भूवैज्ञानिक धरोहर/विरासत या जियोहेरिटेज शब्द ऐसे स्थलों या इलाकों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जहां वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और सौंदर्यात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण भूगर्भीय लक्षण उपस्थित हों जो भूगर्भीय रचनाओं के निर्माण और उन्हें प्रभावित करने वाली भूगर्भीय प्रक्रियाओं के बारे में अनोखी समझ प्रदान करते हैं। ये हमें पृथ्वी के संरक्षण और विकास के बारे में शिक्षित करते हैं। इन निहित भूवैज्ञानिक लक्षणों का सांस्कृतिक और/या विरासती महत्व भी हो सकता है। संक्षिप्त में, भूविरासत चट्टानों, मिट्टी और भू-आकृतियों के रूप में संरक्षित भूगर्भीय अतीत का आईना है। धरोहर की अवधारणा वास्तव में एक सांस्कृतिक रूप से निर्मित धारणा है जो प्राकृतिक स्थलों या क्षेत्रों और उनके ऐतिहासिक उपयोग से सम्बंधित है। भू-विरासत को भी जैव विविधता और सांस्कृतिक स्थलों के समान संरक्षण मिलना चाहिए। यह तो ज़ाहिर है कि सभी भूविज्ञानी इस बात से सहमत हैं कि भूविज्ञान एक दिलचस्प विषय है, लेकिन पृथ्वी पर भूगर्भीय लक्षणों को उन आम लोगों के लिए आकर्षक बनाना भी आवश्यक है जो पृथ्वी की विशेषताओं के महत्व से अनभिज्ञ हैं। इन बातों को आम लोगों के लिए बोधगम्य बनाना होगा जो भूगर्भीय पैमाने के समय और आयाम से वाकिफ नहीं हैं।
जियोपार्क या भूगर्भीय उद्यान का सिद्धांत वर्ष 2000 में युरोप में विकसित किया गया था। 2004 में, युनेस्को ने जियोपार्क्स को ऐसे एकीकृत भौगोलिक क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर के भूवैज्ञानिक महत्व के कुछ स्थलों और भूदृश्यों का प्रबंधन संरक्षण, शिक्षा और टिकाऊ विकास की समग्र अवधारणा के तहत किया जाता है। दूसरे शब्दों में, जियोपार्क स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ भूगर्भीय धरोहर की रक्षा के लिए बनाए गए स्थल होते हैं। इन स्थलों को आदर्श पारिस्थितिक पर्यटन (इको-टूरिज़्म) स्थलों के रूप में तैयार किया जाता है ताकि भू-विरासत का संरक्षण हो सके और स्थानीय लोग भी लाभान्वित हों। इसलिए, यह टिकाऊ विकास हासिल करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। नवंबर 2015 में, युनेस्को ने इस अवधारणा को समर्थन दिया और ‘युनेस्को ग्लोबल जियोपार्क्स नेटवर्क’ को अपना आधिकारिक सहयोगी बनाने का अनुमोदन किया। इसका उद्देश्य प्रकृति की विलक्षणताओं के बारे में जागरूकता पैदा करना और लोगों को धरती के खूबसूरत पहलुओं से जोड़ने में मदद करना है। वर्ष 2015 में, इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़रवेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने एक संकल्प पारित किया जिसमें भू-विविधता को प्राकृतिक विविधता और प्राकृतिक धरोहर के एक अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया गया। इसके तहत भू-विविधता और भू-संरक्षण को भी जैव विविधता और प्राकृतिक संरक्षण का अभिन्न अंग माना गया। वर्तमान में, 44 देशों में 169 युनेस्को ग्लोबल जियोपार्क हैं, जिसमें 41 तो अकेले चीन में हैं। इसके विपरीत भारत में एक भी जियोपार्क नहीं है।
भू-विरासत संरक्षण के एक अभिन्न अंग के रूप में, भू-पर्यटन किसी स्थान के विशिष्ट भौगोलिक चरित्र यानी उसके पर्यावरण, धरोहर, सौंदर्य, संस्कृति और स्थानीय लोगों के हितों को बनाए रखता है और समृद्ध करता है। जियोपार्क्स न सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा देते हैं बल्कि वे उस राज्य को भी वित्तीय संसाधन प्रदान करते हैं जहां वे स्थित हैं। इन स्थलों को विकसित करने से उस क्षेत्र के लोगों को होटल, परिवहन, सोवेनिर्स (स्मरण वस्तुएं), कलाकृति की दुकानों आदि के रूप में आजीविका प्राप्त होती है। इसके अलावा, जियोपार्क्स में स्थित भू-विरासत स्थल शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों के लिए अत्यधिक शैक्षिक महत्व रखते हैं।
भू-पर्यटन में हम किसी क्षेत्र के भू-वैज्ञानिक मूल्य पर ध्यान देते हैं, जिसमें भूवैज्ञानिकों और पर्यटकों की वैज्ञानिक दिलचस्पी को प्रमुख आकर्षण के रूप में शामिल किया जाता है। हम स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासन का भी ध्यान आकर्षित करते हैं जिसे भूविज्ञानियों की सहमति से संरक्षित स्थलों को परिभाषित करने, बढ़ावा देने, मुकम्मल करने और रख-रखाव के खर्चों में सहायता देने के लिए समुचित कानूनी ढांचा बनाना होता है।
जुलाई 2019 में, इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इन्टैक) ने आंध्र प्रदेश पर्यटन विभाग, पुरातत्व और संग्रहालय विभाग और विशाखापटनम महानगर विकास प्राधिकरण के साथ मिलकर लोगों के बीच जियोहेरिटेज स्थलों पर जागरूकता पैदा करने के लिए अभियान चलाया और उस क्षेत्र में कई जियोपार्क्स विकसित करने का प्रस्ताव रखा। इन्टैक ने ऐसे कई भूगर्भीय दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों को चिन्हित करके उनका दस्तावेज़ीकरण किया है जिन पर संरक्षण अधिकारियों को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। ये भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) द्वारा प्रकाशित एक बड़ी सूची के अतिरिक्त हैं जिसमें देश भर के 32 स्थलों का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। आगे चलकर 36वें अंतर्राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक सम्मेलन (2020) के लिए तैयार किए गए स्टेटस पेपर में यह संख्या 40 हो गई है (यह सम्मेलन स्थगित हो गया है)। जीएसआई ने राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों (एनजीएम) के रूप में 26 भूवैज्ञानिक स्थलों की पहचान भी की है। एक राष्ट्रीय मुहाफिज़ के रूप में, यह जीएसआई का अनिवार्य दायित्व है कि वह भारत के भू-विरासत स्थलों का या तो स्वयं या राज्य सरकार के उन अधिकारियों के सहयोग से निरूपण और रख-रखाव करे जो इसके वास्तविक मूल्य और भू-पर्यटन संभावनाओं के प्रति आश्वस्त हैं। हालांकि, जीएसआई इस कार्य के लिए राष्ट्रीय मुहाफिज़ है लेकिन ऐसे स्थलों की सुरक्षा के लिए कानून की अनुपस्थिति में यह संस्था खुद को असहाय पाती है, जबकि इन स्थलों को स्थानीय लोगों या फिर विकास कार्य करने वाले सरकारी ठेकेदारों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इनमें से अधिकांश स्थल राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड और उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। भारत में संरक्षित पहली भूवैज्ञानिक वस्तु 1951 की है जब तमिलनाडु स्थित पेराम्बुर ज़िले के एक जीवाश्मित तने को राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक घोषित किया गया था। तेलंगाना की प्राणहिता-गोदावरी घाटी में स्थित आदिलाबाद ज़िले में जीवाश्मित अंडों, अंडों के समूहों, कंकालों के अवशेष और विष्ठा (23 करोड़ साल पुराने) के रूप में भारतीय डायनासौर के बेहतरीन संरक्षित अवशेष मिले हैं। कोटा फॉर्मेशन (तेलंगाना) में पाए गए अवशेष 19 करोड़ वर्ष पुराने हैं जबकि गुजरात के जबलपुर, बाघ और खेड़ा ज़िलों के संग्रह 6.5 करोड़ वर्ष पुराने हैं। विश्व प्रसिद्ध मांसाहारी राजासौरस नर्मदेन्सिस नामक टायरानोसौरस रेक्स मध्य भारत के नर्मदा क्षेत्र से सम्बंधित है। अपनी समृद्ध भूवैज्ञानिक धरोहर के साथ भारतीय उपमहाद्वीप को इन स्थलों को भूवैज्ञानिक स्मारकों और भूवैज्ञानिक उद्यानों के रूप में विकसित करके पूरे विश्व में भूवैज्ञानिक संपदा को प्रदर्शित करने में सबसे आगे होना चाहिए। दुर्भाग्य से, इन स्थलों को भूवैज्ञानिक स्मारक घोषित करने के अलावा, प्रकृति के इन अचंभों की सुरक्षा पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। अधिकांश स्थल बिना किसी सुरक्षा के उजाड़ पड़े हैं और ‘विकास’ कार्यों या तोड़फोड़ की बलि चढ़ जाएंगे। भारत में संरक्षण के मामले में भू-विरासत हमेशा से ही उपेक्षित रही है।
सांस्कृतिक भवनों और जैव विविधता को संरक्षित करने के लिए पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक संरचना संरक्षण कानून 1958 और जैव विविधता कानून 2002 मौजूद हैं। लेकिन भूवैज्ञानिक संरचनाओं, जो राष्ट्र की प्राकृतिक धरोहर भी हैं, के संरक्षण के लिए ऐसा कोई कानून नहीं है। यह स्थिति जीएसआई जैसे विशाल संस्थान, भूवैज्ञानिक अध्ययनों में भाग लेने वाले अनुसंधान संस्थानों और एक सदी से भी अधिक समय से भूविज्ञान पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों की उपस्थिति के बावजूद है।
भूवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण संरचनाओं को भू-उद्यान या भू-स्थल के रूप में संरक्षित करने के प्रस्तावों को विशुद्ध रूप से अकादमिक कहकर खारिज कर दिया जाता है। लोगों को उनके जीवन और उनके आसपास की चट्टानों, जीवाश्मों और संसाधनों के बीच घनिष्ठ सम्बंधों का एहसास कराना आसान नहीं है। यह एहसास तभी पैदा होगा जब हम प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को शिक्षित करेंगे तथा भूगर्भीय रूप से मनोहर स्थलों के आसपास रहने वाले ग्रामीणों को ऐसी संरचनाओं के महत्व से अवगत कराएंगे। अब तक, भू-विरासत संरक्षण कानून लाने के सभी प्रयास विफल रहे हैं। 2007 में, दो उत्साही भूविज्ञानियों ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति को भू-विरासत संरक्षण की खेदजनक स्थिति से अवगत कराने का प्रयास किया था। राष्ट्रपति की पहल पर, भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) के सचिव को इस मामले पर वैज्ञानिक विमर्श शुरू करने के लिए कहा गया था। 26 फरवरी 2009 को भारत सरकार ने राष्ट्रीय विरासत स्थल आयोग विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक का मसौदा भारत सरकार के पर्यटन, परिवहन और संस्कृति मंत्रालय को भेजा गया। 14 मार्च 2016 को प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) ने बताया कि 2009 का विधेयक एक बार फिर उच्च-स्तरीय समिति को भेजा गया था जहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण, शहरी विकास बोर्ड और पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से परामर्श के बाद इस विधेयक को खारिज करने का निर्णय लिया गया और 31 जुलाई 2015 को इसे वापस ले लिया गया। यहां यह बताना आवश्यक है कि यह पूरा मामला पृथ्वी विज्ञान से सम्बंधित किसी भी मंत्रालय को नहीं भेजा गया था जो भूवैज्ञानिक धरोहरों के स्वाभाविक संरक्षक हैं।
इंडियन सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट्स, लखनऊ ने भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के तत्वावधान में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ जियोलॉजिकल साइंसेज़ (आईयूजीएस) की राष्ट्रीय समिति के साथ मिलकर 6 और 7 अगस्त 2019 को विचार मंथन सत्र का आयोजन किया। जानकार और सक्रिय भूविज्ञानियों की टीम ने ‘कंज़रवेशन ऑफ जियोहेरिटेज साइट्स एंड डेवलपमेंट ऑफ जियोपार्क्स एक्ट, 2020’ नामक एक विस्तृत दस्तावेज़ तैयार किया। इस दस्तावेज़ में निम्नलिखित अध्याय रखे गए: जियोहेरिटेज स्थलों का संरक्षण, रख-रखाव और पहुंच, राष्ट्रीय जियोहेरिटेज प्राधिकरण, प्राधिकरण की वार्षिक योजना, बजट, लेखा और ऑडिट, राज्य जियोहेरिटेज बोर्ड्स, और अपराध एवं दंड। इस व्यापक दस्तावेज़ को प्रधानमंत्री कार्यालय, सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकारों (पीएसए) और कई मंत्रालयों को भेजा गया।
इस संदर्भ में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री की ओर से जवाब में बताया गया कि एमओईएस के सचिव जियोहेरिटेज से सम्बंधित बैठकों का आयोजन कर सकते हैं। अलबत्ता, इस बैठक में खान मंत्रालय (एमओएम) के प्रतिनिधि ने दावा किया कि यह विषय एमओएम के कार्यक्षेत्र में आता है। 1 अप्रैल 2020 को एमओएम के सचिव ने एक आंतरिक टास्क ग्रुप का गठन किया। इस ग्रुप के सदस्यों की वर्चुअल बैठक में आईएनएसए की बैठक में तैयार किए गए विधेयक के मूल मसौदे के कुछ खंडों में संशोधन किया गया। इस नए विधेयक को जियोहेरिटेज कंज़रवेशन और जियोपार्क्स डेवलपमेंट बिल 2020 का नाम दिया गया। पुनरीक्षण करने वाली टास्क फोर्स को सख्ती से आंतरिक रखा गया। तब से बिल को अंतिम रूप देने में कोई प्रगति नहीं हुई है।
यह इंतज़ार काफी लंबा होता जा रहा है और विकास के नाम पर देश के कई भागों में जियोहेरिटेज स्थलों को नष्ट किया जा रहा है। पीएसए की अध्यक्षता में विश्वस्तरीय जीवाश्म संग्रह/संग्रहालय स्थापित करने की महत्वाकांक्षी योजना को एक साल से भी अधिक समय बीत चुका है लेकिन उसमें भी अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है। आईएनएसए में आयोजित आईयूजीएस राष्ट्रीय समिति द्वारा दिए गए सुझाव में जियोहेरिटेज स्थलों के संरक्षण और रख-रखाव को संग्रहालय सम्बंधित कार्य का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए। अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि इस सुझाव को संग्रहालय परियोजना की प्रस्तावित अधूरी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में शामिल किया गया है या नहीं। इन मुद्दों पर देश में भू-आकृतियों और भूविज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने सहित भूवैज्ञानिक विशेषताओं की सुरक्षा और संरक्षण के हितों को ध्यान देना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था