हाल ही में भारत में एक अनोखा टेलीस्कोप तैयार किया गया है जिसमें ठोस दर्पण के बजाय घूर्णन करता तरल पारा उपयोग किया गया है। हालांकि इस तरह के टेलीस्कोप पहले भी बनाए जा चुके हैं लेकिन खगोल विज्ञान को समर्पित 4-मीटर चौड़ा इंटरनेशनल लिक्विड मिरर टेलीस्कोप (आईएलएमटी) पहली बार तैयार किया गया है। इसे हिमालय में 2450-मीटर ऊंचाई पर नैनीताल के समीप स्थित देवस्थल वेधशाला में स्थापित किया गया है।
गौरतलब है कि लगभग 15 करोड़ रुपए की लागत का यह टेलीस्कोप बेल्जियम, कनाडा और भारत द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। यह कांच वाले टेलीस्कोप की तुलना में बहुत सस्ता है। इसी टेलीस्कोप के नज़दीक बेल्जियम की एक कंपनी द्वारा 3.6 मीटर चौड़ा स्टीयरेबल देवस्थल ऑप्टिकल टेलीस्कोप (डीओटी) भी स्थापित किया गया है जिसकी लागत लगभग 140 करोड़ रुपए है। खगोलविदों के अनुसार तरल दर्पण चंद्रमा पर एक विशाल टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए सबसे बेहतरीन तकनीक है जिससे दूरस्थ ब्रह्मांड को देखा जा सकेगा।
इस प्रकार के टेलीस्कोप में एक कटोरे के आकार के उपकरण में पारे को घुमाया जाता है। इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण और अपकेंद्री बल का मिला-जुला असर तरल को एक पारंपरिक टेलीस्कोप दर्पण के समान आदर्श परावलय आकार में परिवर्तित कर देता है। इसमें कांच का दर्पण बनाने, उसकी सतह को घिसकर परावलय आकार देने और एल्युमिनियम की परावर्तक परत बनाने का खर्च भी नहीं होता है।
आईएलएमटी की कल्पना 1990 के दशक के अंत में की गई थी। हालांकि भारत में इस टेलीस्कोप के पुर्जे 2012 में लाए गए थे लेकिन निर्माण में काफी विलंब हुआ। इस दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके पास पर्याप्त पारा भी नहीं है। फिर कोविड-19 महामारी ने यात्रा करना मुश्किल कर दिया। आखिरकार इस वर्ष अप्रैल में टीम ने 50 लीटर पारे को सेट करके 3.5 मि.मी. परावलय परत का निर्माण किया।
सीधे ऊपर की ओर देखने पर यह घूमता आईना लगभग चंद्रमा जितने चौड़े आकाश का दर्शन कराएगा और पृथ्वी के घूर्णन के चलते सुबह से शाम तक पूरे आकाश पर बारीकी से नज़र रखी जा सकेगी। इसके द्वारा बनाई गई छवियां लंबी धारियों के रूप में दिखाई देंगी जिनके अलग-अलग पिक्सेल को जोड़कर एक लंबे एक्सपोज़र से प्राप्त छवि का निर्माण किया जा सकेगा।
यह टेलीस्कोप रात-दर-रात आकाश की एक ही पट्टी को दिखाएगा, ऐसे में कई रातों के एक्सपोज़र को एक साथ जोड़कर धुंधली वस्तुओं की स्पष्ट छवियां प्राप्त की जा सकती हैं।
वैकल्पिक रूप से, रात-दर-रात हो रहे परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है। इसमें सुपरनोवा, क्वाज़र और दूरस्थ निहारिकाओं में उपस्थित ब्लैक होल वगैरह पर भी नज़र रखी जा सकेगी। हालांकि खगोल शास्त्रियों की अधिक रुचि गुरुत्वाकर्षण लेंस की खोज करना है जिसमें गुरुत्वाकर्षण के कारण एक या अनेक निहारिका समूह प्रकाश को विकृत कर देते हैं। आईएलएमटी की मदद से किसी खगोलीय वस्तु की चमक के आधार पर निहारिका-लेंसों के द्रव्यमान और ब्रह्मांड के फैलाव की दर पता लगाई जा सकती है। एक अनुमान के अनुसार आईएलएमटी की आकाशीय पट्टी में 50 ऐसे गुरुत्व लेंस दिखाई दे सकते हैं।
वैसे तो कई और पारंपरिक सर्वेक्षण टेलीस्कोप आकाश का अध्ययन कर रहे हैं लेकिन परिवर्तनों को देखने के लिए प्रत्येक रात एक ही पैच पर लौटना उनके लिए संभव नहीं है। ऐसे में डीओटी और आईएलएमटी की समन्वित शक्ति से किसी भी खगोलीय वस्तु की जांच करना अब मुश्किल नहीं है।
यदि आईएलएमटी तकनीक सफल होती है तो इसे और अधिक विकसित कर चंद्रमा पर स्थापित किया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार चंद्रमा पर पृथ्वी की तुलना में गुरुत्वाकर्षण बल कम है और वहां वातावरण भी नहीं है इसलिए भविष्य के टेलीस्कोप स्थापित करने के लिए वह उचित स्थान है।
गौरतलब है कि पृथ्वी पर कोरियोलिस प्रभाव के कारण 8 मीटर से बड़े दर्पणों में पारे की गति प्रभावित हो सकती है जबकि चंद्रमा के घूर्णन की गति कम होती है जिससे अधिक बड़े दर्पणों को स्थापित करने में कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन इतना वज़न चंद्रमा पर ले जाना मुश्किल है। और वहां रात के समय पारा जम जाएगा और दिन में वाष्पित होता रहेगा। लेकिन हल्के पिघले हुए लवण का हिमांक बिंदु कम होता है जो चंद्रमा के वातावरण में भी काम कर सकता है। इसे चांदी के वर्क की मदद से परावर्तक बनाया जा सकता है।
2000 के दशक में नासा और कैनेडियन स्पेस एजेंसी ने लूनर तरल दर्पण का अध्ययन शुरू किया था जो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका। लेकिन हाल ही में चंद्रमा में बढ़ती रुचि के चलते इस तकनीक पर फिर से अध्ययन किया जा सकता है। 2020 में 100-मीटर तरल दर्पण का प्रस्ताव रखा गया था जो चंद्रमा के किसी एक ध्रुव से आकाश के एक टुकड़े पर कई वर्षों तक नज़र रखेगा और निहारिकाओं के बारे में उपयोग जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - August 2022
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