नोबेल पुरस्कार की एक खूबी यह है कि उनकी वजह से हम किसी विषय में हो रहे अनुसंधान के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार इस अनुसंधान के लिए दिया गया है कि हमारा शरीर कोशिकाओं के स्तर पर ऑक्सीजन के उपयोग का नियमन कैसे करता है।
ऑक्सीजन वह गैस है जो आजकल के वायुमंडल में लगभग 20 प्रतिशत होती है और जंतुओं के लिए भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वैसे इस बात की खोज अपने आप में महत्वपूर्ण थी कि ऑक्सीजन एक तत्व है और दहन व श्वसन में हवा का यही हिस्सा (ऑक्सीजन) भाग लेता है। श्वसन में ऑक्सीजन की भूमिका और ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में पहचानने का काम, काफी हिचकोलों के बाद, आज से करीब 200 साल पहले हुआ था। वह अपने-आप में एक रोचक कहानी है।
आगे चलकर यह स्पष्ट हुआ कि कार्बोहाइड्रेट व अन्य पदार्थों के साथ ऑक्सीजन की क्रिया से ऊर्जा उत्पन्न करने का काम कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रिया नामक उपांग में होता है। दरअसल माइटोकॉन्ड्रिया में ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से एक पदार्थ बनता है - एडीनोसीन ट्राईफॉस्फेट (एटीपी) और यही एटीपी शरीर के लिए ऊर्जा का स्रोत है। इसके बाद पता चला था कि ग्लूकोज़ से एटीपी निर्माण की इस क्रिया का नियंत्रण कुछ एंज़ाइमों द्वारा किया जाता है। इस खोज के लिए 1931 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
ऑक्सीजन जीवन के लिए निर्णायक महत्व रखती है। इसलिए जैव विकास की प्रक्रिया में शरीर में ऐसी व्यवस्था का निर्माण हुआ है कि शरीर के ऊतकों और कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे। गर्दन में जो बड़ी-बड़ी रक्तवाहिनियां होती हैं, उनके नज़दीक एक रचना होती है - कैरोटिड निकाय। इस कैरोटिड निकाय की कोशिकाओं में रक्त में ऑक्सीजन स्तर को भांपने की क्षमता होती है। इस निकाय की खोज के साथ ही यह नोबेल सम्मानित खोज भी हुई थी कि ऑक्सीजन स्तर को भांपकर मस्तिष्क के ज़रिए श्वसन दर का नियमन यही कैरोटिड निकाय करता है। यानी यदि रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो रही है और आपकी सांसें तेज़ चलने लगती हैं तो आपको कैरोटिड निकाय का शुक्रिया अदा करना चाहिए।
कैरोटिड निकाय तो पल-पल में होने वाले ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव को संभालता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि यदि लगातार ऑक्सीजन का अभाव बना रहे तो शरीर में कुछ कार्यिकीय परिवर्तन भी होते हैं जो ज़्यादा दूरगामी असर दिखाते हैं।
ऑक्सीजन की कमी के प्रति ऐसी ही एक प्रमुख कार्यिकीय प्रतिक्रिया यह होती है कि शरीर में एक हारमोन एरिथ्रोपोएटीन (संक्षेप में ईपीओ) की मात्रा बढ़ने लगती है। इस हारमोन का उत्पादन हमारे गुर्दों या किडनी द्वारा किया जाता है। यह आम जानकारी का विषय नहीं रहा है कि गुर्दे रक्त को छानने के अलावा कई सारे हारमोन्स का उत्पादन भी करते हैं। यदि गुर्दे ठीक से काम नहीं करते तो एरिथ्रोपोएटीन का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है जो एक किस्म के एनीमिया को जन्म देता है जिसे रीनल एनीमिया कहते हैं। बढ़े हुए ईपीओ का असर यह होता कि हमारी अस्थि मज्जा ज़्यादा मात्रा में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती हैं। लाल रक्त कोशिकाएं ही ऑक्सीजन को शरीर की कोशिकाओं तक पहुंचाने का काम करती हैं। यानी यह पता चल गया कि ऑक्सीजन की कमी होने पर हारमोन के ज़रिए लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण का नियंत्रण होता है लेकिन यह गुत्थी बनी रही कि ऑक्सीजन इस प्रक्रिया का नियमन कैसे करती है।
यहीं पर इस साल के नोबेल विजेताओं की भूमिका शुरू होती है। इस संदर्भ में जॉन्स हॉपकिन्स चिकित्सा विश्वविद्यालय के ग्रेग सेमेन्ज़ा ने इस बात का अध्ययन किया कि ईपीओ संश्लेषण के लिए ज़िम्मेदार जीन (ईपीओ जीन) कैसे काम करता है और ऑक्सीजन का स्तर इसके कामकाज को कैसे प्रभावित करता है। उन्होंने इस अध्ययन के लिए ऐसे चूहों का उपयोग किया जिनके जीन्स में फेरबदल किया गया था। इन अध्ययनों से पता चला कि ईपीओ जीन के नज़दीक के डीएनए खंड ऑक्सीजन-अभाव के प्रति संवेदी होते हैं और ईपीओ जीन पर असर इन खंडों के माध्यम से होता है।
इसी दौरान पीटर रैटक्लिफ भी ईपीओ जीन की ऑक्सीजन-निर्भरता का अध्ययन कर रहे थे। रैटक्लिफ एक गुर्दा विशेषज्ञ हैं और अपना अध्ययन उन्होंने ऑक्सफोर्ड के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ क्लीनिकल मेडिसिन में किया था।
सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ दोनों ने पाया कि यह सही है कि सामान्यत: ईपीओ हारमोन गुर्दों में बनता है लेकिन ऑक्सीजन का स्तर भांपने की क्रियाविधि सिर्फ गुर्दों की कोशिकाओं में नहीं बल्कि लगभग सारे ऊतकों में पाई जाती है और कोशिकाओं की कई किस्मों में क्रियाशील होती है।
सेमेन्ज़ा चाहते थे कि यह समझ पाएं कि ऑक्सीजन के प्रति इस प्रतिक्रिया में कोशिका के कौन-से घटक शामिल हैं। लिहाज़ा उन्होंने कुछ लीवर कोशिकाओं को प्रयोगशाला में संवर्धित करके अध्ययन किया। उन्होंने एक प्रोटीन-संकुल खोज निकाला, जो ईपीओ के नज़दीक वाले डीएनए खंड के साथ ऑक्सीजन-निर्भर ढंग से जुड़ता है। यानी इस प्रोटीन संकुल का डीएनए से जुड़ना इस बात पर निर्भर करता है कि कोशिका में ऑक्सीजन का स्तर क्या है। सेमेन्ज़ा ने इस प्रोटीन-संकुल को एकदम उपयुक्त नाम दिया - हायपॉक्सिया-इंड्यूसिबल फैक्टर यानी ऑक्सीजन-अभाव से प्रेरित कारक (एच.आई.एफ.)। सेमेन्ज़ा ने यह भी पता किया कि एच.आई.एफ. दरअसल दो ऐसे प्रोटीन से मिलकर बना है जो डीएनए से जुड़ते हैं - इनमें से एक को एच.आई.एफ.-1 अल्फा कहा गया जबकि दूसरे का नाम थोड़ा मुश्किल है - एराइल हाइड्रोकार्बन रिसेप्टर न्यूक्लियर ट्रांसलोकेटर। इसलिए इसका संक्षिप्त नाम ही मशहूर है - ए.आर.एन.टी.। तो स्पष्ट हुआ कि एच.आई.एफ.-1 अल्फा और ए.आर.एन.टी. का संकुल डीएनए से जुड़कर ईपीओ जीन को प्रभावित करता है और इस संकुल का डीएनए से जुड़ना ऑक्सीजन के स्तर पर निर्भर होता है।
इतना कुछ हो जाने के बाद यह समझने की शुरुआत हुई कि यह गोरखधंधा चलता कैसे है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो यह पता चला कि जब ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में होती है तो कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बहुत कम होती है। लेकिन जैसे ही ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बढ़ने लगती है। ऐसा होने पर यह डीएनए के खंड से जुड़ जाता है और ईपीओ जीन सक्रिय हो जाता है।
कई सारे शोध समूहों ने यह दर्शाया है कि सामान्य परिस्थिती कोशिकाओं में एच.आई.एफ. का विघटन काफी तेज़ी से होता है लेकिन ऑक्सीजन का अभाव हो तो किसी तरह से इसकी सुरक्षा की जाती है और यह कोशिका में काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो एच.आई.एफ.-1 अल्फा को नष्ट करने का काम प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा किया जाता है। होता यह है कि एक छोटा पेप्टाइड अणु (युबिक्विटीन) एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़ जाता है। युबिक्विटीन का काम ही यह है कि किसी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करना। तो प्रमुख सवाल यह हो गया कि युबिक्विटिन कब व कैसे एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़कर उसे विघटन के लिए चिंहित करता है।
इस सवाल का जवाब एक अनपेक्षित स्रोत से मिला। जहां सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ ईपीओ जीन की क्रिया के नियंत्रण की क्रियाविधि पर शोध कर रहे थे, वहीं विलियम काएलिन जूनियर एक सर्वथा अलग समस्या पर अनुसंधान में भिड़े थे - वॉन हिप्पेल-लिंडाओ (वीएचएल) रोग। यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें वीएचएल जीन में उत्परिवर्तन की वजह से कुछ किस्म के कैंसर का खतरा बहुत बढ़ जाता है। यह रोग परिवारों में चलता है। काएलिन ने दर्शाया कि सामान्य वीएचएल जीन एक प्रोटीन का कोड है, और इसके द्वारा बनाया गया प्रोटीन कैंसर को रोकता है। काएलिन ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन लोगों में क्रियाशील वीएचएल जीन नहीं होता उनमें ऑक्सीजन के अभाव से नियंत्रित जीन्स बहुत अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होते हैं। यानी ये वे जीन्स हैं जिनकी सक्रियता ऑक्सीजन की कमी होने पर बढ़ती है। उन्होंने यह देखा कि यदि इन कैंसर कोशिकाओं में सामान्य वीएचएल जीन प्रविष्ट करा दिया जाए, तो उक्त जीन्स की अभिव्यक्ति भी सामान्य स्तर पर आ जाती है।
इस खोज से लगा कि शायद वीएचएल जीन ऑक्सीजन के अभाव के प्रति कोशिकाओं की प्रतिक्रिया में शामिल है। आगे अन्य समूहों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्य से पता चला कि वीएचएल वास्तव में युबिक्विटिन के साथ एक संकुल का हिस्सा होता है और यह संकुल किसी भी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करने का काम करता है। इस समय रैटक्लिफ ने यह महत्वपूर्ण खोज की कि वीएचएल वास्तव में एच.आई.एफ.-1 अल्फा के साथ भौतिक रूप से जुड़ता है और ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर आई.एच.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी होता है। यानी बात यह बनी कि वीएचएल और एच.आई.एफ. मिलकर काम करते हैं। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो वीएचएल एच.आई.एफ. का विघटन करवा देता है। तब एच.आई.एफ.-ए.आर.एन.टी. संकुल डीएनए खंड से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय नहीं कर पाता।
अब शेष क्रियाविधि तो स्पष्ट हो चुकी थी मगर अभी भी यह देखना शेष था कि ऑक्सीजन की मात्रा द्वारा वीएचएल और एच.आई.एफ.-1 अल्फा की परस्पर क्रिया का नियंत्रण कैसे किया जाता है।
इस तलाश में मुख्य फोकस एच.आई.एफ.-1 अल्फा प्रोटीन के एक विशेष खंड पर रहा। यह खंड वीएचएल के ज़रिए विघटन के लिए ज़रूरी लगता था। रैटक्लिफ और काएलिन दोनों को लगता था कि ऑक्सीजन का संवेदी हिस्सा इसी प्रोटीन में कहीं है। उन्होंने पाया कि ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर एच.आई.एफ.-1 अल्फा के दो विशिष्ट स्थानों पर हायड्रॉक्सिल समूह जुड़ जाते हैं। प्रोटीन में इस परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि वीएचएल अब एच.आई.एफ.-1 अल्फा को पहचानकर उससे जुड़ जाता है। जब वीएचएल जुड़ जाता है तो एच.आई.एफ. अणु विघटन के लिए चिंहित हो गया, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। अर्थात ऑक्सीजन का सामान्य स्तर एच.आई.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी है। ऑक्सीजन कम हुई और इसका विघटन रुक जाता है, कोशिका में इसकी मात्रा बढ़ने लगती है, वह जाकर डीएनए के उपयुक्त खंडों से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय कर देता है।
तो इस तरह खुलासा हुआ कि कोशिकाएं ऑक्सीजन का स्तर भांपकर कैसे ऑक्सीजन के अभाव हेतु खुद को तैयार करती हैं। जैसे कड़ी मेहनत या भारी व्यायाम के समय मांसपेशियों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है तो वे कुछ समय के लिए अपना ढर्रा बदल देती हैं। यह भी देखा गया है कि यही प्रक्रिया नई रक्त नलिकाओं तथा अतिरिक्त मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण में भी काम आती है। भ्रूण के विकास में भी ऑक्सीजन स्तर भांपने की क्रिया महत्वपूर्ण पाई गई है। कैंसर कोशिकाएं इसी प्रक्रिया का लाभ उठाकर खुद के लिए रक्त नलिकाओं का निर्माण करती हैं। इस विषय में काफी उत्साह से शोध किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)
-
Srote - February 2020
- दो अरब लोग दृष्टि की दिक्कतों से पीड़ित हैं
- नया डॉन ट्यूमर को भूखा मार देता है
- सांसों का हिसाब
- निमोनिया का बढ़ता प्रभाव और नाकाफी प्रयास
- विष्ठा प्रत्यारोपण से मौत
- मलेरिया उन्मूलन की नई राह
- खसरा का आक्रमण प्रतिरक्षा तंत्र को बिगाड़ता है
- बाल के एक टुकड़े से व्यक्ति की शिनाख्त
- क्या आपका डीएनए सुरक्षित है?
- कॉफी स्वास्थ्यवर्धक है, मगर अति न करें
- वॉम्बेट की विष्ठा घनाकार क्यों होती है?
- मच्छर की आंखों से बनी कृत्रिम दृष्टि
- ज़हर खाकर मोनार्क तितली कैसे ज़िंदा रहती है?
- करीबी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का उल्टा असर
- एक मस्तिष्कहीन जीव के जटिल निर्णय
- बिना भोजन के जीवित एक सूक्ष्मजीव
- नाभिकीय उर्जा को ज़िन्दा रखने के प्रयास
- अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते कदम
- 5जी सेवाओं से मौसम पूर्वानुमान पर प्रभाव
- क्या पढ़ने की गति बढ़ाना संभव है?
- हम भाषा कैसे सीखते हैं
- विश्वविद्यालयों को अनुसंधान और नवाचार केंद्र बनाएं
- ऊंचे सुर और ऊंचे स्थान का सम्बंध
- मनुष्य प्रजाति के सटीक जन्मस्थान का दावा
- पौधों ने ज़मीन पर घर कैसे बसाया
- जेनेटिक परिवर्तित धान उगाएगा बांग्लादेश