पिछले लेख में हमने कंप्यूटर और इंसानी दिमाग में व्यावहारिक गुणों में एकरूपता (फंक्शनलिज़्म) का ज़िक्र किया था। एआई का आखिरी मकसद यह है कि एक दिन दिमाग के हरेक जैविक न्यूरॉन की जगह इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन (लॉजिक गेट से गुज़रते इलेक्ट्रॉन समूह) रख दिया जाएगा, जिससे इंसान की ही छवि में मशीन बन जाएगी। यह कल्पना बेमानी नहीं है। आखिर कंप्यूटेशन के नज़रिए से जैविक न्यूरॉन और इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन समकक्ष हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या एक-एक करके जैविक न्यूरॉन के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन को लगाने पर चेतना वैसी ही बनी रहेगी जैसी कि इंसान में होती है।
मशीन में ज्ञान रोपने के लिए इस बात पर विचार करना लाज़मी है कि ज्ञान क्या है, इसे कैसे पाते हैं, कैसे संजोते हैं, आदि। लिहाज़ा दार्शनिक चिंतन एआई का अहम हिस्सा है। दार्शनिक सवालों के जवाब हमेशा नहीं मिलते, पर इससे एआई विज्ञानी घबराते नहीं हैं। तर्क पर आधारित सोच का खाका कामयाबी की ओर ले जाता है। अब तक कई तरह की कामयाब मशीनें बन चुकी हैं - अजेय शतरंज खिलाड़ी; सामान्य समझ दिखलाते और आम सवालों का जवाब देते, चलते-फिरते, छोटे-मोटे काम करते रोबोट; कैमरे से लिए गए फोटो में कैद कई सारी चीज़ों को विस्तार से समझ लेने (कंप्यूटर विज़न) वाले रोबोट, आदि। इन सभी में परिवेश की जानकारी लेते एजेंट हैं, जो जानकारी को संज्ञान के स्तर तक संजोते हैं और फिर इस आधार पर उचित कदम उठाते हैं। यानी एहसास कर पाने और कदम उठाने के बीच संज्ञान एक पुल की तरह है। एआई की तरक्की इसी पुल के लगातार मज़बूत होते जाने की कहानी है। बेशक यह तरक्की दायरे में बंधे सवालों पर ज़्यादा और बुनियादी सवालों पर कम केंद्रित है। मसलन मशीन की मदद से एक से दूसरी ज़बान में तर्जुमा कभी मशीन में शब्दकोश डालने जैसा आसान प्रोजेक्ट माना जाता था, पर बाद में समझ बनी कि यह बहुत मुश्किल काम है। मशीनों में डालने के लिए तमाम किस्म के तथ्यों को इकट्ठा करने पर भी काम हुआ, जिसे साइक (CYC – encyclopedia) प्रोजेक्ट कहते हैं।
तथ्यों की पर्याप्त जानकारी न हो तो मशीन की क्षमता इंसान के आसपास भी नहीं आ सकती। मसलन, मेडिकल तथ्यों से लैस कोई मशीन एक खटारा गाड़ी को बीमार मानकर दवाएं लेने को कह सकती है, जो इंसान कभी नहीं करेगा। इंसानी दिमाग दसियों हज़ारों सालों के जैविक और सांस्कृतिक विकास से बना है। जीवनकाल में वह लगातार सीखता रहता है, जिससे वह आसानी से किसी बात का प्रसंग समझ लेता है। यह सब मशीन में डाल पाना आसान नहीं है।
मुश्किल आसान करने के लिए कुछ आम तरीके अपनाए जाते हैं: जैसे काम को सरल टुकड़ों में बांटना। कई लोग मानते हैं कि दिमाग दरअसल कई छोटे-छोटे कंप्यूटरों का समूह है, जिनमें से कुछ खुदमुख्तार हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में अमरीकी दार्शनिक जेरी फोदोर ने कहा था कि मानस खास कामों के लिए बने अलग-अलग टुकड़ों से मिलकर बना है। पर कौन-सा टुकड़ा कहां है, यह कहना मुश्किल है। हर टुकड़े पर आधारित मशीन बनाई जा सकती है। जैसे भाषा ज्ञान, गणित के सवाल, चित्रकला आदि अलग-अलग काम के लिए मॉडल रोबोट बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे सबको साथ रखकर एक से ज़्यादा काम कर सकने वाली मशीनें भी बनाई जा सकती हैं। साथ ही दिमाग के बारे में भी समझ बढ़ती चलेगी।
इंसान के दिमाग में तंत्रिकाओं का एक विशाल जाल-सा काम करता है, जिसमें एक से दूसरे न्यूरॉन के बीच तेज़ी से संवाद चलता रहता है। यह जैव-रासायनिक वजहों से हो रहे विद्युत के प्रवाह के ज़रिए होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने कनेक्शनिस्ट (connectionist) मॉडल बनाए हैं, जो गणनाओं के लिए प्रभावी साबित हुए हैं। ऐसे मॉडल को कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क (ANN – artificial neural network) कहा जाता है।
आम तौर पर कुदरत में सीधी लकीर पर चलने वाली यानी रैखिक या लीनियर घटनाएं नहीं होतीं; यानी किसी एक राशि (इनपुट) को किसी अनुपात में बढ़ाया जाए, तो कोई दूसरी राशि ठीक उसी अनुपात में घटे-बढ़े, ऐसा नहीं होता है। पर आसानी के लिए सीमित दायरे में रैखिक मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव रही है। इससे सर्वांगीण समझ नहीं बनती, पर कुदरत के बारे में बहुत सारी समझ ऐसे ही हमें मिली है।
अब चूंकि कंप्यूटर तेज़ी से गणनाएं कर लेते हैं, इसलिए रैखिक मॉडल की जगह कनेक्शनिस्ट मॉडल ले रहे हैं। इनपुट और आउटपुट कई राशियों के बीच सम्बंधों के अनगिनत समीकरण हो सकते हैं। अनुमान के आधार पर समीकरण तय करें तो सही आउटपुट नहीं मिलता। किंतु जिन घटनाओं के बारे में जानकारी पहले से है, उनकी गणना में असलियत से जो फर्क दिखता है, उसे वापस इनपुट में शामिल करके फिर से गणना की जाए तो पहले से बेहतर समीकरण मिलते हैं। इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराएं यानी हर बार जो फर्क दिखे, उसे इनपुट में डालते जाएं तो धीरे-धीरे सारे समीकरण सही हो जाएंगे।
जैसे, कल्पना करें कि आप सड़क पर चल रहे हैं और रास्ते में गड्ढा दिखता है। दिमाग इस बात को दर्ज करता है और राह बदलता है। एक नवजात बच्चा अपने सामने रखी किसी चीज़ की सही दूरी तय नहीं कर पाता तो वह उंगली से उसे छूने की कोशिश करता है। दो-चार कोशिशों के बाद वह सही दिशा में सही दूरी तक पहुंच जाता है। इसी तरह मशीन को भी सिखाया जाता है। इसे मशीन लर्निंग (ML – machine learning) कहा जाता है। सिर्फ बेहतर रोबोट बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि विज्ञान की कई पहेलियों को हल करने में एआई का आम इस्तेमाल इसी तरीके से हो रहा है और यह बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसकी मदद से नई दवाइयां बनाई गई हैं, कोरोना जैसी बीमारी के प्रसार के पैटर्न को समझा गया है और तमाम किस्म के सवाल हल किए गए हैं। बीमा कंपनियां और स्टॉक मार्केट इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।
एक तरीका यह भी है कि समीकरणों के एक समूह के बाद दूसरे और समीकरण समूहों को हल किया जाए – इन समूहों को परत (layer) कहते हैं। कई परतों वाले नेटवर्क को डीप लर्निंग (deep learning) कहा जाता है। नेटवर्क के विवरण के लिए एक्सॉन (axon – न्यूरॉन में बिजली के प्रवाह के पड़ाव) जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता है, जो तंत्रिका-विज्ञान से उधार लिए गए हैं। गौरतलब है कि जिस्म में न्यूरॉन बिजली के आवेग प्रवाहित करते हैं और मशीन में इनकी जगह गणना की राशियां होती हैं। पर बुनियादी तौर पर उनमें समानता है। जैविक न्यूरॉन एक सेकंड में हज़ार से ज़्यादा सिग्नल नहीं भेज सकते। इंसान के दिमाग की तुलना में कंप्यूटर करोड़ गुना ज़्यादा तेज़ी से गणना कर पाते हैं, फिर भी आज तक इंसान जैसी चेतना किसी मशीन में नहीं आ पाई है। इंसान का दिमाग पल भर में जटिल फैसले ले सकता है; गणनाओं में करोड़ गुना तेज़ होने के बावजूद कंप्यूटर वैसा नहीं कर पाते हैं। सड़क पर कोई परिचित मिले तो उसे पहचानने में हमें पल भर लगता है, जबकि कंप्यूटर जानकारी दर्ज करता हुआ अपनी गणनाओं में उलझा रहता है और इसमें कुछ पल लग सकते हैं। कुदरत में बहुत सारी गणनाएं समांतर चलती हैं। जब हम कुछ देखते-सुनते हैं तो एक साथ बहुत सारी बातें दिमाग में दर्ज हो रही होती हैं, भले ही सारी जानकारी हमारे काम की न हों। जो छवि दिमाग में बनती है, उस जानकारी को बांट कर अनगिनत कोनों में सर्वांगीण रूप से दर्ज किया जाता है। आधुनिक कंप्यूटर भी समांतर प्रोसेसिंग करते हैं। मोबाइल फोन तक में एक से ज़्यादा प्रोसेसर आने लगे हैं। ANN में, खास तौर से डीप लर्निंग में इस बात का भरपूर फायदा उठाया जाता है। पर इस दौड़ में अभी तक कुदरत आगे है। दूसरी बात यह कि कुदरत में कुछ भी ज़रा सी चोट लगने पर देर-सबेर अपने आप ठीक हो जाता है, पर मशीनों में यह क्षमता बहुत ही कम है।
आज कंप्यूटर जिस तरह के अर्द्धचालक (सेमी-कंडक्टर) सिलिकॉन के विज्ञान पर आधारित हैं, उसमें एक हद से आगे बढ़ना नामुमकिन है। मशहूर गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ का कहना है कि आगे बढ़ने के लिए क्वांटम गतिकी पर आधारित कंप्यूटेशन अपनाना होगा। आज इस्तेमाल होने वाले कंप्यूटरों को क्लासिकल कहा जाता है, हालांकि सेमी-कंडक्टर की भौतिकी में भी क्वांटम गतिकी का इस्तेमाल होता है। आज के माइक्रो-प्रोसेसर या चिप में ट्रांज़िस्टर इतने छोटे हो गए हैं कि वे कुछेक अणुओं के आकार तक पहुंच गए हैं। इससे आगे कंप्यूटरों की सूचना जमा करने की क्षमता या रफ्तार में ज़्यादा बढ़त मुमकिन न होगी। पिछले तीन दशकों से एक नई दिशा विकसित हुई है, जिसे क्वांटम कंप्यूटर कहते हैं। इसमें अणु-परमाणुओं के खास गुणों का इस्तेमाल होता है, जिन्हें क्लासिकल भौतिकी से कतई समझा नहीं जा सकता है।
पेनरोज़ का मत है कि हमें जिस्म और मानस को अलग-अलग करने की ज़रूरत नहीं है, पर चेतना के लिए जो एमर्जेंट या योगेतर गुण चाहिए वे क्वांटम गतिकी से ही मुमकिन होंगे। यानी आज के कंप्यूटरों का इस्तेमाल कर हम मशीन में इंटेलिजेंस नहीं ला सकते हैं। पेनरोज़ कुर्ट गॉडेल की मशहूर प्रमेय का सहारा लेते हैं, जिसके मुताबिक गणित के कुछ सच ऐसे हैं, जिन्हें गणनाओं के जरिए सिद्ध नहीं किया जा सकता। चूंकि कंप्यूटर से निकला हर नतीजा गणनाओं से आता है, इसलिए वे ऐसी हर बात नहीं कर सकते जो इंसान कर सकते हैं। यानी चेतना में गणना से अलग कुछ है, जिसकी खोज हमें करनी है। ये बातें शायद रहस्यवाद जैसी लग सकती हैं।
एआई अब आधी सदी की उम्र गुज़ार चुका है। समझ यह बनी है कि जिस तरह जिस्म के बिना सोचने वाला मानस नहीं होता, उसी तरह मशीन अपने आप में सोच नहीं सकती। पर इंसान की सोच पूरी तरह खुदमुख्तार नहीं होती है, वह एक बड़े परिवेश में ही फलती-फूलती है। सबक यह है कि इसी तरह मशीन को भी परिवेश में फलने-फूलने लायक बनाना होगा। जैविक विकास से मिली सीख के मुताबिक छोटी मशीनों के साथ ऐसे प्रयोग हो रहे हैं। कोशिश यह है कि छोटे स्तर पर मिली कामयाबी को धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर विकसित किया जाए। एआई विज्ञानी आज भी दर्प के साथ भविष्यवाणियां करते हैं, और वक्त के साथ गलत साबित होते रहते हैं। फिर भी एआई हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। रोबोट मशीनें और कंप्यूटर चालित हिसाब-किताब हर पल हमारे साथ हैं। शायद अगली पीढ़ियां ही जान पाएंगी कि रोबोट इंसान से ज़्यादा दानिशमंद होंगे या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
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