यह देखा गया है कि कुछ लोगों में आदत होती है कि वे किसी काम को, जैसे हाथ धोना, खाने की मेज़ को साफ करना या यह देखना कि गैस बंद है या नहीं, बार-बार करते हैं। खास तौर से वे ऐसे कामों को बार-बार करेंगे जिनमें किसी खतरे की आशंका हो। इसे ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर या संक्षेप में ओसीडी कहते हैं। अब हार्टफोर्डशायर पार्टनरशिप विश्वविद्यालय की नाओमी फाइनबर्ग और उनके साथियों ने इसका कारण खोजने का दावा किया है।
फाइनबर्ग ने 78 वांलटियर्स पर एक प्रयोग किया। इनमें से 43 लोग ओसीडी के शिकार थे जबकि 35 लोग सामान्य थे। इन 78 लोगों को एक गुस्सैल शक्ल से डरना सिखाया गया। इसके लिए किया यह गया कि जब वह शक्ल सामने आती तो कभी-कभी वालंटियर्स की कलाई पर बिजली का एक झटका दिया जाता था। यह सब करते समय वालंटियर्स फंक्शनल एमआरआई स्कैनर में लेटे हुए थे।
इसके बाद टीम ने इन वालंटियर्स को फिर से अ-प्रशिक्षित करने का काम किया। इस प्रक्रिया में उन्हें वही शक्ल दिखाई जाती थी मगर बिजली का झटका नहीं दिया जाता था।
प्रयोग के परिणाम कुछ इस प्रकार रहे: पहले प्रयोग में वह गुस्सैल शक्ल देखते ही सारे वालंटियर्स के पसीने छूटते थे और लगभग बराबर मात्रा में। मगर दूसरे प्रयोग में सामान्य लोग जल्दी ही उस शक्ल और बिजली के झटके के आपसी सम्बंध के भय से मुक्त हो गए। किंतु ओसीडी पीड़ित लोगों में भय बना रहा।
इन दोनों प्रक्रियाओं के दौरान फंक्शनल एमआरआई इन लोगों के दिमाग की गतिविधियों को भी रिकॉर्ड कर रहा था। विश्लेषण से पता चला कि ओसीडी पीड़ित लोगों में दिमाग के एक खास हिस्से में सक्रियता बहुत कम होती थी। इस हिस्से को वेंट्रो-मीडियन प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स कहते हैं और यह सुरक्षा का संकेत देता है।
इन निष्कर्षों के आधार पर फाइनबर्ग का कहना है कि यह नहीं कहा जा सकता कि ओसीडी पीड़ित लोग ज़्यादा भयाक्रांत होते हैं - जब गुस्सैल शक्ल के साथ बिजली का झटका दिया जा रहा था, तब दोनों तरह के लोगों में बराबर पसीने छूटे थे। अंतर यह लगता है कि जब खतरे का संकेत समाप्त हो जाए, उसके बाद भी ओसीडी पीड़ित लोग उस स्थिति को निरापद नहीं मान पाते। यानी एक बार जो डर मन में बैठ गया, उससे बाहर आना उनके लिए मुश्किल होता है।
आम तौर पर ओसीडी पीड़ित व्यक्तियों के उपचार हेतु तरीका यह अपनाया जाता है कि उन्हें बार-बार उसी स्थिति के संपर्क में लाया जाता है और बताया जाता है कि इसमें कोई खतरे की बात नहीं है। मगर इसमें सफलता की दर बहुत अधिक नहीं रही है। फाइनबर्ग का मत है कि उनके अध्ययन से लगता है कि ऐसे व्यक्तियों को उपचार में ज़्यादा समय की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - April 2017
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