सुशील जोशी[Hindi,PDF 77KB]
हाल ही में तत्व क्रमांक 114 खोजा गया। वास्तव में खोजा गया कहना गलत है। सही मायने में तो इस तत्व का आविष्कार/निर्माण किया गया। प्रयोगशाला में इसे बनाए जाने की जो खबर आई उसमें यह भी बताया गया था कि यह बहुत स्थिर है। इस मामले में भी सही कहा जाए तो यह अस्थिर था क्योंकि अब है नहीं (लगभग विज्ञापन जैसा - ..... थी, पी गया)। इस खबर को पढ़कर मेरी एक मित्र ने पूछा कि आखिर ये कुछ तत्व इतने अस्थिर क्यों होते हैं और ऐसा क्यों है कि कुछ तत्व बहुत स्थिर होते हैं। मैंने भी सोचा कि चलो थोड़ी छानबीन करते हैं कि चक्कर क्या है।
सबसे पहले तो यह बता देना मुनासिब है कि प्रकृति में कुल 92 तत्व पाए गए हैं। प्रोटॉन के हिसाब से देखें तो इसका मतलब है कि प्रकृति में अधिकतम 92 प्रोटॉन वाला तत्व पाया गया है। वैज्ञानिकों के बीच यह चर्चा चलती रही है कि आखिर ऐसा क्यों है कि 92 से ज़्यादा परमाणु संख्या वाले तत्व नहीं पाए जाते। इस बात को समझने के लिए तमाम कयास लगाए गए हैं। हम उन्हीं कयासों की बात करेंगे।
टिकाऊ तत्वों में हाइड्रोजन, हीलियम, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन, नियॉन, कार्बन, लोहा, निकल वगैरह के नाम गिनाए जा सकते हैं। दूसरी ओर अस्थिर तत्वों में युरेनियम, सीसा, फॉस्फोरस, प्लूटोनियम वगैरह आते हैं।
थोड़ी-सी शब्दावली
तो पहले कुछ शब्दों की सफाई हो जाए। सर्वप्रथम तो यह कहना ज़रूरी है कि किसी भी तत्व को हम उसकी परमाणु संख्या से पहचानते हैं। परमाणु संख्या से आशय होता है उसके केन्द्रक में प्रोटॉनों की संख्या। जैसे नव-निर्मित तत्व 114 का मतलब है कि उसकी परमाणु संख्या 114 है; इसके परमाणु में 114 प्रोटॉन हैं। किसी भी परमाणु में जितने प्रोटॉन होंगे, उतने ही इलेक्ट्रॉन भी होंगे (आयनों की बात अलग है)। जब हम किसी तत्व के परमाणु भार की बात करते हैं तो वह उसमें उपस्थित प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की संख्या के योग के बराबर होता है। जितने भी परमाणुओं में प्रोटॉन्स की संख्या बराबर है, वे सभी एक ही तत्व के परमाणु होंगे। मगर प्रोटॉन संख्या बराबर होते हुए एक ही तत्व के परमाणुओं में न्यूट्रॉन की संख्या अलग-अलग हो सकती है।
एक उदाहरण देखते हैं। हाइड्रोजन एक तत्व है जिसके परमाणु में मात्र एक प्रोटॉन होता है। आम तौर पर हाइड्रोजन के परमाणु में न्यूट्रॉन नहीं होते। तो इसका परमाणु भार और परमाणु संख्या बराबर हैं। मगर हाइड्रोजन के कुछ परमाणु थोड़े भिन्न होते हैं। हाइड्रोजन के कुछ परमाणुओं में एक न्यूट्रॉन भी पाया जाता है। तो परमाणु संख्या 1 होते हुए भी इनका परमाणु भार 2 हो जाता है। और तो और, हाइड्रोजन के कुछ परमाणु ऐसे भी होते हैं जिनमें 2 न्यूट्रॉन पाए जाते हैं। इनका परमाणु भार 3 होता है। इन्हें संकेतों में इस तरह लिखा जाता है:
इन्हें प्राय: क्रमश: हाइड्रोजन, ड्यूटीरियम और ट्रिशियम भी कहते हैं। एक ही परमाणु संख्या मगर अलग-अलग परमाणु भार वाले ऐसे परमाणुओं को एक ही तत्व के समस्थानिक या आइसोटॉप कहते हैं। समस्थानिक कहने का कारण यह है कि परमाणु संख्या एक ही होने के चलते ये सब आवर्त तालिका में एक ही स्थान पर रखे जाते हैं।
ऐसे समस्थानिक कई तत्वों के होते हैं। दरअसल, अधिकांश तत्वों के दो या दो से अधिक समस्थानिक होते हैं। सारे समस्थानिकों के रासायनिक गुण एक जैसे होते हैं। किसी भी रासायनिक क्रिया में वे एक समान ढंग से भाग लेते हैं। मगर उनके भौतिक गुणों में फर्क होते हैं।
जैसे कार्बन के तीन समस्थानिक होते हैं। तीनों की परमाणु संख्या 6 है मगर परमाणु भार 12, 13 और 14 हैं। ये तीनों समस्थानिक रासायनिक दृष्टि से एक समान हैं। यानी यदि आपने कोयला लिया (जो कार्बन है) और उसे जलाया तो वे एक समान गति से जलेंगे और बनने वाली कार्बन डाईऑक्साइड में सब उसी अनुपात में पहुँचेंगे जिस अनुपात में वे मूल कोयले में उपस्थित थे।
समस्थानिकों की बात थोड़ी विस्तार में करने का कारण यह है कि परमाणुओं की स्थिरता/अस्थिरता की हमारी समझ का काफी सम्बन्ध समस्थानिकों से है। जैसे कार्बन के समस्थानिकों की बात पर लौटें तो पाएँगे कि कार्बन-12 और कार्बन-13 में काफी स्थिरता होती है मगर कार्बन-14 अस्थिर है। रखे-रखे यह परमाणु टूटता रहता है। यदि आपने 10 ग्राम कार्बन-14 रख दिया तो करीब 6 हज़ार वर्षों बाद इसमें से मात्र 5 ग्राम ही मिलेगा - शेष 5 ग्राम नाइट्रोजन में तबदील होकर हवा में उड़ जाएगा। क्यों कोई तत्व के किसी समस्थानिक में टिकाऊपन होता है और किसी में नहीं, इस बात को समझने का प्रयास आगे करेंगे।
परमाणुओं के कुछ गुण
तत्वों के टिकाऊपन या गैर-टिकाऊपन को समझने के लिए थोड़ी चर्चा इस बात पर करनी होगी कि सारे तत्व परमाणुओं से बने होते हैं और परमाणुओं की अपनी रचना होती है। पहली बात यह है कि परमाणु और भी छोटे कणों से मिलकर बना होता है - ये कण हैं इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन। मज़ेदार बात यह है कि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन परमाणु के केन्द्र में एक घने केन्द्रक में पाए जाते हैं जबकि इलेक्ट्रॉन इस केन्द्रक के आसपास चक्कर काटते रहते हैं। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन चूँकि नाभिक में पाए जाते हैं इसलिए इन्हें नाभिकीय कण (न्यूक्लिऑन) भी कहते हैं।
उससे भी मज़ेदार बात यह है कि स्वयं प्रोटॉन और न्यूट्रॉन भी मूल कण नहीं हैं बल्कि ये भी और छोटे-छोटे कणों से मिलकर बने होते हैं। हाँ, इतना ज़रूर है कि अब तक इलेक्ट्रॉन मूल कण है। ‘अब तक’ शब्द पर ध्यान दें क्योंकि आगे का कोई भरोसा नहीं है। डाल्टन के ज़माने में (यानी आज से करीब 200 साल पहले) परमाणु ‘अविभाज्य’ था मगर उसके 100 साल बाद (यानी आज से करीब 100 साल पहले) पता चल चुका था कि परमाणु मूल कण नहीं है बल्कि अन्य कणों से मिलकर बना है - प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन। फिर पता चला कि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन भी मूल कण नहीं हैं ये क्वार्क्स से मिलकर बने होते हैं। अलबत्ता, शुरुआत के लिए प्रोटॉन वगैरह को मूल कण मानकर चलने में कोई हर्ज़ नहीं है।
इलेक्ट्रॉन का भार नगण्य होता है, इसलिए हम कह सकते हैं कि परमाणु का सारा भार उसके केन्द्रक में सिमटा होता है। मगर साइज़ की दृष्टि से देखें तो परमाणु की कुल साइज़ के मुकाबले नाभिक की साइज़ नगण्य होती है। एक उपमा दी जाती है - यदि परमाणु को हम फुटबॉल के मैदान के बराबर मानें तो नाभिक उसके बीच में रखी एक टेनिस की गेंद के बराबर होता है।
प्रोटॉन धनावेशित होते हैं, इलेक्ट्रॉन ऋणावेशित होते हैं और न्यूट्रॉन विद्युतीय दृष्टि से उदासीन होते हैं। इसका मतलब है कि प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन के बीच आकर्षण बल काम करेगा, प्रोटॉन-प्रोटॉन के बीच विकर्षण होगा। न्यूट्रॉन का ऐसा है कि ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर। विद्युतीय दृष्टि से देखें तो न्यूट्रॉन अन्य न्यूट्रॉन, प्रोटॉन या इलेक्ट्रॉॅन के साथ कोई विद्युतीय अन्तर्क्रिया नहीं करते।
परमाणु संख्या व स्थिरता
प्रोटॉन व न्यूट्रॉन की भूमिकाएँ
यहाँ से शु डिग्री होती है समस्या। यदि इतने सारे धनावेशित कण इतनी छोटी-सी जगह में भरे जाएँगे तो उनके बीच लगने वाला विकर्षण बल उन्हें साथ-साथ टिकने नहीं देगा। प्रोटॉन वहाँ से निकल भागने की कोशिश करेंगे।
इसका आशय यह निकलता है कि परमाणु संख्या (यानी प्रोटॉनों की संख्या) बढ़ने के साथ-साथ परमाणु की स्थिरता घटती जानी चाहिए। आम तौर पर यह देखा भी गया है कि भारी तत्व अस्थिर होते हैं। तत्व क्रमांक 20 (तत्व क्रमांक से आशय उनकी परमाणु संख्या से है) तक अपेक्षाकृत स्थिर हैं। इसके बाद अस्थिरता बढ़ती जाती है। तो किसी परमाणु के अस्थिर होने का एक कारण तो आसानी से समझ में आता है - ज़रूरत से ज़्यादा प्रोटॉन नाभिक में ठूँसने की कोशिश होगी तो परमाणु अस्थिर हो जाएगा। मगर पिक्चर अभी बाकी है।
सवाल तो यह है कि यदि किसी परमाणु में दो प्रोटॉन हों, तो भी उसे अस्थिर होना चाहिए। मगर हीलियम तो काफी टिकाऊ तत्व है। यहाँ न्यूट्रॉन की भूमिका को समझना होगा।
यह सही है कि प्रोटॉनों के बीच विद्युतीय विकर्षण बल काम करता है। साथ ही भौतिकी के सिद्धान्तों के मुताबिक उनके बीच एक बल और काम करता है। उसे सशक्त बल या स्ट्राँग फोर्स कहते हैं। यह सशक्त बल आकर्षण का बल है। यह होता तो बहुत शक्तिशाली है मगर बहुत कम दूरी पर ही काम करता है।
अर्थात् नाभिक में उपस्थित प्रोटॉनों के बीच दो बल काम कर रहे हैं - एक विद्युतीय विकर्षण बल और दूसरा सशक्त बल। यदि प्रोटॉन की संख्या कम है और वे पास-पास स्थित हैं तो सशक्त बल विद्युतीय बल को परास्त कर देता है और परमाणु टिकाऊ रहता है। मगर जब प्रोटॉन संख्या बढ़ेगी तो मामला थोड़ा अलग हो जाएगा। विद्युतीय बल तो बढ़ेगा ही बढ़ेगा (और यह बल काफी दूरी पर काम करता है)। सशक्त बल भी बढ़ेगा मगर बड़े नाभिक में प्रोटॉनों के बीच की दूरी अधिक होगी। इसलिए सशक्त बल के लागू होने की सीमा आ जाएगी। ऐसी स्थिति में परमाणु के बिखरने का खतरा बढ़ जाएगा।
यहीं पर न्यूट्रॉन की भूमिका उभरती है। एक मत के अनुसार नाभिक के अन्दर न्यूट्रॉन प्रोटॉनों के बीच-बीच में घुस जाते हैं। इस तरह से वे प्रोटॉनों के बीच लगने वाले विद्युतीय विकर्षण बल को कमज़ोर कर देते हैं और परमाणु थोड़ा टिकाऊ हो जाता है। इसीलिए 20 परमाणु संख्या से ज़्यादा वाले तत्वों की स्थिरता के लिए ज़रूरी होता है कि उनमें प्रोटॉन के मुकाबले न्यूट्रॉन की संख्या अधिक हो। इसके अलावा न्यूट्रॉन सशक्त बल तो आरोपित करते ही हैं।
यदि हम 20 परमाणु संख्या तक के तत्वों को देखें, उनके सबसे अधिक पाए जाने वाले समस्थानिक में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन की संख्या बराबर-बराबर होती है। दूसरे शब्दों में इनका न्यूट्रॉन-प्रोटॉन अनुपात 1:1 होता है। इन्हें हल्के तत्व कहते हैं।
जब हम इससे अधिक परमाणु संख्या वाले तत्वों को देखते हैं तो पाते हैं कि उनमें प्रोटॉन की अपेक्षा न्यूट्रॉन ज़्यादा होते हैं। इनका न्यूट्रॉन-प्रोटॉन अनुपात 1 से अधिक होता है। ये भारी तत्व हैं। और इसके बाद अति-भारी तत्व आते हैं।
सबसे पहली बात यही पहचानी जा सकती है कि जितने ज़्यादा न्यूक्लिऑन्स होंगे उतनी ही अस्थिरता बढ़ेगी (यह इसी बात को कहने का दूसरा तरीका है कि भारी परमाणु ज़्यादा अस्थिर होते हैं)। मोटे तौर पर तो यह सही उतरता है मगर वैज्ञानिकों ने यह देखा है कि परमाणु संख्या बढ़ने के साथ परमाणुओं की अस्थिरता बढ़ती तो जाती है मगर लगातार नहीं बढ़ती। कुछ परमाणु संख्या तक अस्थिरता बढ़ती है, फिर अचानक कोई परमाणु आता है जो अपेक्षाकृत स्थिर होता है। इसके बाद फिर से अस्थिरता बढ़ती जाती है, फिर से अचानक स्थिर परमाणु आता है और यह क्रम चलता रहता है (चित्र-1)।
स्थिरता में इलेक्ट्रॉन की भूमिका
इसका अर्थ क्या है? सीधे रूप में देखें तो कुछ ऐसी परमाणु संख्याएँ हैं जहाँ परमाणु में स्थिरता होती है। इन्हें जादुई परमाणु संख्याएँ कहा गया है।
जादुई परमाणु संख्याएँ
2 8 20 28
50 82 126
इसका मतलब है कि केन्द्रक में न्यूक्लिऑन्स यों ही ठुँसे नहीं होते बल्कि उनकी कुछ व्यवस्थित जमावट होती है। यह बात इलेक्ट्रॉन विन्यास के आधार पर सोची गई है। इलेक्ट्रॉन के बारे में माना जाता है कि वे केन्द्रक के आसपास कक्षाओं में जमे होते हैं और कुछ विन्यास ज़्यादा टिकाऊ होते हैं। इलेक्ट्रॉन का कक्षकों में वितरण एक गणितीय सूत्र के आधार पर व्यक्त किया जाता है - 2n2 जहाँ n कक्षक क्रमांक है। पहले कक्षक में 2 [2(1)2], दूसरे में 8 [2(2)2], तीसरे में 18 [2(3)2], चौथे में 32 [2(4)2] इलेक्ट्रॉन हो सकते हैं। और अन्तिम कक्षक में अधिकतम 8 इलेक्ट्रॉन पाए जा सकते हैं। इसे अष्टक का नियम कहते हैं। जब अन्तिम कक्षक पूरा भरा होता है तो परमाणु में स्थिरता रहती है। नोबल गैसों (अक्रिय गैसों) की यही स्थिति है। यदि अन्तिम कक्षक में 8 से कम या ज़्यादा इलेक्ट्रॉन हों तो वह परमाणु अन्य परमाणुओं से क्रिया करके अपने अन्तिम कक्षक को पूरा भरने की कोशिश करता है या पूरा खाली करने की कोशिश करता है (मतलब अन्तिम कक्षक को तिलांजलि देने की कोशिश करता है)। सिर्फ हाइड्रोजन और हीलियम हैं जिनमें एक ही कक्षक है और इसमें अधिक-से-अधिक दो इलेक्ट्रॉन रह सकते हैं। आपको याद ही होगा कि हाइड्रोजन के इस कक्षक में 1 इलेक्ट्रॉन है और वह काफी क्रियाशील है जबकि हीलियम में यह कक्षक पूरा भरा है और हीलियम अक्रिय है।
इस आधार पर सोचा गया कि यदि परमाणु संख्या में कुछ संख्याएँ ज़्यादा स्थिरता की द्योतक हैं तो शायद केन्द्रक के अन्दर भी न्यूक्लिऑन्स का कुछ विन्यास होता होगा। मगर अब तक जादुई संख्याओं को किसी गणितीय सूत्र में बाँधने में सफलता नहीं मिली है। यह भी कोशिश की गई है कि जादुई संख्याओं के बीच के अन्तर को किसी गणितीय सूत्र में व्यक्त किया जाए मगर उसमें भी कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है। तो जादुई परमाणु संख्या से ऐसा शक तो होता है कि केन्द्रक के अन्दर भी कुछ निश्चित जमावट है मगर उस जमावट का खुलासा करने में सफलता नहीं मिली है। अलबत्ता, केन्द्रक की संरचना के कुछ मॉडल्स ज़रूर सुझाए गए हैं मगर यहाँ मैं उनमें नहीं जा रहा हूँ।
यह बात सामान्य तौर पर सही है कि परमाणु संख्या बढ़ने के साथ-साथ अस्थिरता बढ़ती है मगर ऐसा लगातार नहीं होता। बीच-बीच में ऐसे तत्व प्रकट हो जाते हैं जिनकी परमाणु संख्या अपने से पिछले तत्व से अधिक होने के बाद भी वे थोड़े ज़्यादा स्थिर होते हैं। इसे नाम दिया गया ‘स्थिरता के टापू’। तो यह समझने की कोशिश की गई कि ये स्थिरता के टापू क्या हैं। फिर एक बार पैटर्न पर गौर करते हैं।
स्थिरता के कुछ अन्य पैटर्न
इस सन्दर्भ में एक बात यह देखी गई है कि परमाणु संख्या सम (2, 22, 76 वगैरह) हो तो स्थिरता ज़्यादा होती है, विषम परमाणु संख्या वाले तत्व अपेक्षाकृत अस्थिर होते हैं। अस्थिरता को नापने का एक नया पैमाना निकाला गया। हमने ऊपर देखा था कि अधिकांश तत्वों के समस्थानिक होते हैं। यानी उनमें बराबर-बराबर प्रोटॉन मगर अलग-अलग संख्या में न्यूट्रॉन होते हैं। हमने यह भी देखा था कि कई तत्वों के कुछ समस्थानिक टिकाऊ होते हैं जबकि कुछ अस्थिर होते हैं। एक पैटर्न यह उभरा कि सम परमाणु संख्या वाले तत्वों के समस्थानिकों में औसतन ज़्यादा स्थिर समस्थानिक होते हैं जबकि विषम परमाणु संख्या वाले तत्वों के अस्थिर समस्थानिक ज़्यादा होते हैं। नीचे तालिका-1 में यह बात देखी जा सकती है।
इस पैटर्न की व्याख्या के लिए भी केन्द्रक के कई मॉडल सुझाए गए हैं।
जब यह समझ में आया कि परमाणु संख्या के सम या विषम होने का असर परमाणु की स्थिरता पर पड़ता है, तो एक और बात की जाँच करना लाज़मी था। वैज्ञानिकों ने यह विश्लेषण किया कि प्रोटॉन संख्या के सम या विषम होने के साथ-साथ क्या इस बात का भी असर होता है कि न्यूट्रॉन की संख्या कितनी है। इससे जो चित्र उभरा वह तालिका-2 में देखिए।
आप देख ही सकते हैं कि सबसे ज़्यादा स्थिरता तब आती है जब प्रोटॉन और न्यूट्रॉन, दोनों सम संख्या में हों। इन दोनों में से कोई भी विषम हुआ तो अस्थिरता बढ़ती है।
इन पैटर्न की व्याख्या के लिए जो गणनाएँ करनी पड़ती हैं वे काफी मुश्किल होती हैं मगर वैज्ञानिकों ने अपनी गणनाओं के आधार पर अनुमान व्यक्त किया था कि परमाणु संख्या 114 वाला तत्व अपेक्षाकृत स्थिर होगा। लिहाज़ा इसे बनाया गया और सचमुच यह स्थिर निकला। हम स्थिरता को सालों और दशकों और सदियों में आँकते हैं। उस पैमाने पर तत्व 114 कदापि स्थिर नहीं है। मगर जब आसपास के तत्व बनने से पहले ही टूट जाते हों, तो किसी तत्व का इतनी देर तक टिकना कि आप उसकी उपस्थिति का एहसास कर सकें, स्थिरता ही कहलाएगा।
यहाँ मैंने मात्र कुछ पैटर्न की बात की है। ऐसी चीज़ों में काफी विस्तृत गणनाएँ करनी होती हैं और तमाम प्रयोगों के आँकड़ों का उपयोग करना होता है। वैसे एक बात करना रह गया है कि ये नए तत्व बनाए कैसे जाते हैं। और जब ये इतनी कम देर के लिए अस्तित्व में रहते हैं तो इनका अध्ययन कैसे किया जाता है? और इन्हें बनाते ही क्यों हैं? इसे आगे के लिए छोड़ता हूँ।
सुशील जोशी: एकलव्य द्वारा संचालित स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान शिक्षण व लेखन में गहरी रुचि।