डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन


क्यों और कैसे ज़ेब्रा और गिलहरी ने शरीर पर धारियां पाईं? इसका उत्तर इस पर निर्भर करता है कि सवाल कौन पूछ रहा है और आप क्या पढ़ रहे हैं। इसके पीछे कई खूबसूरत कहानियां हैं। एक और गंभीर बात पर ध्यान दें तो यह सवाल जीव विज्ञानियों को परेशान करता रहा है और आम सहमति से जवाब बनता दिखाई दे रहा है।
जब हम बच्चे थे, हमें बताया गया था कि भगवान राम लंका जाने के लिए जब अपनी सेना के साथ पुल का निर्माण कर रहे थे तब छोटी गिलहरी छोटे-छोटे पत्थर लाकर उनकी मदद कर रही थी। इसी से खुश होकर भगवान राम ने गिलहरी की पीठ पर अपनी उंगलियां रखी और इस तरह गिलहरी ने धारियां पाईं।
इसी तरह अफ्रीका में रुडयार्ड किप्लिंग ने आकर्षक कहानियों में लिखा है कि दो प्राचीन ज़ेब्रा ने तेंदुए और इथोपियन शिकारियों से बचने के लिए लैंडस्केप में घुलने-मिलने की कोशिश की थी। युगांडा में एक कहावत है कि एक काला गधा और सफेद घोड़ा एक-दूसरे से झगड़ा कर रहे थे। उन्हें झगड़ने से रोकने के लिए एक भगवान ने गुस्से में आकर उन दोनों को आपस में मिला दिया और इस तरह ज़ेब्रा पैदा हुआ। ये आकर्षक लोक-कथाएं और किंवदंतियां हैं। लेकिन अब जीव वैज्ञानिक व्याख्याएं भी धीरे-धीरे स्पष्ट हो रही हैं।

वैज्ञानिकों ने कुछ विस्तृत जवाब तैयार किए हैं। उनमें से एक है जो किप्लिंग की लोक-कथाओं से थोड़ा मिलता-जुलता है। उनके अनुसार धारियां उन्हें वुडलैंड बैकग्राउंड में ओझल कर देती हैं, और वे शिकार होने से बच जाते हैं। दूसरा है कि धारियां शरीर को गर्मी से ठंडक देने में भी मदद करती हैं। तीसरा इस पर आधारित है कि शिकारियों को हिलती-डुलती वस्तु पर निशाना साधना मुश्किल होता है। इसे गति की चकाचौंध से भ्रम का प्रभाव कहते हैं। चौथा है कि परजीवी, मच्छर और मक्खियां धारियों वाले जंतुओं पर हमला करने के लिए उन्हें खोज नहीं पाते हैं। जबकि ज़ेब्रा जैसे अन्य जीवों (जैसे गधों) को वे शिकार बना लेते हैं।
इनमें से आखरी वाले को ज़्यादा समर्थन हासिल है कि धारियां अफ्रीका के वातावरण में रहने वाले जानवरों को कुछ लाभ प्रदान करती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. टिम कारो और स्वीडन के लुंड विश्वविद्यालय के डॉ. सुसाने एकेसॉन इस परिकल्पना के प्रवर्तक रहे हैं। डॉ. एकेसॉन और उनके साथियों ने बताया कि घोड़ा मक्खियां और इसके समान जंतुओं के रक्त पर जीवित रहने वाले अन्य परजीवी ऐसे प्रकाश की चकाचौंध के प्रति आकर्षित होते हैं जो एक दिशा में उन्मुख यानी ध्रुवीकृत हो। यह चकाचौंध कीड़ों को अपने लक्ष्य पर पहुंचने में मदद करती है। गहरे रंग की त्वचा भूरे या सफेद रंग की त्वचा की अपेक्षा प्रकाश को ज़्यादा ध्रुवीकृत करती है। लेकिन यदि त्वचा पर गहरे और सफेद रंग की धारियां हैं तो यह रक्त चूसने वाले कीड़ों के लिए कम आकर्षक होती है। एकेसॉन का कहना है कि काले और सफेद रंग का यह पैटर्न इस परावर्तित ध्रुवीकृत प्रकाश की क्रियाविधि में बाधा पहुंचाने के लिए आदर्श है। और यह छलावा मक्खियों के साथ-साथ बड़ी बिल्लियों को भी प्रभावित करता है। (एक विज्ञान लेखक, जिन्होंने इस शोध पत्र को कवर किया है, का सुझाव है कि हमें मच्छरों और मक्खियों को दूर भगाने के लिए ज़ेब्रा धारियों वाले वॉलपेपर इस्तेमाल करना चाहिए)।

इसको लेकर ही शोधकर्ताओं ने गधे/घोड़े परिवार (जिन्हें एक्विड कहते हैं) के जंतुओं की त्वचा के रंग और धारियों के पूरे समूह पर अध्ययन किया। डॉ. कारो और उनके साथियों ने पुराने विश्व (मूलत: अफ्रीका और एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र) के एक्विड परिवार के सात अलग-अलग सदस्यों का विस्तृत अध्ययन किया। एक तरफ तो उनके शरीर के रंगों और धारियों का अध्ययन किया और दूसरी तरफ उप-सहारा अफ्रीका के विशाल क्षेत्र की रक्त चूसने वाली मक्खियों (घोड़ा मक्खी व त्सेत्से) के पाए जाने के स्थान और प्रसार पर अध्ययन किया। उनका “दी फंक्शन ऑफ ज़ेब्रा स्ट्राइप्स” नामक पर्चा नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने मक्खियों द्वारा काटे जाने और जंतुओं के चेहरे, गर्दन, पेट, दुम, पैरों और पुट्ठों पर धारियों की संख्या, स्थान और घनत्व के बीच सम्बंध पाया।
अर्थात अफ्रीकी एक्विड्स जंतुओं में धारियां उन्हें रक्त चूसने वाले कीटों से बचाती हैं जो कि अफ्रीका के उष्ण कटिबंध में फलते-फूलते हैं। धारियां इन कीटों को बेवकूफ बनाती हैं। शायद धारियों वाले पैटर्न युक्त बालों और त्वचा पर जब प्रकाश पड़ता है तो उसके ध्रुवीकरण में बिखराव पैदा हो जाता होगा। इसलिए ही यूएस, उत्तरी युरोप या रशिया में ज़ेब्रा और गिलहरी पर धारियां नहीं पाई जाती हैं। और न ही वहां रक्त चूसने वाले कीट पाए जाते हैं।

इन जंतुओं (गिलहरियां, अफ्रीकन धारीदार चूहा और ज़ेब्रा) में धारियों के निर्माण की जैविक क्रियाविधि का आधार भी स्पष्ट हुआ है। इस पर आर. मालारिनो और उनके साथियों ने काम किया है। उनका यह काम नेचर पत्रिका के हाल ही के अंक में प्रकाशित भी हुआ है। यह जानी-मानी बात है कि एमआईटीएफ नामक जीन उन कोशिकाओं का प्रमुख नियमनकर्ता है जिन्हें मेलेनोसाइट या रंजक कोशिका कहते हैं। ये कोशिकाएं रंजक बनाती हैं जो बालों और त्वचा की कोशिका में रंग भरने का काम करता है। और दूसरा जीन एएलएक्स3 कहलाता है। इसके द्वारा निर्मित प्रोटीन एमआईटीएफ का दमन करता है। इस कहानी का एक पेंच है जो विकास के आणविक जीव विज्ञान में बहुत सामान्य बात है। एएलएक्स3 जीन चेहरे के सामान्य विकास में शामिल होता है और इसकी क्रियाविधि में कमी आने से मनुष्यों की नाक में विकृति होती है। इसी तरह दूसरे जीन एमआईटीएफ में म्युटेशन होने से छोटी आंखें, बहरापन और अन्य सम्बंधित विकृतियां होती हैं। यह जैव विकास की एक आश्चर्यजनक गुत्थी है कि कैसे प्रकृति ने इन्हीं दोनों जीन्स को शरीर में धारियां बनाने के लिए तैनात किया है जो उन जानवरों को सुरक्षा प्रदान करती हैं। (स्रोत फीचर्स)