जे. बी. एस. हाडेन
इस अंक से यह श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। इसमें मानव शरीर के विविध तंत्रों की सामान्य विवेचना की गई है।
अाज से लगभग तीन सदी पहले फ्रांसिसी दार्शनिक देकार्ते ने कहा था कि इंसान मशीन है। देकार्ते का मानना था कि समस्त पशु मशीनें हैं और इंसान एक ऐसी मशीन है। जिसका संचालन आत्मा करती है। यूनानी और रोमन दार्शनिकों के मन में ऐसा विचार कभी नहीं आया क्योंकि उन्होंने तीर-कमान और घिरनियों से ज्यादा पेचीदा मशीनें देखी ही नहीं थीं। जब घड़ी जैसी अत्यंत पेचीदा मशीनें बनाई जाने लगीं तो इंसान के मशीन होने जैसा विचार संभव लगने लगा।
ज़ाहिर है कि यह एक उपयोगी विचार है क्योंकि हम अपने शरीर के हिस्सों के बारे में ठीक वैसे ही सवाल पूछ सकते हैं जैसे मशीनों के बारे में पूछते हैं। हृदय का काम क्या है और यह कैसे काम करता है? इसका काम है खून को पूरे शरीर में पंप करना, जैसे कई मोटरों में ऑइल पंप होता है जो मोटर में तेल पंप करता है। और हृदय में भी पंप की ही तरह वॉल्व तथा अन्य उपांग होते हैं।
इसी प्रकार से हम आंख की तुलना कैमरे से, तंत्रिकाओं की तुलना टेलिग्राफ के तारों से, त्वचा के नीचे मौजूद चर्बी की तुलना बॉइलर के इर्दगिर्द लपेटे गए कुचालक पदार्थ से कर सकते हैं।
इंसान को मशीन के रूप में चित्रित करना देकार्ते के ज़माने में जितना भी उपयोगी रहा हो, उससे ज्यादा उपयोगी आज है। कारण यह है कि देकार्ते के काल में तो स्वचालित मशीनें स्प्रिंग के आधार पर चलती थीं किन्तु आज ये कोयले या पेट्रोल से चलती हैं। यदि हम मात्र इनपुट व आउटपुट को देखें और बारीकियों में न जाएं तो कोयले या डीज़ल से चलने वाले इंजिन व इंसान के बीच काफी साम्य है। दोनों को ही दहन-योग्य भोजन या इंधन की तथा हवा की पर्याप्त मात्रा की ज़रूरत होती है। दोनों ही मामलों में भोजन या ईंधन की क्रिया में उपस्थित ऑक्सीजन से होती है और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी उत्पन्न होते हैं।
आप चाहें तो एक इंसान अथवा मोटरसायकल द्वारा छोड़ी गई गैसों को एक बैग में एकत्रित करके उसकी जांच कर सकते हैं। इंसान व मशीन दोनों के लिए आप एक संपूर्ण जमाखर्च के खाते जैसा बैलेंस शीट बना सकते हैं; और यदि दिन भर में किसी इंसान का वज़न न घटे, न बढ़े, तो आप उसकी खपत व निकासी का सही-सही संतुलन करके देख सकते हैं।
यदि आप एक इंसान को एक अच्छी तराजू पर बैठा दें तो पाएंगे कि उसका वज़न लगातार कम होगा। किंतु वज़न में यह कमी उसके फेफड़ों व त्वचा से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड व जल वाष्प की कुल मात्रा के बराबर ही होती है। इससे भी रोचक बात यह है कि आप ऊर्जा की भी एक सटीक बैलेंस शीट बना सकते हैं। इसमें जमा के मद में वह ऊर्जा होगी जो भोजन के ऑक्सीकरण से प्राप्त हो सकती है। भोजन में उपलब्ध ऊर्जा का पता लगाना संभव है, इस भोजन को एक कैलोरीमीटर में जलाना होगा। खर्च में कई मद हैं। विष्ठा को जलाकर जो थोड़ी-सी ऊर्जा मिल सकती है, व्यक्ति द्वारा किया गया यांत्रिक काम और उसके शरीर के द्वारा उत्पन्न उष्मा, ये सभी खर्च के मद हैं।
स्वाभाविक है कि एक दिन में यह बैलेंस थोड़ा त्रुटिपूर्ण होगा। कोई भी इंसान 20-25 ग्राम चर्बी जमा कर सकता है। किंतु जब यही प्रयोग 3 व्यक्तियों के साथ 40 दिनों तक किया गया तो कुल ऊर्जा जमा-खर्च में मात्र 0.2 प्रतिशत की गड़बड़ी हुई।
ज़ाहिर है कि हम न तो ऊर्जा का निर्माण करते हैं और न ही किसी पारलौकिक स्रोत से ऊर्जा प्राप्त कर हैं। हम किसी भी मशीन की तरह उतनी ही ऊर्जा प्राप्त करते हैं जो भोजन के ऑक्सीकरण से उपलब्ध हो सकती है। परिणामस्वरूप किसी भी खुराक के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उसका ऊर्जा मूल्य कितना है।
इंसानों का ऊर्जा आउटपुट व ज़रूरतों का आकलन आमतौर पर किलो कैलोरी में किया जाता है। कई पुस्तकों में इसे कैलोरी ही लिख दिया जाता है। किलो कैलोरी ऊष्मा की वह मात्रा है जो 1 किलोग्राम पानी का तापमान 1 अंश सेल्सियस बढ़ा सकती है। कोई अकर्मण्य व्यक्ति प्रतिदिन 2000 किलो कैलोरी से काम चला सकता है जबकि सामान्य मजदूर को 3000 किलो कैलोरी की ज़रूरत होती है; व किसी खदान मज़दूर को 5000 किलो कैलोरी की ज़रूरत होती है।
एक सुप्रशिक्षित व्यक्ति की ऊर्जा के उपयोग की कार्यक्षमता 20 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। कहने का मतलब यह है कि उसका जो ऊर्जा आउटपुट होता है उसमें से 20 प्रतिशत तो काम के रूप में होता है। और 80 प्रतिशत उष्मा के रूप में। किंतु कोई भी व्यक्ति कड़ी मेहनत तो दिन के एक भाग में ही करता है; इसलिए यह औसत कार्यक्षमता बनी नहीं रहती। यह सही है कि भाप या पेट्रोल से चलने वाले इंजिन की कार्यक्षमता कहीं ज्यादा हो सकती है किंतु यह तुलना उपयुक्त नहीं कही जा सकती। आखिर कोई भी इंजिन अपनी भट्टी में खुद कोयला नहीं डालता, खुद का तेल-पानी नहीं करता और न ही समय-समय पर अन्य इंजिनों के साथ सहयोग करता है। हमारी काफी सारी ऊर्जा तो खुद को कामकाजी हालत में बनाए रखने में खर्च होती है। उदाहरण के लिए खून को पूरे शरीर में पंप करने में हृदय जो ऊर्जा खर्च करता है वह अंततः ऊष्मा में तब्दील हो जाती है।
तो इन अहम पहलुओं में इंसान एक मशीन है। यह देखना भी उपयोगी होगा कि किन मायनों में वह मशीन नहीं है। मशीन का एक अनिवार्य लक्षण यह होता है कि उसके किसी भी भाग की जगह स्पेयर पार्ट लगाया जा सकता है। इंसान के संदर्भ में यह बात कुछ हद तक ही सही है। यदि आप एक व्यक्ति की भुजा दूसरे को लगा देंगे तो हो सकता है कि तत्काल तो वह लग जाए किंतु देर-सबेर वह मर जाएगी। पेड़-पौधों में स्थिति अलग है, आप अलग-अलग किस्म या अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की कलम एक-दूसरे पर लगा सकते हैं। और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप मेंढकों में भी ऐसा कर सकते हैं, बशर्ते कि आप भूणावस्था में प्रयोग करें। एक प्रजाति का सिर दूसरी प्रजाति के धड़ पर जी सकता है। दूसरी ओर रक्त प्रत्यारोपण में हुए अनुसंधान से पता चलता है। कि इंसानी खून का इस्तेमाल बतौर 'स्पेयर पार्ट' किया जा सकता है। हां, इसमें कुछ सावधानियां बरतनी होती हैं। इसी प्रकार से यदि किसी व्यक्ति का अग्नाशय (पैंक्रियाज़) एक विशेष ढंग से गड़बड़ हो जाए तो वह व्यक्ति शक्कर का उपयोग नहीं कर सकता। किन्तु यदि उसे सुअर के अग्नाशय में निर्मित इंसुलीन दे दिया जाए तो वह तंदुरुस्त हो जाता है। यानी इंसुलीन भी एक 'स्पेयर पार्ट' है।
अर्थात शायद ज्यादा मौजूं सवाल यह होगा: 'मनुष्य कितनी हद तक मशीन है?' इस सवाल का जवाब विस्तार में दिया जा सकता है। मसलन जवाब का एक हिस्सा यह होगा कि जहां तक स्पेयर पार्ट का सवाल है, इंसान किसी पेड़ या मशीन की अपेक्षा कम मशीन है। किंतु फिर भी कुछ हद तक तो वह मशीन है ही। अब हम इंसानी मशीन के कुछ पुर्जा की तफसील से मालूमात करेंगे।
हमारा कामकाज : मासपेशियां
हमारी चमड़ी के नीचे कई अंग हैं। इन अंगों की जमावट लगभग वैसी ही है जैसे किसी खरगोश, बिल्ली या भेड़ के शरीर में होती है। मतलब सामान्य खाका वही है। हमारे अंगों की जमावट किसी बंदर से ज्यादा मिलती-जुलती है। सूक्ष्मदर्शी की मदद से हम देख सकते हैं कि ये सारे अंग कोशिकाओं से मिलकर बने हैं। एक औसत कोशिका की लंबाई करीब एक इंच का हज़ारवां भाग होती है। कोशिका का आकार लगभग एक रेत की बोरी के समान होता है जिसे एक बेडौल ढेर में दबा दिया गया हो। एक इकलौती कोशिका को उपयुक्त तरल पदार्थ में बरसों जीवित रखा जा सकता है किन्तु कोशिका से छोटी कोई चीज़ (इकाई) चंद घण्टों से ज्यादा जीवित नहीं रहेगी। दरअसल, कोशिका एक जीवित इकाई है जिसका अपना एक अंदरुनी संगठन होता है।
हमारी हस्ती का एक बड़ा हिस्सा मांसपेशियों से बना होता है, इन्हें सिर्फ मांस या सिर्फ पेशियां भी कहते हैं। हमारी अधिकांश मांसपेशियां तभी काम करती हैं जब उन्हें तंत्रिका से उद्दीपन मिले। यदि तंत्रिका को काट दिया जाए तो मांसपेशियां पूरी तरह शिथिल पड़ जाती हैं। ये सारी मांसपेशियां हमारी इच्छा के नियंत्रण में हैं। अन्य मांसपेशियों की तंत्रिकाएं काट दी जाएं तो वे या तो आंशिक रूप से संकुचित अवस्था में रहेंगी या एक लय में फैलती-सिकुड़ती रहेंगी। हृदय की मांसपेशियां, तथा अमाशय व बच्चादानी की मांसपेशियां इस प्रकार की हैं। इनको प्रत्यक्ष तौर पर तंत्रिका तंत्र द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता।
ऐच्छिक मांसपेशियां लगभग सदैव प्रायः दोनों सिरों पर हड्डियों से जुड़ी रहती हैं। किन्तु मांसपेशी व हड्डी के बीच बहुधा एक लंबी कण्डरा होती है। इस बात की पुष्टि आसानी से की जा सकती है कि हमारी उंगलियों को हिलाने-डुलाने वाली ज्यादातर मांसपेशियां भुजा में हैं और इनकी कण्डराएं कलाई में से होकर गुजरती हैं।
हम यह भी दिखा सकते हैं कि मांसपेशी रसायन-चलित मशीन है। इसके लिए हमें किसी मांसपेशी में धमनी से पहुंच रहे खून और वहां से शिरा द्वारा ले जाए जा रहे खून का विश्लेषण करना होगा। धमनी से आने वाले खून की अपेक्षा शिरा वाले खून में ऑक्सीजन व शक्कर कम तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। वास्तव में मांसपेशियों के संकुचन के लिए ऊर्जा शक्कर और ऑक्सीजन की क्रिया से प्राप्त होती है। शक्कर और ऑक्सीजन खून में कैसे पहुंचते हैं, यह हम आगे देखेंगे।
सूक्ष्मदर्शी में हम देख सकते हैं कि मांसपेशी कई कोशिकाओं से मिलकर बनी होती है। ये कोशिकाएं लंबी होकर रेशेनुमा हो जाती हैं। प्रत्येक कोशिका तक एक तंत्रिका तंतु पहुंचता है। प्रत्येक रेशा अलग-अलग संकुचित होता है। तथा मांसपेशी द्वारा लगाया गया बल इस बात पर निर्भर करता है कि उसके कितने रेशे संकुचित हो रहे हैं। प्रत्येक रेशा, यदि खींचेगा तो, अपनी पूरी ताकत से ही खींचेगा। मांसपेशियां मात्र खींचने का काम करती हैं। दरअसल
हाथों में भारी वज़न उठाते समय हड्डियों से जुड़ी बाइसेप्स मांस पेशियां जोर लगाती हैं और इनमें संकुचन होता है। ये पेशियां कंडरा के जरिए हड्डी से जुड़ी होती हैं। जब वे हड्डी को हिलाने में सफल हो जाती हैं तब उनके लिए भार उठाना भी आसान हो जाता है।
भुजाओं की तथा निचले जबड़े की हड्डियों का प्रमुख काम यह है कि इस खिंचाव को धक्के में तब्दील करें। इस बात को महसूस करना आसान है; जब कोई व्यक्ति मुक्के से हथौड़े की तरह वार करे, तब यह महसूस किया जा सकता है कि उसकी कौन-कौनसी मांसपेशियां सिकुड़ रही हैं।
मांसपेशियां बहुत विशाल बल लगाती हैं। कोहनी से बाइसेप्स मांसपेशियों के सिरे की दूरी की तुलना में, कोहनी से हाथ की दूरी 6 गुना है। अर्थात् यदि कोई व्यक्ति अपना वज़न एक हाथ से उठा लेता है तो उसकी बाइसेप्स मांसपेशी इससे छः गुना वज़न उठा लेंगी, बशर्ते कि यह वज़न उसकी कण्डरा से बांध दिया जाए। और जांघ की मांसपेशियां तो और भी शक्तिशाली होती हैं।
यह तो सही है कि मांसपेशी के संकुचन हेतु ऊर्जा, शक्कर के ऑक्सीकरण से आती है किन्तु यह इसका प्रत्यक्ष स्रोत नहीं है। तथ्य यह है कि रक्त प्रदाय काट दिए जाने के बाद भी मांसपेशी काफी समय तक काम कर सकती है। जब कोई मांसपेशी बहुत तेजी से काम करती है तो वह बहुत तेज़ी से ऊर्जा उत्पन्न करती है। शक्कर के ऑक्सीकरण से इतनी तेज गति से ऊर्जा मुक्त होना संभव नहीं है। ऊर्जा का तात्कालिक प्रत्यक्ष स्रोत एडीनोसीन ट्राई फॉस्फेट नामक एक अस्थिर अणु होता है। यह मांसपेशी के रेशों को ठीक उस तरह सिकुड़ने को प्रेरित करता है जैसे ऊन सिकुड़ता है। बाद में काफी पेचीदा रासायनिक क्रियाओं के ज़रिए एडीनोसीन ट्राई फॉस्फेट (ए. टी. पी.) को फिर से तैयार कर लिया जाता है। आदर्श मांसपेशियां ए. टी. पी. की खुराक पर चल सकती हैं किन्तु यह शक्ति का व्यावहारिक स्रोत नहीं है।
इस बात को यों समझते हैं - कल्पना कीजिए कि एक पेट्रोल मोटर एक संग्राहक बैटरी को चार्ज करती है। जो स्वयं एक डायनेमो को चलाती है। और डायनेमो एक शक्तिशाली स्प्रिंग को ऐंठ देता है। मोटर अधिकतम पांच हॉर्स पॉवर शक्ति दे सकती है और जब संग्राहक चार्ज न हो जाए तब तक इतनी शक्ति देती रहती है। किन्तु संग्राहक एक छोटी अवधि के लिए दस हॉर्सपॉवर दे सकता है और स्प्रिंग तो एकाध सेकण्ड के लिए इससे भी ज्यादा शक्ति दे सकता है।
लगभग यही हमारी मांसपेशियों के साथ भी होता है। यदि आपको मात्र 100 मीटर दौड़ना हो तो आप जी जान लगा देते हैं और आपकी मांसपेशियां अपनी पूरी ताकत लगा देती हैं। इस दौड़ के कुछ मिनट बाद तक आप हांफते रहते हैं यानी ज्यादा जल्दी-जल्दी सांस लेते हैं। इस दौरान आपकी मांसपेशियां खून में से ऑक्सीजन व शक्कर लेकर अपने संग्राहक को चार्ज करती हैं, अपने स्प्रिंग को ऐंठती हैं। दूसरी ओर यदि आपको दो किलोमीटर दौड़ना हो, तो आप एक स्थिर चाल से दौड़ते हैं। यह चाल इस बात पर निर्भर करती है कि शक्कर के ऑक्सीकरण से मांसपेशियों को कितनी रफ्तार से ऊर्जा मिल पा रहीं है। इस मामले में संग्राहक को चार्ल्ड स्थिति में तथा स्प्रिंग को तनी हुई स्थिति में ही रखा जाता है। दौड़ के अंतिम हिस्से में आप अचानक अपनी चाल बढ़ाते हैं; एक तरह से स्प्रिंग को खुलने देते हैं, संग्राहक को डिस्चार्ज होने देते हैं। यदि आप बहुत जल्दी अपनी चाल बढ़ा देंगे तो आपकी मांसपेशियां इतनी कार्यक्षम नहीं हो पाएंगी।
अर्थात वही मांसपेशी छोटे समय के लिए कठोर श्रम कर सकती है और लंबे समय के लिए हल्का श्रम कर सकती है। गौरतलब है कि वास्तविक क्रियाविधि उपरोक्त उपमा की अपेक्षा कहीं ज्यादा जटिल है।
एक बात खासतौर से ध्यान देने की है। मांसपेशियों में ग्लायकोजन नामक मण्ड के रूप में शक्कर का कुछ भण्डार होता है। काम के दौरान मांसपेशी इस ग्लायकोजन का उपयोग कर लेती है। इसलिए होता यह है कि मांसपेशी की ऑक्सीजन की जरूरत पूरी हो जाने के बाद भी वह खून में से शक्कर लेती रहती है। (इस अतिरिक्त शक्कर को वह ग्लायकोज.न में तब्दील करके अपना भण्डार पूरा कर लेती है।)
मांसपेशियों के कामकाज के इस संक्षिप्त विवरण से कई सवाल उठते हैं। सबसे स्वाभाविक सवाल है। 'तंत्रिकाएं मांसपेशियों को संकुचित कैसे करती हैं?' किन्तु अन्य सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं- जैसे मांसपेशियों को अपने काम के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन व शक्कर कैसे मिलती है, या अन्य ज़रूरी पदार्थ कैसे मिलते हैं?
यह प्रश्न हमें शरीर की अर्थव्यवस्था के मुद्दे पर ले आता है। अर्थात शरीर के प्रत्येक अंग को उसकी जरूरत की रसद कैसे मिलती है और जो कचरा पैदा होता है उसे वहां से कैसे हटाया जाता है। मसलन गुर्दे और जिगर तो दिन रात काम करते रहते हैं। तो अर्थव्यवस्था का मुद्दा अगले अंक में।
जे. बी. एस. हाल्डेनः ( 1 892-1964 ) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विशानी। विकास (Evolution) के आधुनिक सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान। विख्यात बिज्ञान लेखक। उनके निबंधों का एक महत्वपूर्ण और रुचिकर संकलन 'ऑन बीइंग द राइट साइज़' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत निबंध 'बॉट इज़ लाइफ' नाम के संकलन से लिया गया है।
कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक हाल्डेन ने अपने जीवन का अंतिम समय भारत में अहिंसा के बारे में लिखते हुए गुजारा।
अनुवादः सुशील जोशी: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। स्वतंत्र रूप से विज्ञान लेखन एवं अनुवाद करते हैं।