विपुल कीर्ति शर्मा
शिकार और शिकारी के बीच संघर्ष निरन्तर चलता रहता है। संघर्ष तब ही समाप्त होता है जब शिकारी शिकार कर लेता है। जीवन रक्षा के लिए शिकार वातावरण के अनुसार स्वांग रचता है, पत्ते, फूल, सूखी टहनियों की नकल करता है, रंग बदलता है और भी अनेक उपाय करता है।
शिकार एवं शिकारी का एक छोटा खेल मेरे कॉलेज के परिसर में अनेक बड़े पत्ते वाले वृक्षों जैसे आम, जामुन, बरगद एवं पीपल और कुछ बड़े पत्तों वाली लताओं जैसे मनी प्लांट के पास भी चल रहा है। शिकार है ईकोफिला स्मैरैग्डीना (Oecophylla smaragdina) जिन्हें बुनकर चींटे या लाल चींटे1 भी कहते हैं तथा शिकारी है अमीशिए फोर्टिसैप्स (Amyciaea forticeps) -- क्रेब परिवार की, लाल चींटे जैसी ही दिखने वाली एक अद्भूत मकड़ी।
बुनकर लाल चींटे
छ: टांगों वाले कीट वर्ग के अधिकांश जीव एकल जीवन बिताते हैं। किन्तु दीमक, मधुमक्खियाँ और चींटियाँ सामाजिक कीट हैं। ये समूह में रहती हैं। इनमें कार्यों का विभाजन भी होता है। बुनकर लाल चींटों का समाज अत्यधिक जटिल और संगठित होता है। समाज के सभी सदस्य न केवल एक-दूसरे पर पूर्णत: निर्भर होते हैं बल्कि एक-दूसरे के सहायक भी होते हैं। शरीर के आकार एवं कार्य विभाजन के आधार पर बुनकर लाल चींटों के घोंसलों (नेस्ट) में छोटे साइज़ के माइनर श्रमिक होते हैं, जो शिशुपालन के लिए दाई माँ का कार्य करते हैं। बड़े शरीर के मुख्य श्रमिक घोंसला बनाने, भोजन खोजने तथा अन्य पड़ोसी चींटियों की कॉलोनी तथा शत्रुओं पर आक्रमण के लिए तत्पर रहते हैं। ये ही अपनी सीमा की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं। एक बड़े आकार वाली रानी भी होती है। उसका कार्य अण्डे देना होता है। रानी शत्रुओं पर आक्रमण, भोजन खोजना जैसे कार्य तो नहीं करती परन्तु रसायनों के ज़रिए वह पूरी बस्ती पर नियंत्रण रखती है।
बुनकर लाल चींटों की एक बस्ती 1500 वर्ग मीटर में फैली हो सकती है। इनमें 5 लाख चींटे हो सकते हैं। बस्ती पर आक्रमण की सम्भावना बनने पर मुख्य श्रमिक अपने मज़बूत तथा पैने जबड़े खोलकर और पेट उठाकर काटने की मुद्रा में आगे बढ़ते हैं। यह आक्रमणकारी व्यवहार केवल समूह में होता है। अक्सर प्रयोगों के दौरान जब कुछ लाल चींटों को बस्ती से अलग कर दिया जाता है तो वे खाना-पानी उपलब्ध होने के बावजूद सुस्त हो जाते हैं, आक्रमक व्यवहार त्याग देते हैं और आश्चर्यजनक रूप से मरने लगते हैं। शायद समूह में रहने तथा एक-दूसरे सदस्यों से प्राप्त कुछ रासायनिक संकेतों के कारण वे ऊर्जावान एवं आक्रमक बने रहते हैं।
फॉर्मिसिडी परिवार के ये बुनकर लाल चींटे अनूठे प्रकार से घोंसला बनाते हैं। घोंसला बनाने के लिए ये विशेष रूप से बड़ी पत्तियों वाले वृक्ष का चुनाव करते हैं।2 घोंसला बनाते समय श्रमिक चींटे अपने लार्वा/इल्ली को जबड़ों से पकड़कर नियत स्थान पर लाते हैं। इसी बीच अन्य श्रमिक चींटे पत्तियों को आपस में चिपकाने के लिए जबड़ों और पैरों से खींचकर पास लाते हैं। पत्तियाँ पास नहीं होने पर वे एक चेन बनाकर पत्तियों को खींचकर पास लेकर आते हैं। सभी चींटों में लार्वा से स्त्रावित रेशम से ककून बनाया जाता है परन्तु लाल चींटों में रेशम पत्तियों को जोड़ने में धागे के समान कार्य करता है। श्रमिक जब इन लार्वा को सावधानी से पकड़कर पत्तियों के जोड़े जाने वाले सिरों से स्पर्श करते हैं तो लार्वा से रेशमी धागा निकलने लगता है। हवा के सम्पर्क में आते ही ये चिपचिपे धागे पत्तियों को चिपकाकर मज़बूत जोड़ बना देते हैं। घोंसलों के अन्दर रेशमी धागे बिस्तर के समान आरामदेह अस्तर और पर्दे बनाते हैं। पर्दों से पार्टीशन करके कमरों का निमार्ण होता है। घोंसलों से यदि कोई छेड़-छाड़ करे तो सैकड़ों चींटे अचानक आक्रमण कर देते हैं। बुरी तरह से काटने के अलावा ये अपने पेट के अन्तिम सिरे से पिचकारी की तरह फॉर्मिक एसिड भी फेंकते हैं जिससे काटे हुए स्थान पर बहुत तेज़ जलन होने लगती है।
वर्षा वनों में एक ही समय पर बुनकर लाल चींटों के छ: से लेकर 100 घोंसले तक देखे जा सकते हैं। ये सभी घोंसले चींटों के रास्तों से जुड़े रहते हैं। सावधान श्रमिक चींटे कॉलोनी के अपने साथी चींटों को देखने के अलावा मुँह, अगले पैर एवं ऐंटिना से छूकर भी पहचानते हैं। अनेक प्रकार के सन्देश का लेनदेन करने के लिए ये भिन्न-भिन्न ग्रन्थियों से गन्ध छोड़ते हैं। वैज्ञानिकों ने गन्ध से संवाद के इस अद्भुत प्रकार को एक भाषा ही माना है।
अनेकों घोंसलों में से एक में मादा चींटा रानी होती है। यह आकार में श्रमिकों से काफी बड़ी एवं मोटी होती है। रानी का कार्य खाना और अण्डे देते रहना है। अण्डों से लार्वा निकलते हैं। छोटे माइनर श्रमिक लार्वा को खाना खिलाते हैं तथा साफ-सफाई का कार्य करते हैं।
रानी कई बार प्रजनन कर सकने योग्य नर एवं मादा चींटे पैदा करती है। पंख आने पर नर और मादा घोंसले से उड़ जाते हैं तथा प्रजनन करके नई बस्ती बनाते हैं। रानी से उत्पन्न शेष सभी सन्तति बांझ होती हैं तथा रानी की सेवा और घोंसले की सुरक्षा में लगी रहती हैं। एक रानी कई वर्षों तक ज़िन्दा रहती है परन्तु श्रमिक कुछ माह तक कार्य करने के बाद बूढ़े होकर बस्ती की सीमा पर सैनिक निवास में चले जाते हैं। आक्रमण के दौरान घायल होकर ये शहीद हो जाते हैं।
बुनकर लाल चींटे सर्वाहारी होते हैं और आसपास मिलने वाले सभी कीड़ों-मकोड़ों को खाते हैं। एफिड नामक सहजीवी द्वारा स्त्रावित शर्करायुक्त (मीठा) स्त्राव भी ये बड़े चाव से चाटते हैं। लाल चींटे इतने भयानक शिकारी होते हैं कि इनके घोंसलों के आसपास कोई भी जीव-जन्तु नहीं फटकता। विशेष परिस्थितियों के अलावा इन चींटों का कोई शत्रु नहीं होता।
चींटे की भयानक काटने की प्रवृत्ति एवं आक्रमणकारी व्यवहार होने के कारण अनेक जीवों का रंगरूप सुरक्षा की दृष्टि से लाल चींटे के समान ही विकसित हो गया है। उनके शत्रु चींटों के भेष में पाए जाने वाले इन जीवों को चींटे ही समझते हैं तथा डर कर उन पर आक्रमण करने से बचते हैं।
जाला न बनाने वाली क्रेब मकड़ियाँ
अनेक प्रकार की मकड़ियाँ भी दिखने में चींटों के समान विकसित हो गई हैं। कुछ मकड़ियाँ तो न केवल चींटों के समान दिखती हैं किन्तु उनके आसपास ही रहती हैं। कुछ मकड़ियाँ छुपकर इन चींटों का शिकार भी करती हैं। थोमिसिडी परिवार की क्रेब मकड़ी अमीशिए बुनकर लाल चींटों के आसपास ही रहती हैं तथा केवल इन भयानक चींटों का ही शिकार करके खाती हैं।
क्रेब मकड़ियों के परिवार में 175 वंश और 2100 प्रजातियाँ आती हैं। इस परिवार की कुछ क्रेब मकड़ियाँ फूलों पर घात लगाए बैठी रहती हैं। जैसा फूलों का रंग होता है उन पर पाए जाने वाली क्रेब मकड़ियाँ भी उसी रंग की होती हैं। क्रेब के समान ही ये मकड़ियाँ अगले दो मज़बूत पैर उठाए रहती हैं और ये दाएँ-बाएँ, दोनों तरफ बगैर मुड़े चल सकती हैं।
अन्य सभी मकड़ियों के समान क्रेब मकड़ियाँ भी रेशम ग्रन्थियों से रेशम निकाल सकती हैं किन्तु रेशम से जाला नहीं बनातीं। ये भी शिकारी होती हैं तथा शिकार में विष डालने के लिए इनके पास विषदन्त (फेंग) भी होते हैं। विष अनेक प्रकार के घातक प्रोटीन का मिश्रण होता है जिसमें अधिक मात्रा तंत्रिका तंत्र को नष्ट करने वाले न्यूरोटॉक्सिक प्रोटीन की होती है। विष के पाचक एंज़ाइम तुरन्त ही शिकार के अंगों को गलाने लगते हैं। मकड़ियाँ पचे हुए शिकार को द्रव के रूप में चूसती हैंै। ये खाती या चबाती नहीं हैं।
क्रेब मकड़ियों में यौन द्विरूपता (सेक्शुअल डायमॉर्फिज़म) बहुत ही स्पष्ट होती है। नर क्रेब मकड़ियाँ मादा से बहुत ही छोटी होती हैं। मिसूमेनिया प्रकार की क्रेब मकड़ियों में मादा, नर की तुलना में 60 गुना बड़ी होती हैं। वयस्क मादा की लम्बाई 6-11 तथा नर की लम्बाई 2.5-4 थ्र्थ्र् होती है। प्राय: नर का रंग भी मादा से भिन्न होता है। फूलों पर बैठने वाली कुछ क्रेब मकड़ियाँ तो पराबैंगनी किरणों को परावर्तित कर सकती हैं जिससे तितलियाँ व अन्य कीट इनकी ओर आकर्षित होकर शिकार बन जाते हैं।
मिमिक्री
विश्व में चींटों के समान भेष धारण करने वाले अनेक जीव होते हैं। बहुत-से कीट और मकड़ियाँ विकास की अवस्था में शिकारियों से बचने के लिए अपनी संरचना और रंगरूप आसपास के वातावरण के अनुसार विकसित कर लेते हैं। इसे मिमिक्री कहते हैं। मिमिक्री अनेक प्रकार की होती है जैसे केमिकल, वोकल आदि।
चींटियों के समान दिखने वाले कीटों और मकड़ियों को मर्मेकामॉर्फिक कहते हैं। मर्मेका का अर्थ है चींटियों से सम्बन्धित। कुछ मकड़ियाँ तो इस कार्य में बहुत निपुण होती हैं। उनका हावभाव, रूपरंग बिलकुल आसपास पाए जाने वाले चींटों जैसा ही होता है। इन मकड़ियों को आप बगीचों में भी देख सकते हैं। केवल जानकार नज़रें और अनुभव से ही आप इन्हें चींटियों से अलग पहचान सकते हैं। कुछ मकड़ियाँ तो न केवल चींटों-सा भेष व व्यवहार करती हैं बल्कि वे चींटो के क्यूटिकल से निकलने वाले रसायन जैसे ही रसायन भी उत्पन्न करती हैं जिस कारण अनभिज्ञ चींटे उन्हें अपने समूह का एक सदस्य ही समझते हैं। वे चींटों के साथ न केवल रहती हैं, उनके अण्डों और भ्रूण को भी खाती हैं। इस प्रकार की मकड़ियों को मर्मेेकोफेगस कहते हैं।
चींटों की शिकारी अमीशिए केवल बुनकर लाल चींटों को ही अपना शिकार बनाती हैं, अन्य कुछ नहीं खातीं। इस प्रकार के जीवों को जो किसी एक ही प्रकार का भोजन खाते हैं, स्टेनोफेगस कहते हैं। अमीशिए दोहरा लाभ लेती हैं। वे लाल चींटों के समान दिखकर शिकारी कीट, पक्षी, गिरगिट, छिपकली आदि शत्रुओं की शिकार होने से बच जाती हैं और लाल चींटों को खाती भी हैं। अन्य क्रेब मकड़ियों के समान ही अमीशिए भी जाले नहीं बनातीं परन्तु अन्य मकड़ियों के समान रेशम अवश्य छोड़ती चलती हैं और अण्डों को सहेजने के लिए उनके ऊपर रेशम का एक आवरण बनाती हैं। इस आवरण को एगकेस कहते हैं। अमीशिए लाल चींटों के आवागमन के रास्तों के आसपास ही मुड़ी पत्तियों में रहती हैं और अण्डे देती हैं।
वैसे तो मकड़ियों में केवल शिरोवक्ष (सिफेलोथोरेक्स) तथा उदर ही होता है किन्तु चींटों के साथ रहने के कारण अमीशिए का शरीर भी सिर, धड़ और उदर भागों में विभाजित दिखाई पड़ता है। चींटों में तीन जोड़ी पैर और आगे एक जोड़ी ऐंटिना होते हैं। तो अमीशिए के चार जोड़ी पैरों में से भी पहली जोड़ी के पैर आगे की ओर उठकर ऐंटिना के समान दिखते हैं। अमीशिए का रंग भी बुनकर चींटों के समान लाल होता है तथा चलने का ढंग एवं व्यवहार भी वैसा ही होता है। बस मादा अमीशिए का आकार बड़े श्रमिक चींटों से कुछ छोटा होता है। अमीशिए पर पीछे पेट के दोनों तरफ आँखों के समान दिखने वाले काले धब्बे होते हैं (देखें चित्र 4)। यह भी मिमिक्री का ही एक उदाहरण है। काले धब्बे और उदर का अन्तिम सिरा पीछे से देखने पर लाल चींटे की दो आँखें और मुँह जैसे दिखते हैं। पीछे से आक्रमण करने वाला शिकारी इन्हें लाल चींटा समझ लेता है और दिशा भ्रमित होकर आक्रमण को टाल देता है। इस प्रकार नकली आँखों एवं मुँह की मिमिक्री अमीशिए को शिकारियों से बचाती है।
बुनकर लाल चींटों का शिकार करना अमीशिए के लिए तो क्या किसी भी शिकारी के लिए आसान नहीं है। आक्रमण में चूके कि चींटों के मज़बूत जबड़े और फॉर्मिक एसिड की बौछार शत्रु का काम तमाम नहीं भी कर पाए किन्तु उसे अपंग तो बना ही देते हैं।
अमीशिए द्वारा बुनकर लाल चींटों का शिकार करना शेर द्वारा हिरण का शिकार करने से भी कठिन है क्योंकि हिरण तो शेर को नहीं मार सकता किन्तु चींटे तो मकड़ी को मार सकते हैं। भूखी अमीशिए शिकार करने के लिए बुनकर लाल चींटों के आवागमन के रास्तों के पास छुपकर बैठ जाती है। शत्रुओं से सतर्क लाल चींटों से बचकर अमीशिए किसी ऐसे चींटे का इन्तज़ार करती है जो खोजबीन करते-करते अपने साथियों से दूर हो जाए। वैसे कुछ श्रमिक सैनिक चीटों को यह पता होता है कि अमीशिए उनके आसपास मौजूद है।3 वे बहुत सजग और उत्तेजित होकर अमीशिए को मारने के लिए ढूँढ़ते रहते हैं। ऐसे सैनिकों पर अमीशिए आक्रमण करने की हिमाकत नहीं करती। अमीशिए बुनकर लाल चींटोंें के व्यवहार को परखती है तथा भटके हुए बेबस और शान्त श्रमिक चींटों को ही अपना निशाना बनाती है। जब वह अपना शिकार चुन लेती है तो पीछे से अपने अन्तिम दो पैरों को ऊपर करके अचानक चींटे के उदर पर चढ़ जाती है और गर्दन पर विषदन्त चुभाकर तुरन्त हट जाती है। गर्दन पर विषदन्त के चुभते ही श्रमिक चींटा काटने के लिए अपना सिर ऊपर करके पीछे मोड़ने की कोशिश करता है, उदर को भी ऊपर उठाता है। किन्तु गर्दन पर विषदन्त चुभने के कारण न्युरोटॉक्सिक विष के प्रभाव से सिर पीछे नहीं हो पाता। यदि अमीशिए ज़्यादा देर तक (1 या 2 सेकण्ड) गर्दन पकड़े रहती है तो चींटा अमीशिए पर फॉर्मिक एसिड की बौछार कर देता है।
अमीशिए का विष अपना कार्य तुरन्त करता है। विष का न्यूरोटॉक्सिक प्रोटीन तंत्रिका तंत्र से नियंत्रित सभी अंगों को तुरन्त लकवाग्रस्त (पेरेलाइज़) कर देता है। चींटा बेबस मूर्ति की तरह बगैर हिले-डुले, खड़ा रह जाता है। सुन्न हो चुके चींटे को छोड़कर अमीशिए एसिड पोंछने के लिए पेट को सतह से हिलाती-डुलाती हुई आसपास भागती रहती है। एसिड साफ हो जाने के बाद अमीशिए लकवाग्रस्त चींटे के पैरों को मोड़कर अन्दर कर देती है तथा शिकार को मँुह से पकड़कर चींटों के रास्ते से दूर घसीटकर ले जाती है।
गर्दन पर विषदन्त चुभाने के कई लाभ प्रतीत होते हैं। अगर मिसोथोरेक्स (थोरेक्स का बीच वाला पतला हिस्सा) या पेडिसेल (थोरेक्स एवं उदर को जोड़ने वाला पतला हिस्सा) पर विषदन्त चुभाए जाएँ तो चींटे के पेट द्वारा निकला एसिड अमीशिए के श्वसन अंग (बुकलंग्स) तथा मादा जननांग (ईपीगाईन) पर लगता है जो गम्भीर क्षति कर सकता है। अमीशिए के एसिड पोंछने को जाँचने का मज़ेदार प्रयोग आप स्वयं एक बोतल में नीला लिटमस पेपर बिछाकर कर सकते हैं।
नर अमीशिए मादा की तुलना में अत्यन्त फुर्तिला होता है। छोटे विष दन्त होने के कारण यह पैरों पर, उदर के नीचे, गर्दन आदि स्थान पर भी काट कर चींटे को लकवाग्रस्त कर सकता है।
अमीशिए द्वारा शिकार पर आक्रमण के बाद सुन्न पड़े चींटे के पास यदि कोई सैनिक या श्रमिक चींटा आ जाता है तो ऐसी स्थिति में अमीशिए उसे अपनी ओर आने के लिए प्रथम जोड़ी पैर मार कर उत्तेजित करती है। गुस्साया श्रमिक चींटा अमीशिए को पकड़ने के लिए दौड़ता है किन्तु कहीं ज़्यादा चपल अमीशिए घूमकर शिकार को ले भागती है। खतरे की स्थिति में अमीशिए एक और जुगत लगाती है। वह अपने स्पिनरेट द्वारा छोड़े जाने वाले ड्रेगलाइन सिल्क (रेशम) से हवा में लटककर चींटे की पहुँच से दूर चली जाती है।
आक्रमण के बाद विलम्ब किए बिना अमीशिए शिकार का द्रव पीने लगती है। शिकार का पूरा द्रव पीने में उसे लगभग 1 से 1.5 घण्टा लगता है। इसके बाद अमीशिए आसपास के सूखे, मुड़े तथा घुमावदार पत्तों में घुस जाती है। एक-दो दिन के बाद वह फिर से नए शिकार के लिए निकलती है।
मादा अमीशिए की नर अमीशिए से मुलाकात हो जाने पर वे एक-दूसरे को रिझाने में या कोर्टशिप में ज़्यादा समय न गंवाकर सीधे सम्भोग करते हैं। मुड़ी पत्तियों पर लगभग 20-25 अण्डे रेशमी धागों की गोल गद्दी में लपेट दिए जाते हैं जिनसे लगभग 25 दिन बाद बच्चे (स्पाइडरलिंग) निकलते हैं।
अगर आपके आसपास भी बुनकर लाल चींटों का घोंसला हो तो उनके बीच अमीशिए को ज़रूर ढूँढ़ें। अमीशिए द्वारा कैसे शिकार किया जाता है, यह देखने के लिए अमीशिए को बोतल में पालें तथा एक चींटे को भी बोतल में छोड़ दें। बोतल पारदर्शी हो, ढक्कन पर मोटी सूई से श्वसन के लिए 8-10 छिद्र बना दें। एक रूई का छोटा-सा फाहा पानी में भिगोकर रखें जिससे आवश्यकता होने पर चींटे और अमीशिए पानी पी सकें।
लाल चींटों को पकड़ने में सावधानी बरतें क्योंकि ये काट सकते हैं। एक अन्य बोतल को दौड़ते चींटों पर रखकर या चिमटों द्वारा बगैर ज़्यादा नुकसान पहुँचाए इन चींटों को पकड़ा जा सकता है।
विश्वास करें कि अमीशिए को पालना बेहद आसान और मज़ेदार है। शिकार करने के उपरोक्त वर्णन के कुछ परिणाम तो बिलकुल नए हैं तथा शोधपत्रिकाओं में भी प्रकाशित नहीं हैं। आपके लिए यह प्रयोग बड़ा मज़ेदार रहेगा। कुछ परेशानी आए तो मैं हूँ ना।
विपुल कीर्ति शर्मा: शासकीय होल्कर विज्ञान महाविद्यालय, इन्दौर में प्राणिशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर। इन्होंने ‘बाघ बेड्स’ के जीवाष्मों का गहन अध्ययन किया है तथा जीवाष्मित सीअर्चिन की एक नई प्रजाति की खोज की है। नेचुरल म्यूज़ियम, लंदन ने उनके सम्मान में इस नई प्रजाति का नाम उनके नाम पर स्टीरियोसिडेरिस कीर्ति रखा है। वर्तमान में वे अपने विद्यार्थियों के साथ मकड़ियों पर शोध कार्य कर रहे हैं। पीएच.डी. के अतिरिक्त बायोटेक्नोलॉजी में भी स्नातकोत्तर किया है।