इन दिनों फफूंद के बड़े चर्चे हैं। ब्लैक फंगस, वाइट फंगस और फिर येलो फंगस। वैसे ये फफूंदें तो सहस्राब्दियों से हमारे साथ रहती आई हैं और रहेंगी। कभी दोस्त तो कभी दुश्मन बन कर।
अनुमान के मुताबिक हमारे आसपास फफूंद की 15-50 लाख तक प्रजातियां हो सकती हैं। इनमें से अधिकांश मृतजीवी हैं (मृत, सड़ते-गलते जीवों से भोजन प्राप्त करती हैं)। इनमें से कुछ ही मानव में बीमारी फैलाने के लिए ज़िम्मेदार मानी गई हैं। पृथ्वी पर हमारे सहित सभी जीव-जंतु फफूंदों के साथ-साथ विकसित हुए हैं। मानव का प्रतिरक्षा तंत्र भी इनके साथ विकसित हुआ है। अत: इनके संक्रामक होने की संभावना बहुत कम होती है।
काली फफूंद के बीजाणु सांस के साथ, खाने के साथ या फिर त्वचा के द्वारा प्रवेश करते हैं। ये बीजाणु ही रोग का कारण होते हैं।
फफूंद ऐसे जीव हैं जो न तो पेड़-पौधों से मेल खाते हैं न जंतुओं से। ये बैक्टीरिया भी नहीं हैं। ये तो अलग ही किस्म के जीव हैं। इन्हें हम कुकुरमुत्ता, टोडस्टूल या यह खमीर जैसे नामों से जानते हैं। इनकी उत्पत्ति, रचना, व्यवहार एवं प्रजनन आदि के तरीके लंबे समय तक रहस्य और रोमांच के आवरण में ढंके रहे। कई किंवदंतियां जुड़ी हैं इनकी उत्पत्ति से। जैसे कूड़े के ढेर पर कुत्ता पेशाब कर दे तो कुकुरमुत्ते उगते हैं।
इनमें पौधों की तरह न जड़ होती है न तना, पत्ती या फूल। जंतुओं की तरह इनमें हाथ-पैर, सिर वगैरह भी नहीं है। और तो और, ये पौधों की तरह अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते हैं। और न ही जंतुओं की तरह चरते-कुतरते हैं। इसके बावजूद भी ये दूर-दूर तक फैले हुए हैं। कुछ ज़मीन पर उगते हैं तो कुछ पानी में मिलते हैं। कुछ पेड़-पौधों की पत्तियों, तनों, जड़ों और फलों पर अपना डेरा जमाते हैं तो कुछ हमारे जैसे जंतुओं की त्वचा पर। डैंड्रफ यानी रूसी भी एक तरह की फफूंद है। तरह-तरह के फफूंद नाशक इनका सफाया नहीं कर पाते। हां, यह अलग बात है डैंड्रफ हटाने के चक्कर में हमारी जेबें ज़रूर साफ होती रहती हैं। खुजली, दाद और एग्ज़ीमा का कारण भी फफूंद ही हैं।
ये भोजन कहां से पाती हैं?
सड़ी-गली लकड़ियों और बरसात में घूरे पर उगी काली, सफेद, भूरी छतरियां, कार्टून कथाओं के मेंढक के छाते, ज़मीन पर उगी पफ बॉल्स तथा अर्थस्टार्स सब इनके ही विभिन्न रूप हैं। इन सबकी एक ही खासियत है कि ये हरे नहीं होते यानी क्लोरोफिल इनमें नहीं होता। परिणामस्वरूप ये अपना भोजन नहीं बना पाते। मगर जीने के लिए तो भोजन ज़रूरी है।
लिहाज़ा, अधिकांश फफूंद मृतजीवी हैं। कुछ ऐसी भी हैं जो पहले किसी जीते-जागते जीव से परजीवी की तरह भोजन लेती रहती हैं और फिर उसके मर जाने पर भी उनका पीछा नहीं छोड़ती हैं - जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी। ऐसी फफूंद विकल्पी परजीवी कहलाती हैं। कुछ फफूंदों ने भोजन चुराने का रास्ता भी अपनाया है, अमरबेल के समान। कुछ फफूंद इससे उलट भी होती हैं - वे यूं तो मृतजीवी होती हैं, परंतु मौका मिलते ही परजीवी बन जाती हैं। ब्लैक फंगस इसी मौकापरस्त श्रेणी में आती है। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - August 2021
- अंतर्राष्ट्रीय महामारी संधि का आह्वान
- संरक्षित ऊतकों से 1918 की महामारी के साक्ष्य
- एंटीबॉडी युक्त नेज़ल स्प्रे बचाएगा कोविड से
- दीर्घ कोविड से जुड़े चार अहम सवाल
- मिले-जुले टीके और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया
- कोविड-19 वायरस का आणविक विश्लेषण
- आजकल फफूंद की चर्चा हर ज़ुबान पर
- भारत में अंधत्व की समस्या
- पुतली का आकार और बुद्धिमत्ता
- वायरस का तोहफा है स्तनधारियों में गर्भधारण
- तालाबंदी की सामाजिक कीमत
- नासा की शुक्र की ओर उड़ान
- क्या वनस्पति विज्ञान का अंत हो चुका है?
- क्या कुछ पौधे रात में भी ऑक्सीजन छोड़ते हैं?
- निएंडरथल की विरासत
- वैज्ञानिक साहित्य में नकली शोध पत्रों की भरमार
- समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण पर बढ़ती चिंता
- नाभिकीय संलयन आधारित बिजली संयंत्र
- गरीबी कम करने से ऊर्जा की मांग में कमी
- एकाकी उदबिलाव बहुत ‘वाचाल’ हैं
- चांद पर पहुंचे टार्डिग्रेड शायद मर चुके होंगे
- एक नई गैंडा प्रजाति के जीवाश्म