माधव केलकर
पढ़ाते समय शायद ही कभी हमारा ध्यान इस बात की ओर जाता हो कि हम कैसे पढ़ा रहे थें, कि उसके बारे में विद्यार्थियों की भी अपनी कोई सोच हो सकती है।
कक्षा में पढ़ते हुए गुरू शिष्य के बीच संबंध ऐसा होता है कि छात्र विषय से संबंधित सवालात तो गुरू से कर सकता है लेकिन शिक्षक क पढ़ाने के तरीके के बारे में कोई भी सवाल नहीं पूछ सकता या पूछना भी चाहे तो डर या संकोच के कारण ऐसा नहीं कर पाता।
अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मैं कक्षा आठवीं में अपने शिक्षक अरूण कुमार गुप्ता क पढ़ाने के तरीके को दूसरे शिक्षकों क पढ़ाने के तरीके से काफी अलग पाता था। मैं उनसे उस समय पूछना भी चाहता था कि उन्होंने इस तरीके का क्यों अपनाया लेकिन चाहकर भी नहीं पूछ पाया। आठवी पास करन के बाद मैंने सालभर पढ़ाने के उनके तौर-तरीके का अपने पास नोट करके रखा। अपनी आगे की पढ़ाई-लिखाई पूरी करते हुए भी मैं गुप्ता जी से बराबर मिलता रहा लेकिन फिर भी यह पूछने का साहस नहीं कर सका कि उन्होंने वे तरीके क्यों अपनाए थे।
ऐसा नहीं था कि गुप्ता जी को डराबने किस्म कमे शिक्षक हों। वे बेहद हंसमुख व्यक्ति हैं। एक शिक्षक होने के साथ-साथ वे खेल के मैदान पर भी काफी सक्रिय होते थे। छात्रों की मदद के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। मैंने अक्सर देखा कि खेल के मैदान से बाहर आने के बाद इक्का-दुक्का छात्र घेर लेते थे और अपनी पढ़ाई संबंधी समस्याएं पूछने लग जाते थे। और सर उनकी समस्याएं सुलझाने की कोशिश करते थे। विद्यार्थियों के बीच में वे काफी लोकप्रिय थे।
इस सबकी ज़रूरत इसलिए भी थी ताकि मैं यह बताने की कोशिश कर सकूं कि एक छात्र पढ़ते समय अपने शिक्षक के पढ़ाने के तरीके को किस रूप में लेता है। उन्की टिप्पणियों से यह पता चला कि उन तरीकों को लेकर गुप्ताजी की क्या समझ थी।
यहां मैंने पहले गुप्ताजी के पढ़ाने के तरीकों पर अपने अनुभव और अहसास रखे हैं। इसके बाद उनकी टिप्पणियां भी हैं।
लिपि की बला क्यों भला?
मेरा अनुभव . . .
कक्षा 8 वीं में पहला पीरियड कक्षा शिक्षक गुप्ता सर का होता था। उस पीरियड में हाजिरी के बाद सबसे पहले छात्र अपनी लिपि की कॉपियां खोलते थे। इस कॉपी के एक पेज पर लड़के हिन्दी मे कुछ लिखते थे और दूसरे पेज पर अंग्रेजी में कुछ लिखना होता था। इस लिपि अभ्यास के पीछे सर का मकसद लड़कों की हैंडराइटिंग सुधारना रहा हो तो मालूम नहीं लेकिन होता तो यही था कि जिनकी हैंडराइटिंग अच्छी होती थी वे उसी तरह लिखते रहते थे और जिनकी हैंडराइटिंग खराब होती थी वे उसी तरह खराब लिखते रहते थे। सुधार कुछ भी नहीं हो रहा था क्योंकि हम में से काफी लड़के इसे बला मानते थे लेकिन मार के डर से रोज़ एक-एक पेज लिखकर ले जाते थे।
कई बार तो मुझ यह भी लगता था कि सर कभी पिछले पन्नों पर नज़र भी डालकर नहीं देखते कि सुधार हो रहा है या नहीं। सासथ ही यह भी नहीं देखते कि लड़के रोज़ क्या लिखकर ला रहे हैं; रोज़ तारीख चेक की, दस्तखत किए और हो गई अपने कर्त्तव्य की इतिश्री। बस पेज भरा-भरा-सा दिखना चाहिए। चाहे ‘राम अच्छा लड़का है।‘ वाक्य ही बार-बार लिखकर हिन्दी वाला पेज भरा गया हो या को ही बार-बार दोहराया गया हो।
मुझे तो कई बार लगता था कि यदि लड़क चाहते तो विज्ञान, इतिहास, भूगोल आदि विषयों के प्रश्नोत्तर लिखकर भी हिन्दी व अंग्रेजी वाले पेज भर सकते थे और गुप्ताजी को लड़कों से वही करवाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। लड़के तो रोज़ एक पन्ना हिन्दी और एक पन्ना अंग्रेजी लिखकर दिखा देते थे ताकि मार खाने से बच सकें। कुछ लड़के तो स्कूल में आकर जल्दी-जल्दी लिपि के दो पन्ने भरते थे।
मैं लिपि के बारे में सर से पूछना चाहता थ कि कक्षा आठवीं में यह सब क्यों ज़रूरी है, जबकि उद्देश्य ही अस्पष्ट-सा लगता है। और साथ ही कुछ लड़के यह मानकर ही यह सब लिखते थे कि बस पेज ही तो ‘गोद’ रहे हैं।
गुप्ताजी ने कहा . . .
वैसे तो मैं गणित और विज्ञान का शिक्षक हूं भाषा का नहीं। इसलिए इन दिनों हिन्दी और अंग्रेजी लिपि लिखवाकर लड़कों की भाषा शैली सुधारना मेरा लक्ष्य नहीं था। मुझे लगता था कि लड़के थोड़ा आराम से लिखें, जमा-जमाकर सुंदर अक्षरों में लिखो। मैं चाहता था लड़के मेरे उद्देश्य का समझकर अपनी हैंडराइटिंग में सुधार लाएं।
कभी-कभी लड़कों की कॉपियां देखते समय मैं अपने नोअ भी जोड़ता था कि अमुक अक्षर ठीक से नहीं लिखा है या अमुक शब्द के हिज्जे गलत लिखे हैं। सिर्फ नई तारीख देखकर संतुष्ट नहीं हो जाता था। लड़कों ने क्या लिखा है यह भी देखता था।
दो-तीन सालों के बाद मैंने आठवीं में आने वाले लड़कों का यह छूट दी कि वे हिन्दी वाले पेज पर विज्ञान, भूगोल, इतिहास वगैरह के किसी प्रश्न का उत्तर या चाहे तो कोई भी कहानी, निबंध भी लिख सकते हैं। इसी तरह की छूट अंग्रेजी वाले पेज के लिए भी थी।
मैं सोचता था कि लड़के ने यदि अच्छी हैंडराइटिंग में ‘राम इज़ ए गुड बॉय’ लिखा है तब भी चलेगा। वह हैंडराइटिंग तो सुधार रहा है। मैंने ऐसी कॉपियों पर भी ‘वेरी गुड’ लिखकर उन्हें प्रोत्साहन किया था।
मेरे उद्देश्य को समझ न पाने के कारण लड़के लिपि को बला समझते थे। मैं यह भी जानता था कि कुछ लड़के कक्षा में पीछे बैठकर जल्दी-जल्दी पेज भरते थे। इसलिए अपन उद्देश्यों को पूरा न होते देखकर मैंने बाद के सालों में लिपि का यह चक्कर खत्म कर दिया था।
गणित अपनी तरह का . . .
मेरा अनुभव . . .
कक्षा में गणित की शुरूआत पर एक खास तरीके से करवाते थे। उदाहरण के लिए चक्रवृद्धि ब्याज के सवालों को ही लें। एक दिन सर प्रश्नावली 6 ए के दो-तीन सवाल ब्लैक बोर्ड पर करवा देते थे। कभी लड़कों में से कोई बोल पड़ता था ‘9 वां सवाल करवा दीजिए या 14 वां सवाल करवाइए, सर।‘ बोर्ड पर हल करवाए जा रहे सवालों में कभी-कभी लड़कों की मांग के सवाल भी शामिल होते थे। बस, बाकी प्रश्नावली लड़कों को अपने दम पर हल करनी होती थी।
बोर्ड पर सवाल हल करवाने के बाद सर सभी लड़कों की कॉपी में उस हल को ज़रूर देखते थे। इसके बाद लड़के उसी दिन से प्रश्नावली के सभी सवाल हल करने में जुट जाते थे। किसी से एक भी सवाल नहीं बन पड़ता तो कोई दो-चार सवाल हल कर लेता था, और कोई सारी प्रश्नावली ही हल कर लेता था।
जिस लड़के से जितने भी सवाल के हल बन पाते थे वह उन सवालों को लेकर सर के पास जाता था और हल की जांच करवाता था। सर उनके पास पहुंचे लड़कों की कॉपियों के सभी हल नहीं जांचते थे। मान लीजिए प्रश्नावली में पांच सवाल हैं और सर के पास पांच लड़के पांचों सवालों के सही हल लेकर पहुंचे तो सर पहले लड़के की कॉपी में सिर्फ पहला सवाल, दूसरे लड़के की कॉपी में सिर्फ दूसरा, तीसरे की कॉपी में सिर्फ तीसरा सवाल ..... जांचते थे। यानी पांचों लड़कों की कॉपी मे एक-एक हल ही जांचा गया है और इस तरह प्रश्नावली के सभी पांचों सवाल जांचे गए हैं। अब ये पांच लड़के अपने बिना जंचे हल आपस में एक-दूसरे से जंचवाते थे।
इस तरह इन पांच लड़कों की कॉपियों में पांचों सवाल जंच जाते थे। अब सर इन पांचों लड़कों की कॉपियां देखकर उन पर दस्तखत करते थे।
ये पांच लड़के कुछ और लड़कों की कॉपियों में हल देखते थे, ऐसे लड़कों क सवाल भी जिन्होंने प्रश्नावली के केवल एक-दो सवाल ही हल किए हों। किसी की कॉपी जांचने के लिए ज़रूरी नही था कि आपने पूरी प्रश्नावली हल की हो। जिस लड़के की कॉपी में एक सवाल का हल भी जांचा जा चुका है, वह लड़का उस सवाल का हल जांचने की पात्रता हासिल कर लेता था। यानी यदि दस्तखत हो चुके हैं तो कोई भी लड़का जिसका सवाल नं. 4 न जांचा गया हो मुझसे उस हल की जांच करवा सकता था। इस तरह सभी लड़कों को रोल नंबर दे रखे थे। लड़के साथियों के सवालों की जांच करते और सही या गलत का निशान या कोई शॉर्टकट तरीका नहीं चलता था क्योंकि किसी भी सवाल के हल का ‘मान्य’ तरीका सर का बताया गया तरीका ही होता था।
सर का काम बस इतना बचता था कि लड़कों की कॉपियों पर सही हल के नीचे रोल नंबर देखना और अपने दस्तखत करना।
इसी तरह प्रश्नावली 6वी, 6सी, 6डी आदि में भी सर एक-दो सवाल बोर्ड पर समझाते थे, लड़कों की कॉपियों में उतारे गए हल देखते थे और बाकी सवाल लड़कों को करने के लिए कहते थे। शेष प्रक्रिया पहले की तरह ही चलती थी। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि किसी प्रश्नावली में किसी एक सवाल का हल किसी से भी नहीं बन पाया तो सर उस सवाल को बोर्ड पर हल करवा देते थे।
इस तरह से प्रश्नावली दर प्रश्नावली हल करते जाते थे और जो सवाल किसी लड़के को समझ में नहीं आते उन्हें साथियों की कॉपियों से उतार लेते थे। कक्षा में एक ही समय कुछ लड़के प्रश्नावली 6डी के सवाल हल कर रहे होते थे तो कुछ लड़के प्रश्नावली 6ए के सवालों से जूझ रहे होते थे। और इस तरह गण्ति की प्रश्नावलियां चलती रहती थीं। सर बस इतना करते कि समय-समय पर अपने रजिस्टर में हरेक लड़के की स्थिति अने पास रखते थे ताकि समय आने पर हमारे पालकों या प्राचार्य को लिखित जानकारी दिखा सकें। मैं सर से जानना चाहता था कि इस तरह से गणित पढ़ाने के पीछे उनका क्या मकसद था?
गुप्ताजी ने कहा . . .
यह बात सही है कि मैं किसी प्रश्नावली से चुने हुए तीन-चार सवाल ही ब्लैक बोर्ड पर हल करवाता था। ये तीन-चार सवाल मैं ही चुनता था क्योंकि इन तीन-चार सवालों के आधार पर ही बाकी सवालों को हल किया जाना था। इन सवालों को हल करवाकर मैं लड़कों की कॉपियों देखता था कि लड़कों ने कितनी गम्भीरता से हल सवाल को उतारा है। कई लड़के कॉपी में हल उतारते समय गलतियां करते थे जैसे कोई स्टेप छोड़ देना, संख्याएं गलत लिखना, से.मी. मीटर, रूपए आदि उत्तर के साथ न लिखना। इन लड़कों से मैं दुबारा हल उतारने के लिए कहता था। मेरी लड़कों से ये अपेक्षा थी कि लड़के हल को समझकर ही कॉपी में उतारें। इसलिए इस तरह की गलतियां तो नहीं होनी चाहिए।
प्रश्नावली के बाकी सवाल लड़कों को करने के लिए कहता था ताकि जान सकूं कि हल सवालों को लड़कों न कितनी गहराई से समझा है। लड़के अक्सर कहते थे कि यह सवाल कठिन है तो मैं कहता था तुम कोशिश तो करो। देखें तुम कहां तक सही हल ढूंढ पाते हो और कहां से गलती शुरू होती है। इस तरह लड़के कठिन प्रश्नों को भी थोड़ा-बहुत ही सही लेकिन हल करके तो देखते थे।
मैंने कक्षा के सभी 60 लड़कों को 1 से 60 तक रोल नंबर दे रखे थे। लड़के जब प्रश्नावली के सवाल हल करके लाते तो मैं कुछ लड़कों की कॉपियां देखता और सवालों के हल में ज़रूरत के हिसाब से सुधार करता था और इन लड़कों से बाकी लड़कों के सवाल जांचने के लिए कहता था। इस तरह कक्षा के काफी लड़के अपने साथियों की कॉपी जांचने से लड़कों में आत्मविश्वास आएगा। और साथ ही यह भी लगता था कि गुरू-चेलों के बीच एक बड़े-छोटे का रिश्ता है इसलिए कई बार लड़के समझ में न आई बातों को शिक्षक से नहीं पूछते लेकिन अपने से अपनी समस्या पूछ सकते हैं। साथियों से कॉपियों की जांच करवाने के पीछे मेरा एक और उद्देश्य था कि लड़के एक ही सवाल को इतनी बार देख लेंगे तो सवाल उनक दिमाग में बैठ जाएगा। परीक्षा में वह सवाल करने में ज़्यादा दिक्कत नहीं होगी।
साथियों द्वारा सवाल जांचने के बाद भी मैं उस कॉपी पर एक नज़र डालता था ताकि देख सकूं कि कॉपी जांचने वाला कितनी सावधानी और जिम्मेदारी से सवाल का हल देख रहा है। कई बार मैंने देखा कि जांचने वाला लड़का असावधान है तो मैंने उसकी गलती दिखाकर बताया कि उसने गलती कहां की है।
यह बात भी सही है कि मैं प्रत्येक लड़के का लिखित रिकॉर्ड अपने पास रखता था – कि किस लड़के ने कौन-कौन सी प्रश्नावलियां हल नहीं की हैं। लेकिन यह रिकॉर्ड मेरी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए नहीं था। यदि मैं पालक या प्राचार्य को मौखिक रूप से भी कह दूं कि कोर्स करवा दिया है तो या पालकों के सामने पेश नहीं किया। वास्तव में यह रिकॉर्ड मेरे लिए उपयोगी था कि मैं 60 लड़कों की कक्षा में यह जान सकूं कि कक्षा में किस लड़के की क्या स्थिति है।
जहां तक यह सवाल है कि कक्षा में कुछ लड़के तो आगे की प्रश्नावलियां कर रहे होते थे और कुछ लड़के पिछली प्रश्नावली पर अटके होते थे, तो मैं यही कहना चाहूंगा कि पूरे सत्र दौरान सभी लड़कों को सभी प्रश्नावलियां करनी ही थी, इसलिए जब तक कोई लड़का पहले वाली प्रश्नावली हल नहीं कर लेता वह अगली प्रश्नावली पर कैसे जा सकता है?
मेरा गणित पढ़ाने का यह तरीका मेरे दूसरे साथियों से थोड़ा अलग था। मैंने यह तरीका इसलिए अपनाया था ताकि सत्र के दौरान पाठ्यक्रम के दबाव का सामना कर सकूं और लड़कों को साल भर पढ़ाई में लगाए रख सकूं।
जांच परीक्षाएं
मेरा अनुभव . . .
जनवरी-फरवरी के महीने तक पाठ्यक्रम पूरा हो चुका होता था। उसके बाद दस-बाहर दिनों तक रोज़ जांच परीक्षाएं होती थीं जिसमें गणित, अंग्रेजी और विज्ञान के कुछ सवालों को पूछा जाता था। आप अपनी कॉपी में सवाल हल कीजिए, हल को साथी देखेंगे, नंबर देंगे, फिर सर देखेंगे। बाद में लड़के जांच कॉपी घर ले जाएंगे और अपने पालकों को दिखाकर उनसे दस्तखत करवाएंगे। दूसरे दिन सर को कॉपी दिखाएंगे कि पालकों ने कॉपी देख ली है। कभी सर मुस्कुरा कर पूछते- ‘जोंरों की डांट पड़ी होगी न घर पर?’ मैं जानना चाहता थ इस तरह रोज़-रोज़ घर पर बेइज्जत करवाने करवाने के पीछे सर का उद्देश्य क्या होता था।
गुप्ताजी ने कहा . . .
मैं कक्ष में सामान्य किस्म के टेस्ट लेता था और प्राय: सारा पाठ्यक्रम खत्म होने पर ही ये थे टेस्ट लेता था। सवाल भी सामान्य किस्म के होते थे। मैं चाहता था कि लड़कों में ज़्यादा नंबर लाने की होड़ पैदा हो, एक प्रतियोगिता जैसा माहौल बन सके। जांच कॉपी पर पालकों के हस्ताक्षर करवाने का एक ही उद्देश्य होता था कि माता-पिता जान सकें कि उनका दुलारा कक्षा में क्या कर रहा है।
खतबाज़ी
मेरा अनुभव . . .
जांच परीक्षा के बाद एक साथी दूसरे साथी की साल भर की गणित, अंग्रेजी, विज्ञान की कॉपियां देखकर यह पता लगाने की कोशिश करते थे कि उनके साथी ने कौन-कौन सी प्रश्नावलियों के कौन-कौन से सवाल हल नहीं किए हैं या किन पाठों के कौन-कौन से अभ्यास छोड़ दिए हैं। फिर वह सर को इस बात की तत्काल जानकारी देता था और लड़के से एक खत लिखवाता था। खत का मजमून कुछ इस तरह होता था।
प्रति
प्राचार्य,
मैं . . . . . कक्ष 8वीं ‘स’ का छात्र हूं। मैंने गणित मे अमुक-अमुक प्रश्नावलियां पूरी नहीं की हैं। यदि मैं बोर्ड परीक्षा में फेल होता हूं तो इसकी सारी जिम्मेदारी मेरी होगी।
आपका आज्ञाकारी छात्र
इसी तरह गुप्ताजी द्वारा अंग्रेजी और विज्ञान विषय के लिए भी प्राचार्य के नाम खत लिखवाए जाते थे। सभी लड़के अपने साथियों की कॉपियां देखते समय न अपनी दोस्ती का ख्याल रखते थे, न अपने साथी को किसी तरह की रियायत देते थे। इसलिए 60 लड़कों में से शायद ही कोई ऐसा लड़का होता होगा जो ऐसा खत नहीं लिखता था।
मुझे लगता था कि इस तरह की खतबाजी से सर की स्थिति तो मज़बूत हो जाती थी कि उन्होंने तो सब पढ़ा दिया है लेकिन लड़कों ने काम पूरा नहीं किया है और पास फेल होने की जिम्मेदारी भी लड़कों की है। मैं सर से पूछना चाहता था कि वे यह खतबाजी करके हमें क्यों डराना चाहते थे? इस खतबाजी के पीछे उनका मकसद क्या होता था?
गुप्ताजी ने कहा . . .
प्राचार्य के नाम खत लिखवाने का उद्देश्य यह नहीं होता था कि मैं यह बताना चाहता हूं कि देखों मैं कितना साफ-सुथरा हूं। मैंने कभी भी खुद को या स्कूल को बचाने के लिए ऐसे खत नहीं लिखवाए। खत इसलिए लिखवाता था कि लड़कों को अहसास हो सके कि पूरे साल में उन्हें यह सब पढ़ना था, तैयार करना था और उन्होंने इस जिम्मेदारी को सही ढंग से नहीं निभाया है।
इन खतों के कारण कई लड़के दहशत में आ जाते थे कि उनकी कमियों का चिट्ठा लिखा गया है। लेकिन मैं फिर एक बार कहूंगा कि बच्चों को भयभीत करना मेरा उद्देश्य नहीं था। मैं सिर्फ लड़कों को उनकी जिम्मेदारी का बोध करवाना चाहता था।
और अंत में एक और बात कहूंगा कि मुझे ऐसा लगता था कि मेरी कक्षा में आने वाले लड़कों को मेहनती बनाया जाए। मैं लड़कों को साल भर किसी-न-किसी तरह पढ़ाई के कामों में उलझाए रखता था। कभी लिपि तो कभी साथियों की कॉपियां जांचना वगैरह। इस तरह लड़कों को कड़ी मेहनत करने की आदत पड़ जाती थी। मेरे पढ़ाने का उद्देश्य लड़कों का हित साधना था और इसके लिए मैं प्रयासरत था।
आज जब स्कूल के अनुभवों पर एक बार फिर नज़र डालता हूं। तो साफतौर पर दिखाई देता है कि शिक्षा के जमे जमाए ढांचे और पाठ्यक्रम के दबाव ने किस तरह हम छात्रों और हमारे शिक्षक को अपने शिकंजे में जकड़ रखा था। और इस शिकंजे के भीतर भी पढ़ाई को किसी तरह चलाए रखने के लिए कितने ही तरीके इजाद करने होते हैं शिक्षक को। इनमें से एक तरीका था – छात्रों का दूसरे छात्रों की कॉपियां जांचने में इस्तेमाल करना।
आज ऐसा महसूस होता है कि इस तरीके में भी कितनी संभावनाएं छुपी हैं। और इसका अधिक रचनात्मक उपयोग भी हो सकता है। बच्चों का अपने साथियों द्वारा सीखना भी एक रोचक पहलू है हमारी स्कूली शिक्षा के संदर्भ में, लेकिन वह सब किसी अन्य लेख का हिस्सा हो सकता है।
माधव केलकर : संदर्भ में कार्यरत।
अरूण कुमार गुप्ता, नवीन विद्या भवन शाला, जबलपुर, में विज्ञान एवं गणित पढ़ाते हैं।