भारत डोगरा
मई की तपती दोपहर में टीकमगढ़ ज़िले के जतारा ब्लाक में स्थित वनगॉय गांव में पहुंचे तो पाया कि यह गांव बहुत गंभीर जल संकट से गुज़र रहा है। 200 परिवारों के इस गांव में पेयजल मात्र एक हैंडपंप से ही मिल रहा था और वह भी रुक-रुक कर चल रहा था। एक मटका भरता और हैंडपंप रुक जाता। इस स्थिति में लोग दो-दो कि.मी. दूर से कभी बैलगाड़ी पर, कभी साइकिल पर, तो कभी पैदल ही पानी ला रहे हैं। दूषित पानी के उपयोग को भी मजबूर हैं जिससे बीमारियां फैल रही हैं। प्यासे पशु संकट में हैं व पिछले लगभग तीन महीनों में ही यहां के किसानों के लगभग सौ पशु मर चुके हैं। गांव का तालाब सूख चुका है। स्कूल में भी पेयजल उपलब्ध नहीं है। प्यास से त्रस्त बच्चे कभी हैंडपंप की और दौड़ते हैं, तो कभी घर की ओर।
समस्या के समाधान के रूप में गांववासियों से पूछो तो वे अस्थायी समाधान के रूप में टैंकर भेजने व स्थायी समाधान के रूप में बोर खोदने या टैंक बनाकर पाइपलाइन से पानी पहुंचाने की बात करते हैं। इस संदर्भ में काम पहले ही आरंभ हो जाना था पर किसी न किसी वजह से देरी होती गई।
अत: एक ओर तो प्रशासन पर समुचित कार्रवाई के लिए दबाव बनाना ज़रूरी है पर दूसरी ओर गांव समुदाय की अपनी भूमिका भी महत्वपूर्ण है। पिछले वर्ष वर्षा ठीक से हो गई थी, अत: गांव के तालाब में काफी पानी आ गया था। पर गेहूं की खेती के लिए इस जल का इतना अधिक उपयोग कर लिया गया कि गर्मी के दिनों में पशुओं की प्यास बुझाने लायक पानी भी नहीं बचा।
इस क्षेत्र में जल संकट दूर करने के लिए प्रयासरत संस्था परमार्थ के स्थानीय समन्वयक रवि प्रताप तोमर बताते हैं कि ऐसी समस्या यहां के कई गांवों में है। अत: पेयजल संकट दूर करने के लिए गांव समाज का अपना अनुशासन भी ज़रूरी है।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे गांव भी है जहां कमज़ोर वर्गों, विशेषकर दलित व आदिवासी समुदाय, के जल अधिकारों की उपेक्षा होती है। उदाहरण के लिए मोटो गांव में आरंभ में दलित व कमज़ोर वर्ग को एक कुएं को साफ करने व उसकी मरम्मत करने से दबंगों ने रोक दिया था। इस स्थिति में जल-जन-जोड़ो अभियान के कार्यकर्ताओं ने कमज़ोर वर्ग की महिलाओं की सहायता की व उन्हें प्रोत्साहित किया ताकि वे दबंगों के अवरोध की परवाह न करते हुए कुएं को ठीक कर सकें।
इस अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय सिंह कहते हैं कि सामंती असर व विषमता के कारण अनेक गांवों में स्थितियां विकट हैं। यहां कमज़ोर वर्ग के जल अधिकारों पर ध्यान देने की विशेष ज़रूरत है। इस स्थिति में बुंदेलखंड के अनेक गांवों में कमज़ोर वर्ग की अनेक महिलाओं को जल सहेलियों के रूप में चयनित किया गया है व गांवों में पानी पंचायतों का गठन करते समय कमज़ोर वर्गों को अच्छा प्रतिनिधित्व दिया गया है। इस तरह यह जल संकट हल करने के प्रयासों को सामाजिक स्तर पर समावेशी बनाने का प्रयास है।
परमार्थ संस्था के एक समन्वयक मनीष कुमार अपने अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि उपयोग किए गए जल को बेकार बहने से रोक कर सब्ज़ी उत्पादन व किचन गार्डन में उसका उपयोग किया जा सकता है जिससे पोषण सुरक्षा में बहुत मदद मिल सकती है।
सबसे बड़ी ज़रूरत है वर्षा के जल को भलीभांति रोकना जिसके लिए जन भागीदारी से स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप नियोजन ज़रूरी है। जल संरक्षण पर हुए बहुत से खर्च के सही परिणाम नहीं मिलते हैं क्योंकि स्थानीय लोगों, विशेषकर ज़रूरतमंदों व छोटे किसानों से पर्याप्त विमर्श के बिना ही इन्हें जल्दबाज़ी में बनाया जाता है। निर्णय इस आधार पर नहीं लिया जाता कि कहां निर्माण करने से अधिकतम जल बचेगा, अपितु इस आधार पर लिया जाता है कि कहां निर्माण करने से अधिक पैसा गलत ढंग से बचा लिया जाएगा।
इसी तरह परंपरागत तालाबों का उपयोग सभी लोगों का जल संकट दूर करने के लिए नहीं हो सका है क्योंकि कई दबंग लोग इन पर व इनके जल-ग्रहण क्षेत्रों पर अतिक्रमण कर लेते हैं। इस स्थिति में इन तालाबों को गहरा करने व इनकी सफाई का कार्य उपेक्षित रह जाता है, व इनमें पर्याप्त पानी का प्रवेश भी नहीं हो सकता है।
इस तरह किसी भी गांव के जल संकट को दूर करने के विभिन्न सामाजिक व तकनीकी पक्ष हैं व इन सभी पर ध्यान देकर जल संकट दूर करने की समग्र योजना गांव व पंचायत के स्तर पर बननी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - August 2017
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