अनीता रामपाल
सर जो तेरा चकराए, या पैर फिसले जाएं..
अगर धरती धूम रही है तो उसको घूमना हमें महसूस क्यों नहीं होता... इस सवाल ने अच्छे-अच्छों का सर चकराया है। जब आर्यभट ने कहा कि धरती घूमती है तो कई और खगोलशास्त्रियों ने इसे नकार दिया। हो सकता है कि आज ये तर्क हमें अजीब और मजेदार लगे पर उस समय तो ये अपने समय की समझ और मान्यता को प्रकट करते थे।
एक बार सवालीराम से इंद्रा ने पूछा था कि लोग कहते हैं। धरती घूमती है, लेकिन हमें महसूस क्यों नहीं होती?
संदर्भ (अंक-12) में इसका जवाब छपा था जिसका शीर्षक था 'गति सापेक्ष है'। सवालीराम ने बड़े मज़े-मज़े से समझाया था कि जैसे रेलगाड़ी में बैठे हुए कभी-कभी यह नहीं पता चलता कि वह चल रही है या नहीं उसी तरह धरती पर बैठे में उसकी गति को अहसास नहीं होता। क्या बात है कि हम धरती की तूफानी गति से बिलकुल वेबर हैं? हमें कोई कहे कि हम लगभग एक साथ किमी. प्रति घंटा की गति ( 31 किमी. प्रति सेकंड) से घूम रहे हैं तो चौंकना तो दूर, हमारा सर ही चकरा जाए। हम में से कितने हैं जो यह जानते थे या जिन्होंने अपने से पूछा था कि आखिर हमें यह सब महसूस क्यों नहीं होता। मज़े की बात है कि यह सवाल आज ही नहीं सैकड़ों सालों पहले से लोग पूछते आए हैं। इतिहास में जब-जब किसी ने सुझाया कि सूर्य धरती का चक्कर न लगाता बल्कि धरती स्वयं अपनी धुरी पर घूम रही है, यही सवाल बार-बार उठ खड़ा हुआ। और इसी से जुड़े कई अन्य सवाल भी जो वाकई अच्छे-अच्छों को चक्कर में डाल दें। इस लेख में हम इन्हीं सवालों पर चर्चा करेंगे और इतिहास के भूले बिसरे पन्नों से इन्हें जाकर अपनी समझ को कुछ रोशन करेंगे।
जब सवालीराम चकराए
एक बात पहले ही साफ करनी जरूरी है। धरती के घूमने की गुत्थी को सुलझाते हुए सवालीराम ने रेल के डिब्बे का उदाहरण दिया था। चलती गाड़ी में बैठकर गेंद को ऊपर उछाला था। फिर पूछा था कि गेंद वापस हाथ में ही क्यों आकर गिरती है। दरअसल इसका जवाब : देते हुए सवालीराम खुद भी कुछ चकरा गए थे। उन्होंने हवा की लंबी-सी दलील दी थी। कहा था, "बात यह है कि डिब्बा जब गतिशील है तो उसके अंदर की हवा भी उसी गति से चल रही है। इस लिए जब गेंद हवा में उछाली तो. वह भी उसी गति करती हवा में है जो डिब्बे के साथ है, और आप जिस तरह डिब्बे में बैठे-बैठे आगे बढ़ रहे हैं, हवा भी आगे बढ़ रही है। इसलिए जब भी गेंद नीचे गिरेगी आप ही के पास गिरेगी।”
यह तर्क सही नहीं है। हवा की यहां कोई भूमिका नहीं है। हवा हो या न हो, गेंद चलती गाड़ी में भी उसी जगह गिरेगी जैसे रुकी में। ..
...क्यों भई?
सवालीराम यह कहकर उलझ गए थे कि चलती गाड़ी में जब गेंद वापस आई तो "इस बीच गाड़ी कुछ आगे बढ़ी। दरअसल भ्रम यहीं से शुरू होता है। वास्तव में गाड़ी चल रही है इसलिए उसमें रखी हर चीज उसी गति से चल रही है। चप्पल, सैंडल, बोरिया, बिस्तरा - सभी उसी गति से उसी दिशा में बढ़ रहे हैं।(एक ही गति से चलती हुई ये चीजें आपस में स्थिर हैं चूंकि आपस में उनकी सापेक्ष गति शून्य है।) अब जब हम गेंद को ऊपर। उछालते हैं तो ऊपर जाने के साथ साथ गेंद गाड़ी की दिशा में भी गतिशील रहती है। गेंद जब नीचे गिरती है तो उतनी ही आगे बड़ी हुई होती है जितनी गाड़ी, और गाड़ी में पड़ी अन्य चीखें। गाड़ी की दिशा में गेंद और गाड़ी, दोनों की सापेक्ष गति वही रहती है -- शून्य। इसीलिए गेंद ठीक उसी जगह गिरती है, जैसे मानो गाड़ी चल ही न रही हो। गाड़ी समान गति से चल रही हो तो , उसके अंदर होने वाली क्रियाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा नहीं। होता तो सोचिए, हम भला पानी कैसे। उड़ेलते? बोतल से पानी उड़ेलते तो पानी : गिलास में न जाकर, कहीं और गिरता।
साइकिल और केला
क्या किसी स्थिति में ऐसा होते देखा है आपने? नहीं, गाड़ी के चलते ही या रुकते ही जैसी स्थितियों में तो बात दूसरी है - चूंकि वहां गति समान नहीं। पर समान गति से चलते कभी आपने पाया है कि चीज़ गिराओ कहीं। और गिरती कहीं और है? साइकिल पर चलते हुए मेरा निशाना कई बार चूक जाता है। हाथ में केले का छिलका लिए कूड़े के ढेर पर फेंकना चाहा पर छिलका बहुत आगे जाकर गिरा। नहीं, निशाना मेरा इतना खराब तों नहीं। केवल इस बात से बेखबर रहीं कि हाथ में पड़े छिलके और कूड़े की सापेक्ष गति 15 कि.मी. प्रति घंटा थी। यह ध्यान नहीं रहा कि छिलका भी साइकिल की गति से चल रहा है, इसलिए ठीक ढेर के सामने आकर फेंकेंगे तो छिलको आगे ही जाकर गिरेगा। निशाना सही लगाना है तो अपनी गति का अनुमान लगाकर छिलका कुछ पहले ही फेंकना होगा। इसका एक रोचक बन सकता है। लोग तेज़ी से दौड़कर या साइकिल पर आते हुए एक टोकरी में गेंद या पत्थर फेंककर देखें कि उनका निशाना कितना अच्छा है। यानी गेंद और टोकरी की सापेक्ष गति को वे कितना सही अनुमान लगा पाते हैं।
बाढ़ आने पर हवाई जहाज़ से भोजन की थैलियां गिराई जाती हैं तो पायलट को ऐसा ही अनुमान लगाना पड़ता है। जहाज़ की गति बहुत तेज़ होती है इसलिए केवल अनुमान नहीं पूरा गणित लगाना पड़ता है। मालूम करना पड़ता है कि उस ऊंचाई से गिरने में वस्तु को कितने मिनट (या सेकंड ) लगेंगे और उतने समय में जहाज़ (और उसमें पड़ी थैलियां ) कितना आगे बढ़ जाएगा। फिर उतनी ही दूर, पहले से भोजन गिराना पड़ता है। ताकि नीचे पहुंचने तक सही निशाने पर गिरे। और हां, जब हवाई जहाज़ बहुत ऊंचाई से बम गिराते हैं तो यह गणना और भी ध्यान से करनी पड़ती है। हवाई मामलों में कई बार पृथ्वी की गति का ध्यान भी रखना पड़ता है।
खैर, इन हवाई बातों को छोड़ अब लौट आएं धरती पर। बात उठी थी कि सवालीराम जी ने हवा का संदर्भ सही नहीं दिया था। रेल के डिब्बे में हवा होने से गेंद पर कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु पृथ्वी के घूमने में हवा को लेकर एक पेचीदा सवाल ज़रूर उठता है। अगर हमारी पृथ्वी लगभग एक लाख किमी. प्रति घंटा की गति से घूम रही है तो हमें हवा की आंधी क्यों महसूस नहीं होती? ऐसी साएं-साएं करती। तूफानी आंधी जो हमें धरती से ही उड़ा ले जाए? चूंकि जब हम हवा में हाथ घुमाते हैं तो हाथ पर हवा की हलचल महसूस होती है। फिर इतनी तेज़ घूमती पृथ्वी क्यों हवा में तूफान नहीं पैदा करती? सोचिए, कोई जवाब उठ रहा है मन में - चाहे वह समझ का छोटा-सा बुलबुला ही हो।
थोड़ा इतिहास भी
ठीक ऐसे ही सवालों का तूफान इतिहास में बार-बार उठा है। करीब डेढ़ हजार साल पहले जब आर्यभट ने सुझाव दिया था कि हमारी पृथ्वी घूमती है तो कई खगोलशास्त्री इस बात को पचा नहीं पाए थे। क्योंकि उस समय लोग यही मानते थे कि सूर्य ही पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमता है - आज भी । दिखता तो ऐसा ही है। उस समय भी कई खगोल शास्त्रियों और पंडितों ने यही तर्क दिया था कि जब हमें महसूस ही नहीं होता तो हम कैसे मान लें कि पृथ्वी घूम रही है। इतिहास के पन्नों और उन्हीं विद्वानों के ग्रंथों में झांककर देखते हैं कि वे लोग इस बारे में क्या सोच रहे थे, सवाल पूछ रहे थे।
पांचवी शताब्दी में आर्यभट ने अपनी किताब 'आर्यभटीय' में लिखा था कि पृथ्वी घूमती है और नक्षत्र स्थिर है। उन्होंने लिखा कि पृथ्वी 43,20,000 सालों में 1,58,22,37,500 बार घूमती है। एक श्लोक में वे कहते हैं---
अनुलोमगतिर्नौस्यः पयत्वलं विलोमगं बद्धत।
अचलानि भानि तदुत् सम्पद्धिमगानि लड्कावाम।।
(नौव-भाव में स्थित, भानि - तारे)
अर्थः एक आगे को चलती हुई नाव में बैठे व्यक्ति को (नदी किनारे की) स्थिर वस्तुएं पीछे को जाती दिखती हैं। उसी तरह लंका (भूमध्य रेखा पर) से स्थिर तारों को देखने पर वे तारे पश्चिम की ओर जाते नज़र आते हैं।
इस कथन का बहुत विरोध हुआ। कई पंडितों ने इस श्लोक का अलग मतलब निकाला। छठी शताब्दी के मशहूर खगोलशास्त्री वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक ‘पंचसिद्धोंतिका' में लिखा कि पृथ्वी तो अचल है, "दूसरे लोग कहते हैं कि पृथ्वी धूम रही है, जैसे कुम्हार के चक्के पर हो। वे कहते हैं कि नक्षत्र स्थिर है। यदि ऐसा होता तो पक्षी लौटकर अपने घोंसलों तक कैसे पहुंचते। और तो और, यदि पृथ्वी एक दिन में एक चक्कर लगा रही होती तो फिर सभी पतंगे, पक्षी आदि पश्चिम की ओर बह जाते। पर यदि पृथ्वी तेज़ नहीं धीरे धूम रही है तो फिर एक दिन में एक चक्कर कैसे पूरा कर लेती है?"
ब्रह्मगुप्त जैसे विख्यात खगोलशास्त्री भी आर्यभट से सहमत नहीं थे। सातवीं शताब्दी में ‘बाहमस्फुटसिद्धांत' में उन्होंने लिखा कि पृथ्वी धूम नहीं सकती। उनके तर्क और सवाल कुछ इस प्रकार थे -- यदि पृथ्वी घूमती होती तो कोई भी लौटकर पर नहीं आ सकता था। घर से बाहर जाता तो उस बीच उसका घर पूर्व दिशा में बहुत आगे बढ़ गया होता। यही नहीं, पृथ्वी इतनी तेज़ घूमती तो सभी बड़ी चीजें लुढ़क जातीं।
बताइए, आया न कुछ मजा? यह देखकर कि - बिलान भी वैसे ही सवाल उठा रहे थे जो आज हुम उठा रहे हैं। वे भी उन्हीं उलझनों में फंसे ये जिन से गाज भी हम कई बार धोखा खा रहे हैं। सवालीराम ने कहा गेंद के वापस नीचे गिरने तक गाड़ी कुछ आगे बढ़ गई होगी। यह वैसे ही है जैसे कहना कि पक्षी या इंसान के लौटने तक उसका.पर मालम न कितना आगे निकल गया होगा। इस शंका का स्पष्टीकरण तो अब आप कर ही सकते हैं। रेलगाड़ी वा पृथी पल रही हो तो फर्क नहीं पता कि उन पर पड़ी हर जीत उसी गति से चलती है, इसलिए पी ए जाने का सवाल ही नहीं उठता। पृथ्वी पर दि कई चीज़ गतिशील है तो . वास्तव में उसकी दो गतियां हैं - एक पृथ्वी की गति के कारण, और दूसरी उसकी अपनी गति (किसी अन्य कारण से )। जैसे ऊपर उछाली गई गैर ऊपर भी जाती है और पृथ्वी की दिशा में भी गतिशील है। या साइकिल पर से फेंका गया छिलका आगे भी बढ़ता है। (साइकिल की दिशा में उसकी गति के कारण ) और कूड़ेदान की तरफ भी जाता है (हमने उस दिशा में। फेंककर उसे गति प्रदान की )।
दरअसल यहां छिलके की एक गति नीचे की ओर भी है, चूंकि पृथ्वी उसे नीचे खींच रही है - इसीलिए वह नीचे गिरता है - पर अभी इससे ज्यादा परेशान मत होना। बात सिर्फ इतनी है कि पृथ्वी पर रहने वाले हम पृथ्वी की गति से काफी बेखबर रहते हैं। पृथ्वी की गति का असर नहीं देख पाते। क्योंकि क्रियाएं वैसी होती हैं मानो पृथ्वी घूम ही न रही हो - आखिर, सभी चीजें उसी गति से चल रही हैं। हां, और हवा का सारा आवरण भी पृथ्वी अपने साथ ही लेकर घूमती है। यह पृथ्वी के खिंचाव (गुरुत्वाकर्षण ) का कमाल है कि पूरा वायुमंडल उसके साथ घूमता। है। इसीलिए हमें वायुमंडल पृथ्वी के सापेक्ष स्थिर ही लगता है, पूमने से कोई तूफानी आंधी महसूस नहीं होती।
पृथ्वी के घूमने को लेकर सवालों का किस्सा शताब्दी-दर-शताब्दी चलता रहा। आठवीं शताब्दी में लल्ल खगोलशास्त्री ने लिखा,
“अगर पृथ्वी घूमती होती तो ऊपर को छोड़े गए सभी तीर पश्चिम की ओर गिरते। बादल हमेशा पश्चिम की तरफ चलते दिखते।"
आर्यभटीय पर व्याख्या करते हुए भास्कर (प्रथम) ने तो यह तक। कहा कि आर्यभट का आशय ही। अलग था। वे कह रहे थे कि हवा के ‘प्रवाह' से नक्षत्र पश्चिम को चलते हैं इसलिए हमें लगता है कि पृथ्वी घूम रही है। अधिकतर विद्वान आर्यभट के कथन का खंडन करते रहे। कई तो वेदों तक का सहारा लेते। वे कहते कि वेदों में दिया है पृथिवी प्रतिष्ठा' यानी पृथ्वी अचल है इसलिए आर्यभट और उनके साथियों का कथन वेदों और तर्क दोनों ही के विरोध में है। कुछ ही ऐसे विद्वान थे जिन्होंने पृथ्वी के घूमने का समर्थन किया। नौवीं शताब्दी में पृथुदका ने हिम्मत बांधकर साफ-साफ लिखा था, "लोकभय के कारण ही भास्कर आदि ने उस कथन की अलग व्याख्या दी। नक्षत्र तो स्थिर हैं। पृथ्वी के घूमने से ही रोज़ नक्षत्रों और ग्रहों का उदय और अस्त दिखाई देता है।"
यह वाद-विवाद, तर्क-वितर्क और सवाल-जवाब तो शतादियों तक चलता रहा। एक ही बात को लेकर कितना चिंतन हुआ। विज्ञान में अक्सर ऐसा ही होता रहा है कि एक नया क्रांतिकारी सुझाव वैज्ञानिकों की स्थापित मान्यताओं को कई बार झकझोर देता है, हिला देता है। ऐसी हलचल पैदा कर देता है कि मानो वैज्ञानिकों के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई हो। वे फिर अपने पहले के सिद्धांतों को कायम रखने की पुरजोर कोशिश करते हैं। किसी-न-किसी तर्क से, या प्रयोग से, वे साबित करना चाहते हैं कि उनके मान्य सिद्धांत ही सही हैं। इस खींचातानी में बंद वैज्ञानिक नए सुझाव की पैरवी करते हैं और उसके समर्थन में नए सबूत पेश करते हैं। अक्सर इस प्रक्रिया से गुजरकर ही नया सिद्धांत बनता है। एक विख्यात वैज्ञानिक ने इस कशमकश को व्यक्त करते हुए कहा । कि नए सिद्धांत तभी स्थापित होते हैं जब पुराने सिद्धांत के पक्षधर वैज्ञानिक गुजर जाते हैं और नई पीढ़ी के नौजवान शुरू से ही नए सुझाव का परिचय पाकर विषय में दाखिल होते हैं।
खैर, हम बात केवल वैज्ञानिकों की नहीं कर रहे। हमें तो एक गहरी चिंता है। यह कि हर नई पीढ़ी के बच्चे जब सबसे पहले यह सुनते हैं कि पृथ्वी तेजी से घूम रही है तो क्यों नहीं ढेरों सवाल उठाते। आखिर इस कथन ने तो अच्छे अच्छों को हिला दिया था। फिर हमारे सभी बच्चे इतने निष्क्रिय भाव से अपनी मूक स्वीकृति क्यों दर्शाते हैं। आखिर बच्चे तो हमेशा सवाल पूछने और नई बातें जानने की इच्छा रखते हैं।
क्यों नहीं तुरन्त पूछ बैठते कि 'अरे, पृथ्वी घूमती है तो हमें महसूस क्यों नहीं होता?' उनकी स्वाभाविक जिज्ञासा को हम किस तरह से कुंठित कर देते हैं? सोचिए, हमारी शिक्षा प्रणाली में आए दिन ऐसे कितने कथन सहज ही बच्चों पर थोप दिए जाते हैं। ऐसे कथन जो वास्तव में पचाने मुश्किल हैं। और जिनको पूरी तरह समझ पाना बड़े-बड़ों के लिए दुश्वार है। कम से-कम हुम खुलकर सवाल-जवाब, तर्क-वितर्क का माहौल ही बना पाते तो कक्षा में समझ विकसित करने का मौका मिल पाता।
दूसरा, कच्ची उम्र में कथनों की बौछार से बच्चे पहले से ही सहम जाते हैं। सोचिए, तीसरी या चौथी में रटाए गए कितने ही कथन होंगे। जिनको हम भी शायद ठीक से नहीं समझते। सवालों को उठने तो दें, अपने मन में भी, और बच्चों के । मन में भी। सवालों और उलझनों के मंथन से ही समझ की प्रक्रिया शुरू हो सकती है।
अनीता रामपालः होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से संबद्ध।