काजल कुमार नंदी
हायर सेकेंडरी कक्षा में एक शिक्षक ने कुछ नया करने की ठानी, लेकिन यह नयापन किसी योजनाबद्ध तरीके से पहले से सोचा गया नहीं था। बस कक्षा के माहौल को देखते हुए अपनी समझ के अनुसार वह अपने प्रयोग को दिशा देता चला गया।
यूंतो प्राथमिक शिक्षा में काफी नवाचार होते रहे हैं परन्तु हाई स्कूल या हायर सेकेंडरी स्तर पर बहुत कम प्रयोग दिखाई देते हैं: जबकि इस अवस्था में भी विद्यार्थियों को सटीक मार्गदर्शन की बेहद जरूरत होती है।
इसी संदर्भ में अक्सर सोचता हूं कि क्यों न शिक्षा के हर क्षेत्र में छात्र केन्द्री तरीके अपनाए जाएं। परन्तु जब भी मैं शिक्षक बन्धुओं से इस संबंध में चर्चा करता हूं तो स्वाध्याय की कमी, बढ़ती नकल प्रवृत्ति, कक्षा में अरुचि का माहौल, अनुशासनहीनता जैसी बातें उभरकर सामने आती हैं। जिनकी वजह से कुछ नया करने में यकीन रखने वाले शिक्षक भी बनी - बनाई परिपाटी पर चलते रहते हैं।
वैसे मैं व्यक्तिगत तौर पर उन शिक्षकों का अध्यापन अधिक पसंद करता हूं जो प्रयोगधर्मी हैं - जिससे सृजनात्मकता की सम्भावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं।
लीक से हटने की कोशिश
एक दिन मैं कक्षा में ऐसे ही कुछ सोच रहा था कि कुछ सूझा। यकीन मानिए यह सूझ अकस्मात उपज थी, कोई प्री-प्लानिंग नहीं। उस दिन यूनिट टेस्ट होने वाले थे। मैं टेस्ट लेने की पुरानी पद्धति से छुटकारा पाना चाहता थी, साथ ही शिक्षक बंधुओं से चर्चा के उपरान्त उभरकर आई समस्याओं को भी कम करना चाहता था। मुझे जैसे-जैसे उपाय सूझता गया वैसे-वैसे प्रयोग करता गया। विद्यार्थी टेस्ट देने के लिए तैयार बैठे थे, पर सभी के चेहरे पर एक डर था, कक्षा में तनाव का वातावरण था। मैंने अपने आप से सवाल किया -- क्या आखिर शिक्षा का यही उद्देश्य है।
कक्षा थी इंटर, विषय था एनीमल हस्बेण्ड्री एंड पोल्ट्री फार्म, विद्यार्थी संख्या-25, समय-40 मिनट, स्थान शासकीय इंटर कॉलेज, कल्याणपुरा, झाबुआ, म. प्र.। मैंने कक्षा से कहा - आप तनाव बिल्कुल न रखें, आप सभी स्वतंत्र हैं। आप चाहे तो अपनी सुविधानुसार बैठ सकते हैं।'' यह कहना था कि कक्षा में एक विद्युतीय परिवर्तन आया, कुछ हलचल होने लगी। मुझे लगा कि इससे अन्य कक्षाएं डिस्टर्ब होंगी। मैंने अभी भी नहीं सोचा कि मुझे आगे क्या करना है। हां, इतना तो मन बना ही लिया था कि आज कुछ नया करना है। मैंने कहा, "सभी एक-एक पेज निकालिए तथा अपनी पाठ्य-पुस्तक भी। आप सभी अपनी पुस्तक में से चार प्रश्न बनाकर लिखिए, अध्याय के पीछे दिए गए प्रश्न नहीं चलेंगे। प्रथम दो प्रश्न तीन-तीन अंक के, बाकी दो-दो अंक के बनाने हैं।' इतना कहते से ही सभी प्रफुल्लित हो गए।
लड़कों ने प्रश्न-पत्र तैयार किए
तनाव का वातावरण मुस्कराहट में बदल गया। कक्षा में अरुचि रखने वाले छात्रों में भी परिवर्तन दिख रहा था। सभी अपनी किताबें खोलने लगे। मैं विद्यार्थियों की गतिविधियों का अवलोकन करने लगा। प्रश्न निर्माण की कल्पना जितनी सरल विद्यार्थियों ने सोची थी, शायद उसके विपरीत रही होगी; तभी तो कोई सिर खुजलाने लगा तो कोई शून्य की ओर ताकने लगा। आपस में बातें भी करने लगे। हां, मैं यहां बता देना चाहता हूं कि प्रश्न रचना में आपस में बातचीत करने की मैंने छूट दी थी। काफी हलचल, चिंतन, विचार-मंथन, संवाद के बाद आखिर सभी ने अपने-अपने प्रश्न-पत्र बना ही लिए। सभी ने तैयार प्रश्न-पत्र पर अपने-अपने रोल नंबर लिखकर मेरे पास जमा कर दिए।
प्रश्न-पत्रों को मैंने पढ़ा, काफी अच्छा लगा, विद्यार्थियों को भी अच्छा लगा। क्योंकि यह उनका मौलिक कार्य था। मैं अभी भी निश्चित तौर पर यह तय नहीं कर पाया था कि मुझे क्या करना है, बेस परिस्थितिवश विचार आते गए और मैं उन्हें क्रियान्वित करता गया। उनके द्वारा बनाए गए प्रश्न पत्रों में मुझे एक कमी लगी, जो विज्ञान विषय के लिए आवश्यक है - वह है चित्रकला कौशल से संबंधित प्रश्न।
अभी तक विद्यार्थियों की यही धारणा थी कि उन्हें स्वयं का ही प्रश्न-पत्र हल करने को मिलेगा। मैंने प्रश्न-पत्रों को अदल बदल कर बांट दिया। सभी ने कहा, “यह तो मेरा बनाया प्रश्न-पत्र नहीं है।'
मैंने कहा, "कोई बात नहीं, जो प्रश्न पत्र आपको मिला, उसे ही हल करना है। घबराने की कोई बात नहीं, मैं भी आप लोगों की मदद करूंगा। अपने-अपने प्रश्न पत्र में सबसे ऊपर एक प्रश्न और लिख लीजिए। यूनिट दो में से कोई भी एक नामांकित चित्र बनाइए? इस प्रश्न का कोई अंक नहीं, परन्तु हल न करने पर दो अंक कटेंगे। कुल दस अंक का टेस्ट है।'' मैंने घड़ी की ओर देखा तो लगा कि समय कम पड़ेगा, इसलिए सोच लिया कि अवकाश का दस मिनिट का समय भी इस्तेमाल कर लेंगे।
फिर मैंने कहा, “चलिए मैं आप लोगों की मदद करता हूं। अपनी सारी कॉपियां और पुस्तकें नीचे रख दीजिए, केवल इस विषय की पाठ्य-पुस्तक कक्षा के बाहर रखनी होगी।''
एक विद्यार्थी ने कहा, “बाहर कहां रखें?"
कुछ लड़कों की मदद से एक बेंच कक्षा के बाहर रख दी गई, जिस पर सभी ने अपनी किताबें रख दीं।
सशर्त खुली पुस्तक परीक्षा
यदि आपको ऐसा लगता है कि प्रश्न हल करने में कठिनाई होगी, तो आप कक्षा के बाहर रखी अपनी पुस्तक देख सकते हैं। दो बार बाहर जाकर देखने की छूट है।'' यह सुनते ही छात्रों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। फिर मैंने कहा, "बाहर रखी किताब दो बार से ज्यादा भी देख सकते हैं; परन्तु एक शर्त है। दो बार से अधिक जितनी बार देखेंगे हर बार 2 अंक कम होते जाएंगे। जैसे कुल 4 बार देखेंगे तो अतिरिक्त दो बार के 4 अंक कम हो जाएंगे।'' छात्रों ने कहा, "सर हमने कितनी बार देखा आपको कैसे पता चलेगा?'' एक छात्र ने कहा, “एक दूसरे पर नज़र रखेंगे।''
मैंने कहा, "फिर तो आप लोगों का सारा ध्यान निगरानी में ही बीत जाएगा। चलिए ऐसा करते हैं, जो जितनी बार बाहर जाएगा वह अपनी उत्तर पुस्तिका पर 1+1+1 ... करके लिखता जाएगा।'' यहां शायद पाठक यह सवाल उठा सकते हैं कि क्या विद्यार्थी सही लिखेंगे? मेरे विचार से विद्यार्थियों पर विश्वास करके तो देखा ही जा सकता है।
सभी अपनी कॉपियों में उत्तर लिखने लगे, अब मेरा काम सिर्फ छात्रों का अवलोकन करना ही रहा। कक्षा में कोई तनाव नहीं, डर नहीं, ताका झांकी को रोकने के लिए टोकना नहीं, सब कुछ सामान्य। मुझे ऐसा लगा कि मेरा यह प्रयोग समस्याओं का समाधान करने के लिए अनुकूल है। मैं कुछ समय के लिए कक्षा से बाहर भी चला गया यानी ‘शिक्षक विहीन परीक्षा कक्ष' -- कितने आश्चर्य की बात है, है न! पर सच है। मैं कक्षा में आकर देखता हूं कि सभी विद्यार्थी सक्रिय रूप से गतिविधियों में भाग ले रहे हैं। जहां समस्या होती बाहर जाकर किताब देखकर आते, फिर लिखने लगते; कोई पूछने की जरूरत नहीं, कोई शोरगुल नहीं। हां, यह बता दें कि शोरगुल एकदम थम गया। सभी प्रश्न हल करने में व्यस्त थे। पेंसिल केवल दो-तीन लड़के ही लाए थे। मुझे ऐसा लगा कि पेन्सिल को लेकर खींचा-तानी हो सकती है। मैंने छूट दे दी, पेन से भी चित्र बना सकते हैं। हालांकि पेंसिल से बनाना ज्यादा न्यायसंगत है। पांच लड़के ऐसे थे जो एक भी बार बाहर नहीं गए, एक लड़का तीन बार गया। यह टेस्ट सम्पन्न हो गया। सभी ने प्रश्न-पत्रों को, टेस्ट पेपर से नत्थी कर जमा कर दिया।
इस तरह हुआ जांच-कार्य
मैं मध्यावकाश के समय प्रयोगशाला में चाय पीकर टेस्ट कॉपी जांचने वाला ही था कि मुझे एक विचार आया कि क्यों न जांचने का कार्य भी विद्यार्थी ही करें। दूसरे दिन कक्षा में सभी विद्यार्थी अपने प्राप्तांक जानने के लिए उत्सुक थे। मैंने कहा, "कॉपी नहीं जांची। जब आप लोगों ने प्रश्न-पत्र की रचना की है तो यह भी भली-भांति जानते होंगे कि कितना लिखने पर कितने अंक मिलना चाहिए।'
सभी एक साथ बोल पड़े, “सर, हम कैसे जांचेंगे।''
“चलिए इसमें भी मैं आप लोगों की मदद करता हूं। सभी अपनी-अपनी पाठ्य-पुस्तक खोल लीजिए, किताब देखते जाएं और जांचते जाएं।''
जिसने जो प्रश्न-पत्र बनाए थे मैंने उन्हें उसी की उत्तर पुस्तिका जांचने के लिए दी। इस प्रकार एक-दूसरे को कॉपी जांचने का कार्य सौंप दिया। मैंने कहा, “यदि आप नम्बर काटते हैं तो लिखेंगे कि क्यों काटा। प्रश्न का उत्तर जहां गलत होगा उस अंश को सही करके लिखेंगे, चित्र का नामांकन वे बनावट अधूरी है तो उसे पूरा करेंगे।"
फिर प्रारम्भ हुआ टेस्ट कॉपी जांचने का सिलसिला और मैं कक्षा के अवलोकन एवं व्यवहार अध्ययन में जुट गया। कक्षा में एक ऐसा बौद्धिक एवं चिन्तन का वातावरण निर्मित हुआ कि सभी विद्यार्थी अपने कार्य को गंभीरतापूर्वक करने लगे। नंबर कितने मिलना चाहिए, काटा तो क्यों, चित्र सही नहीं, अक्षर सुधारो, नामांकन अधूरा है, बहुत सुन्दर है आदि स्थितियों से गुजरते हुए आखिर सभी ने सवालों की जांच कर ही ली।
मैंने सभी कॉपियों को एकत्र कर उन्हें छात्रों में बांटकर कहा, “जिसने जिसकी कॉपी जांची है उसके पास जाकर बैठ जाइए एवं आपस में विचार-विमर्श कीजिए।'' सभी जांचने वाले रोल नंबर देखकर उनके पास चले गए।
मैंने अवलोकन में जो पाया वह बहुत ही सकारात्मक रहा, विद्यार्थी आपस में चर्चा में इतने व्यस्त थे कि मध्यावकाश कब समाप्त हो गया पता ही नहीं चला। और कितना लिखना था, ऐसे भी लिख सकते थे, ये क्यों नहीं लिखा, सही लिखा, तुमने क्यों बनाया, ये बहुत ही सुंदर चित्र है, हेण्डराईटिंग सुधारो, प्रश्न बहुत अच्छा है' आदि-आदि शब्दों से कक्षा में सृजनात्मक गूंज उठने लगी। कुछ छात्रों ने तो नंबर बढ़ाने के लिए जिद भी की, तब किताब देखकर बढ़ाए गए। तुलना के लिए दूसरों के प्रश्न एवं कॉपी भी देखी गई। यही प्रयोग मैंने बायोलॉजी विषय में भी किए।
मैंने कक्षा में जो कुछ किया उसे हम चाहे तो 'चाइल्ड सेन्टर्ड एक्टिविटी बेस्ड एक्जामिनेशन' कह सकते हैं। मैंने जो भी प्रयोग किया उसका अनुभव आप लोगों के साथ बांटी। चाहे तो आप भी इस तरह के प्रयोग कर सकते हैं। यह प्रयोग मां-बाप भी अपने बच्चों के साथ कर सकते हैं। इस प्रयोग के बाद मुझे ऐसा लगा कि सुरुचिपूर्ण तरीके से विभिन्न प्रकार की शैक्षिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। बस चाहिए थोड़ी-सी सृजनात्मकता और वह तो सभी शिक्षकों में होती है।
काजल कुमार नन्दीः झाबुआ जिले में बतौर शिक्षक सेवारत हैं। विज्ञान शिक्षा एवं भील जनजाति में शिक्षा पर अनेक प्रयोग तथा होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम पर शोध-प्रबंध।
रेखांकन: मृणाल पुरोहितः फाइन आर्ट में डिप्लोमा, होशंगाबाद में निवास।