हाल ही में खगोल शास्त्रियों ने एक सैद्धांतिक संभावना व्यक्त की है कि ग्रहों के चक्कर काटने वाले चंद्रमाओं के भी चंद्रमा हो सकते हैं। उन्होंने ऐसा होने के लिए कुछ शर्तें भी बताई हैं। और यह बहस शुरू हो गई है कि इन आकाशीय पिंडों को नाम क्या देंगे।
पहले तो यह देख लीजिए कि चंद्रमा का मतलब क्या होता है। चंद्रमा उन आकाशीय पिंडों को कहते हैं जो किसी प्राकृतिक ग्रह (जैसे पृथ्वी, बृहस्पति वगैरह) के चक्कर काटते हों। ग्रह तो स्वयं सूर्य के चक्कर काटता है।
साइन्स एलर्ट में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कार्नेजी इंस्टीट्यूशन की वेधशाला के खगोल शास्त्री जूना कोलमेयर और बोर्डो विश्वविद्यालय के खगोलविद सीन रेमंड ने ऐसे चंद्रमा के चंद्रमाओं की संभावना जताई है और इनके लिए उपचंद्रमा नाम प्रस्तावित किया है।
कोलमेयर और रेमंड ने अनुमान लगाने की कोशिश की है कि किस तरह चांद के अपने उप-चंद्रमा हो सकते हैं और इन उप-चंद्रमाओं और चंद्रमा का परस्पर सम्बंध क्या होगा। उनका कहना है कि सैद्धांतिक रूप से किसी चंद्रमा के उप-चंद्रमा तभी संभव हैं जब वह चंद्रमा स्वयं काफी विशाल हो और उप-चंद्रमा काफी छोटा हो।
इसे समझने के लिए हिल स्फीयर की अवधारणा को समझना होगा। हिल स्फीयर की अवधारणा अमेरिकी खगोल शास्त्री जॉर्ज विलियम हिल ने विकसित की थी। किसी भी ग्रह के आसपास के उस क्षेत्र को उसका हिल स्फीयर कहते हैं जहां ग्रह का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख चालक शक्ति होता है। इसके बाहर सूर्य का गुरुत्वाकर्षण प्रमुख हो जाता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी के हिल स्फीयर की त्रिज्या 15 लाख कि.मी. है। यानी पृथ्वी के चारों ओर 15 लाख कि.मी. की दूरी तक पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण सबसे प्रभावी बल रहता है। किसी भी ग्रह का प्राकृतिक उपग्रह (चंद्रमा) इस हिल स्फीयर के अंदर ही रह सकता है। हमारा चांद पृथ्वी से पौने चार लाख कि.मी. दूर है यानी हिल स्फीयर के अंदर ही है। यदि किसी वजह से चांद इस हिल स्फीयर से बाहर निकल जाए तो वह पृथ्वी की परिक्रमा करने की बजाय सीधे सूर्य की परिक्रमा करने लगेगा और स्वयं एक ग्रह कहलाने का पात्र हो जाएगा। तुलना के लिए बृहस्पति का हिल स्फीयर लगभग साढ़े पांच करोड़ कि.मी. का है। यही वजह है कि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।
अब अपने चांद पर विचार करें। उसका हिल स्फीयर उसके चारों ओर 60,000 कि.मी. की दूरी तक फैला है। तो हमारे चांद को यदि किसी चंद्रमा से स्थायी रिश्ता बनाकर रखना है तो वह उप-चंद्रमा चांद से अधिकतम 60,000 कि.मी. की दूरी पर हो सकता है। मगर यहां एक दिक्कत है।
यदि चांद का उप-चंद्रमा उसके इतना नज़दीक हुआ तो उस पर चंद्रमा के कारण ज्वारीय प्रभाव बहुत विकट हो जाएंगे और उसका परिक्रमा पथ धीरे-धीरे छोटा होता जाएगा और एक समय आएगा जब वह चांद में समा जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वह घटना काफी उग्र होगी। यह भी हो सकता है कि मूल ग्रह के ज्वारीय प्रभाव से या तो चंद्रमा और उप-चंद्रमा आपस में टकराकर चकनाचूर हो जाएं या उप-चंद्रमा अपनी कक्षा को छोड़कर अंतरिक्ष में निकल जाए।
उप-चंद्रमा के स्थायी रूप से चांद के चक्कर लगाने की प्रमुख शर्त यह है कि वह चांद के हिल स्फीयर में हो तथा इस उप-चंद्रमा की परिक्रमा कक्षा तथा मूल ग्रह की परिक्रमा कक्षा के बीच स्पष्ट फासला हो। वैसे उप-चंद्रमा मिलें ना मिलें, इस अध्ययन से उपग्रह निर्माण तथा ग्रह मंडलों के विकास को समझने में मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)