विश्वविद्यालय महज़ डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करने वाली संस्था नहीं होती। यह समाज का वह हिस्सा है जहां ज्ञान का सृजन, नए विचारों का विकास, नवाचार और गहन चिंतन का पोषण होता है। उच्च गुणवत्ता वाले विश्वविद्यालय एक ऐसा माहौल प्रदान करते हैं जहां छात्र महान वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, सामाजिक विचारकों और प्रशासकों के रूप में तैयार होते हैं। अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाएं वे स्थान होती हैं जहां नवाचार के साथ नई प्रक्रियाओं और उत्पादों का विकास होता है जिससे उद्योगों को बढ़त हासिल करने में मदद मिलती है। संक्षेप में, किसी समाज की प्रगति का अनुमान विश्वविद्यालयों की मज़बूती से लगाया जा सकता है जो युवाओं को भविष्य के नेताओं, शोधकर्ताओं और शिक्षकों में बदल सकते हैं।
भारतीय युवाओं की एक बड़ी आबादी, खासकर समाज के गरीब तबकों और ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी, को राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के माध्यम से प्रदान की जाने वाली उच्च शिक्षा से अत्यधिक लाभ होता है। सी.वी. रमन, हर गोबिंद खुराना, वी. रामकृष्ण और अमर्त्य सेन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी अपनी शिक्षा राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से प्राप्त की है। आज भी गरीब वर्ग के छात्र केवल ऐसे ही विश्वविद्यालयों में अध्ययन का खर्च वहन कर सकते हैं। आज़ादी के बाद, इन विश्वविद्यालयों ने ही देश के विकास के लिए ज़रूरी बड़ी संख्या में शिक्षित जनशक्ति की आवश्यकता को पूरा किया। भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षित एवं प्रशिक्षित लोगों के दम पर ही देश कृषि, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा में उपलब्धियां हासिल कर सका है। अलबत्ता, जब अनुसंधान, नए ज्ञान के सृजन और नवाचार की बात आती है, तो हमारे विश्वविद्यालय पिछड़े मालूम होते हैं। वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें काफी सुधार की आवश्यकता है।
प्रतिष्ठित शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और टेक्नोक्रैट इस बात से सहमत हैं कि एक शिक्षित समाज, शिक्षित अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण चालक शक्ति है। उच्च शिक्षा के साथ जब अनुसंधान जुड़ जाता है, तो वह ज्ञान का निर्माण करता है और ज्ञान के आधार के सतत विकास को संभव बनाता है। रचनात्मकता के साथ ज्ञान का ठोस आधार नवाचार का पोषण करता है। समाज को उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में बदलने की इस महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए तथाकथित ‘उभरती हुई अर्थव्यवस्था’ वाले देशों ने अपने विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता में काफी सुधार किया है। विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में चीन, दक्षिण कोरिया और ब्राज़ील के कई विश्वविद्यालय हैं। इन देशों के अन्य विश्वविद्यालय शीर्ष रैंकिंग पर पहुंचने के लिए हर आवश्यक प्रयत्न कर रहे हैं। हालांकि भारत में भी हमने महसूस किया है कि विश्वविद्यालय ज्ञान और नवाचार की पौधशालाएं हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अकादमिक नेतृत्व इसको हासिल करने के तरीकों को लेकर अनभिज्ञ है।
35 वर्ष से कम आयु वाले युवाओं की सबसे बड़ी संख्या के साथ अपनी विशाल जनांकिक क्षमता के दम पर भारत अनुसंधान के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करके अपनी इस क्षमता का उपयोग कर सकता है। इस तरह का योग्य मानव संसाधन, ज्ञान-आधारित और विनिर्माण दोनों तरह के उद्योगों, के विस्तार के लिए अनिवार्य है। यदि हम अपने विश्वविद्यालयों में शिक्षण और अनुसंधान को बरबाद होने की अनुमति देते हैं, तो हमें या तो अपने छात्रों को विदेश भेजना होगा या फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाना होगा। ये दोनों ही विकल्प काफी महंगे हैं जिनमें विदेशी धन की निकासी अधिक होगी और लाभ आबादी के छोटे-से हिस्से को मिलेगा। इसलिए, हमारे विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा और अनुसंधान की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उन्हें विश्वस्तरीय बनने के लिए प्रोत्साहित करने की तत्काल आवश्यकता है। इससे हम विदेशी छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए आकर्षित कर पाएंगे जिससे ज्ञान के सृजन को और बढ़ावा मिलेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए (1) उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों के प्रमुख की नियुक्ति को पारदर्शी तथा योग्यता आधारित होना चाहिए और (2) विश्वविद्यालयों की मुख्य पहचान अनुसंधान और नए ज्ञान के निर्माण में भूमिका के लिए होनी चाहिए और इसके लिए पर्याप्त धन मिलना चाहिए।
देश के कई उच्च शिक्षा संस्थानों का अनुभव है कि किसी भी विश्वविद्यालय को बनाना या बिगाड़ना कुलपति (वीसी) के हाथ में होता है। सभी शैक्षणिक विभागों में फैकल्टी की नियुक्ति वीसी की अध्यक्षता वाली चयन समिति के ज़रिए की जाती है। इस बात से यह तो स्पष्ट है कि वीसी के रूप में एक अयोग्य व्यक्ति फैकल्टी चयन करते समय कबाड़ा कर सकता है। इस तरह विश्वविद्यालय आने वाले दो से तीन दशकों के लिए बरबाद हो जाएगा। वीसी की भूमिका कई अन्य मामलों में भी महत्वपूर्ण होती है: विभिन्न यूजी और पीजी पाठ्यक्रमों में उत्कृष्टता सुनिश्चित करना, उन्हें अद्यतन बनाए रखना, अग्रणी अनुसंधान की सुविधाएं जुटाना, विभिन्न कार्यक्रमों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित विद्वानों को लघु या दीर्घकालिक रूप से आमंत्रित करना आदि।
विश्वविद्यालयों में इस सुधार की शुरुआत सबसे शीर्ष से, कुलपति की नियुक्ति के साथ, होनी चाहिए। कुलपति नियुक्त करने की वर्तमान प्रथा काफी पुरानी हो चुकी है और वांछनीय परिणाम नहीं दे रही है; इसलिए इसको बदलने की आवश्यकता है। वर्तमान में, प्रत्येक वीसी के चयन के लिए एक ‘सर्च कमिटी’ का गठन किया जाता है जिसके सदस्य कुछ वरिष्ठ शिक्षाविद होते हैं। संभावित उम्मीदवारों को या तो नामांकित किया जाता है या फिर वे सीधे आवेदन करते हैं। इसके बाद ‘सर्च कमिटी’ तीन से पांच नामों की लघु-सूची कुलाधिपति (या केंद्रीय विश्वविद्यालय के मामले में विज़िटर) को भेज देती है, जिनमें से एक का चयन कर लिया जाता है। वर्षों पुरानी यह प्रणाली तब अपनाई जाती थी जब (i) केवल मुट्ठी भर विश्वविद्यालय थे; (ii) राजनीतिक हस्तक्षेप कम से कम था; और (iii) ‘सर्च कमिटी’ सच्चाई और ईमानदारी से चयन प्रक्रिया का संचलन करने में सक्षम थी। देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी है जहां यह पता नहीं होता कि नामांकित, या फिर आवेदन करने वाले उम्मीदवार कौन-कौन हैं और लघु सूची बनाने में किन मापदंडों का पालन किया गया है। ‘सर्च कमिटी’ द्वारा न तो कोई न्यूनतम मानक मानदंड प्रकाशित किए जाते हैं और न ही उनका पालन किया जाता है, जिससे राजनीतिक और मौद्रिक आधारों पर कुलपति के रूप में अयोग्य व्यक्तियों के चुने जाने की गुंजाइश रहती है। हाल ही में विभिन्न अदालतों द्वारा सुनाए गए फैसले उपरोक्त वास्तविकता का प्रमाण हैं। इस तरह के एक मामले में बॉम्बे के माननीय उच्च न्यायालय ने सवाल किया था कि क्या सर्च कमिटी के सदस्य अंधे थे। पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और कुलपतियों को नियुक्त करने की प्रथा ने स्पष्ट रूप से यह वांछनीय परिणाम नहीं दिया है कि वास्तविक अकादमिक नेता हमारे विश्वविद्यालयों के मुखिया बनें। हमें कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्ति के लिए एक नई पद्धति विकसित करने की आवश्यकता है। और इसकी शुरुआत केंद्र सरकार द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से की जा सकती है।
विश्वविद्यालय प्रत्येक कुलपति चयन के लिए ‘सर्च कमिटी’ गठन की प्रथा को खत्म कर सकते हैं। एक उच्च शिक्षा नियुक्ति समिति (HEAC) का गठन किया जाना चाहिए जिसमें कम से कम 20 प्रतिष्ठित शिक्षाविद सदस्य हों। HEAC सदस्यों का नामांकन विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानविकी एवं भाषा, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमियों द्वारा किया जा सकता है। सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक ही समिति होगी और किसी भी विश्वविद्यालय के कुलपति का चयन विज्ञापन के द्वारा अनिवार्य रूप से प्रतिष्ठित विद्वानों और शिक्षाविदों को आवेदन करने के लिए आमंत्रित करके किया जाएगा। एक निश्चित न्यूनतम मानदंड निर्धारित और प्रकाशित किया जाना चाहिए और जो इन मानदंडों को पूरा करते हैं तथा जिनके पास शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता के गुण हैं केवल उन्हीं को HEAC द्वारा शार्टलिस्ट किया जाना चाहिए। इसमें से पांच शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों का पूरा बायोडैटा प्रकाशित किया जाना चाहिए और आम लोगों को आपत्तियां दाखिल करने को आमंत्रित किया जाना चाहिए। यदि वैध कारणों और प्रमाणों के साथ किसी उम्मीदवार को लेकर कोई आपत्ति है तो उसे सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर किया जाना चाहिए। इसके बाद प्राप्त आपत्तियों का HEAC द्वारा मूल्यांकन करके पैनल से उम्मीदवारों को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है। शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों की अंतिम सूची उस विश्वविद्यालय को भेजी जाएगी जिसके लिए कुलपति का पद भरा जाना है। अकादमिक परिषद या सीनेट और प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के निकाय को कुलपति के रूप में उनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। कार्यकारी परिषद या विश्वविद्यालय के सर्वोच्य प्रशासनिक निकाय को वीसी के रूप में निर्वाचित उम्मीदवार को नियुक्त करने का अधिकार होना चाहिए। उपर्युक्त तंत्र के माध्यम से कुलपति की नियुक्ति से पारदर्शिता और लोकतांत्रिक पद्धति को बढ़ावा मिलेगा और नौकरशाही और राजनैतिक हस्तक्षेप से छुटकारा मिलेगा। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि हमारे विश्वविद्यालयों का नेतृत्व संजीदा शिक्षाविदों के हाथों में होगा जिसका परिणाम बेहतर शिक्षा और अनुसंधान के रूप में सामने आएगा। मोटे तौर पर ऊपर सुझाया गया तरीका अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों के कार्यकारी प्रमुखों की नियुक्ति में अपनाया जाता है।
आज़ादी के तुरंत बाद अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं की स्थापना तो की गई लेकिन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की बड़े पैमाने पर उपेक्षा की गई। विश्वविद्यालयों को प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए धन से वंचित किया गया और फैकल्टी तथा छात्रों को अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं में विकसित सुविधाओं तक काफी कम पहुंच हासिल है। विश्वविद्यालय ऊर्जा से भरपूर युवाओं और जिज्ञासु छात्रों से भरे पड़े हैं जो विशेषज्ञ फैकल्टी के उचित मार्गदर्शन में शोध एवं नवाचार करने में सक्षम हैं। छात्रों द्वारा रचनात्मक अनुसंधान कार्य स्नातक-पूर्व तथा स्नातक कार्यक्रमों के तहत न्यूनतम वित्तीय सहायता के साथ किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को पर्याप्त बुनियादी संरचना, प्रयोगशाला और उपकरण उपलब्ध कराने से वे ज्ञान सृजन के केंद्र बन जाएंगे।
भारत में स्नातक शिक्षा ज़्यादातर उन कॉलेजों के हवाले छोड़ दी जाती है जहां शोध करने की सुविधाएं कम या बिलकुल भी नहीं होती हैं। अघिकांश मामलों में स्नातक शिक्षा की गुणवत्ता आवश्यक स्तर से भी नीचे होती है जिसके चलते विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर (पीजी) कार्यक्रमों में भर्ती होने वाले छात्रों को पीजी की पढ़ाई शुरू करने के पहले मूलभूत सिद्धांत पढ़ाए जाते हैं। इसके कारण उनको अपने पीजी कार्यक्रम के तहत शोध करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रम शुरू किए जाएं और उन्हें पीजी कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाए। इस नज़रिए को प्रोफेसर के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक समिति द्वारा नई शिक्षा नीति प्रारूप में शामिल किया गया है।
यूजी कार्यक्रम के छात्रों को अपनी शिक्षा में शोध कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अनुसंधान को पाठ्यक्रम में उसी तरह जोड़ा जा सकता है जैसे थ्योरी समझने के लिए प्रैक्टिकल या प्रयोगशाला कार्य किया जाता है। इसके अलावा, अनुसंधान पर एक अलग कोर्स होना चाहिए (जैसे प्रोजेक्ट) जिसको चार से छह क्रेडिट दिए जा सकते हैं। इस प्रकार युवा स्नातक छात्रों को अवधारणाओं और अनुसंधान की कार्यप्रणाली से परिचित कराया जा सकता है जिससे उनको अनुभवात्मक शिक्षा मिल सकती है। विश्वविद्यालय के विभागों, आईआईटी, एनआईटी और सीएसआईआर प्रयोगशालाओं में यूजी छात्रों के लिए ग्रीष्मकालीन इंटर्नशिप की सुविधा होनी चाहिए। जब ऐसे छात्र पीजी कार्यक्रमों में दाखिला लेंगे तो वे उन्नत शोध करने के लिए तैयार होंगे। इस प्रकार विश्वविद्यालयों और चयनित कॉलेजों में उपलब्ध सक्षम और योग्य फैकल्टी सदस्यों के मार्गदर्शन में काफी बड़ी मात्रा में अनुसंधान किया जा सकता है। शोध की ऐसी व्यापक बुनियाद नवाचार के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन करेगी। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - February 2020
- दो अरब लोग दृष्टि की दिक्कतों से पीड़ित हैं
- नया डॉन ट्यूमर को भूखा मार देता है
- सांसों का हिसाब
- निमोनिया का बढ़ता प्रभाव और नाकाफी प्रयास
- विष्ठा प्रत्यारोपण से मौत
- मलेरिया उन्मूलन की नई राह
- खसरा का आक्रमण प्रतिरक्षा तंत्र को बिगाड़ता है
- बाल के एक टुकड़े से व्यक्ति की शिनाख्त
- क्या आपका डीएनए सुरक्षित है?
- कॉफी स्वास्थ्यवर्धक है, मगर अति न करें
- वॉम्बेट की विष्ठा घनाकार क्यों होती है?
- मच्छर की आंखों से बनी कृत्रिम दृष्टि
- ज़हर खाकर मोनार्क तितली कैसे ज़िंदा रहती है?
- करीबी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर
- एक मस्तिष्कहीन जीव के जटिल निर्णय
- बिना भोजन के जीवित एक सूक्ष्मजीव
- नाभिकीय उर्जा को ज़िन्दा रखने के प्रयास
- अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदम
- 5जी सेवाओं से मौसम पूर्वानुमान पर प्रभाव
- क्या पढ़ने की गति बढ़ाना संभव है?
- हम भाषा कैसे सीखते हैं
- विश्वविद्यालयों को अनुसंधान और नवाचार केंद्र बनाएं
- ऊंचे सुर और ऊंचे स्थान का सम्बंध
- मनुष्य प्रजाति के सटीक जन्मस्थान का दावा
- पौधों ने ज़मीन पर घर कैसे बसाया
- जेनेटिक परिवर्तित धान उगाएगा बांग्लादेश