प्रमोद भार्गव

वैसे तो इस बार मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने अच्छी बारिश की उम्मीद जगाई है, लेकिन इसके बाद उसकी दूसरी रिपोर्ट चौंकाने वाली है। 50 वर्षों के अध्ययन पर केन्द्रित इस रिपोर्ट के अनुसार बारिश के मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते कमज़ोर मानसून की आशंका भी जता दी है। इससे आशय यह निकलता है कि देश में मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है।
दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में छह से साढ़े छह हज़ार फीट की ऊंचाई पर होते हैं। 50 साल पहले ये बादल घने भी होते थे और मोटे भी होते थे। परंतु अब साल दर साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है। यदि यह अध्ययन सही है तो देश के नीति-नियंताओं को चेतने की ज़रूरत है, क्योंकि हमारी खेती-किसानी और 70 फीसदी आबादी मानसून की बरसात से ही रोज़ी-रोटी चलाती है और देश की समूची आबादी को अनाज, दालें और तिलहन उपलब्ध कराती है। देश के ज़्यादातर व्यवसाय भी कृषि आधारित हैं। देश के जीडीपी में कृषि का योगदान 15 फीसदी है। दरअसल हमारे यहां अभी भी मौसम की भविष्यवाणी असलियत के आईने में ठीक नहीं बैठती, जिससे मौसम विभाग के अनुमानों पर संदेह बना रहता है।  
 
 प्रत्येक साल अप्रैल-मई में मानसून आ जाने की अटकलों का दौर शुरु हो जाता है। यदि औसत मानसून आए तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि औसत से 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमज़ोर मानसून कहा जाता है। 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज़्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है।
भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणियों को सटीक इसलिए नहीं माना जाता क्योंकि वह अनुमानों पर खरी नहीं उतरती हैं। 2016 में मौसम विभाग ने 106 प्रतिशत बारिश की भविष्यवाणी की थी, पानी बरसा तो इतना ही, लेकिन महाराष्ट्र का मराठवाड़ क्षेत्र और तमिलनाड़ु सूखे रह गए। 2015 में विभाग ने 93 प्रतिशत बारिश होने की भविष्यवाणी की थी, किंतु हुई 86 प्रतिशत। इसी तरह 2014 में 93 प्रतिशत की भविष्यवाणी थी, किंतु रह गई 89 प्रतिशत। 2013 में 98 प्रतिशत की भविष्यवाणी की थी, किंतु बारिश हुई 106 प्रतिशत। पिछले आठ साल के आंकड़ों में एक भी साल भविष्यवाणी सटीक नहीं बैठी। इसलिए मौसम विभाग के अनुमान भरोसे के लायक नहीं होते। यदि किसान इन भविष्यवाणियों के आधार पर फसल बोए, तो उसे नाकों चने चबाने पड़ जाएंगे। चूंकि कृषि वैज्ञानिक भी भविष्यवाणी के आधार पर किसानों को फसल उगाने की सलाह देते हैं, लिहाज़ा उनकी सलाह भी किसान की उम्मीद पर पानी फेरने वाली ही साबित होती है।

आखिर क्यों हमारे मौसम वैज्ञानिक पूर्वानुमान संकटों की सटीक जानकारी देने में खरे नहीं उतरते? क्या हमारे पास तकनीकी ज्ञान अथवा साधन कम हैं, अथवा हम उनके संकेत समझने में अक्षम हैं? मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दबाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती का घूर्णन अपनी धुरी पर जारी रहता है। निरंतर घूमते रहने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम-बंगाल, बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब तक बरसता है।
अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कैस्पियन सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिज़ाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज़्यादा बरसात के रूप में धरती पर गिरता है।

महासागरों की सतह पर प्रवाहित हवाओं की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाइयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिए कंप्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाज़ों और राडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़े इकट्ठे होते हैं उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है।
हमारे देश में मौसम विभाग की बुनियाद 1875 में रखी गई थी। आज़ादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भूवेधशालाएं, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो पवन वेधशालाएं, 11 तूफान संवेदी, 8 तूफान सचेतक राडार और 8 उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हज़ार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र, 214 पेड़-पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले, 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाएं हैं। लक्षद्वीप, केरल व बैंगलूरु में 14 मौसम केंन्द्रों के डैटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम की भविष्यवाणियां की जाती हैं। अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियां सुपर कंप्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं।

बरसने वाले बादल बनने के लिए गरम हवाओं में नमी का समन्वय ज़रूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हज़ार मीटर की ऊंचाई पर पारा 6 डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत ट्रोपोपॉज़ तक चलता है। इस परत की ऊंचाई यदि भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब 15 हज़ार मीटर बैठती है। यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। यही परत ध्रुवीय प्रदेशों के ऊपर कुल 6 हज़ार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है और तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। इसी परत के नीचे ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपॉज़ के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनाती है। पृथ्वी से 5-10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं, उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर वर्षा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)