए। साँप ज़हरीला नहीं था और उन्होंने काली को कोई शाबाशी नहीं दी।”
किताब पर चर्चा के अन्त में जब पूछा गया कि इस कहानी से हमें क्या बात समझ में आ रही है तो बच्चों ने कहा, “हमें कक्षा में सबसे दोस्ती रखनी चाहिए।”
किताब पर चर्चा के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करना और सामाजिक मुद्दों को चर्चा के घेरे में लाना, इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण बातें लगीं। इसके साथ यह समझना होगा कि ये प्रक्रियाएँ बच्चों की समझ बनाने के लिए ज़रूरी हैं। यह आवश्यक है कि बच्चों को सोचने का माहौल दिया जाए और उन्हें सोचने के लिए प्रेरित किया जाए। इस बात की ओर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज़ 2005 भी इशारा करता है, जहाँ कहा गया है कि स्कूली ज्ञान को बच्चों के परिवेश से जोड़ा जाए।

इसके उपरान्त किताब के आधार पर कुछ बच्चों ने अपनी दोस्ती व साँप से जुड़े अनुभवों को लिखने का प्रयास किया और कुछ बच्चों ने किताब की कहानी के आधार पर चित्र भी बनाए। बच्चों के लेखन के कुछ नमूने हम नीचे पढ़ सकते हैं:
साहिबा: जब स्कूल में मेरा नाम लिखा गया तो मुझसे कोई नहीं बोलता था। मैं चुपचाप बैठी रहती थी और मेरा स्कूल में बिलकुल मन नहीं लगता था। एक लड़की ने पूछा, “तुम इतनी चुप क्यों बैठी हो?” मैंने कहा, “मुझसे कोई नहीं बोलता है।” उसने कहा, “आज से मैं तुम्हारी दोस्त हूँ।” फिर मैं खुश रहने लगी और फिर मुझसे सारी लड़कियाँ बातचीत करने लगीं। हम सब एक साथ बैठते थे और हम एक साथ खाना खाने जाते थे। अब स्कूल में बहुत मज़ा आता है।
सम्मो बी: एक दिन की बात है। मैं अपनी बड़ी माँ के घर गुलड़िया गई तो अम्मी बोलीं, “बेटी, मदरसे जा।” तो मैं मदरसे गई। मुझसे कोई नहीं बोला तो एक दिन मैं मदरसे नहीं जा रही थी। तो अम्मी बोलीं, “जा।” मैं रो-रोकर मदरसे गई तब वहाँ पढ़ने लगी। हज़रत बोले, “सब पानी पीने टंकी के पास जाएँ।” सब पानी पी रहे थे तो एक लड़की बोली, “ऐ लड़की, इस टंकी से पानी मत पी।” मैं हज़रत के पास गई तो हज़रत बोले, “कोई बात नहीं, तुम दूसरी जगह से पानी पी लो।” फिर मैं मदरसे में चली गई और पढ़ने लगी और बच्चे भी पढ़ रहे थे। तभी वहाँ अचानक एक चमगादड़ आ गया और सारे बच्चे डरने लगे। तो मैंने सोचा कि एक दिन अम्मी कह रही थीं कि अगर चमगादड़ आ जाता है तो बैठ जाते हैं। मैंने बच्चों से वही कहा, “सारे बच्चे बैठ जाएँ” तो कोई नहीं बैठा। फिर चमगादड़ एक बच्चे के सिर पर बैठ रहा था। मैंने चिल्लाकर कहा, “देखो, मैं बैठी हूँ तो कोई चमगादड़ नहीं आ रहा है।” तो सारे बच्चे बैठ गए। फिर चमगादड़ भाग गया। सारे बच्चे बोले, “हम तुम्हें गलत समझते थे और तुमने हमारी जान बचाई, थैंक्यू।” फिर मदरसे के हज़रत बोले, “बेटी तुम बहुत अच्छी हो।” फिर हम अपने घर चले गए। मैंने सारी बात अपनी अम्मी को बताई तो अम्मी को भी खुशी हुई।

फरीन: स्कूल में मेरा नाम लिखने के बाद जब मैं स्कूल गई तो कोई मुझसे बोलता नहीं था। मैं उदास हो जाती थी और अकेली बैठकर खाना खाती थी। एक दिन हमारे स्कूल में एक बन्दर आ गया था। सब बच्चे डर गए और उसे पत्थर मारने लगे। तो मैंने कहा, “तुम सारे बच्चे पत्थर नहीं मारो।” फिर बन्दर भाग गया। सारे बच्चे मुझसे बोलने लगे, तो मैं बहुत खुश हुई।
शशि कश्यप: एक दिन की बात है। हम नानी के घर गए थे। मैं और मेरी बहिन बाहर खेलने लगे। मेरी बहिन ने अपनी एक सहेली बना रखी थी। उसकी सहेली ने मुझे सहेली नहीं बनाया। उसकी सहेली कहने लगी, “यह लड़की पागल है। यह हमें गिट्टी से मारेगी।” तभी वहाँ एक गिरगिट आ गया। सब लोग भागने लगे। मैंने उसे डण्डे से भगा दिया। फिर सबने मुझसे दोस्ती कर ली।
फिज़ा: एक दिन मैं अपनी नानी के घर गई थी। वहाँ मुझसे कोई दोस्ती नहीं करता था। फिर एक मेंढक आया तो सब बच्चे भाग गए थे। मैं एक बड़ी लकड़ी लिए थी और मैंने उस लकड़ी से उस मेंढक को भगा दिया। फिर सब बच्चों ने मुझसे दोस्ती कर ली। हम सब साथ खेलते थे।
बच्चों के लेखन में हम देखते हैं कि उन्होंने कहानी की संरचना को पकड़कर, अपने अनुभवों को उसमें व्यक्त किया है। वे अपनी स्मृतियों में भी गए हैं और कहानी को अपने जीवन से जोड़कर देख पाए हैं। इस लेखन में जहाँ हम उनके जीवन व उनकी भावनाओं को समझ सकते हैं, वहीं उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि भी हमें दिखाई पड़ती है। इसके साथ हमें यह भी समझ में आता है कि कोई कहानी अपने आप में कितनी कहानियों को समेटे हुई होती है जो मौका देने पर व्यक्त होती हैं। सबसे बड़ी बात बच्चों को इस प्रक्रिया में शामिल करने की है। हम देखते हैं कि बच्चों का पढ़ना, उन्हें लिखने के लिए भी प्रेरित करता है और कक्षा की प्रक्रियाएँ अर्थपूर्ण बनती हैं।
कुल मिलाकर ज़रूरत यह है कि बच्चों को नियमित रूप से ऐसे मौके दिए जाएँ, उनको किताबें सुनाई जाएँ, उनके साथ किताबें पढ़ी जाएँ और कभी-कभी उन पर चर्चा भी की जाए। यह सब उनकी किताबों में रुचि बनाने के लिए ज़रूरी है। बच्चों को किताब सुनाने व उस पर चर्चा करने के इस उदाहरण में हम देख सकते हैं कि कक्षा में सुनने, बोलने, पढ़ने व लिखने की प्रक्रियाएँ एक साथ चल रही होती हैं। वहीं बच्चों का किताबों को देखने-पढ़ने का दायरा भी व्यापक हो रहा होता है। वे अच्छे साहित्य व चित्रों से परिचित होते हैं। किताब पर चर्चा के दौरान उच्च-स्तरीय चिन्तन वाले प्रश्न पूछना बच्चों की समझ बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके लिए किताब को पहले ही पढ़ लेना और उस पर सवाल सोचना ज़रूरी होता है ताकि हम बच्चों से व्यवस्थित रूप से बात कर सकें। इन प्रश्नों में बच्चों की सोच, कल्पना, उनके अनुभव, सामाजिक मान्यताएँ आदि चर्चा के दायरे में आनी चाहिए।
बच्चों के लेखन को हम सही-गलत के खाने में नहीं रख सकते। हर बच्चे की अभिव्यक्ति की अहमियत है। इस उदाहरण में हम यह भी समझ सकते हैं कि बच्चे कक्षा की चर्चाओं को अपने अनुभवों व सोच से इंटरप्रेट करते हैं और उनकी प्रतिक्रियाओं को हमें उनके सामाजिक सन्दर्भ व उनकी विकास अवस्था के अनुरूप देखने की कोशिश करनी चाहिए। हाँ, इस लेखन को और कैसे बेहतर बनाया जाए, इस पर भी बच्चों से बात करना चाहिए ताकि आगे वे और बेहतर ढंग से लिख पाएँ। आखिर में, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चों से किताबों पर बात करने के लिए स्वयं शिक्षक को भी बाल साहित्य का आनन्द लेना चाहिए। उन्हें भी खूब सारी बच्चों की किताबें पढ़नी चाहिए।


कमलेश चन्द्र जोशी: प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से लम्बे समय से जुड़े हैं। इन दिनों अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, ऊधमसिंह नगर में कार्यरत।
सभी चित्र काली और धामिन साँप किताब से साभार।