डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
साइन्स पत्रिका के 6 जुलाई 2018 के अंक में फिज़ियोलॉजिस्ट डॉ. रॉबर्ट रूट-बर्नस्टाइन का आलेख कुछ इस तरह शुरू होता है “यदि आपने कभी भी कोई चिकित्सीय सेवा ली है तो संभावना है कि आप कला से भी लाभांवित हुए हैं। स्टेथोस्कोप का आविष्कार फ्रांसीसी बांसुरी वादक-चिकित्सक रेने लाइनेक ने किया था। उन्होंने ह्मदय की धड़कन को संगीत की संकेत-लिपि में रिकॉर्ड किया था।”
डॉ. रॉबर्ट रूट-बर्नस्टाइन कहते हैं कि कैसे पाठ्यक्रम में मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को शामिल करने से बेहतर वैज्ञानिक तैयार होते हैं। उन्होंने उच्च शिक्षा बोर्ड और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन के वर्कफोर्स द्वारा जारी की गई हालिया रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें सिफारिश की गई है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित और चिकित्सा के साथ मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन का एकीकरण होना आवश्यक है।
वैकासिक जीव विज्ञानी कॉनराड वैडिंगटन के अनुसार “दुनिया की गंभीर समस्याओं का हल सिर्फ एक संपूर्ण व्यक्ति द्वारा ही किया जा सकता है, न कि उन लोगों द्वारा जो सार्वजनिक रूप से खुद को महज़ एक तकनीकी विशेषज्ञ या वैज्ञानिक या कलाकार से अधिक कुछ और मानने से इंकार करते हैं।” और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग के अध्यक्ष प्रोफेसर चाल्र्स वेस्ट कहते हैं, “समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र और संचार - यानी उदार कला और सामाजिक विज्ञान की बातों - की समझ के बिना इंजीनियरिंग सिस्टम की बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना, डिज़ाइन या उसका असरदार इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।”
भारतीय स्नातक
भारत में, लगभग 3345 कॉलेजों और संस्थानों से हर साल 15 लाख से अधिक इंजीनियर निकलते हैं। अफसोस की बात है कि इनमें से अधिकांश को नौकरी नहीं मिलती। मारिया थार्मिस ने पिछले साल इकॉनॉमिक टाइम्स में लिखा था कि पिछले तीन दशकों में भारत के आईटी उद्योग में तेज़ी से हुए विकास और इस क्षेत्र में पैसे, रुतबे और विदेश जाने के अवसरों के चलते हज़ारों छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश ले रहे हैं। इन छात्रों में ज़्यादातर छात्र अपने माता-पिता द्वारा प्रेरित किए जाते हैं। यही हाल मेडिकल कॉलेजों का है। माता-पिता बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्हें इस क्षेत्र में भेजना चाहते हैं। भारत में हर साल करीब 1700 मेडिकल कॉलेजों से 52,000 डॉक्टर (एमबीबीएस) निकलते हैं। 6.3 लाख से अधिक छात्र प्री-मेडिकल प्रवेश परीक्षा देते हैं। इनमें से अच्छी-खासी तादाद में छात्र डोनेशन के रूप में मोटी रकम भरकर निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं। यहां भी पालकों का दबाव काफी हावी रहता है। ज़्यादातर डॉक्टरों, खासकर गांवों और छोटे कस्बों के डॉक्टरों की काबिलियत से हम सब वाकिफ हैं।
और जब बात मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन की आती है तो इनमें से ज़्यादातर लोग तो अज्ञानी ही होते हैं। ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें डॉ. वैडिंगटन ने ‘संपूर्ण व्यक्ति’ कहा है।
चूक कहां हुई?
कमी स्कूल स्तर पर है। पिछले सात दशकों से केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों ने स्कूलों के पाठ्यक्रम के साथ खिलवाड़ करके, उनके बजट में कमी करके, कोटा सिस्टम के तहत अयोग्य शिक्षकों की भर्ती करके (जो स्कूल आना तक ज़रूरी नहीं समझते), सिलेबस के साथ मनमानी करके और ऐसे अनगिनत हस्तक्षेप करके स्कूली तंत्र को काफी बर्बाद किया है। प्रथम संस्था जैसे शिक्षा विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब है कि आठवीं कक्षा का छात्र पांचवीं के सवाल हल नहीं कर पाता और पांचवीं का छात्र तीसरी कक्षा के सवालों के जवाब नहीं दे पाता। लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं जो वास्तव में नोट छापने की मशीनें हैं। इन स्कूलों की फीस व अन्य खर्चे उठाना निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बूते के बाहर है।
इस तंत्र ने और इसके साथ ही स्नातक होने के बाद एक अच्छी नौकरी और नियमित आय की ज़रूरत ने मिलकर हमारी शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर दिया है। इसी के चलते कोचिंग सेंटर पैदा हुए जिन्हें राजनैतिक संपर्क वाले लोग चलाते हैं। ये माध्यमिक कक्षाओं से ही बच्चों को भर्ती कर लेते हैं और उन्हें अजीबोगरीब व पेचीदा पाठ्यक्रम का पाठ पढ़ाते हैं ताकि वे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा पास कर लें। न तो इन कोचिंग सेंटरों में और न ही इन स्कूलों में किसी भी स्तर पर मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पढ़ाया जाता है। जो लोग इन मशीनी शिक्षण कारखानों से सफलतापूर्वक बाहर निकलते हैं वे एनआईटी, आईआईटी या मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं, लेकिन ‘सामाजिक कौशल’ के बगैर। अब वह समय आ गया है कि स्कूल प्रणाली को सुधारा जाए और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन जैसे विषयों को शुरुआत से ही स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।
इस कमी को ध्यान में रखते हुए आईआईटी, बिट्स पिलानी, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन और कुछ अन्य संस्थाओं ने पहले कुछ सेमेस्टर में ‘कोर पाठ्यक्रम’ शुरू करने की पहल की है। इस कोर्स में छात्रों को भाषा, साहित्य, मानविकी और सामाजिक विज्ञान, कला और शिल्प, और डिज़ाइन जैसे विषय पढ़ाए जाएंगे। खुशी की बात है कि कई आईआईटी में अब प्रोद्योगिकी और विज्ञान के अलावा मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन विषयों के भी विभाग हैं और ये विषय पढ़ाए जाते हैं और इन पर शोध किए जाते हैं। (इसका एक सुंदर उदाहरण है - इस वर्ष आईआईटी हैदराबाद में दीक्षांत समारोह में पहनी जानी वाली पोशाक का डिज़ाइन इकात (बंधेज) शैली में किया गया था, जिसमें स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किए गए गाउन का उपयोग किया गया था।) आईआईटी और बिट्स के ये कोर पाठ्यक्रम कुछ मददगार साबित हो सकते हैं। इसी प्रकार वेल्लोर में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के स्नातक डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में एक वर्ष अनिवार्य रूप से बिताना होता है। जिससे उनकी समुदाय और उसकी ज़रूरतों, उसकी क्षमताओं के बारे में समझ बनती है और समझदारी पैदा होती है। आईटी कंपनियां अपने प्रशिक्षुओं को जेनेरिक और स्ट्रीम लर्निंग के साथ-साथ ‘सामाजिक कौशल’ पर महीने भर का प्रशिक्षण देती हैं। पर अन्य तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों का क्या हाल है?
उन्नति की राह
अफसोस की बात है कि केंद्रीय उच्च शिक्षा मंत्रालय उदार कला और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन के महत्व को नहीं समझता। इसका एक चौंकाने वाला उदाहरण है कि चार तकनीकी संस्थानों और एक प्रस्तावित ग्रीन फील्ड संस्थान को उत्कृष्ट संस्थान के तौर पर चिंहित किया गया है। देखने वाली बात यह है कि एक भी मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन सम्बंधी विश्वविद्यालय या संस्थान उत्कृष्ट नहीं माना गया! सरकार किसे उत्कृष्ट मानती है और पेशेवर विद्वान किसे उत्कृष्ट मानते हैं, इसमें फर्क है।
इस विसंगति को देखते हुए एक सुझाव है। क्यों न कुछ ग्रीन फील्ड संस्थान टेक्नॉलॉजी-आधारित विषयों की बजाय मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पर केंद्रित हों? और नए संस्थान खोलने की बजाय बेहतर होगा कि ट्रस्ट स्थापित करके मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को उत्प्रेरित व प्रोत्साहित किया जाए। (स्रोत फीचर्स)