ए वी रमणी और अरविन्द सरदाना
रिपोर्ट
यह रिपोर्ट छत्तीसगढ़ के चुनिन्दा ब्लॉक की शालाओं में किए गए सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट है। 10वीं की पाठ्यपुस्तक के ‘खाद्य सुरक्षा’ अध्याय में दी गई एक गतिविधि को कुछ शिक्षकों ने अपनी शालाओं के 9वीं व 10वीं के बच्चों के साथ किया। इनसे मिली जानकारी और आँकड़ों का विश्लेषण प्रस्तुत है। यह सर्वेक्षण कई कारणों से महत्वपूर्ण है जिनमें से एक है कि यह अध्ययन जनजातियों के सन्दर्भ में है, और दूसरा कि यह किशोरों के बारे में है। भारत में छोटे बच्चों और वयस्कों की तुलना में किशोरों के पोषण पर कम ध्यान दिया गया है।
पृष्ठभूमि
भारत उन देशों में शुमार है जहाँ कुपोषित लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स1 (जीएचआई/वैश्विक भुखमरी सूचकांक) में किसी देश में भुखमरी की स्थिति को दर्शाने के लिए चार संकेतकों का इस्तेमाल किया जाता है। ये संकेतक हैं: कुल आबादी में अल्पपोषित लोगों2 (जिनमें वयस्क और बच्चे शामिल हैं) का प्रतिशत, पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण3 (लम्बाई के अनुपात में कम वज़न) का प्रतिशत, पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में ठिगनेपन4 (आयु के अनुपात में कम लम्बाई) का प्रतिशत, और पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर। जीएचआई 2016 के अनुसार, 118 देशों में भारत का स्थान 97वाँ है, और हम दक्षिण एशियाई देशों में सिर्फ पाकिस्तान (107वाँ स्थान) से आगे हैं। भारत की भुखमरी के स्तर को ‘गम्भीर’ श्रेणी में डाला गया है, जो कि ‘भयावह’ श्रेणी से कुछ ही बेहतर है। जीएचआई की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत और नीचे गिरकर, कुल 119 देशों में 100वें स्थान पर पहुँच गया है।
गौरतलब है कि भूख के कारण अल्पपोषण की स्थिति निर्मित होती है और व्यक्ति को इसके समस्त परिणाम झेलना पड़ते हैं। पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में होने वाली 60% से अधिक मौतों का बुनियादी कारण अल्पपोषण होता है। बचपन के शुरुआती सालों में कुपोषण होने से बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास ठीक से नहीं हो पाता, और उनकी सीखने और शारीरिक काम करने की क्षमताएँ भी पूरी तरह विकसित नहीं हो पातीं। कुपोषित वयस्क लोगों की काम करने की क्षमता भी स्वाभाविक रूप से बहुत कम होती है। और स्वस्थ वयस्क लोगों की तुलना में ये लोग गम्भीर संक्रमणों का आसानी-से शिकार बन जाते हैं।
पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में तीव्र भुखमरी और दीर्घकालिक भुखमरी का आकलन करने के लिए उम्र के मुताबिक वज़न (सामान्य से कम वज़न), उम्र के मुताबिक लम्बाई (ठिगनापन), और लम्बाई के मुताबिक वज़न (दुबलापन) जैसे विभिन्न संकेतकों का प्रयोग किया जाता है। पाँच साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों के लिए, अल्पपोषण या दुबलेपन का आकलन करने के लिए ठिगनेपन जैसे अन्य संकेतकों के अलावा आम तौर पर बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) का प्रयोग किया जाता है। बॉडी मास इंडेक्स व्यक्ति के वज़न (किलोग्राम में) और उसकी लम्बाई (मीटर में) के वर्ग का अनुपात होता है। वयस्क लोगों में 18.5 से कम बीएमआई अल्पपोषण को दर्शाता है। 5-19 साल तक के बच्चों में, किसी बच्चे की बीएमआई की तुलना करने के लिए आयु-विशिष्ट बीएमआई वक्ररेखा का इस्तेमाल किया जाता है।
हालाँकि, बच्चों और बड़ों में कुपोषण की स्थिति पर तो राष्ट्रीय स्तर के कई सर्वेक्षण उपलब्ध हैं, लेकिन किशोरों के पोषण स्तर पर राष्ट्रीय स्तर के कोई हालिया आँकड़े मौजूद नहीं हैं। जो सबसे नई जानकारी उपलब्ध है, वह राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो द्वारा किया गया 2011-12 का तीसरा ग्रामीण पुनर्सर्वेक्षण5 है। इसमें पता चला कि 13-15 साल के लड़के और लड़कियाँ तेल और प्रोटीन के दैनिक सेवन की सुझाई गई मात्राओं के आधे या उससे भी कम का उपभोग कर रहे थे। इस आयुवर्ग के 35% लड़के, और 20% लड़कियाँ अल्पपोषित थीं।
हालाँकि एनएफएचएस-4 (चौथा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) 2015-16 के आँकड़े तो अभी उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन 2005-06 में हुए तीसरे सर्वेक्षण के आँकड़े दिखाते हैं कि सामान्य जातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों तथा अनुसूचित जातियों की तुलना में जनजातियों के बच्चों और वयस्कों, दोनों में ही कुपोषण का स्तर सर्वाधिक है।
भारत में जनजातियों को बहुत-सी प्रतिकूल परिस्थितियाँ झेलना पड़ती हैं। वे अन्य समुदायों की तुलना में ज़्यादा गरीब हैं, इसलिए खाद्य-सामग्री खरीदने की उनकी क्रय क्षमता भी बाकी समुदायों से कमतर है। वे ऐसे दूरदराज़ के इलाकों में रहते हैं जहाँ स्वास्थ्य व अन्य सुविधाएँ पहुँचाना और उनका लाभ हासिल करना, दोनों ही मुश्किल होता है। इसके अलावा, विस्थापन, प्रतिबन्धों और वन क्षेत्रों के कम हो जाने के कारण जंगल से मिल जाने वाले खाद्य पदार्थ भी इनकी पहुँच से बाहर हो गए हैं। और छोटे-छोटे जंगली उत्पादों को इकट्ठा करके बेचने से आजीविका कमाने के इनके पारम्परिक तरीके भी इनसे छिन गए हैं।6 शायद आप जानते ही होंगे कि 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजाति छत्तीसगढ़ की आबादी का लगभग 1/3 (31.8%) हिस्सा है।
अध्ययन की भूमिका
छत्तीसगढ़ में दसवीं कक्षा की सामाजिक विज्ञान की नई पाठ्यपुस्तकों में ‘खाद्य सुरक्षा’ एक अध्याय है। वृहत-स्तरीय आँकड़ों और अन्य अवधारणात्मक मुद्दों की पड़ताल करने के अलावा इस अध्याय में बताया गया है कि बढ़ते बच्चों के हिसाब से बीएमआई को कैसे समझा जाए। इसमें एक अभ्यास-कार्य भी दिया गया है जिसमें बच्चे अपना बीएमआई निकालते हैं और तालिका को पढ़कर अपने नतीजों का अर्थ लगाते हैं। इस तरह उन्हें अपने पोषण स्तर की सही समझ हासिल होती है। शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे संवेदनशीलता और सकारात्मक तरीके से विद्यार्थियों के इन नतीजों को कक्षा में रखें और बच्चों के आहार स्वरूप के बारे में चर्चा करें।
इस अध्याय को तैयार करते वक्त दूरदराज़ के अलग-अलग विकासखण्डों के तीन स्रोत शिक्षकों ने अपने-अपने स्कूलों के परिवेश में इस तरह के प्रयोग किए। उन्होंने अपने स्कूल के कुछ बच्चों की लम्बाई और वज़न नापा और हरेक का बीएमआई निकाला। डब्ल्यू.एच.ओ. (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के दिशानिर्देशों का इस्तेमाल करते हुए एकत्रित आँकड़ों से अल्पपोषित बच्चों का प्रतिशत निकाला गया। यह सारी प्रक्रिया सामुदायिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. रमणी के मार्गदर्शन में की गई। जो नतीजे सामने आए, उन्होंने सभी को चौंका दिया। इन तीन स्कूलों में 16%, 24% और 60% तक अल्पपोषण पाया गया। शिक्षकों ने डॉ. रमणी से अपने-अपने स्कूलों की स्थिति को लेकर चर्चा की। उन्होंने सलाह दी कि स्कूल वाले यह पता करें कि क्या उनके बच्चे पिछले सप्ताह कभी भूखे रहे थे, आम तौर पर उनके आहार का स्वरूप क्या होता है और क्या उन्हें फल, माँस या अण्डे का पूरक आहार मिल पाता है। एक शिक्षक ने सुझाव दिया कि बच्चे टिफिन लेकर आएँ और फिर साथ बैठकर खाएँ। सम्भवत: वे भूखे ही स्कूल आ रहे थे और नौवीं व दसवीं कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए मध्याह्न भोजन की कोई व्यवस्था नहीं थी।
कुछ महीनों बाद, एक अलग कार्यक्रम के हिस्से के रूप में एन.सी.ई.आर.टी. (राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और शैक्षिक परिषद) और छत्तीसगढ़ एस.सी.ई.आर.टी. (राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं शैक्षिक परिषद) ने मिलकर सामाजिक विज्ञान के शिक्षकों के लिए छह दिन का क्षमतावर्धन कार्यक्रम 14 से 19 नवम्बर, 2016 के दौरान आयोजित किया। यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ के जनजातीय कल्याण विभाग द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों में काम करने वाले शिक्षकों के लिए था। ये स्कूल प्रमुख रूप से जनजातीय बच्चों की ज़रूरतों पर ध्यान देते हैं। इन शिक्षकों के साथ खाद्य सुरक्षा वाले अध्याय और बीएमआई पर बने अभ्यासों पर काम किया गया। प्रशिक्षण के बाद, बारह शिक्षकों ने अपने स्कूल में अपने विद्यार्थियों के साथ इस अभ्यास को किया और उससे निकले तथ्य हमें भेजे। आगे किया गया विश्लेषण इसी पर आधारित है। जिन स्कूलों से ये प्रतिक्रियाएँ मिलीं, वे इन ज़िलों और विकासखण्डों से थे: रायगढ़ ज़िले के धरमजयगढ़ और खरसिया विकास-खण्ड, सुरजपुर ज़िले के ओडगी, प्रतापपुर, भैयाथान और सुरजपुर विकासखण्ड, कोरिया ज़िले के मनेन्द्रगढ़ और खड़गवा विकासखण्ड, बलरामपुर ज़िले के कुसमी और संकरगढ़ विकासखण्ड, जशपुर ज़िले का बगीचा विकासखण्ड और राजनांदगांव ज़िले का छुईखदान विकासखण्ड।
सर्वेक्षण की पद्धति
शिक्षकों को वज़न और लम्बाई मापना सिखाया गया। विद्यार्थियों के वज़न तो वज़न नापने की एक सामान्य मशीन के द्वारा मापे गए, पर हर माप से पहले इस बात का खयाल रखा गया कि मशीन का काँटा शून्य पर हो। कक्षा की ही एक दीवार पर आधे सेंटीमीटर तक की माप प्रदर्शित करते हुए स्केल पर उनकी लम्बाइयाँ नापी गईं। बच्चों को नंगे पैर, दीवार से सटकर, पैरों को चिपकाकर इस तरह खड़े होना था कि उनकी एड़ियाँ दीवार से छुएँ। इसके अलावा कूल्हे और कन्धे दीवार से छूने चाहिए थे, और सिर के पिछले हिस्से का सबसे उभरा भाग भी दीवार से छूना था। आँखें कान के ऊपरी हिस्से की सीध में रखना थीं। यानी बच्चों को एकदम सीधा देखना था और अपने सिर को ऊपर या नीचे की तरफ नहीं झुकाना था। सिर पर एक स्केल या फिर कॉपी रखकर दीवार पर बने लम्बाई के स्केल में देखकर उनकी लम्बाई माप ली जाती थी। यह बताना ज़रूरी है कि माप लेने वाले अलग-अलग लोगों की मापों में थोड़ा-बहुत अन्तर आ सकता है, लेकिन हम आशा करते हैं कि वह अन्तर इतना ज़्यादा नहीं होगा कि उनके परिणामों में भारी फेरबदल हो जाए।
बीएमआई पाँच साल से ऊपर के मनुष्यों के पोषण स्तर का आकलन करने का अन्तर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत और आम तौर पर इस्तेमाल होने वाला पैमाना है। शरीर के वज़न को किलोग्राम में नापकर और लम्बाई को मीटर में नापकर इसकी गणना की जाती है। वयस्क लोगों में, सामान्य पोषण के लिए 18.5 का मानक मूल्य तय कर दिया गया है यानी 18.5 से कम बीएमआई वाले व्यक्ति अल्पपोषित या दुर्बल माने जाएँगे।
बच्चों व किशोरों (5-19 वर्ष) में शरीर की लम्बाई बदलती रहती है, इसलिए लम्बाई के अनुरूप वज़न का उनका अनुपात भी बदलता रहता है। डब्ल्यू.एच.ओ. ने उम्र के बदलावों के लिए मानक बीएमआई तय किए हैं जो आयु-विशेष के लिए वृद्धि चार्ट में सामान्य, अल्पपोषित और अधिक वज़न वाले बीएमआई मूल्यों को दर्शाते हैं। इन्हें फील्ड उपयोग के लिए सरलीकृत करके तालिकाबद्ध कर दिया जाता है। इन शिक्षकों ने इसी तालिका का उपयोग किया था। यहाँ (चित्र-1) इसका एक नमूना दिया जा रहा है।
शिक्षकों को डब्ल्यू.एच.ओ. की उम्र और लिंग के मुताबिक बनाई गई सरलीकृत फील्ड तालिकाएँ उपलब्ध कराई गईं और इन्हें पढ़ना व समझना सिखाया गया। इस तरह शिक्षक अपने विद्यार्थियों की उम्र के अनुरूप उनका बीएमआई देख सकते थे ताकि उनके पोषण स्तर का पता लगाया जा सके।
बारह स्कूलों ने यह प्रक्रिया करके हमें अपने परिणाम भेजे, हमने उनके आँकड़ों की जाँच की और छूट गए खानों एवं गलतियों की निशानदेही करके उन्हें सुधारकार्य के लिए वापस भेज दिया। इसके बाद सभी पूर्ण प्रविष्टियों को डब्ल्यू.एच.ओ. एंथ्रो प्लस7 सॉफ्टवेयर में डालकर उनका विश्लेषण किया गया।
जाँच के परिणाम
कुल 267 विद्यार्थियों -- जिनमें 133 लड़के थे और 134 लड़कियाँ -- के वज़न, लम्बाई और जन्म तारीख के आँकड़े दर्ज किए गए।
उम्र के अनुपात में लम्बाई
कुल मिलाकर, 27% विद्यार्थियों की लम्बाई अपनी उम्र के अनुपात में बहुत कम थी, यानी वे ठिगनेपन का शिकार थे। और 3.4% ऐसे थे जो अत्यधिक ठिगने थे8 (चित्र-2)।
ठिगनेपन की यह स्थिति लड़कियों की अपेक्षा लड़कों में थोड़ी अधिक देखने को मिली। 24% लड़कियों की अपेक्षा 30% लड़कों में ठिगनापन देखा गया।
हालाँकि, लड़कों और लड़कियों में ठिगनेपन की स्थिति लगभग एक जैसी थी।
उम्र के अनुरूप बीएमआई
सर्वेक्षण में शामिल हर चार विद्यार्थियों में से एक (27%) अपनी उम्र के अनुपात में बहुत अधिक दुर्बल (द्यण्त्द) था। 11% विद्यार्थी अत्यधिक दुर्बल थे, यानी ये लोग अपनी उम्र के हिसाब से अत्यधिक अल्पपोषित थे (चित्र-3)।9
लड़कियों की तुलना में, लड़कों में अल्पपोषण और अत्यधिक अल्पपोषण की समस्या अधिक पाई गई। लगभग 40% (39%) लड़के अल्पपोषित पाए गए, जबकि 11% अत्यधिक अल्पपोषित थे। लड़कियों में 15.7% अल्पपोषित थीं जबकि 3.7% अत्यधिक अल्प-पोषित थीं। ये दरें लड़कों के अल्पपोषण की दरों के आधे से भी कम हैं।
लड़के और लड़कियों, दोनों में, बड़ी उम्र के किशोर (14-19 साल तक के), कम उम्र के किशोरों (10-14 साल तक के) की तुलना में ज़्यादा अल्पपोषित थे। तालिका-1 देखें।
इन बच्चों में दुर्बलता (अल्पपोषण) और अत्यधिक दुर्बलता (अत्यधिक अल्पपोषण) का ज़्यादा सटीक आकलन तब हो पाएगा जब ज़्यादा बच्चों का बीएमआई निकाला जाए।
पिछले हफ्ते क्या-क्या खाया था?
जब विद्यार्थियों से यह बताने को कहा गया कि उन्होंने पिछले हफ्ते क्या-क्या खाया था, तो पता चला कि कई बच्चों ने दोपहर का भोजन किया ही नहीं था। बच्चों ने दिन में सिर्फ दो बार ही खाना खाया था। एक विद्यार्थी ऐसा था जिसने पिछले आठ में से पाँच दिन दोपहर का खाना नहीं खाया था। इस बच्चे ने जब खाना खाया तो उसके भोजन में अधिकांश रूप से चावल था, और कुछेक बार उसके साथ दाल या आलू परोसे गए थे। उसके भोजन में फल, अण्डे, दूध, माँस, मछली नहीं थे (तालिका-2)। हालाँकि, इन बच्चों के भोजन में मांसाहार भी शामिल होता है।
शायद ऐसा ही अन्य बच्चों का हाल हो। शिक्षकों ने कुल मिलाकर यह बताया कि बच्चों का दिन का भोजन न करना आम बात थी। इसी वजह से एक शिक्षक ने खुद से ही विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया था कि वे घर से टिफिन ले आया करें और स्कूल में साथ मिलकर खाया करें। उनके स्कूल के दस आदिवासी बच्चों की भोजन उपलब्ध जानकारी तालिका-3 में दी है।
पाठ्यक्रम विकास के दौर में आधार जानकारी के रूप में कुछ स्कूलों में एक छोटी-सी गतिविधि की गई थी कि ग्रामीण इलाकों के विद्यार्थियों के परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का आकलन किस तरह करते हैं। विद्यार्थियों के परिवारों को पीडीएस से क्या मिलता है, और उन्हें बाहर से क्या खरीदना पड़ता है, इसके उदाहरण के तौर पर एक विद्यार्थी से ये उत्तर मिले -
नाम: कविता
परिवार में सदस्यों की संख्या - 8
तेल की रोज़ाना सेवन की मात्रा - 8.3 ग्राम/व्यक्ति/दिन
दाल 8.3 ग्राम/व्यक्ति/दिन
चना 8.3 ग्राम/व्यक्ति/दिन
खाद्यान्न 292 ग्राम/व्यक्ति/दिन
परिवार का प्रत्येक सदस्य औसतन रोज़ सिर्फ 8.3 ग्राम प्रोटीन तथा 8.3 ग्राम तेल का सेवन करता है। कुल उपभोग लगभग 1255 किलोकैलोरी/दिन है जो एक छोटे बच्चे के अलावा बाकी किसी के लिए भी निहायत अपर्याप्त है, और किशोरावस्था के दौर से गुज़र रही कविता के लिए तो निश्चित ही अपर्याप्त है। छत्तीसगढ़ में पीडीएस तक परिवारों की पहुँच काफी बढ़ गई है10 जो प्रशंसनीय है, लेकिन पीडीएस से कुल मिलाकर खाद्य वस्तुओं की जो प्रति व्यक्ति मात्राएँ प्रदान की जाती हैं, वे सम्भवत: रोज़ाना उपभोग के लिए सुझाई गई मात्रा से काफी कम हैं - जैसा कि तालिका-4 में दिए गए मामले में देखने को मिलता है - खास तौर पर उन परिवारों के लिए जो बाकी मात्रा को खुले बाज़ार से लेने में असमर्थ हैं।
कुछ और विद्यार्थियों से प्राप्त हुई जानकारियों से भी यही निष्कर्ष निकलता है।
परिणाम किस ओर इशारा करते हैं?
यहाँ पर हम छत्तीसगढ़ के कुछ जनजातीय स्कूलों में, शिक्षकों द्वारा पाठ्यक्रम के हिस्से के तौर पर नवीं और दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों पर किए गए एक छोटे-से सर्वेक्षण के नतीजे साझा कर रहे हैं। और इन बातों के बावजूद कि सर्वेक्षण करने वाले व्यक्तियों को मिले परिणामों में कुछ भिन्नता हो सकती है और ये परिणाम कुछ ही ज़िलों पर आधारित हैं, फिर भी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के पोषण स्तर का अन्दाज़ा तो दे ही देते हैं।
बच्चों की लम्बाई और वज़न के आँकड़ों से यह बात तो बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि सरकारी जनजातीय स्कूलों के नवीं और दसवीं कक्षाओं के विद्यार्थी गम्भीर रूप से कुपोषित हैं। हालाँकि, कुल मिलाकर हर चार में से एक (27%) विद्यार्थी अल्पपोषित है, लेकिन लड़कियों की अपेक्षा कहीं ज़्यादा लड़के कुपोषित हैं (39% लड़के अल्पपोषित हैं, जबकि 15.7% लड़कियाँ अल्पपोषित हैं)।
हमारे देश में परिवारों में लड़कों को लड़कियों से ज़्यादा खाना और अन्य सुविधाएँ दी जाती हैं। यह बात थोड़ी आश्चर्यजनक है कि लड़कों में लड़कियों से ज़्यादा अल्पपोषण है। इसका एक यह मतलब हो सकता है कि लड़कों और लड़कियों, दोनों के दैनिक अनुशंसित ग्रहण (डेली रिकमेन्डड इन्टेक) और जो वास्तव में वे खाते हैं, में काफी अन्तर है लेकिन लड़कों की ज़रूरतें ज़्यादा होने के कारण उनके पोषण में कमी ज़्यादा है। ऐसा भी हो सकता है कि किशोरों के पोषण पर सिर्फ लिंग का असर नहीं, विविध आर्थिक-सामाजिक कारकों का असर हो।11
ये नतीजे हाईस्कूल विद्यार्थियों के बीच किए गए कुछ अन्य अध्ययनों12,13 से प्राप्त नतीजों से मेल खाते हैं क्योंकि उन जगहों पर भी यही पाया गया कि लड़कियों की तुलना में अल्पपोषित लड़कों की संख्या अधिक थी। लेकिन मध्य प्रदेश के सागर कस्बे में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि वहाँ लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ ज़्यादा अल्पपोषित थीं।14 चिन्ताजनक बात यह भी है कि 11% (हर दस में से एक) विद्यार्थी अत्याधिक अल्पपोषित हैं।
बचपन में लम्बे समय तक भूखे रहने, अपर्याप्त मात्रा में भोजन मिलने से बच्चों की हड्डियाँ पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पातीं। इसलिए, ये विद्यार्थी उतने लम्बे नहीं हो पाते जितना लम्बा इन्हें होना चाहिए। इसे ही ठिगनापन कहा जाता है, और इस सर्वेक्षण से मिले नतीजों में 27% (लगभग एक तिहाई) विद्यार्थी ठिगने पाए गए, जबकि 3.4% अत्यधिक ठिगने थे।
जब बच्चों से पिछले हफ्ते किए गए भोजन के बारे में पूछा गया, तो पता चला कि उनका आहार मुख्यत: चावल-आधारित था। दाल और सब्ज़ियों की मात्रा बहुत कम थी। इसके अलावा उनके भोजन में फल, अण्डे, माँसाहार नहीं थे। आहार में विविधता की कमी से भी कुपोषण होता है। और महत्वपूर्ण बात यह है कि कई विद्यार्थियों ने दिन का खाना खाया ही नहीं था। एक विद्यार्थी का उदाहरण देखें: इस विद्यार्थी ने सात में से पाँच दिन एक समय का खाना नहीं खाया था -- एक दिन सुबह का खाना और चार दिन दोपहर का खाना नहीं खाया। यानी इन पाँच दिनों के दौरान जब वह स्कूल आया तो या तो वह सुबह से भूखा रहा होगा या फिर दिन के सत्रों तक भूखा हो गया होगा। ऐसा लगता है कि दिन का खाना न खाना विद्यार्थियों के लिए आम-सी बात हो गई है, हालाँकि, कौन विद्यार्थी हफ्ते में कितनी बार ऐसा करता है, इसमें अन्तर हो सकता है।
भूख की वजह से बच्चों में चिड़चिड़ापन, एकाग्रता न रख पाना, सीखने की क्षमता का कम होना, अवसाद (डिप्रेशन) और आत्महत्या के विचार आना जैसी समस्याएँ पैदा होती हैं। चूँकि भूखे होने की वजह से उनके दिमाग में खाना घूमता रहता है इसलिए स्कूल के काम पर ध्यान लगाने की उनकी क्षमता बहुत सीमित हो जाती है। अत्यधिक भूख की स्थिति होने से वयस्क जीवन में दीर्घकालिक बीमारियाँ घेर सकती हैं। ऐसे विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धियाँ उन विद्यार्थियों की तुलना में बहुत कमतर होती हैं जो भूखे नहीं होते।15
जैसा कि ऊपर उल्लिखित अध्ययनों से पता चलता है कि बच्चों को घर पर पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता। बच्चे अक्सर खाना नहीं खाते और बाज़ार तथा पीडीएस, दोनों जगहों से मिलने वाली खाद्य सामग्री ज़रूरी मात्रा से कम है।
जब इतनी बड़ी तादाद में विद्यार्थी, लम्बे समय तक भूख से जूझते हैं और उनका वज़न सामान्य से कम होता है तो स्वाभाविक रूप से कक्षा में ध्यान लगाने की उनकी क्षमता इससे प्रभावित होगी। पढ़ाई में उनकी दिलचस्पी घटती जाएगी और उनकी शैक्षिक उपलब्धियों पर इसका बुरा असर पड़ेगा।
भारत सरकार ने सबसे पहले 1995 में प्राथमिक स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना शुरू की थी। इसके पीछे उद्देश्य था कि और अधिक बच्चे स्कूलों में दाखिला लें, स्कूलों में बने रहें तथा कक्षाओं में उनकी उपस्थिति ठीक रहे। इसके अलावा इसका एक और बड़ा उद्देश्य विद्यार्थियों के पोषण स्तर को बेहतर करना था। सन् 2001 में यह मध्याह्न भोजन योजना बन गई जिसके तहत सरकारी, तथा सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले हर बच्चे को तैयार भोजन दिया जाना था। इसमें प्रोटीन और कैलोरी की दैनिक मात्रा निर्धारित थी। वर्तमान में यह योजना पूरे भारत में लागू है और सभी प्राथमिक स्कूल (पहली से आठवीं तक) इसके दायरे में हैं। प्राथमिक स्कूल के विद्यार्थियों के लिए कैलोरी और प्रोटीन के वर्तमान मानक हैं - 450 कैलोरी व 12 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन, तथा उच्च प्राथमिक स्कूल के विद्यार्थियों के लिए 700 कैलोरी व 20 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन। मध्याह्न भोजन योजना की लागत को केन्द्र व राज्यों द्वारा 60:40 के अनुपात में मिलकर वहन किया जाता है।
हालाँकि, इस योजना के क्रियान्वयन का स्तर काफी मिलाजुला रहा है। दिए जाने वाले खाने की नियमितता, गुणवत्ता और मात्रा से जुड़ी समस्याओं तथा योजना के लिए निर्धारित धनराशि और राशन से जुड़े भ्रष्टाचार के बावजूद इस योजना से बच्चों को दोपहर के समय का ज़रूरी भोजन तो प्राप्त होता है।
वर्तमान में इस योजना के दायरे में हाईस्कूल के विद्यार्थी नहीं आते। ऊपर की गई चर्चा से यह बिलकुल साफ है कि छत्तीसगढ़ के हाईस्कूल के विद्यार्थियों को भी पोषण के लिए यह सहारा चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि 27% विद्यार्थी कुपोषित हैं, छोटे बच्चों की अपेक्षा थोड़े बड़े बच्चे ज़्यादा अल्पपोषित हैं, और घरों में उन्हें पोषण के लिए ज़रूरी बाकी मात्रा नहीं मिल पाती। तेलंगाना और कर्नाटक जैसे कुछ राज्य लगभग दो साल पहले हाईस्कूल के विद्यार्थियों को भी इस योजना के दायरे में ले आए जबकि तमिलनाडू ने तो कई सालों से ऐसा कर रखा है। यहाँ एक बात ध्यान में रखना उपयोगी होगी कि हमें उस समय तक इन्तज़ार नहीं करते रहना चाहिए कि विपत्ति हमें चित कर दे बल्कि ऐसी त्वरित प्रतिक्रिया करनी चाहिए जिससे लोगों का और कल्याण हो एवं जो विद्यार्थियों के सीखने को बेहतर बनाए।
यह ज़रूरी है कि छत्तीसगढ़ के हाईस्कूल के बच्चों पर राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन) द्वारा व्यवस्थित ढंग से पोषण-सम्बन्धी सर्वेक्षण किया जाए ताकि तुलनात्मक आँकड़े उपलब्ध हो सकें। जिस महत्वपूर्ण संकेत की पड़ताल की जाना है, वह यह है कि विद्यार्थियों के परिवारों की वर्तमान क्रय शक्ति और पीडीएस का आवंटन उन्हें ज़रूरी खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। पोषण की आपात स्थिति को देखते हुए हमें जल्दी ही पीडीएस से दी जाने वाली खाद्य सामग्री की मात्रा को, और इसके तहत दिए जाने वाले अनाजों की विविधता को बढ़ाने की तरफ सोचना चाहिए। इस बीच, अगर छत्तीसगढ़ में मध्याह्न भोजन योजना के दायरे में हाईस्कूल विद्यार्थियों को भी शामिल कर लिया जाए तो उनमें भूख तथा पोषण की कमी के स्तरों को कुछ तो कम किया ही जा सकेगा।
ए वी रमणी: सामुदायिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ। भोपाल में रहती हैं।
अरविन्द सरदाना: एकलव्य संस्था में कार्यरत हैं। देवास, म.प्र. में रहते हैं।
अँग्रेज़ी से अनुवाद: भरत त्रिपाठी: एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन समूह के साथ कार्यरत हैं।
सभी शिक्षक साथियों, खास कर बी.पी. सिंह, ए.एल. साहू और एम. चक्रधारी का आभार जिनके सहयोग से यह अध्ययन सम्भव हुआ।