विष्णुकांत
... अब इन्हें सिर्फ बहाने मानें या कि तीक्ष्ण दिमाग की एक निशानी ...
बहाने बनाने की कला भी अनूठी है। न जाने क्यों इसे पूरी तरह जान-बूझकर झूठ बोलना' मानने में दिक्कत होती है। विद्यालय के संदर्भ में देखें तो करीब-करीब सारे बच्चे उस कला की प्रेक्टिस करते हैं और अक्सर शिक्षक इस बात को जानता भी है। यदि देखें तो कुछ बहाने बच्चों की तेज, उर्वर बुद्धि की तीक्ष्णता को दर्शाते हैं तो कुछ घिसी-पिटी घटनाएं दोहराते रहते हैं।
कृष्णपाल ( के.पी.) छठवीं का छात्र है। बुद्धि तेज़ पर काम में घोर आलसी। ऊर्जा व जोश तब तक नहीं दिखाता जब तक काम उसके मन का न हो। गृहकार्य शायद ही कभी पूरा किया हो। पूछने पर बहाने तैयार। ऐसे-ऐसे कि आप दांतों तले अंगुली दबा लें।
के.पी. को बहाने दोहराते शायद ही मैंने कभी देखा हो। कभी बिजली नहीं होती, कभी खेलने लगे थे तो कभी पापा की बहन के सौतेले भाई की ससुराल वालों के बगल वाले घर में शादी में चले गए थे; तो कभी सीधे-सीधे, 'याद ही नहीं आया'।
अब याद न आने के लिए आप क्या करेंगे? कोई जान बूझकर तो भूला नहीं? ‘फिर तुम होमवर्क लिखकर क्यों नहीं ले जाते?,' 'भूल जाता हूँ?'
जब मैंने ध्यान देकर लिखवाया तो दूसरे दिन, 'होमवर्क को देखना ही भूल गया' कहते भी इतनी मासूमियत के साथ हैं कि पत्थर का दिल भी पिघल जाए। यदि आप नाराज़गी दिखाते हैं तो 'कल से कर के लाऊंगा।'
और कल, फिर वही इतिहास।
'क्यों नहीं किया?'
'सर, थोड़ा-सा बाकी है।'
कॉपी खोल के देखा तो दो पेज की जगह महोदय ने दो शब्द ही लिखे हैं।
'क्यों नहीं किया?'
'सर, कर रहा था पर स्कूल बस आ गई,' सिर खुजाते बोले।
‘हूं, तो तुमने पहले क्यों नहीं किया?'
‘पहले सोच रहा था।' ( सोचने की गंभीर मुद्रा )। 'अच्छा, कितनी देर लगती है सोचने में?'
‘एक घण्टा।'
'हैं, तुमने कब सोचना शुरू किया?'
‘सुबह साढ़े आठ बजे।'
‘उसके पहले क्यों नहीं?'
‘पहले याद ही नहीं आया। सुबह याद आया।
‘अच्छा....फिर...?"
'साढे नौ बजे तक सोचा। फिर कॉपी खोली, लिखने बैठा तो पेंसिल टूटी थी, बनाने लगा। फिर लिखने लगा लेकिन तब तक गाड़ी आ गई।'
हर पल का व्यवस्थित ब्यौरा। बेचारा शिक्षक!
कल्पना की कुलांचे भरने में दूसरी कक्षा का भूपेन्द्र भी कम नहीं। बैठे-बैठे पढ़ता रहता है और अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाता रहता है। समझदार है पर बहुत जल्दी नाराज़ हो जाता है।
एक दिन होमवर्क करके नहीं लाया। मैंने कारण पूछा।
‘सर, बात यह है कि मैंने रात में एक सपना देखा कि मैं उठकर सारा काम कर रहा हूं। आपका काम भी ठीक से किया। सुबह मुझे लगा कि अब क्या करना, होमवर्क का सारा काम तो पूरा हो गया है। अभी कॉपी खोली तो देखा कि काम नहीं हुआ। तो वो मैंने सपना देखा था।'
क्या ऐसे कल्पनाशील और उर्वर दिमाग सही दिशा में लगाए जा सकते हैं? अगर हम कमियों को स्वीकार कर अपने तरीके लगातार सुधारते हैं, बिना मूड व उबाऊ बने, तभी शायद यह संभव है।
विष्णुकांत -- फैबइंडिया विद्यालय, बासी, ज़िला पाली, राजस्थान में अध्यापक।