पश्चिमी निमाड़ (मध्य प्रदेश) के एक गांव के स्कूल के गेट के निकट सर्प देवता के छोटे-छोटे मंदिरों की कतार ध्यान खींचती है। वैसे तो सर्प देवता के मंदिर निमाड़ अंचल में पग-पग पर दिखाई देंगे लेकिन यहां एक साथ इतने मंदिर देखकर आश्चर्य होता है। गांव के एक बुज़ुर्ग ने बताया कि ये सर्पदंश से मृतकों की समाधियां हैं।
अन्य गांवों की तरह यह गांव भी खेतों, खलिहानों व झाड़-झंखाड़ से घिरा है। गांव में प्रवेश करते ही खुली नालियां गांव के घरों से सटी हुई उफनती दिखती हैं। मकानों की छतों, आंगन व ज़मीन पर अनाज सुखाया व भंडारित किया जाता है। घास-चारा भी घरों के ही एक हिस्से में जमा किया जाता है। तो चूहों की मौजूदगी स्वाभाविक है।
भारत में सर्पदंश से मृत्यु के आंकड़े भयावह है। आज भी सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ अस्पताल की दहलीज तक नहीं पहुंच पाते हैं। वे या तो जल्द ही काल के गाल में समा जाते हैं या फिर झाड़-फूंक, टोने-टोटके पर भरोसा किया जाता है। यह भरोसा तब और पुख्ता हो जाता है जब मरीज़ को विषहीन सर्प ने काटा हो। या अगर विषैले सर्प ने डसा भी हो तो दंश सूखा हो, अर्थात विष मरीज़ के शरीर में पहुंचा ही न हो। ऐसा तब होता है जब विषैले सर्प की विष थैलियों में विष बचा ही न हो और उसने अपनी जान बचाने के लिए डसा हो। इसलिए मरीज़ मृत्यु से बच जाते हैं।
सर्पदंश का खतरा अधिकतर ग्रामीण इलाकों व कृषि जगत से जुड़ा है। दुनिया भर में हर वर्ष सर्पदंश से लगभग एक लाख लोग दम तोड़ देते हैं। इनमें से आधी मौतें अकेले भारत में होती हैं। भारत में मौतों का आंकड़ा ज़्यादा भी हो सकता है क्योंकि आज भी भारत में सर्पदंश के कई मामले अस्पताल तक नहीं पहुंच पाते।
आंकड़े बताते हैं कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में भारत की तुलना में अधिक विषैले सांप हैं; फिर भी भारत में सर्पदंश से मृत्यु का आंकड़ा कहीं अधिक है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि भारत में सर्पदंश को लेकर फ्रंटलाइन तैयारी कमज़ोर है। ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक चिकित्सा की व्यवस्था नहीं होती। दूसरी ओर, प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों पर एंटी-वेनम सीरम का टीका उपलब्ध नहीं होता। इससे जुड़ी समस्या यह है कि एंटी-वेनम सीरम का टीका लगाने का अनुभव रखने वाले चिकित्सकों का अभाव है।
सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च, युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के साथ भारत व संयुक्त राज्य अमेरिका के साथियों द्वारा किए गए अध्ययन से पता चलता है कि 2000 से 2019 के दौरान 12 लाख लोगों की मृत्यु सर्पदंश से हुई (सालाना लगभग 58,000)।
सन 2009 से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विषैले सर्पदंश को ‘नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिसीज़’ यानी उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोग की श्रेणी में सूचीबद्ध किया है। सर्पदंश की सबसे अधिक घटनाएं दुनिया के 149 उष्णकटिबंधीय देशों में होती हैं। इससे अरबों डॉलर के नुकसान का आकलन है।
उपरोक्त अध्ययन का मकसद भारत में घातक सर्पदंश का शिकार होने वाले लोगों की पहचान करना और उनके जीवन पर होने वाले असर को जानना था। सर्पदंश की वजह से मृत्यु के अलावा लकवा मारना, रक्तस्राव, किडनी खराब होना और गैंग्रीन होना आम बात है। यह अध्ययन सिफारिश करता है कि सर्पदंश को भारत सरकार नोटिफाएबल डिसीज़ के रूप में शामिल करे।
भारत में सांपों की लगभग 3000 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से मात्र 15 प्रजातियों के सांप विषैले होते हैं। इन 15 में से भी केवल चार प्रजातियां ऐसी हैं जिनके दंश से मरीज़ मौत के मुंह में समा जाते हैं। इन्हें विषैली चौकड़ी के नाम से जाना जाता है। ये हैं नाग (कोबरा), दुबोइया (रसेल वाइपर), फुर्सा (सॉ-स्केल्ड वाइपर), और घोणस (करैत)। भारत में 20 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि सर्पदंश से सबसे अधिक मौतें (लगभग 43.2 प्रतिशत) रसेल वाइपर के काटने से हुई। उसके बाद करैत (17.7 प्रतिशत) व कोबरा (11.7 प्रतिशत) आते हैं।
भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों में 97 फीसदी मौतें ग्रामीण इलाकों में होती है। सर्पदंश की कुल मौतों में 70 फीसदी बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, ओडिशा, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में हुई। अध्ययन बताते हैं कि सर्पदंश से मरने वालों में पुरुष (59 प्रतिशत) अधिक होते हैं। ये घटनाएं जून से सितंबर के बीच अधिक होती है। अधिकतर सांप मानसून के मौसम में ज़मीन पर आ जाते हैं और यहां-वहां अपने बचाव में, शिकार की खोज आदि के लिए भटकते हैं। सांप खेतों, जंगलों या ऐसी जगहों पर मिलते हैं जहां उनका भोजन उपलब्ध होता है। सर्पदंश की अधिकांश घटनाएं जंगल, खेतों में होती हैं जहां से मरीज़ को चिकित्सा केंद्र पर लाना भी संभव नहीं होता।
और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन मौतों में से सत्तर फीसदी 20 से 50 बरस की आयु के वे पुरुष होते हैं जो रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करते हैं।
गांवों में अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएं जैसे प्रकाश की व्यवस्था, सीवेज सिस्टम, स्वच्छता के अभाव में चूहों की बढ़ती आबादी सर्पदंश को बढ़ावा देती है।
अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि अधिकांश मज़दूर और किसान खेत में काम करते वक्त जूते नहीं पहनते। लगभग 70 फीसदी सर्पदंश पैरों में होता है। ज़मीन पर सोना सर्पदंश को आमंत्रण देता है। घर के पास पशुओं को बांधा जाता है। परिणामस्वरूप चूहे और पीछे-पीछे सांप अधिक आते हैं।
सर्पदंश से पीड़ित मरीज़ पर वित्तीय बोझ भी पड़ता है। एक ओर जहां मरीज़ों को अस्पताल का भारी खर्च उठाना पड़ता है वहीं वह श्रम से हाथ धो बैठता है। यह भी देखा गया है कि सर्पदंश से ग्रसित मरीज़ अगर बच भी जाता है तो वह मनोवैज्ञानिक तनाव से गुज़रता है। खासकर रसेल वाइपर व फुर्सा के दंश के मामले में मरीज़ बच तो जाते हैं लेकिन उनके दंश वाले अंगों में गैंग्रीन हो जाता है और उस अंग को काटना पड़ता है।
निमाड़ ज़िले के एक गांव में सर्पदंश से या अन्य कारणों से अकाल मृत्यु होने पर शव का दाह संस्कार करने की बजाय दफन किया जाता है।
उस गांव में एक शादीशुदा महिला को सांप ने काटा था। वह महिला खलिहान में कपास की काठी लेने को गई थी। जैसे ही महिला कपास के ढेर में से काठियां उठाने लगी कि सांप ने डस लिया। उस परिवार में शादी तीज-त्यौहार के समय उक्त महिला के समाधि स्थल की पुताई की जाती है और पूजा की जाती है।
एक बालक की समाधि भी है। बताया जाता है कि वह खेत में गया था जहां उसे सांप ने डस लिया।
एक और समाधि गोविंद नामक एक अधेड़ व्यक्ति की है। बताते हैं कि गोविंद सांपों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते थे। एक बार सांप दिखने पर गोविंद ने उसका मुंह पकड़ लिया। पकड़ थोड़ी ढीली हुई तो उसने हाथ में डस लिया। झाड़-फूंक वगैरह के बाद लगभग 15 किलोमीटर दूर अस्पताल पहुंचते-पहुंचते गोविंद ने दम तोड़ दिया।
गांववासी बताते हैं कि ऐसी समाधियां अन्य गांवों में भी हैं।
अध्ययन अनुशंसा करता है कि सांपों व सर्पदंश के बारे में लोगों को शिक्षित व जागरूक किया जाए। सांपों से बचाव के लिए खेत-जंगल में काम करने के दौरान जूते व दस्ताने पहनना और रोशनी के लिए टार्च का इस्तेमाल सर्पदंश के जोखिम को कम कर सकता है। मच्छरदानी का व्यापक वितरण व इस्तेमाल मच्छरों के साथ ही रात में सांपों से बचा सकता है।
यह अध्ययन इस ओर भी ध्यान दिलाता है कि समस्या चिकित्सा विज्ञान की प्राथमिकता की भी है। चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में सर्पदंश को हाशिए पर रखा हुआ है। छात्रों को सर्पदंश का पाठ पढ़ाया तो जाता है लेकिन जो डॉक्टर तैयार होते हैं उन्हें सर्पदंश का मैदानी अनुभव न के बराबर मिल पाता है। ऐसे में सर्पदंश के लक्षणों के आधार पर पता लगाना कि किस सांप ने काटा है और एंटी-वेनम की खुराक कितनी देनी है, जैसी बारीकियों के अनुभव से वे वंचित होते हैं।
अध्ययन एक और बात की ओर इशारा करता है। वर्तमान में जो एंटी-वेनम सीरम उपलब्ध है वह केवल स्पेक्टेकल्ड कोबरा, कॉमन करैत, रसेल वाइपर व सॉ-स्केल्ड वाइपर के विष को बेअसर कर पाता है। 12 अन्य विषैली प्रजातियों के खिलाफ यह असरकारक नहीं होता।
वर्तमान में चैन्नई के पास इरूला को-ऑपरेटिव सोसायटी एंटी-वेनम के निर्माण के लिए सांपों का विष उपलब्ध कराती है। उल्लेखनीय है कि इरूला जाति के लोग सांपों को पकड़ने में निपुण माने जाते हैं। रोमुलस व्हिटेकर की पहल पर इरूला को-ऑपरेटिव सोसायटी का गठन किया गया जो सांपों का विष निकालते हैं और वापस उन्हें जंगल में छोड़ देते हैं। सोसायटी विष प्राप्त करके एंटी-वेनम सीरम का निर्माण करती है और कुछ दवा कंपनियों को उपलब्ध करवाती है।
लेकिन यह देखने में आया है कि दक्षिण भारत में पाए जाने वाले स्पेक्टेकल्ड कोबरा या रसेल वाइपर का विष पूर्वी भारत में पाए जाने वाली उसी प्रजाति के विष से भिन्न होता है। यह फर्क होने से भी कई बार एंटी-वेनम सीरम कारगर नहीं होता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह लक्ष्य निर्धारित किया है कि वर्ष 2030 तक सर्पदंश को नियंत्रित कर मृत्यु दर को आधा कर लिया जाएगा। सर्पदंश के खिलाफ तभी प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है जब सार्वजनिक चिकित्सा का दृष्टिकोण सकारात्मक हो। सर्पदंश के मामले में हस्तक्षेप स्थानीय स्तर पर ही किया जाना चाहिए। तभी मरीज़ों को मृत्यु से बचाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)