सुशील जोशी

बैक्टीरिया - प्रजाति का निर्धारण

पिछले किसी अंक में मैंने खच्चर का उदाहरण लेकर प्रजातियों की चर्चा की थी। उस चर्चा में एक प्रमुख मुद्दा यह उठा था कि प्रजाति का निर्धारण इस आधार पर किया जाता है कि उस समूह के जीव आपस में सामान्य तौर पर लैंगिक प्रजनन करके प्रजनन-क्षम सन्तानें पैदा करते हों। खच्चर जैसे जीव इस आधार पर किसी प्रजाति के सदस्य नहीं होते क्योंकि वे लैंगिक प्रजनन नहीं करते। मगर खच्चर तो एक ऐसा जीव है जिसे इन्सान ने अपनी सुविधा के हिसाब से ‘निर्मित’ किया है। उसे प्रजाति का दर्जा न मिलना एक अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है। मगर वर्गीकरण और खासकर प्रजाति की यह दिक्कत अपवाद नहीं है। जीवों का एक बड़ा समूह है जो कुदरती तौर पर सन्तानोत्पत्ति के लिए लैंगिक प्रजनन का सहारा नहीं लेता। इनमें सबसे बड़ा समूह बैक्टीरिया का है। इस बार हम बैक्टीरिया पर ही विचार करेंगे।

कुछ अन्य जीवों के साथ बैक्टीरिया, जीव जगत में उस समूह के सदस्य हैं जिनकी कोशिका में केन्द्रक नहीं पाया जाता। इन्हें प्रोकेरियोट या केन्द्रक-पूर्व जीव कहते हैं। ये एक कोशिकीय जीव हैं जिनकी कोशिका में केन्द्रक झिल्ली नहीं होती और न ही अन्य झिल्ली युक्त कोशिकांग पाए जाते हैं। तो यह हो गया इनके वर्गीकरण का पहला चरण - ऐसे जीव जिनमें केन्द्रक झिल्ली या झिल्लीयुक्त कोशिकांग (माइटो-कॉण्ड्रिया, गॉल्गी काय, क्लोरोप्लास्ट वगैरह) न पाए जाते हों। इस समूह को नाम देते हैं प्रोकेरियोट। आजकल ज़्यादा प्रचलित पाँच जगत वाले वर्गीकरण में ये मोनेरा नामक जगत में रखे जाएँगे।

अब सवाल आता है कि प्रजाति तक इनका वर्गीकरण कैसे करें। लैंगिक प्रजनन के अभाव में इसके लिए कई तरीके विकसित किए गए हैं। वैसे देखा जाए तो वर्गीकरण की कोई आधिकारिक प्रणाली नहीं है, आप जैसे चाहें वर्गीकरण कर सकते हैं। इसके विपरीत, जीवों का नाम करण एक आधिकारिक काम है जिसके नियम हैं। एक नियम द्विनाम पद्धति का है कि प्रत्येक जीव के नाम में दो हिस्से होंगे। इनमें से पहला हिस्सा वंश (जीनस) और दूसरा हिस्सा प्रजाति (स्पीशीज़) का होना चाहिए। तो खोजे जाने पर किसी भी बैक्टीरिया को एक द्विनाम पद्धति का नाम मिल जाता है।

खास बैक्टीरिया के सन्दर्भ में एक नियम और है। कोई भी प्रयोगशाला जब किसी नए बैक्टीरिया की खोज करती है और उसका विवरण प्रस्तुत करती है तो उसे इस बैक्टीरिया का एक नमूना संरक्षित करके रखना होता है ताकि तुलना के लिए इसका उपयोग किया जा सके। इसे टाइप स्पेसिमेन कहते हैं। यह नमूना जीवित अवस्था में होना चाहिए क्योंकि बैक्टीरिया की पहचान की दृष्टि से इसका काफी महत्व है, जैसा कि आगे स्पष्ट होगा। यदि किसी कारण से यह नमूना खो जाए या जीवित न रहे, तो एक नया नमूना (नियोटाइप स्पेसिमेन) तैयार करके प्रमाणित करना ज़रूरी होता है।
बैक्टीरिया वर्गीकरण के मामले में सबसे प्रामाणिक स्रोत बर्जीस मैनुअल ऑफ डिटर्मिनेटिव बैक्टीरियोलॉजी को माना जाता है। समय-समय पर इसमें संशोधन किए जाते हैं। गौरतलब है कि यह कोई आधिकारिक मैनुअल नहीं है।

अब सवाल आता है कि ‘जब कोई प्रयोगशाला कोई नया बैक्टीरिया खोजे’ तो उसे पता कैसे चले कि यह पहले से ज्ञात किस प्रजाति का है या यह कोई नई प्रजाति है। यानी हम मुख्य सवाल पर आ जाते हैं कि बैक्टीरिया की प्रजाति का निर्धारण कैसे किया जाता है।
लैंगिक प्रजनन के अभाव की वजह से स्थिति काफी पेचीदा है। बैक्टीरिया के वर्गीकरण में कई बातों का सहारा लिया जाता है। जैसे उनका आकार व कोशिका पर उपस्थित बाह्य रचनाएँ, उनकी कोशिका भित्ती के गुणधर्म, उनके द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले पदार्थ, उनके द्वारा उपभोग किए जाने वाले पदार्थ, उनके प्राकृतवास, उनमें उपस्थित डी.एन.ए. में क्षारों का अनुपात वगैरह।

विभाजन के आधार

एक बात ध्यान देने की है। आधिकारिक तौर पर प्रजाति के नीचे मात्र उप प्रजाति को ही मान्यता है। वैसे कई मर्तबा लोग इससे भी बारीक विभाजन करते हैं, जिसे किस्म या स्ट्रेन कहते हैं। यह उस बैक्टीरिया के बारे में कुछ और जानकारी देता है। जैसे उप प्रजाति के नीचे जीव वैज्ञानिक गुणों के आधार पर (बायोवार), एंटीजेनिक विविधता के आधार पर (सीरोवार), रोग पैदा करने की क्षमता (पैथोवार) या किसी वायरस के प्रति दुर्बलता (फैगोवार) के अन्तर भी दर्शाए जाते हैं। ऐसे गुणों का आधिकारिक नामकरण में कोई स्थान नहीं है।

कोशिका भित्ति: पहला सोपान
वैसे तो कोशिका भित्ति को एक निष्क्रिय दीवार माना जाता है। यह कोशिका झिल्ली के बाहर एक सख्त परत होती है। यह जन्तु कोशिकाओं में नहीं पाई जाती। वनस्पति कोशिकाओं में कोशिका भित्ति पाई जाती है। बैक्टीरिया के सन्दर्भ में दोनों स्थितियाँ मिलती हैं। बल्कि यों कहें कि तीन स्थितियाँ नज़र आती हैं। कुछ बैक्टीरिया ऐसे हैं जिनमें कोशिका भित्ति पाई ही नहीं जाती। इनमें मायकोप्लाज़्मा होते हैं। कुछ बैक्टीरिया में मोटी कोशिका भित्ति पाई जाती है, तो कुछ में पतली। इन दो तरह की कोशिका भित्तियों की संरचना व रासायनिक संघटन में अन्तर होते हैं। इन अन्तरों का परिणाम होता है कि मोटी कोशिका भित्ति वाले बैक्टीरिया ग्राम अभिरंजन करने पर रंगीन हो जाते हैं जबकि पतली भित्ति वाले बैक्टीरिया यह रंग नहीं पकड़ते। तो पहले वाले को ग्राम धनात्मक और दूसरे वाले को ग्राम ऋणात्मक कहते हैं। दरअसल, बर्जीस मैनुअल के मुताबिक बैक्टीरिया का सबसे पहला वर्गीकरण इसी आधार पर किया जाता है। इन्हें निम्न नाम दिए गए हैं:
1. ग्रेसिलिक्यूट्स - ग्राम ऋणात्मक (पतली कोशिका भित्ति)
2. फर्मीक्यूट्स - ग्राम धनात्मक (मोटी कोशिका भित्ति)
3. टेनेरिक्यूट्स - बगैर कोशिका भित्ति
4. मेनोडिक्यूट्स - आर्कीबैक्टीरिया

आकार
अगर आकार को देखें तो बैक्टीरिया गोल हो सकते हैं (कोकाई), छड़नुमा हो सकते हैं (बैसिलाई), वक्राकार हो सकते हैं (विब्रियो), गोल जोड़ियों में हो सकते हैं (डिप्लोकोकाई), गोलों की ज़ंजीर हो सकती हैं (स्ट्रेप्टोकोकाई), चार-चार गोलों के झुण्ड (सर्सिना) या कई गोलों के झुण्ड (स्टेफिलोकोकाई) हो सकते हैं, वगैरह। तो बैक्टीरिया के विवरण में अगली बात उनका आकार आता है। इसके बाद देखा जाता है कि क्या उनके ऊपर कोई फ्लेजिला या तन्तु वगैरह हैं। यह भी देखा जाता है कि वे चलते-फिरते हैं या नहीं।

तो बैक्टीरिया को आपने पहले कोशिका भित्ति के आधार पर उपरोक्त चार भागों में बाँट लिया। फिर इनको आपने कोकाई, बैसिलाई, विब्रियो वगैरह में बाँट दिया। अब आगे कैसे बढ़ें? इसके आगे के वर्गीकरण में कई धाराएँ होती हैं।

भोजन
आप चाहें तो यह देख सकते हैं कि क्या सामने रखे बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति पर कोई तन्तु या फ्लैजिला वगैरह हैं। मगर आमतौर पर यह देखा जाता है कि वह बैक्टीरिया किस तरह के भोज्य पदार्थों का उपयोग कर सकता है। यानी उसे अलग-अलग माध्यमों में संवर्धित करने का प्रयास किया जाता है। जैसे कोई बैसिलाई (छड़नुमा बैक्टीरिया) है जो लैक्टोज़ शर्करा को पचा सकता है, तो वह हो गया लैक्टोबैसिलस। यह तो वंश हुआ। अब किसी और गुणधर्म के आधार पर इन्हें और बाँटकर प्रजाति का निर्धारण करना होगा।
बात सिर्फ भोज्य पदार्थ यानी इस बात पर नहीं रुकती कि किसी बैक्टीरिया के लिए कार्बन का स्रोत क्या है। वैसे कार्बन का स्रोत एक महत्वपूर्ण गुणधर्म है। जैसे कुछ बैक्टीरिया अपना भोजन कार्बन डाईऑक्साइड से बना सकते हैं। इस कार्बन डाई ऑक्साइड का उपयोग करने के लिए इन्हें ऊर्जा की ज़रूरत होती है; कुछ बैक्टीरिया यह ऊर्जा पेड़-पौधों के समान धूप से प्राप्त कर सकते हैं जबकि कुछ बैक्टीरिया इसके लिए रासायनिक साधनों का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य बैक्टीरिया ऐसे हैं कि वे जन्तुओं के समान हैं यानी उन्हें कार्बन, कार्बनिक रूप में चाहिए। लैक्टोज़ शर्करा ऐसा ही एक पदार्थ है। अमीनो अम्ल, विभिन्न शर्कराएँ, कार्बनिक लवण वगैरह पदार्थों का उपयोग बैक्टीरिया कर सकते हैं। मगर प्रत्येक बैक्टीरिया को इनमें से विशिष्ट पदार्थ की ज़रूरत होती है। तो आप पता कर सकते हैं कि किसी बैक्टीरिया को कार्बन किस रूप में चाहिए और वह उसका उपयोग किस तरह से करता है।

ऑक्सीजन
ऑक्सीजन को हम प्राणवायु कहते हैं। मगर बैक्टीरिया के सन्दर्भ में ऑक्सीजन की भूमिका काफी विविधता-पूर्ण हो सकती है। जन्तुओं और वनस्पतियों को ऑक्सीजन की ज़रूरत भोज्य पदार्थ से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए श्वसन क्रिया में होती है। बैक्टीरिया में ऊर्जा प्राप्त करने की क्रिया दो तरह से हो सकती है। कुछ बैक्टीरिया ऐसे हैं जिन्हें हमारी-आपकी तरह ही ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है क्योंकि ये श्वसन करते हैं। इन्हें एरोबिक बैक्टीरिया कहते हैं। ये भी दो तरह के हैं। एक वे हैं जिनका काम ऑक्सीजन के बगैर नहीं चलेगा, जबकि दूसरे वे हैं जो बगैर ऑक्सीजन के भी काम चला लेते हैं। ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ये बैक्टीरिया एक अन्य क्रिया करते हैं जिसे किण्वन (फर्मेंटेशन) कहते हैं।

कुछ बैक्टीरिया ऐसे भी हैं जो सिर्फ किण्वन से काम चलाते हैं और ऑक्सीजन की उपस्थिति इनके लिए जानलेवा साबित होती है। ऑक्सीजन इनके कुछ एंज़ाइम्स को निष्क्रिय कर देती है। आप समझ ही गए होंगे कि यही वे बैक्टीरिया हैं जो लाल दवाई (पोटेशियम परमैंगनेट) की उपस्थिति में मारे जाते हैं। मगर बात को थोड़ा और विस्तार दें, तो ऐसे बैक्टीरिया भी होते हैं जो किण्वन पर निर्भर हैं मगर ऑक्सीजन की उपस्थिति से इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, ये अपना किण्वन का काम निर्बाध करते रहते हैं।

और भी हैं विविधताएँ
बैक्टीरिया की कुछ ‘प्रजातियाँ’ बहुत कम तथा बहुत अधिक तापमान पर भी जीवित रह पाती हैं। जैसे कुछ बैक्टीरिया हैं जो 100 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में जी लेते हैं, तो वहीं कुछ बैक्टीरिया आÐक्टक की ठण्ड में ज़िन्दा रहते हैं। विविधता का यही नज़ारा अम्लीयता के मामले में भी दिखता है। कुछ बैक्टीरिया अत्यन्त अम्लीय माध्यम में रह सकते हैं, तो कुछ क्षारीय माध्यम में। वैसे अधिकांश बैक्टीरिया के लिए थोड़ा क्षारीय माध्यम (pH 7.2-7.4) ही ठीक रहता है। कुछ बैक्टीरिया खास तौर से नमकीन पानी में रहते हैं। इन्हें हैलोबेक्टर कहते हैं।
इसी प्रकार से आप यह भी देख सकते हैं कि वह बैक्टीरिया अपनी शरीर क्रिया को सम्पन्न करते हुए कौन-से पदार्थ उत्पन्न करता है। जैसे मान लीजिए वह खा-पीकर मीथेन पैदा करता है यानी वह मीथेन-जनक बैक्टीरिया है। तो उसका वंश नाम हो गया मीथेनोबैक्टर या मीथेनोमोनास।

वर्गीकरण अभी भी पूरा नहीं हुआ। रॉबर्ट कोच के समय से रोगाणु के रूप में बैक्टीरिया को पहचान लिया गया था। वर्गीकरण में अब तक हमने जितने भी मापदण्ड इस्तेमाल किए, वे बैक्टीरिया के अपने गुण थे। अब एक ऐसे गुण का उपयोग भी किया जाता है जो बैक्टीरिया और इन्सान के सम्बन्ध को दर्शाता है। यानी वह बैक्टीरिया इन्सानों में कौन-सा रोग पैदा करता है। जैसे कोई बैक्टीरिया है जो गोलाकार है, झुण्ड में पाया जाता है और टायफाइड रोग पैदा करता है तो ऊपर के वर्णन के मुताबिक उसका नाम होगा - स्टेफिलोकोकस टायफी। या कोई वक्राकार बैक्टीरिया हैजा पैदा करे तो वह होगा विब्रियो कॉलेरी। अब आया पकड़ में द्विनाम पद्धति का तरीका।

जेनेटिक वर्गीकरण
मगर सारे बैक्टीरिया तो रोग पैदा नहीं करते। इनके मामले में आगे कैसे बढ़ें? वैसे आगे बढ़ने से पहले एक बात स्पष्ट करते चलें। अभी तक हमने वर्गीकरण के जो आधार देखे वे इस बात पर टिके हैं कि किन्हीं दो बैक्टीरिया कॉलोनी के बीच कितने अधिक गुणधर्म एक समान हैं। यानी आप एक-एक करके गुणधर्मों का मिलान करते जाइए। जितने ज़्यादा गुणधर्म मिलें, वे बैक्टीरिया उतने ही नज़दीक माने जाएँगे। यदि सारे गुणधर्म मिल गए तो वे एक ही प्रजाति के सदस्य हैं। यदि थोड़े कम गुण मिलते हैं, तो वे शायद एक ही वंश (जीनस) के हैं मगर अलग-अलग प्रजाति के हैं।
आपको जन्म पत्री मिलाने की याद ज़रूर आ रही होगी, गुण मिलाते हैं ना उसमें? वर्गीकरण के इस तरीके को आंकिक यानी न्यूमेरिकल तरीका कहते हैं। यह फैसला काफी हद तक विवेक पर टिका होता है कि कितने गुण एक-से होना एक ही प्रजाति में शामिल किए जाने के लिए पर्याप्त आधार होंगे।

आमतौर पर दो तरह के जीव वैज्ञानिक होते हैं: एक जो बात-बात पर प्रजातियों को अलग-अलग करते हैं और दूसरे वे जो प्रजातियों की संख्या को कम-से-कम रखना चाहते हैं। आंकिक पद्धति के लिए ज़रूरी है कि बैक्टीरिया के विस्तृत वर्णन उपलब्ध हों तथा सबकी पहुँच में हों। कम्प्यूटर ने इस काम को काफी आसान बना दिया है।

आंकिक पद्धति से आगे बढ़ने का रास्ता बैक्टीरिया के डी.एन.ए. की संरचना व संघटन पर टिका है। जैसे आप जानते ही होंगे कि डी.एन.ए. में चार क्षार पाए जाते हैं - ए, टी, सी और जी। इनके पूरे नाम की चिन्ता न करें। यह देखा गया है कि इनमें एअटी और जीअसी का अनुपात बैक्टीरिया वर्गीकरण की दृष्टि से महत्व रखता है। यदि दो अलग-अलग बैक्टीरिया में जीअसी का प्रतिशत एक-सा पाया जाए तो बहुत सम्भावना है कि वे परस्पर सम्बन्धित हैं।

इसी प्रकार से आजकल डी.एन.ए. व आर.एन.ए. में समानता के आधार पर भी वर्गीकरण सम्बन्धी निर्णय किए जाते हैं। चूँकि अब काफी परिष्कृत तकनीकें उपलब्ध हो गई हैं, इसलिए किसी बैक्टीरिया की चयापचय क्रिया से उत्पन्न सारे पदार्थों का विश्लेषण किया जा सकता है। इसका उपयोग भी वर्गीकरण में किया जाता है। आप देख ही सकते हैं कि इन विधियों का उपयोग करने के लिए ज़रूरी है कि आपके पास पहले ज्ञात बैक्टीरिया के टाइप स्पेसिमेन उपलब्ध हों।


सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में रुचि।