लेखक :  रमा चारी
अनुवाद: मनीषा शर्मा

एकलव्य की मासिक बैठकों के दौरान विशेषकर, चाय के समय की चर्चा में सामान्य से अलग तरह के प्रश्न उठ खड़े होते हैं। ऐसे सवालों का उत्तर ढूँढ़ने में (या उसकी कोशिश करने में) हमें वास्तव में, हमारी अवधारणात्मक समझ की गहराइयों में जाना पड़ता है। एकलव्य, इन्दौर में हो रही इसी प्रकार की एक बैठक के दौरान यह प्रश्न सामने आया, “क्या परमाणु रंगीन होते हैं?” मेरे एक भौतिकशास्त्री होने की वजह से मेरे लिए इसका उत्तर काफी स्पष्ट था, परन्तु अपने उत्तर को अन्य स्रोत व्यक्तियों, जो मूल रूप से जीवविज्ञानी, रसायनशास्त्री या इंजीनियर थे, को समझाना इतना आसान साबित नहीं हुआ। इन सभी लोगों ने अपने काम के दौरान किसी-न-किसी रूप में रंगों का इस्तेमाल किया था। रसायनशास्त्री नियमित रूप से रंग के परिवर्तन द्वारा रासायनिक क्रियाओं की प्रगति को जाँचते रहते हैं, वे लौ परीक्षण द्वारा आयनों की उपस्थिति का पता लगाते हैं और जीवविज्ञानी, संरचनात्मक अध्ययनों के लिए रंजक रंगों (डाई) का व्यापक रूप से इस्तेमाल करते हैं; रंगों के इसी तरह के अन्य उपयोग भी हैं। अधिकांश लोगों को लगता था कि आयनों और अणुओं का तो अपना रंग होता है लेकिन अकेले परमाणुओं का कोई रंग नहीं होता। तब यह प्रश्न उठा कि फिर स्थूल वस्तुएँ जो सभी आखिरकार, परमाणुओं से बनी होती हैं, क्यों रंगीन दिखाई देती हैं? किसी ने दावा किया कि किसी ठोस या द्रव्य में परमाणु उनके चारों ओर उपस्थित अन्य परमाणुओं के कारण किसी प्रकार रंगीन हो जाते हैं। इस अवधारणा की उत्पत्ति शायद इस सामान्य ज्ञान से हुई थी कि कुछ विशिष्ट परमाणुओं या आयनों की सूक्ष्म मात्राओं को किसी अन्य पदार्थ में मिलाने (डोपिंग) पर उस पदार्थ का रंग बदल सकता है। उदहारण के लिए, कुरुण्ड (कोरंडम) या एल्यूमिनियम ऑॅक्साइड (Al2O3) एक खनिज क्रिस्टल के रूप में उपलब्ध रहता है। यह विभिन्न रंगों में पाया जाता है, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि इसमें सूक्ष्म मात्रा में कौन-से तत्व पाए जाते हैं। यदि यह सूक्ष्म मात्रिक तत्व क्रोमियम हो तो क्रिस्टल का रंग गहरा लाल होता है, और इसे ‘रूबी’ नामक माणिक कहते हैं। यदि सूक्ष्म मात्रिक तत्व वैनेडियम हो तो क्रिस्टल का रंग बैंगनी हो जाता है। यदि सूक्ष्म मात्रिक तत्व लौह और टाइटेनियम हों तो हमें उसमें गहरा नीला रंग मिलता है, और वह कुछ और नहीं बल्कि ‘नीलम’ माणिक होता है। मुझे अपनी बात समझाने में आई कठिनाई का मुख्य कारण था, ‘देखना’ और ‘रंगीन’ जैसे शब्दों के सटीक वैज्ञानिक अर्थ और उनके रोज़मर्रा के सामान्य व्यवहारिक अर्थ में अन्तर होना। यह लेख इसी प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का एक प्रयास है। मैं आशा करती हूँ कि इस लेख को पढ़ने के बाद पाठक स्वयं इस सवाल का उत्तर दे सकेंगे।

रोज़मर्रा की भाषा में जब हम किसी वस्तु के रंग का वर्णन करते हैं तो हमारा मतलब उस वस्तु के अपनी आँखों से दिखने वाले आभासी रंग से होता है। यह एक बहुचरणी प्रक्रिया है, जैसे मान लीजिए कि मैं एक आम को दिन की रोशनी में देखती हूँ। इस प्रक्रिया में आम पर पड़ने वाली सूर्य की किरणें उससे टकरा कर लौटती हैं, और उनमें से कुछ पुतली से होते हुए मेरी आँखों में घुसती हैं (चित्र 1 देखें)। नेत्र का लैंस किरणों को आँख के पर्दे (रेटिना) पर केन्द्रित करता है और वहाँ ठीक उसी तरह एक प्रतिबिम्ब निर्मित होता है जिस तरह किसी कैमरे में बनता है। रेटिना में उपस्थित प्रकाशग्राही (फोटोरिसेप्टर) कोशिकाएँ इस प्रतिबिम्ब को विद्युत आवेगों की एक  में परिवर्तित कर देती हैं जो दृष्टि तंत्रिका (ऑॅप्टिकल नर्व) के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचती हैं। मस्तिष्क इन आवेगों की जाँच करता है और उसकी तुलना उसके पास पहले से उपलब्ध जानकारी से करता है, और इसके आधार पर उस आकार की आम के रूप में पहचान करता है। प्रतिबिम्ब के रंग की पहचान प्रकाश की तरंगदैर्घ्य (तरंग लम्बाई) से होती है जिसे रेटिना में स्थित एक खास तरह की प्रकाशग्राही कोशिकाओं (शंकु कोशिकाओं) द्वारा पहचाना जाता है। मनुष्य की आँखें विद्युत-चुम्बकीय तरंग लम्बाई के समूचे फैलाव (स्पेक्ट्रम) के केवल एक छोटे-से भाग के प्रति ही संवेदनशील होती हैं, और स्वाभाविक है कि उसे हम दृश्य-हिस्सा कहते हैं। इस दायरे में प्रकाश की तरंग लम्बाई लगभग 400 नैनोमीटर से लेकर 700 नैनोमीटर तक होती है (बॉक्स देखिए)। एक नैनोमीटर एक मीटर का 109वाँ भाग है; यह कितना छोटा है इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि एक नैनोमीटर, मनुष्य के बाल की औसत मोटाई के एक लाखवें हिस्से के बराबर होता है।

मनुष्य की आँखें लगभग पचास माइक्रोन जितनी छोटी वस्तुओं को देख सकती हैं और हम सभी जानते हैं कि परमाणु, और यहाँ तक कि आयन और अणु भी इससे अतिशय छोटे होते हैं। अत: हम अपनी नग्न आँखों से अकेले परमाणुओं, आयनों या अणुओं को नहीं देख सकते। तब क्या इसका यह मतलब हुआ कि चूँकि वैसे भी हम अलग-अलग परमाणुओं को नहीं देख सकते इसलिए यह सवाल पूछने की कोई तुक है ही नहीं कि परमाणुओं का कोई रंग होता है क्या? पर एकदम ऐसा निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं होगा। पहले हम यह समझने की कोशिश करें कि परमाणुओं का रंग कहाँ से आ सकता है। क्या यह वही प्रक्रिया है जिसमें हमें पका हुआ आम पीला दिखता है?

अब, एक जलती हुई मोमबत्ती के बारे में सोचिए। मोमबत्ती स्वयं सफेद दिख सकती है, और उसकी बाती भी, लेकिन जब मैं माचिस की एक तीली से उसे जलाती हूँ तो एक लौ प्रकट होती है जो प्रकाश फेंकती (उत्सर्जित करती) है। इस लौ का रंग क्या होता है? लौ का रंग उसी रोशनी का रंग होता है जिसे वह उत्सर्जित करती है। आम के मामले में, हम आम को केवल तभी देख पाए जब किसी अन्य स्रोेत से प्रकाश उस पर पड़ा और परावर्तित होकर हमारी आँखों में आया। परन्तु आग, लौ, जलते हुए कोयले, भट्टी में तपते हुए लोहे जैसी चीज़ों का जो रंग हम देखते हैं वह उनके द्वारा उत्सर्जित रोशनी का ही रंग होता है। ऐसे पदार्थ तापदीप्त (इन-कैंडेसेंट) कहलाते हैं।

चीज़ों को और स्पष्ट समझने के लिए ज़रा प्रकाश के एक बल्ब के बारे में सोचिए (पुराने ज़माने का कोई बल्ब, आजकल के सीएफएल नहीं)। जब वह बुझा रहता है तो वह पारदर्शी या रंगहीन दिखाई देता है, लेकिन जब वह जल रहा होता है तब वह पीली-सी रोशनी देता है और स्वयं भी पीला दिखाई देता है। सबसे विशाल ‘बल्ब’ जिसे हम जानते हैं, अर्थात् सूर्य के मामले में भी ऐसा होता है।

अब देखा जाए तो परमाणु भी एक प्रकार से नन्हें सूर्य ही हैं। यदि हम एक परमाणु को गर्म करें (या यदि आप परमाणु की विद्युतीय संरचना से परिचित हैं, उसके एक या ज़्यादा इलेक्ट्रॉन को उच्च ऊर्जा वाली अवस्था तक उद्दीप्त करें) तो वह प्रकाश उत्सर्जित करता है और ठण्डा हो जाता है यानी कि प्रकाश या विकिरण उत्सर्जित कर अपनी ऊर्जा कम करता है। प्रत्येक प्रकार के परमाणु द्वारा इस तरह उत्सर्जित प्रकाश का रंग उसके लिए विशिष्ट होता है, उदाहरण के लिए सोडियम परमाणु अधिकांशत: पीली रोशनी उत्सर्जित करते हैं (589 और 589.6 नैनोमीटर), पारे (मर्क्यूरी) के परमाणु अलग-अलग अनुपातों में हरे, नीले और पीले प्रकाश को उत्सर्जित करते हैं (435.8 नैनोमीटर, 546.1 नैनोमीटर, 579 नैनोमीटर और कुछ अन्य तरंग लम्बाई)। यह तरंग लम्बाई परमाणु के खाली और भरे हुए कक्षकों (ऑरबिटल) के बीच ऊर्जा के अन्तर पर निर्भर करती है। यद्यपि एक अकेले परमाणु द्वारा उत्सर्जित प्रकाश की मात्रा निश्चित रूप से बहुत ही कम होती है। हमारी आँखें इतने मद्धिम प्रकाश को नहीं देख सकतीं। हमारी आँखों के देख सकने के लिए ज़रूरी है कि कई अरब परमाणु एक साथ प्रकाश उत्सर्जित करें।

सोडियम वाष्प लैंप में ठीक ऐसा ही होता है। वाष्प लैंप काँच का एक ऐसा बल्ब होता है जिसे खाली कर दिया गया होता है (बल्ब के अन्दर की सारी वायु को निर्वात पम्प द्वारा निकाल दिया जाता है) और फिर उसके अन्दर कम दबाव वाली नियोन गैस और थोड़ी मात्रा में सोडियम डाल दिया जाता है। दो इलेक्ट्रोडों को इससे जोड़ा जाता है और इनके बीच उच्च वोल्टेज लगाया जाता है। कमरे के तापमान पर सोडियम ठोस होता है जबकि नियोन गैस रूप में होती है। इलेक्ट्रोडों के बीच उच्च वोल्टेज के कारण उद्दीप्त आवेश का नियोन गैस में विसर्जन होता है (वैसे ही जैसे स्पार्क प्लग में से चिंगारी निकलती है)। इससे नियोन परमाणुओं को ऊर्जा मिलती है जो फिर सोडियम से टकराकर उसे ऊर्जा देते हैं और वह वाष्पीकृत होकर गैस में बदल जाता है। सोडियम गैस के परमाणु पीला प्रकाश उत्सर्जित करते हैं जो हमें दिखाई देता है। अत: जब हम जलते हुए सोडियम लैंप को देखते हैं तो वास्तव में, हम प्रकाश उत्सर्जन करते हुए सोडियम परमाणुओं के गुच्छों को देख रहे होते हैं। क्या आप इससे सहमत हैं?

अब हमें सोचना होगा कि नियोन परमाणु हमें क्यों नहीं दिखाई देते। क्या वे प्रकाश उत्सर्जित नहीं करते? और सड़कों पर लगाए जाने वाले लैम्प में हम केवल सोडियम परमाणु ही क्यों चाहते हैं? असल में, सभी परमाणु एक बार जब ऊर्जावान हो जाते हैं तो प्रकाश उत्सर्जित करते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही मामलों में उत्सर्जित प्रकाश की तरंग लम्बाई दृश्य सीमा में आती है। कई परमाणु पराबैंगनी रोशनी उत्सर्जित करते हैं जिसे मानव आँखें देख नहीं पातीं। निश्चित ही नियोन परमाणु भी लाल रंग का प्रकाश उत्सर्जित करते हैं; ज़रा उपकरणों पर मौजूद नियोन के संकेतक लैम्पों को याद करें। परन्तु सड़क पर प्रकाश के लिए ज़रूरी लैम्प के मामले में लाल रंग उपयुक्त चुनाव नहीं होगा क्योंकि मनुष्य की आँखें लाल रंग के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील नहीं होतीं। सोडियम परमाणु द्वारा उत्सर्जित पीला रंग उस रंग के काफी नज़दीक है जिसके लिए हमारी आँखें सबसे ज़्यादा संवेदनशील होती हैं।

आप सोच रहे होंगे कि क्या ऊर्जा रहित परमाणुओं को किसी अन्य स्रोत द्वारा उन पर प्रकाश चमकाकर ‘देखना’ सम्भव है, वैसे ही जैसे हमने पहले उदाहरण में आम के पीले रंग को देखा था? यदि हम यहाँ पारम्परिक स्रोतों जैसे सूर्य, या किसी बल्ब या किसी फ्लोरोसेंट रोशनी से प्रकाश लेने के बारे में सोचें तो यह सम्भव नहीं है। ऐसे स्रोतों से प्राप्त प्रकाश बहुत सारे रंगों का मिश्रण होता है। जैसा कि हमने ऊपर देखा, एक खास परमाणु एक खास रंग का या कुछ खास रंगों का ही प्रकाश देता है। हमारी आँखों और मस्तिष्क का रंगों की जानकारी को पढ़ने का जो तरीका है, उसके कारण परमाणुओं पर गिरने वाले प्रकाश और परमाणुओं से टकराकर वापस आने वाले प्रकाश में भेद करना असम्भव होगा। हालाँकि, हम इसके लिए ज़रूरी परिस्थितियों को किसी प्रयोगशाला में निर्मित कर सकते हैं। आइए, उदहारण के तौर पर हम देखें कि यह सोडियम के साथ कैसे किया जा सकता है। यह प्रयोग किसी अँधेरे कमरे में किया जाना चाहिए।

तरंग यानी क्या? 

'तरंगें' शब्द से आपके दिमाग में क्या विचार आते हैं: पानी की लहरें, सुनामी. लू या गर्म हवा के थपेड़े या हाथ हिलाकर अलविदा कहता एक मित्र? क्या आपने कभी भी इसके बारे में विचार किया है कि असल में तरंग है क्या? विकीपीडिया की परिभाषा कहती है. 'तरंग ऐसी हलचल है जो आम तौर पर ऊर्जा का लेन-देन करते हुए स्थान और समय में प्रसारित होती है।' तरंगें अलग-अलग प्रकार की होती हैं:ध्वनि तरंग वायु के अणुओं की स्थिति में होने वाली एक आवर्तीय डलचल है। तेज हवा में लहरा रहे झण्डे में तरंग उसके कपड़े में होने वाली हलचल है. भूकम्प भूगर्भीय तरंगों से सम्बन्धित होते हैं. हम रेडियो तरंगों द्वारा संवाद करते हैं। विद्युत-चुम्बकीय तरंगें मूल रूप से विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र में होने वाली हलचल हैं जो निर्वात में प्रसारित हो सकती हैं अर्थात उन्हें एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक गति करने के लिए किसी भौतिक माध्यम की जरूरत नहीं होती। 

तरंगों में स्वयं के विशिष्ट गुणधर्म होते हैं जो उस माध्यम पर निर्भर नहीं करते जिसमें वे गति करती हैं। वास्तव में भौतिकी की एक शाखा तरंग सिद्धान्त (वेव थ्योरी) कहलाती है जो व्यापक रूप से तरंगों के गुणधमों की चर्चा करती है। तरंगों का एक मूलभूत गुणधर्म है तरंग लम्बाई। आवर्ती तरंग के लिए चोटियों (उच्चतम बिन्दुओं) के बीच की दूरी को तरंग लम्बाई कहते हैं। नीचे दिए गए चित्र को देखें।

आवृत्ति यानी एक सेकण्ड में किए गए दोलनों की संख्या।

आप देख सकते हैं कि दृश्य प्रकाश की तरंग लम्बाई कुछ सौ नैनोमीटर, या एक माइकोमीटर के एक अंश के लगभग ही होती है। जरा इसकी तुलना वायु में सुनाई देने वाली ध्वनि की तरंग लम्बाई से करिए जो लगभग 35 सेंटीमीटर होती है (यह तापमान और आवृत्ति के साथ थोड़ी-बहुत बदलती हैं). अर्थात् जो 35,00,00,000 नैनोमीटर के बराबर है। तरंग लम्बाई में इस विशाल अन्तर के कारण ध्वनि. इमारतों के कोनों को घूमकर पार करती हुई दूसरी ओर चली जा सकती है. जबकि प्रकाश रुक जाता है। अगली बार जब आप स्नान करें तो एक कंचा अपने साथ ले जाएँ और पानी से भरी एक बाल्टी में गिरा दें, और देखें कि क्या आप पानी में उत्पन्न हुई तरंगों की तरंग लम्बाई को माप सकते हैं? 

और हाँ, यह याद रखें कि तरंगों का ‘गति करना जरूरी नहीं है। स्थिर तरंगें भी होती हैं। संगीत के कई उपकरणों में एक खास पिच (स्वर मान) पर ध्वनि स्थिर तरंगों द्वारा पैदा की जाती है।

 

परमाणु कितना छोटा होता है?  

परमाणु कितने छोटे होते हैं इसका अन्दाज़ा लगाने के लिए नीचे दिया गया चित्र देखें। यह ताँबे के 17,000 परमाणुओं से बना 1/1,00,000 मिलीमीटर व्यास वाला एक गोला है, जिसे डेज़ी स्थित हेज़ी लैब में बनाया गया है। इस प्रकार के छोटे गोले जो गुच्छे (क्लस्टर्स) कहलाते हैं, आजकल शोध के रोचक विषय हैं। इस गोले और परमाणुओं, दोनों को परिपूर्ण रूप से गोलाकार मानते हुए आप गणना कर सकते हैं कि एक परमाणु का व्यास लगभग 0.4 नैनोमीटर होता है।


हम काँच की एक नली लेते हैं जिसके दोनों छोरों पर काँच की खिड़कियाँ हों, और उसके अन्दर की वायु पूरी तरह निकाल देते हैं। फिर 589.6 नेनोमीटर तरंग लम्बाई वाली प्रकाश की एक किरणपुंज (बीम) एक खिड़की से गुज़ारी जाती है जो दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाती है (एक खास तरंग लम्बाई एक खास रंग को प्रकट करती है। एक ही रंग के प्रकाश को पैदा करने के लिए हमें प्रकाश के एक विशेष स्रोत की ज़रूरत पड़ेगी। प्रकाश को एक निश्चित दिशा में निर्देशित बीम के रूप में आना चाहिए जैसे एक टॉर्च से या कार की हैडलाइट से आता है। इस मामले में एक सोडियम लैम्प, जिसके पीछे एक वक्राकार परावर्तक रखा हो, से यह काम हो जाना चाहिए)। अगर बीम दीवार पर गिरती है तो हमें दीवार पर एक पीला धब्बा दिखाई देगा। यदि नली को पूरी तरह खाली कर दिया गया है तो उसके अन्दर प्रकाश की किरणें नहीं दिखाई देंगी।

फिर हम इस नली को सोडियम परमाणुओं की विरल गैस से भरते हैं। जब प्रकाश परमाणुओं से टकराता है तो वह उनसे टकराकर सभी दिशाओं में बिखर जाता है।
अत: अब हम नली के अन्दर पीले रंग की चमक देखेंगे जो सोडियम परमाणुओं की उपस्थिति के कारण होती है। यह चमक बहुत ही मद्धिम या हल्की होगी क्योंकि हम नली में गैस के बहुत ज़्यादा परमाणुओं को नहीं भर सकते हैं (ठोस और द्रव पदार्थों की तुलना में गैसें अत्यन्त विरल होती हैं)।

यदि आप ‘संदर्भ’ के नियमित पाठक हैं तो मुझे पक्का विश्वास है कि ऊपर की चर्चा ने और अधिक प्रश्नों को जन्म दिया होगा जैसे, ‘हम अपनी आँखों से परमाणुओं जैसी बहुत छोटी चीज़ों को क्यों नहीं देख सकते?’, ‘क्या हम माइक्रोस्कोप या टेलिस्कोप जैसे उपकरणों का इस्तेमाल करके परमाणुओं को नहीं देख सकते?’, ‘सोडियम धातु के टुकड़ों का रंग सोडियम गैस के रंग से भिन्न क्यों होता है?’, ‘यदि हम गैस की बजाय ठोस सोडियम के एक टुकड़े को गर्म करें तो क्या वह भी पीला प्रकाश उत्सर्जित करेगा?’, ‘सफेद प्रकाश क्या है?’ आदि, आदि। हम इन प्रश्नों में से कुछ की चर्चा आगे आने वाले लेखों में करने की कोशिश करेंगे, अत: कृपया अपनी टिप्पणियाँ और प्रश्न हमें भेजें। यदि आप रंग की अवधारणा को और गहराई तक जानना चाहते हैं, तो सन्दर्भस्वरूप प्रकाश-विज्ञान (ऑॅप्टिक्स) पर कोई मानक पाठ्यपुस्तक तथा नीचे दी गईं दो किताबों को पढ़ना काफी लाभदायक होगा:


रमा चारी: राजा रमन्ना सेंटर फॉर एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी, इन्दौर से सम्बद्ध हैं। विज्ञान शिक्षण में रुचि।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनीषा शर्मा: शिक्षा से चिकित्सक हैं। विज्ञान और शिक्षा में गहरी दिलचस्पी। अनुवाद करने का शौक है। दिल्ली में रहती हैं।