विवेक प्रकाश

क्‍यों है नींद की ज़रूरत? किस तरफ इशारा कर रहे हैं शोध?

पुराने समय में नींद को अक्‍सर एक ऐसी अवस्‍था  समझा जाता रहा जिसके दौरान कुछ भी नहीं होता है। और यही प्रमुख कारण है जिसके चलते नींद से संबंधित अध्‍ययन उपेक्षित रहा।

नींद पर ज्‍़यादातर काम पिछले लगभग साठ सालों में ही हुआ। लेकिन इस काम ने उसके पहले की कई सदियों में हुए नगण्‍य काम की भरपाई कर दी। हालांकि सत्रहवीं सदी के आरंभ और अठारहवीं सदी के अंत में नींद पर कुछ सवाल उठे और कुछ अवलोकन इकट्ठे किए गए; परन्‍तु वे अध्‍ययन अन्‍य विषयों की शोध में उठे सवालों के कारण इस विषय में किए गए अव्‍यव‍स्थित काम से ज्‍़यादा कुछ नहीं थे। सत्रहवीं सदी में रोम के एक व्‍यक्ति ल्‍यूक्रेशियस और इटली के लूसिओं फोन्‍टानों ने सोए हुए बच्‍चों को ध्‍यान से देखकर अवलोकन इकट्ठे किए; जैसे नींद में बच्‍चों का बारी-बारी से मुंह बनाना और मुस्कुराना। इसी तरह अनय स्‍तनधारियों जैसे बिल्लियों के भी अवलोकन लिए गए। पर ये सभी अध्‍ययन केवल अवलोकन लेने तक सीमित थे, नींद के दौरान इस तरह के विचित्र व्‍यवहार के लिए कोई कारण देने या इसकी व्‍याख्‍या करने की कोशिशें नही की गई। नींद संबंधित शोध में महत्‍वपूर्ण मोड़ तब आया जब पुरथिडो नाम के एक शरीरक्रिया विज्ञानी ने कहा कि नींद क दौरान मस्तिक अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है।  1918 तक वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया कि सोने और जागने, दोनों का केन्‍द्र मस्तिष्‍क स्‍तंभ होता है। मस्तिष्‍क स्‍तंभ, यानी मस्तिष्‍क का वह हिस्‍सा होता है। पर ऊपर बताई गई खोज से पहले 1890 में ‘सांतियागों रामोन दे काजाल’ ने यह पता लगा लिया था कि तंत्रिका कोशिका (न्‍यूरॉन) मस्तिष्‍क की क्रियाशील और संरचनात्‍मक इकाई होती है। जो लाखों की संख्‍या में मौजूद होती है। ये  तन्त्रिकाणु यानी न्‍यूरॉन विद्युत और रासायनिक संकेतों द्वारा शरीर के विभिन्‍न भागों से संदेश लेकर मस्तिष्‍क तक और मस्तिष्‍क से विभिन्‍न भागों तक पहुंचाते हैं।

1.  तंत्रिका तंत्र की एक कोशिका अर्थात न्‍यूरॉन जिसमें ऊपर के डेंड्राइट जानकारी इकट्ठी करते हैं, बीच का लम्‍बा तारनुमा हिस्‍सा यानी एक्सन उसे नीचे के दूसरे छोर तक ले जाता है जहां यह संदेश दूसरे न्‍यूरॉन या किसी अन्‍य कोशिका तक पहुंचता है।

2.  एक तंत्रिका कोशिका का स्‍केनिंग इलेक्‍ट्रॉन माइ्क्रोग्राफ। उस पर कई एक्सन टिके हुए हैं जिससे कई जोड़ यानी कि साइनेप्‍स बनते हैं जिनके माध्‍यम से संदेश एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक पहुंचता है।

3.  न्‍यूरॉन और एक अन्‍य कोशिका के बीच का जोड़- साइनेप्‍स। न्‍यूरॉन के उत्‍तेजित होने पर विद्युत रासायनिक बदलावों के ज़रिए संकेत न्‍यूरॉन के छोर तक पहुंचता है। उसके कारण दोनों कोशिकाओं की बीच की जगह में नयूरॉन नयूरोट्रांसमिटर का रिसाव करता है। यह न्‍यूरोट्रांसमिटर दूसरी कोशिका का उत्‍तेजित करता है जिससे संकेत आगे बढ़ता जाता है।

तंत्रिका तंत्र का हर न्‍यूरॉन अपनी झिल्‍ली के आस-पास विद्युत आवेश इकट्ठा किए रहता है। जब एक न्‍यूरॉन अपने पड़ोस के न्‍यूरॉनों के रासायनिक संकेत द्वारा पर्याप्‍त रूप से उत्‍तेजित हो जाता है तो आयन (आवेशित कण) उसकी अर्ध पारगम्‍य झिल्‍ली के एक पार से दूसरे पार हो जाते हैं। आयनों की इस आवाजाही से न्‍यूरॉन के उस हिस्‍से में वोल्‍टेज अचानक बढ़ जाता है। वहां से शुरू होकर यह बदलाव न्‍यूरॉन के सिरे तक चला जाता है और इससे न्‍यूरॉन के सिरे पर कुछ रासायनिक पदार्थों का रिसाव होता है। ये रसायन, न्‍यूरोट्रांसमिटर कहलाते हैं। न्‍यूरोट्रांसमिटर का यह रिसाव उस जगह होता है जहां एक न्‍यूरॉन दूसरे न्यूरॉन या अन्‍य किसी कोशिका से जुड़ा होता है। इस जोड़ को साइनेप्‍स भी कहते हैं जहां दोनों के बीच में थोड़ी जगह होती हैं। यह न्‍यूरोट्रांसमिटर उस दूसरे नयूरॉन को उत्‍तेजित करता है जिससे उसमें भी वोल्‍टेज परिवर्तन हो जाता है और इस तरह वोल्‍टेज परिवर्तन की इस लहर के द्वारा संकेत आगे बढ़ता रहता है। ये नयूरोट्रांसमिटर दो तरह के होते हैं– उत्‍तेजक (जैसे ऐसिटाइल कोलिन) या निरोधक (जैसे सेरोटोनिन)। कौन से न्‍यूरोट्रांसमिटर का रिसाव हुआ है उसी से तय होता है कि वोल्‍टेज में बदलाव तन्त्रिका कोशिकाओं के आर-पार तेज़ी से जाएगा या धीमे-धीमे।

1928 में हैंन्‍सबर्गन ने पहली बार सफलता पूर्वक विद्युत संकेत रिकॉर्ड किए थे। यह रिकॉर्ड ई.ई.जी. (इलेक्‍ट्रोएनसेफैलोग्राम) के नाम से जाने गए। कुछ ही समय बाद मानव मस्तिष्‍क का ई.ई.जी. रिकॉर्ड किा गया। इससे मानव नींद के निम्‍नलिखित प्रकार और प्रकृति रिकॉर्ड की गई (देखिए तालिका)।

नींद के दौरान मस्तिष्‍क : नींद के दौरान मस्तिष्‍क सुषुप्‍त नहीं होता। ई.ई.जी. के ज़रिए पता चलता है कि जागृत अवस्‍था में सचेत व्‍यक्ति की तंरगों व रेम नींद के दौरान पाई जाने वाली तरंगों में कोई ज्‍़यादा अंतर नहीं होता। रेम नींद यानी वह अवस्‍था जिसके दौरान अधिकतर सपने दिखते हैं। इस अवस्‍था के दौरान हदय की धड़कन, श्‍वसन दर और ब्‍लड प्रेशर काफी अनियमित हो जाते हैं। एक और महत्‍वपूर्ण परिवर्तन होता है – शरीर रेम नींद के समय तापमान नियंत्रण बंद कर देता है। रेम नींद की तुलना में रेम रहित नींद की विभिन्‍न अवस्‍थाओं के दौरान तरंगों का आयाम ज्‍़यादा होता है परन्‍तु आवृत्ति कम।

इस ई.ई.जी. से कुछ जिनसे पता चला कि नींद को सक्रियता के चक्रों मे बांटा जा सकता है। हर चक्र 90 से 100 मिनट का होता है; और हर चक्र में मस्तिष्‍क की सक्रियता धीरे-धीरे बढ़ती है और चक्र मस्तिष्‍क की उन्‍मत्‍त क्रिया यानी रेम नींद द्वारा खत्‍म होता है।

जैसे ही नींद लगती हे नींद का पहला चक्र शुरू हो जाता है। चद सेकंड से कुछ मिनट तक तालिका में अवस्‍था 1 में दर्शाई गई कम आवृत्ति व आयाम की तरंगे पाई जाती हैं। इसके पश्‍चात अवस्‍था-2 नुमा अधिक आवृत्ति व आयाम की तकलीनुमा तरंगे कुछ समय तक देखने में आती हैं। फिर शुरू होती हैं अवस्‍थ-3 व 4 की धीमी डेल्‍टा तरंगे। प्रत्‍येक 90-100 मिनट के एक चक्र में यह हिस्‍सा सबसे लम्‍बा होता है। और फिर अंत में आती हैं रेम नींद की तरंगें। रात में सात-आठ घंटे की नींद के दौरान सामान्‍यत: ऐसे चार-पांच चक्र पूरे हो जाते हैं।

एक ओर तरह से भी नींद को दो हिस्‍सों में बांटा जाता है – रेम (आर.इ.एम.- रेपिड आई मूवमेंट) नींद जिसमें आंख की पुतली तेज़ी से हिलती है, और दूसरी रेम रहित नींद। रेम नींद में पुतलिया इसलिए हिलती-डुलती रहती हैं क्‍योंकि इस अवस्‍था में मस्तिष्‍क की क्रियाशीलता सबसे ज्‍़यादा होती है। यही वह अवस्‍था है जब सपने दिखते हैं। रेम नींद में शरीर क मांसपशियां शिथिल पड़ जाती हैं; और इसलिए क्रियाशील नहीं होती। अगर ऐसा न होता तो शायद हम नींद में सपनों के हिसाब से क्रियाकलाप शुरू कर देते जिससे काफी मुश्किलें खड़ी हो जातीं।

ऊपर हमने जिन चार अवस्‍थाओं की बात की, वे सब रेम रहित नींद का हिस्‍सा हैं। 90-100 मिनट का हर चक्र रेम नींद से खत्‍म होता है। यही वह हिस्‍सा है जिसे पहले उन्‍मत्‍त क्रिया कहा गया है।

नींद और न्‍यूरोट्रांसमिटर
जैसा कि पहले बताया गया है न्‍यूरोट्रांसमिटर रसायन – जो मस्तिष्‍क में संचार के मुख्‍य अवयव होते हैं- नींद में भी उतनी ही महत्‍वपूर्ण भूकिमा निभाते हैं। निरोधक न्‍यूरोट्रांमिटर जैसे सेरोटोनिन और नारनेफरिन रेम विहीन नींद में बुनियादी भूमिका निभाते हैं; जबकि उत्‍तेजक न्‍यूरोट्रांसमिटर जैसे ऐसीटाइलकोलिन रेम नींद की विभिन्‍न अवस्‍थाओं के हिसाब से‍ निश्चित अंतराल पर शारीरिक जैविक घड़ी के ज़रिए इन न्‍यूरोट्रांसमिटर का रिसाव होता है और इसी के अनुसार ये शायद नींद को नियंत्रित करते हैं।

कैसे आती है नींद
हमें नींद कैसे आती है इसके बारे में काफी सोच विचार और कार्य हुआ है। सूक्ष्‍म कोशिकीय स्‍तर से लेकर वातावरण के वृहद असर तक की व्‍याख्‍याएं दी गई, पर से सब अक्‍सर वैज्ञानिकों के अपने मनपसंद पूर्व अनुमानों पर ही आधारित थीं।

प्रारंभ में वैज्ञानिकों ने कहा कि कुछ सूक्ष्‍म जीवाणु नींद पैदा करते हैं और ये जीवाणु ही नींद के लिए महत्‍वपूर्ण हैं। शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि अगर एक प्राणी को लंबे समय तक जगा कर रखा जाए तो, मेरूरज्‍जु के द्रव में बैक्‍टीरियल प्रोटीन जमा होने लगते हैं।

क्रगर और उनके साथ काम कर रहे लोगों ने सुझाया कि ये प्रोटीन जागने के घंटों में जमा होते हैं और फिर इन्‍हीं से नींद आती है जिसके दौरान ये इस्‍तेमाल होकर खत्‍म होते रहते हैं। अगले दिन फिर से दिन में जमा होते हैं और रात को खत्‍म। लगभग एक किलो ऐसे बैक्‍टीरिया हमारी आहार नली और आंतों आदि में रहते हैं जो नींद उत्‍पन्‍न करने वाले प्रोटीन की आपूर्ति करते हैं। जब किसी व्‍यक्ति को बैक्‍टीरियल लीपोपोली- सेकेराइड का इंजेक्‍शन दिया जाता है तो इसका ज्‍़यादातर हिस्‍सा शुरूआती नींद चक्र के दौरान इस्‍तेमाल हो जाता है। कम मात्रा में दिए जाने पर तो नींद ठीक-ठाक रहती हे पर ज्‍़यादा मात्रा देने पर अस्थिर और अशान्‍त हो जाती है।

हमारा रोज़मर्रा का अनुभव भी यही कुछ बताता है। जब हमें थोड़ा-सा जुकाम होता है तो सोने की ज़ोरदार् इच्‍छा होती है पर जब तेज़ बुखार होता है तो नींद बिल्‍कुल नहीं आती। ऐसी इसलिए होता है क्‍योंकि जुकाम के समय शरीर में कम बैक्‍टीरिया जमा हुए होते हैं पर तेज़ बुखार के समय ज्‍़यादा।

सूक्षम जीवाणुओं का मस्तिष्‍क से संबंध ज़रूर है। वियेना के एक मनो-चिकित्‍सक जूलियस जारेगा ने, सिफलिस नामक यौन रोग से पागल हो चुके एक रोगी के इलाज के लिए, उसे मलेरिया के रोगाणुओं के इंजेक्‍शन दिए। मलेरिया से उसके मरीजों का पागलपन ठीक हो जाता था। उसका कहना था कि ऐसा करने से बुखार आता है जो ऐसे रोगियों के लिए लाभदायक हे। उन्‍हें 1927 में नोबल पुरस्‍कार मिला और वे आज तक भी एक मात्र मनोचिकित्‍सक हैं जिन्‍हें चिकित्‍सा विज्ञान का नोबल पुरस्‍कार मिला है।

जर्मनी मे आज भी अनेकों लोग मानसिक अवसाद के इलाज के लिए खुद को बैक्‍टीरिया के इन्‍जेक्‍शन लगवाते हैं हालांकि इस इलाज की निश्चित प्रभावशीलता की जानकारी के लिए अभी भी शोध होना बाकी है। पर यह माना जाता है और कुछ हद तक सिद्ध किया गया है कि प्रतिरक्षा तन्‍त्र एक पदार्थ साइटोकाइन का उत्‍पादन उस समय करता है जब सूक्ष्‍मजीवाणु शरीर में घुसते हैं। साइटोकाइन अणु विभिन्‍न प्रतिरक्षा कोशिकाओं तक रोगाणुओं की सूचना पहुंचाते हैं। अ यह साबित हो चुका है कि साइटोकाइन मस्तिष्‍क पर भी असर डालता है।

ज़रूरी नींद : जैसे जैसे बच्‍चे बड़े होते हैं चौबीस घंटे की अवधि में नींद का क्रम और कुल नींद की आवश्‍यकता दोनों बदलते हैं। एक नवजात शिशु को दिन भर में 16-18 घंटे नींद की ज़रूरत होती है। उसके बाद नींद की अवधि लगातार घटती जाती है। वयस्‍क को केवल सात-आठ घंटे नींद की आवश्‍यकता होती है। बुजुर्ग लोग एकसाथ लम्‍बी नींद नहीं ले सकते, इसलिए रात में कम सोते हैं परन्‍तु शैशवकाल की तरह दिन में एकाध बार झपकी ज़रूर ले लेते हैं।     

नींद और शरीर तापमान
यह भी दिखाया गया है कि हमारे शरीर का तापमान दिन भर में डेढ़ डिग्री फेरेनहाइट तक बदलता है। अधिकतम तापमान सुबह के समय होता है और न्‍यूनतम नींद के दौरान। वैज्ञानिक इन सारी जानकारियों को इकट्ठा करके नींद की संपूर्ण व्‍याख्‍या देने की कोशिश में हैं। यह अभी देखा जाना बाकी है कि अन्‍य कौन-कौन से कारक हैं जो नींद आने और टूटने के लिए जि़म्‍मेदार होते हैं।

नींद का विकास
एक नवजात शिशु दिन में लगभग सोलह सत्रह घंटे सोता है जिसमें से आधी रेम नींद होती है। 12-15 साल की उम्र आते-आते नींद केवल आठ घंटे की रह जाती है; जिसका सिर्फ चौथाई हिस्‍सा ही रेम नींद का होता है। इसका अर्थ है कि एक वयस्‍क की तुलना में नवजात शिशु में रेम नींद की अवधि चौगुनी होती है। इसका क्‍या कारण है?

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा इसलिए ज़रूरी है क्‍योंकि रेम नींद मस्तिष्‍क के विकास के लिए महत्‍वपूर्ण होती है। और साथ ही मस्तिष्‍क के वे हिस्‍से जिनकी वज़ह से रेम नींद आती है शैशव में ही विकसित हो चुके होते हैं, जबकि रेम रहित नींद के लिए जिन हिस्‍सों की ज़रूरत होती है वे अभी विकसित हो रहे होते हैं।

नींद और अन्‍य प्राणी
कई जंतु तो उसी तरह सोते हैं जैसे कि मनुष्‍य। पर कुछ अन्‍य जंतु उस तरह नहीं सोते जिसे हम ‘नींद’ कहते हैं- ये जानवर सुषुप्‍त अवस्‍था में चले जाते हैं और लम्‍बे अर्से तक निष्क्रिय हो जाते हैं। परन्‍तु डॉलफिन जैसे कुछ प्राणियों में खास तरह की नींद पाई जाती है जिसे शायद अर्धनिद्रा कहा जा सकता है क्‍योंकि एक बार में केवल मस्तिष्‍क का आधा हिस्‍सा नींद में जाता है और शेष आधा सक्रिय रहता है। उसके बाद पहले वाला हिस्‍सा सक्रिय हो जाता है और दूसरा आधा नींद में चला जाता है। और इस तरह बारी-बारी से आधे-आधे गोलार्ध के निद्राधीन हो जाने से यह प्राणी अपनी नींद पूरी करता है।

लगभग सभी प्राणी सोते हैं या सुषुप्‍त या निष्क्रिय अवस्‍था में जाते हैं इसलिए नींद की कुछ न कुछ आवश्‍यकता तो होती ही होगी। आइए अब देखने की कोशिश करें कि नींद ज़रूरी क्‍यों है।

किस काम की है यह नींद
नींद का सबसे स्‍वाभाविक महत्‍व, शरीर को आराम देना ही लगता है। परनतु यह बहुत से महत्‍वों में से केवल एक है। नींद के शायद इससे अधि‍क गूढ़ अनकों कार्य हैं जिनकी व्‍याख्‍या इतनी आसान नहीं है। अभी तक की शोध से जिनकी तरफ इशारा मिला है उनकी बात तो कर ही सकते हैं।

  1. न्यूरोट्रांसमिटर रसायनों की आपूर्ति: न्यूरोट्रांसमिटर शारीरिक संचार व्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, अत: इनका दिन भर इस्‍तेमाल होता रहता है। सोते समय इनका निर्माण होता हे और ये न्‍यूरोट्रांसमिटर वापस कोशिकाओं में संग्रहित हो जाते हैं। न्‍यूरोट्रांसमिटर रसायनों की आपूर्ति ज़रूरी है यह तब साबित हुआ जब पता चला कि अगर किसी प्राणी को लंबे समय तक जगाए रखा जाए तो उसे दूरी और गहराई का अंदाजा ठीक से नहीं लगता यानी कि इनके बारे में वे भ्रमित होने लगते हैं।

  2. ऊर्जा का संरक्षण: यह पहलू भी महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि मनुष्‍य व अन्‍य प्राणियों के पास ऊर्जा के कभी न खत्‍म होने वाले भंडार उपलब्‍ध नहीं हैं। स्‍वाभाविक है कि सोते समय तुलनात्‍मक रूप से कम ऊर्जा खर्च होती है।

  3. याद्दाश्‍त का स्‍थापन: नींद की शायद सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका याद्दात स्‍थापित और सुदृढ़ करने की ही है। कारलाइल स्मिथ ने रेम नींद और याद्दाश्‍त से इसके संबंध के ऊपर काफी काम किया है। उन्‍होंने दिखाया कि चूहों ने जब कोई नई चीज़ सीखी तो उसके बाद काफी लंबे समय के लिए रेम में चले गए (जैसे बिजली के तारों वाले एक पिंजरे में विद्युत झटके से बचना सीखने के बाद) – इसी तरह कॉलेज के विद्यार्थियों ने हफ्ते भर इम्तिहान के लिए ज़ोरदार पढ़ाई के बाद लंबी रेम नींद ली। इस अध्‍ययन का सबसे महत्‍वपूर्ण हिस्‍सा यह था कि नई चीज़ सीखने या पढ़ने के बाद अगर बाहरी विध्‍न द्वारा रेम नींद न लेने दी जाए तो जो कुछ उनहोंने सीखा या पढ़ा होता है वो उन्‍हें याद नहीं रहता। उन्‍हें यह तो याद रहता है कि उन्‍होंने क्‍या सीखा था पर यह भूल जाते हैं कि उसे कैसे किया जाता है।

ऐसा लगता है कि नींद द्वारा ही दिन भर में इकट्ठी की गई अस्‍थाई या छोटे समय की यादों को लंबे समय की यादों में तब्‍दील किया जाता है। शोधकर्ताओं को आज तक यह नहीं पता चल पाया है कि ऐसा होता कैसे है।

नींद की गड़बडि़यां
क्‍योंकि हमें नींद आती है इसलिए यह संभावना तो रहती ही है कि हमें उस समय नींद न आए जब उसकी ज़रूरत हो या जो नींद आने का स्‍वाभाविक समय हो। अगर यह समस्‍या कुछ ही समय के लिए हो तब तो ठीक है – पर अगर यह समस्‍या लगातार बनी रहे तो यह नींद की गड़बड़ी की तरफ इंगित करती हैं।

नींद की गड़बडि़यां मुख्‍यत: तीन प्रकार की होती हैं।

  1. अनिद्रा: अनिद्रा यानी नींद न आना या बहुत कम आना। अनिद्रा के कारण और इलाज़ की खोज़ के बारे में काफी प्रयत्‍न हुए हैं। कारणों की सही व्‍याख्‍या, उच्‍चरक्‍त चाप, बड़ी उम्र व कुछ बीमारियों के रूप में की गई है, परन्‍तु इलाज के लिए आज तक कुछ भी संतोषजनक नहीं सुझाया जा सका है।

हाल ही में बोरिस परशे नाम के एक चिकित्‍सक और आविष्‍कारक ने अनिद्रा का एक काफी अलग किस्‍म का इलाज खोजा है। वे अपने मरीजों को एक लालीपॉप चूसने को देते हैं जिसमें से मोबाइल (सेल्‍युलर) फोन के मुकाबले सौ रेडियों तरंगें निकलती हैं। वैज्ञानिक अभी इस तरीके के काम करने और इसकी प्रभावशीलता को लेकर विश्‍वस्‍त नहीं हैं और उनहें ये भी हैरानी है कि  मस्तिष्‍क इतनी कमज़ोर आवृत्ति पकड़ कैसे लेता है। पर इस उपकरण से एकदम सामान्‍य और निर्विघ्‍न नींद आती आने वाली नींद जैसी नहीं होती जिसमें कि सुबह उठने पर भारीपन बना रहता है।

  1. अतिनिद्रा: अतिनिद्रा: का मरीज़ हद से ज्‍़यादा देर तक सोता रहता है। हर समय सोते रहने की इच्‍छा होती है जिसे नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होता।
  2. नारकोलेप्‍सी: नींद की इस गड़बडी में श्‍वसन नही सिकुड़ जाती है और मरीज़ की दम घुटने से मौत भी हो सकती है।

नींद जितनी साधारण-सी चीज़ लगती है, उतनी है नहीं। इस प्रक्रिया में मस्तिष्‍क की एक जटिल क्रियाविधि, मस्तिष्‍क का बाकी शरीर और बाहरी वातावरण से परस्‍पर संपर्क शामिल रहते हैं। नींद और मस्तिष्‍क के कार्यो की एक बहुसमावेशक समझ समझ और सिद्धांत विकसित होने अभी बाकी हैं।

काम हालांकि काफी हुआ है पर उससे सुझावों व परिकल्‍पनायों के कुछ टुकड़ों के अलावा कुछ खास नहीं निकल पाया है। नींद की समझ जागते समय चलने वाली प्रक्रियाओं की समझ के लिए भी ज़रूरी है। हम जि़दगी के औसतन 20-30 साल सो कर गुजारते हैं तो हमारे जगने वाले समय को नियंत्रित करने में इसका कुछ न कुछ महत्‍व तो होगा ही।


विवेक प्रकाश: विज्ञान में स्‍नातक, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन एंड कम्‍युनिकेशन’ से संबद्ध।

मूल लेख अंग्रेजी में। अनुवाद: शशि सक्‍सेना; दिल्‍ली के दीनदयाल उपाध्‍याय कॉलेज में रसायनशास्‍त्र पढ़ाती हैं।