डॉ. किशोर पंवार
कल की बात है माली ने मेरी टेबल पर एक विचित्र-सी वस्तु लाकर रख दी। किसी ने कहा बड़ा सुंदर पेपर वेट है तो किसी ने लकड़ी की गठान तक कह दिया। दरअसल इस पर बड़ी सुंदर लगभग षट्कोणीय रचनाएं बनी हुई थीं। लगभग गोल गहरे बादामी रंग की यह रचना देखने में बड़ी सुंदर थी।
मैंने उससे पूछा यह कहां से लाए हो तो उसने कहा, सर पीछे बगीचे में ज़मीन पर ढेर सारे पड़े हैं। मैंने वहां जाकर देखा तो एक बेल बबूल के पेड़ पर चढ़ी थी जिसके पत्ते बड़े-बड़े पान जैसे थे। ध्यान से देखने पर पत्तों का रूप रंग कुछ-कुछ जाना पहचाना लगा। सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा तो नज़र आया कि बेल की प्रत्येक पत्ती और तने के बीच ऐसी कई गठानें वहां लटकी हुई हैं। पत्तों को देखकर लगा कि हो ना हो यह गराडू की बेल है। परंतु गराडू तो ज़मीन के अंदर लगते हैं वह भी बहुत बड़े-बड़े और बेडौल। यह तो लगभग गोल मटोल रचना है। खोजबीन करने पर पता चला कि यह बेल तो एयर पोटैटो यानी हवाई आलू की है।
इसका नाम ज़रूर आलू है पर यह समोसे में डालने वाला आलू तो कतई नहीं है। असली आलू यानी ज़मीनी आलू तो एक ऐसा कंद है जो तने का रूपांतरण माना जाता है। जबकि इस हवाई आलू को बुलबिल कहा जाता है। वैज्ञानिक इसे डायोस्कोरिया बल्बिफेरा कहते हैं। हिंदी में इसे गेठी, वाराही कंद और डुक्कर कंद आदि भी कहते हैं। हिंदी नाम से ही पता चलता है कि यह सूअर (वराह) को बड़ा पसंद है।
यह एकबीजपत्री पौधा है जो अपवाद स्वरूप बेल है और पत्तियां भी अपवाद स्वरूप दोबीजपत्री पौधों की तरह बड़ी-बड़ी और जालीदार शिरा विन्यास वाली हैं। यानी सब कुछ गड़बड है। हमारे द्वारा बनाए गए नियमों से दूर है यह हवाई आलू की बेल।
यह बेल अफ्रीका, एशिया और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की मूल निवासी है। इसकी व्यापक पैमाने पर खेती भी की जाती है एवं दुनिया के कई क्षेत्रों, जैसे लैटिन अमेरिका, वेस्टइंडीज़ और दक्षिणी अमेरिका में यह अपना प्राकृतिक स्थान बना चुकी है। यह आधार पर घड़ी की विपरीत दिशा में घूम-घूम कर लिपट कर आगे बढ़ती है। ऐसी लताओं को वामावर्त लता कहते हैं। यह बहुत ही तेज़ी से वृद्धि करती है और 50 फीट ऊंचाई तक चढ़ सकती है। लगभग 20 सेंटीमीटर प्रतिदिन के मान से यह पेड़ों पर चढ़ कर उन पर छा जाती है। इसका हवाई तना ठंड में सूख जाता है परंतु अगली बारिश में पुन: अपने ज़मीनी कंदों से फूटकर नई बेल बनाता है ।
इसमें पुष्प मंजरियों में निकलते हैं। मादा पुष्प की मंजरियां नर से ज़्यादा लंबी होती हैं। इसमें प्रजनन का मुख्य तरीका पत्तियों के कक्ष में बने बुलबिल (कंद) होते हैं। यही बुलबिल बेल का बिखराव करते हैं और नए-नए पौधों को जन्म देते हैं। मादा फूलों से बने फल कैप्सूल प्रकार के होते हैं।
कुछ कंदों का स्वाद कसैला होता है जो आग में भूनने से समाप्त हो जाता है। आलू और रतालू की तरह इससे तरह-तरह कें व्यंजन बनाए जा सकते हैं। यह हवाई आलू याम प्रजातियों में सबसे ज़्यादा खाई जाने वाली प्रजाति है। ये फ्लोवोनॉइड्स के अच्छे स्रोत हैं जो शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट का काम करते हैं और सूजन को कम करते हैं।
एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में अतिसार, गले की खराश और पीलिया आदि रोगों के उपचार के काम में लाया जाता है। इनमें एक प्रकार का स्टेरॉइड डायोसजेनिन पाया जाता है जिसे गर्भ निरोधक हॉर्मोन बनाने के काम में लाया जाता है। मूलत: एशिया और अफ्रीका का यह पौधा अब लगभग पूरी दुनिया में जहाज़ों और लोगों के द्वारा फैलाया जा चुका है। आज भी ये हवाई आलू एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, हवाई, टेक्सास, लुसियाना और वेस्टइंडीज़ के बाज़ारों में बेचे जाते हैं। मैंने भी होशंगाबाद के हाट से एक बार मेरे मित्र प्रमोद पाटिल के साथ इसे खरीदा था। वहां इसे कचालू कहते हैं। देश में इसकी सुलभ और भरपूर उपलब्धि के मद्देनज़र इसका व्यावसायिक उपयोग किया जाना चाहिए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)