सवाल: हमारी नाक में विभिन्न प्रकार की गंध का अहसास किस प्रकार होता है?
जवाबः चूंकि हमें गंध का अहसास होता है इसलिए ज़रूरी है कि नाक के भीतर कोई तरीका होगा जो गंध की पहचान कर सके। अक्सर कहा जाता है कि बहुत से अन्य प्राणियों की तुलना में हमारी नाक की गंध के प्रति संवेदनशीलता अत्यन्त सामान्य है, फिर भी देखिए हम क्या-कुछ सूंघ कर पता कर लेते हैं।
गर्मी के बाद बरखा के पहले झोंके के साथ नाक में समाने वाली मिट्टी की सोंधी सुगंध, फूलों-फलों की महक, ज़ायकेदार खाने की गमक और भी न जाने कई चीजें इस सूची में शुमार हो जाएंगी। यानी कि हमारा अवलोकन कहता है कि नाक द्वारा विभिन्न गंधों को पहचानने का दायरा काफी विस्तृत है।
लेकिन सवाल है कि कैसे फर्क करती है हमारी नाक इन तमाम तरह की गंधों में। आगे बढ़ने से पहले एक बात शुरू में ही साफ कर दें कि नाक द्वारा गंध पहचानने की पूरी प्रक्रिया को समझने की कोशिश आज भी जारी है। कई पहलुओं के बारे में जानकारी पर्याप्त है और कई के बारे में अभी भी विवाद, बहस और खोजों का सिलसिला चल रहा है।
चित्रः 1- किसी खुशबूदार पदार्थ के अणु गैसीय रूप में नाक के भीतर जाते हैं और नाक की गंध के प्रति संवेदनशील कोशिकाओं के सम्पर्क में आते हैं। सम्पर्क में आए इन अणुओं की सूचना तंत्रिकाओं के माध्यम से दिमाग के ओलफैक्ट्री बल्ब तक पहुंचती है। यहां सूचना की जांच-पड़ताल होती है और एक जटिल परिपथ से होते हुए सूचना दिमाग के उस बाहरी हिस्से में पहुंचती है जहां पर यादों को संजो कर रखा जाता है (सेरिब्रल कॉर्टक्स)। सेरिब्रल कॉर्टेक्स में भी एक विशेष क्षेत्र होता है जो इस गंध को पहचानता है।
रास्ते की तलाश
शुरुआत में कुछ चित्रों के सहारे यह समझने की कोशिश करेंगे कि गंध की पहचान करने में कौन से हिस्से भूमिका निभाते हैं और नाक से शुरू होने वाली प्रक्रिया कहां-कहां से होती हुई आखिर कहां तक पहुंचती है।
हमारी नासिका गुहा में लाखों की संख्या में ऐसी कोशिकाएं रहती हैं। जो गंध के प्रति संवेदनशील होती हैं। इन्हें ओलफैक्ट्री कोशिकाएं कहते हैं। इन कोशिकाओं से होकर संवेदनशील ग्राहक (Receptors) नाक की ओर खुलते हैं। इन बालनुमा रचनाओं को सिलिया (Cilia) कहा जाता है।
सिलिया को हमेशा गीला रखने के लिए ओल-फैक्ट्री कोशिका में ग्रंथियां होती हैं, जो लगातार एक तरल म्यूकस स्रावित करती हैं।
ये सब वे हिस्से हैं जहां से गंध का अहसास शुरू होता है। इस पहले कदम की प्रक्रियाओं की वजह से हमारी
चित्रः 2 -- ऊपर के चित्र में ओलफैक्ट्री बल्ब और नीचे उसका एक हिस्सा बड़ा करके दिखाया गया है - जिसमें सिलिया, ओलफैक्ट्री तंत्रिका आदि दिख रहे हैं। इन सभी भागों का संबंध गंध को महसूस करने से है। गंध के प्रति संवेदनशील कोशिका का अंतिम सिरा अत्यंत संवेदनशील सिलिया है जो रेशेदार होते हैं। सिलिया हमेशा एक तरल म्यूकस की परत से ढंके रहते है। जैसे ही किसी खुशबूदार पदार्थ के अणु नाक से होकर, म्यूकस में घुलकर सिलिया के सम्पर्क में आते हैं, सिलिया इस पदार्थ की सूचना नाक की हड्डी के दूसरी ओर स्थित ओलफैक्ट्री बल्ब तक पहुंचाते हैं। ओलफैक्ट्री बल्ब से परिष्कृत सूचनाएं दिमाग की ओर जाती हैं। यूं तो सारी प्रक्रिया काफी जटिल और समय लेने वाली लगती है लेकिन गंध का अहसास एक मिली सेकंड से भी कम समय में हो जाता है।
चित्रः 3- सिलिया का इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से लिया गया एक चित्र। इसमें सिलिया की संवेदनशील बालनुमा रचना दिखाई दे रही है। आमतौर पर गंध के प्रति संवेदनशील प्रत्येक कोशिका पर ऐसे 6 से 12 महीन बाल होते हैं। इनकी लम्बाई लगभग 200 माइक्रोमीटर और मोटाई 0.3 माइक्रोमीटर होती है।
नाक की गंध सूंघने की सीमाएं तय हो जाती हैं कि हम क्या सूंघ सकते हैं, और किन पदार्थों की गंध का अहसास हमें कभी भी हो ही नहीं सकता।
पहली, सिर्फ वे ही पदार्थ जो एक हद से ज्यादा वाष्पशील हों हमारी नाक तक पहुंच सकते हैं, ताकि हवा के माध्यम से नाक में घुस सकें। इसीलिए दुनिया की बहुत सी चीजों की गंध का हमें पता ही नहीं चलता, चाहे वह पत्थर के टुकड़े हों, हमारे आसपास बिखरी हुई धातुएं हों, प्लास्टिक हो या और भी बहुत कुछ ...
दूसरी, नाक में घुसने वाला वाष्पशील पदार्थ कम-से-कम पानी में थोड़ा-बहुत तो घुलनशील होना चाहिए, ताकि म्यूकस में घुलकर सिलिया तक पहुंच सके, क्योंकि सिलिया म्युकस में डूबे रहते हैं।
तीसरी, वे वाष्पशील पदार्थ जो नाक के भीतर पहुंच रहे हैं वसा अम्लों के ईस्टर (lipid) में भी घुलनशील
हों यह जरूरी हो जाता है क्योंकि सिलिया की झिल्ली पर मौजूद प्रोटीन इन घुलनशील पदार्थों के साथ बंध बनाता है जिससे आगे की प्रक्रिया हो पाती है। अघुलनशील पदार्थों को प्रोटीन निकाल बाहर करता है।
जो भी वाष्पशील पदार्थ इन तीनों शर्तों को पूरा करेगा नाक उसकी गंध पर ही आगे की कार्यवाही करेगी।
गंध पहचाने की प्रक्रिया
गंध देने वाले पदार्थ के अणु हवा के साथ नाक में भीतर तक चले आते हैं और तरल म्यूकस में घुलकर सिलिया के सम्पर्क में आते हैं। इसके बाद एक रासायनिक क्रिया शुरू होती है। सिलिया पर मौजूद प्रोटीन म्यूकस में घुलकर आए इन अणुओं के साथ बंध बना लेता है। ऐसा भी माना जाता है कि सिलिया को उत्तेजित करने के लिए इस तरह के बंध बनना जरूरी है।
सिलिया की कोशिका झिल्ली की बाहरी सतह पर धन आवेश होता है
चित्रः 4 - झिल्ली के बाहर सोडियम आयनो की सांद्रता पोटेशियम और कार्बनिक आयनों से ज्यादा है। जबकि झिल्ली के भीतर की ओर पोटेशियम आयनों की सांद्रता सोडियम आयनों से ज्यादा है। ऋणावेशित कार्बनिक आयनों का प्रभाव अधिक होने के कारण झिल्ली की भीतरी सतह ऋणात्मक है।
चित्र:5 - यहां ग्राफ की मदद से एक सिलिया की बाहरी झिल्ली की सामान्य तथा उत्तेजित अवस्था दिखाई गई है। साथ ही उस एक मिली सेकंड समय में झिल्ली की पारगम्यता में परिवर्तन आने से किस तरह आयन अंदर-बाहर हो रहे हैं इसे भी देख सकते हैं।
और भीतरी सतह पर ऋण आवेश (चित्रः 4)। यह झिल्ली सामान्य अवस्था में सोडियम आयनों को भीतर नहीं आने देती लेकिन जब बंध बन जाते हैं तो सिलियों की यह झिल्ली पारगम्य हो जाती है। फलस्वरूप झिल्ली के बाहर के कुछ सोडियम आयन अंदर आ जाते हैं जिससे कोशिका की भीतरी सतह
बनावटी नाक जब नाक जैसी चीज़ भी बनावटी बनने लगे तो कान खड़े होना स्वाभाविक ही है। हाल ही में नियोट्रॉनिक्स नाम की कम्पनी ने एक बनावटी नाक बना डाली जो हमारी असली नाक की तरह खुशबू का अहसास करती है लेकिन कुछ फर्क तरह से। इस नाक में संवेदक कोशिकाओं के स्थान पर कार्बनिक पदार्थ पायरोल के पॉलीमर से बने संवेदक होते हैं। इन पॉलीमर की विशेषता यह है कि यह विद्युत के सुचालक होते हैं। इन पर कुछ खास पदार्थ चिपक जाएं तो इनकी चालकता भी बदल जाती है। इस नाक में ऐसे 12 संवेदक लगे हैं। जब भी इन संवेदकों पर से कोई खुशबूदार हवा बहेगी तो खुशबू में शामिल विभिन्न पदार्थों की वजह से संवेदकों की चालकता भी प्रभावित होगी। चालकता में आए परिवर्तन को रिकार्ड कर लिया जाता है और पोलर-प्लॉट ( एक किस्म के चित्र ) पर खुशबू का चित्र बनाकर उसे पहचाना जाता है। शायद आप यह जानते ही होंगे कि चाय, कॉफी, शराब आदि उद्योगों में खुशबू का काफी महत्व है। |
जाते हैं, संतुलन फिर कायम हो जाता है और झिल्ली की भीतरी सतह ऋण आवेशित हो जाती है। इस तरह फिर से पहले वाली सामान्य स्थिति यानी झिल्ली द्विध्रुवीय बन जाती है। इस घटना - जिसे एक्शन पोटेंशियल कहा जाता है - के कारण झिल्ली के प्रतिरोध में बदलाव आता है। प्रतिरोध में आए इस बदलाव के कारण वोल्टेज में भी परिवर्तन होता है। परिवर्तन की यह सूचना एक रिले रेस की तरह सिलिया आगे की ओर भेजती है।
अगली बात, जिस पर लगातार शोध कार्य चल रहा है कि सिलिया पर असल में होता क्या है, जिससे गंध का अहसास होता है।
नाक को लेकर हुई शुरूआती खोजों से यह पता चला कि इंसानी नाक लगभग दस हज़ार किस्म की गंध को पहचान सकती है।
कुछ दशकों पहले प्रारंभिक गंध परिकल्पना आई थी। इसमें सुझाया गया था विभिन्न गंध, सात गंधों के
*यहां यह भ्रम मत बना लीजिए कि प्रतिरोध में बार-बार आने वाले बदलाव के कारण सारे सोडियम आयन भीतर आ जाएंगे और सारे पोटेशियम आयन बाहर निकल जाएंगे। झिल्ली के दोनों ओर आयनों की एक निश्चित सांद्रता बनाए रखने के लिए झिल्ली में एक पंपनुमा व्यवस्था होती है जिसे सोडियम-पोटेशियम पंप कहा जाता है।
मिश्रण से बनती हैं। इन सात गंधों को प्रारंभिक गंध कहा गया। ये प्रारंभिक गंध थीं - कपूर जैसी गंध, कस्तूरी जैसी गंध, फूलों जैसी, पिपरमिंट जैसी, ईथर जैसी, तीखी गंध और सड़ांधनुमा गंध।
आगे की खोजों में (जिनमें से अधिकांश को मान्यता नहीं मिल सकी) कई खुशबूदार पदार्थों के अणुओं के आकार और आकृति का अध्ययन कर यह माना जाने लगा कि किसी गंध में मौजूद उस पदार्थ के अणुओं के आकार और आकृति के आधार पर ओलफैक्ट्री कोशिका गंध को पहचानती है। उदाहरण के लिए - कपूर जैसी गंध वाले अणुओं की आकृति लगभग गोलाकार होती है और आकार 0.7 नैनो मीटर। इसी तरह के आकार आकृति अन्य गंधों के लिए बताई गईं। नाक के भीतर की ओलफैक्ट्री कोशिका पर भी इसी तरह के आकार और आकृति वाले गड्ढों की कल्पना की गई। और सुझाया गया कि गंध के रूप में ये अलग-अलग आकार व आकृति वाले अणु ओलफैक्ट्री कोशिका के सम्पर्क में आते हैं। वे उस पर अपने आकार व आकृति के हिसाब से फिट बैठ जाते हैं, जैसे किसी ताले में उसकी चाबी ठीक से लग जाती है। इस तरह नाक गंध बताती है। यह परिकल्पना थोड़े समय तक स्वीकार की गई लेकिन और खोजों के बाद यह अस्वीकार हो गई।
सिलिया के साथ गंध के अणुओं के संबंध को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं जो अणुओं के आकार, रासायनिक बंध, अणुओं के विद्युत आवेश आदि पर आधारित हैं। लेकिन समस्या यह है कि कोई भी परिकल्पना सभी पदार्थों पर समान रूप से लागू न होने के कारण एक सिद्धांत के रूप में स्थापित नहीं हो सकी। हाल में एक और परिकल्पना आई है कहा गया है कि विभिन्न पदार्थों के अणुओं के बीच स्थित बंधों की कम्पन की आवृति भिन्न-भिन्न होती है। इन्हीं के कारण हम गंध की पहचान करते हैं।
अलग-अलग अणुओं से बने बंधों में कम्पन की आवृति भिन्न होती है। इन कम्पनों के कारण हम गंध की पहचान करते हैं।
शायद अभी भी नाक द्वारा गंध के अहसास के बारे में पक्के तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है हालांकि कृत्रिम नाक भी बना ली गई है लेकिन गंध की पहली सीढ़ी यानी सिलिया पर क्या होता है इसके बारे में सिर्फ अटकलें ही लगाई जा रही हैं।
यह सवाल पूछा था - प्रमोद यादव, बैनर्जी कॉलोनी, पिपरिया, जिला होशंगाबाद ने।
( इस जवाब को तैयार किया है माधव केलकर नेः माधव संदर्भ टीम के सदस्य हैं)