मोहम्मद उमर
एकलव्य के होशंगाबाद कार्यालय में बच्चों के लिए एक पुस्तकालय है। यहाँ आस-पास के काफी बच्चे किताबें पढ़ने आते हैं। कुछ बच्चे पढ़ते तो कम दिखते हैं, ज़्यादातर मखमली घास के मैदान में उछल-कूद और गद्दम पटखनी करते ही नज़र आते हैं।
इन खिलन्दड़ लड़कों की जमात में एक असामान्य-सा दिखने वाला लड़का सौरभ भी जब-तब आता रहता है। किसी फिल्म में मन्दबुद्धि बच्चों का एक स्कूल दिखाया गया था। यह लड़का भी कुछ-कुछ उन जैसा ही नज़र आता है। मुँह से हरदम लार गिरती रहती है। ठीक से बोल नहीं पाता। उसका अपने अंगों पर भी अच्छी तरह नियंत्रण नहीं है। शायद इसीलिए उसके साथी उसे पागल कह कर अपने से दूर धकेल देते हैं। कई बार मैंने खुद उसके झगड़े छुड़ाए हैं। आँसू भरी आँखों को मसलते हुए वह मुश्किल से इतना भर कह पाता था, “स...र जी इ...स...ने मा...र दि...या।”
कुछ अर्सा पहले मुझे गणित शिक्षण के अन्तर्गत भिन्न (fraction) पढ़ाने की कुछ विधियों को जाँचने के लिए कई दिनों तक एक विद्यालय में जाना पड़ा। यहाँ मैं छठवीं कक्षा में बच्चों के साथ बैठता था। इसी कक्षा में मुझे पिछली कतार में एक कोने में सौरभ बैठा हुआ दिखाई दिया।
सौरभ के बारे में अब तक मेरी यही धारणा थी कि वो पागल न भी हो लेकिन कम-से-कम मन्दबुद्धि ज़रूर है। मैं जब भी कक्षा में पढ़ा रहा होता तो पीछे की ओर बैठा सौरभ अपनी असामान्य शक्ल लिए दाँत बाहर निकाले, मुस्कराता रहता और होठों से लार की टपकन भी जारी रहती।
एक दिन कक्षा में सभी बच्चों को हल करने के लिए मैंने एक सवाल दिया था। सवाल था - छह रोटियों को पाँच लोगों में बराबर-बराबर बाँटो। यह सवाल हल करने के लिए बच्चों को अपनी कॉपी में छह रोटियों और पाँच बच्चों के चित्र बनाकर उन्हें उनके हिस्से भी बाँटकर दिखाने थे।
बच्चे इस काम में मसरूफ हो गए थे, कुछ एक रुपए के सिक्के से या फिर चूड़ी की मदद से रोटी बना रहे थे और कुछ हिस्सा बाँटने में व्यस्त थे। कुछेक बच्चे जो इसे हल कर चुके थे, उन्होंने अपनी कॉपियाँ ऊपर उठाकर दिखाईं। उनमें से कुछ के तरीके इस प्रकार थे।
ज़ाहिर है इन सभी तरीकों में पाँच बच्चों को बराबर-बराबर हिस्से नहीं मिल पा रहे हैं, इसका अहसास कक्षा के अन्य बच्चों को भी शायद हो गया था।
मैंने पूछा, “क्या सबको बराबर-बराबर मिल रहा है?”
“नहीं सर जी, कोई का छोटा है, कोई का बड़ा है”, “बराबर नहीं है सर जी” इस तरह की कई आवाज़ें सुनाई पड़ीं।
मैं अपने साथ कागज़ की वृत्ताकार चकतियाँ ले गया था, जिन्हें कागज़ की कई तहों पर गिलास रखकर पेंसिल से गोला बनाने के बाद मैंने कैंची से काट लिया था।
ऐसी ही कुछ चकतियाँ बाहर रखते हुए मैंने कहा, “इस सवाल को बोर्ड पर या चकतियों की मदद से भी कर सकते हैं। बताओ कौन करना चाहता है?”
सर जी हम, सर जी हम कहते हुए केवल दो-तीन बच्चों ने ही हाथ खड़े किए। उनमें से एक हाथ सौरभ का भी था। सौरभ को ज़्यादा संजीदगी से न लेते हुए मैंने एक अन्य लड़के को बुलाया। उसने बोर्ड पर जो हल किया वह तकरीबन पिंकी के हल जैसा ही था।
मुझसे पहले बच्चों ने ही शोर मचाकर “बराबर नहीं है सर जी”, कहकर इस हल को भी खारिज कर दिया।
अब सिवाय सौरभ के और किसी का हाथ नहीं खड़ा था।
वह कह रहा था- “स...र जी ह...म क..रें...गे।”
मैंने आगे बढ़कर उसे चॉक थमाई ही थी कि पीछे कुर्सी पर बैठी मैडम जी के मुँह से बरबस निकल पड़ा, “अरे सर, यह तो पागल है।”
फिर भी मैंने कहा, “देखते हैं, क्या करता है।”
सौरभ के हाथों की चॉक बड़ी मुश्किल से बोर्ड पर चल पा रही थी। पाँच लड़के जैसे-तैसे बनाने के बाद अब वह रोटियों को सही आकार देने के लिए जूझ रहा था। हर बच्चे को एक-एक रोटी देने के बाद उसने छठवीं रोटी को पाँच बराबर टुकड़ों में बाँटने का प्रयास किया। इस कोशिश में उसने रोटी को तीन-चार दफे हाथों से रगड़कर मिटाया और फिर से बनाया। कक्षा के सभी बच्चे, मैं और मैडम सभी उत्सुकता से देख रहे थे कि सौरभ कर क्या रहा है।
अचानक सौरभ ने छठवीं रोटी मिटा दी और मेरी बगल की कुर्सी पर रखी कागज़ की वृत्ताकार चकती को उठाने के बाद मेरी ओर घूमकर बोला, “स...र जी कैं...ची...।”
मैंने अपने थैले से कैंची निकालकर उसे दे दी। काफी सावधानी बरतते हुए उसने इस चकती को पाँच टुकड़ों में बाँट लिया। ये कागज़ के टुकड़े बिलकुल बराबर तो नहीं थे लेकिन उन्हें बराबर माना जा सकता था।
एक टुकड़ा ऊपर उठाकर दिखाते हुए वह बोला, “स...र जी इ..त..ना औ..र मि...ले..गा।”
ये मेरे लिए बड़े ताज़्ज़ुब की बात थी। सौरभ को उसके सहपाठी और मैडम पागल समझते हैं, मैं भी अब तक उसे मन्दबुद्धि मानता आ रहा था, पर वह तो अच्छी समझ रखता है। रोटी को बराबर बाँटने का प्रयास और उसके लिए वैकल्पिक विधि सोच पाने की क्षमता रखने वाला बच्चा पागल नहीं हो सकता।
कक्षा खत्म करने के बाद मैंने मैडम के पास जाकर कहा कि सौरभ पागल या मन्दबुद्धि नहीं है, वह भी दूसरे बच्चों की तरह ही कक्षा में रहने और सीखने का अधिकारी है।
अगले दिन से मैंने सौरभ को पंक्ति में सबसे आगे की ओर बिठा दिया, जहाँ से उसे ब्लैक बोर्ड अच्छे से दिख सके। इसके बाद मैंने पाया कि वह नियमितता के साथ स्कूल आने लगा, साथ ही उसकी जगह पर यदि कोई और लड़का बैठ जाए तो वह उसे हटने के लिए कहता है। यदि दूसरा लड़का जगह न छोड़े तो सौरभ गुस्से में सबसे पीछे जाकर बैठ जाता है। तब मुझे उसे मनाकर आगे लाना पड़ता है।
यह बात सही है कि मैं अपनी ओर से उस पर कुछ ज़्यादा ध्यान दे रहा था। लेकिन वह खुद भी पढ़ाई में रुचि ले रहा था, यह बात मुझे हाल ही में बच्चों को दिए गए प्रश्न पत्र की जाँच के दौरान मालूम हुई। मैंने पूरी कक्षा के लिए प्रश्नपत्र बनाकर परीक्षा ली। प्रश्न पत्र में एक सवाल था:
लड़कों की टीम ‘ए’ और लड़कियों की टीम ‘बी’ है। वे अपनी टोली के साथ घूमने गए और अपने साथ खाने के लिए मीठे पराठे भी ले गए। वे आपस में बराबर बाँट कर ही खाते हैं। बताओ किस टोली के लोगों को ज़्यादा बड़ा हिस्सा मिलेगा?
टीम ‘ए’ लड़के टीम ‘बी’ लड़कियाँ
7/6 5/4
इस सवाल पर जब बातचीत शुरु तो “लड़कों को ज़्यादा मिलेगा सर जी”, कक्षा के कई बच्चे एक साथ बोले।
“तुम लोगों को क्या लगता है, किस टीम के लोगों को ज़्यादा हिस्सा मिलेगा?” मैंने लड़कियों से पूछा।
“लड़कों को ज़्यादा मिलेगा,” कुछ लड़कियाँ बोलीं।
आगे बैठा सौरभ धीरे-से बोला, “न...हीं स...र जी, ल..ड़...कि....यों को जा...दा मि...ले...गा।”
मैंने कहा, “देखो ये सौरभ क्या कह रहा है। सौरभ का कहना है कि लड़कियों को ज़्यादा हिस्सा मिलेगा।”
कुछ लड़के बोले, “हर कुछ कहता है सर जी, लड़कों को ही ज़्यादा मिलेगा।”
मैं फिर बोला, “देखो पूरी कक्षा एक तरफ है और सौरभ दूसरी तरफ। पता नहीं कौन सही है और कौन गलत। सौरभ तुम बोर्ड पर आकर बता सकते हो कि कैसे लड़कियों को ज़्यादा मिल रहा है?”
सौरभ उठकर आया और कुछ देर लगाकर उसने बोर्ड पर दोनों टीमों के लिए चित्र बनाया।
सौरभ ने न सिर्फ पराठों को सही-सही बाँटा बल्कि हर एक के हिस्से के लिए भिन्न भी नीचे लिख दिए। अब स्पष्ट था कि लड़कियों को लड़कों की तुलना में ज़्यादा बड़ा टुकड़ा मिल रहा है। पूरी कक्षा के बच्चों का उत्तर गलत था, सौरभ अकेला सही था। मुझे बहुत अच्छा लगा। हम सबने मिलकर सौरभ के लिए ज़ोर से तालियाँ बजाईं।
मो. उमर: एकलव्य, होशंगाबाद में गणित समूह में कार्यरत हैं। नाटक निर्देशन में विशेष रुचि।