इस पृथ्वी पर विभिन्न भू-भागों की अक्षांश -देशांश में स्थितियां तय करने के लिए दो मानक रेखाओं की जरूरत थी। एक जो धरती पर उत्तर-दक्षिण दिशा में मूल रेखा का काम कर सके। और दूसरी, जो पूर्व-पश्चिम में यह भूमिका निभा सके।
पहली भूमिका में तो भू-मध्य रेखा को यह दर्जा मिले इस में कोई विवाद नहीं था, लेकिन शून्य डिग्री देशांतर रेखा तो कोई भी देशांतर हो सकती थी। ब्रिटेन ग्रीनविच से गुजरने वाली देशांतर रेखा को शून्य मानकर उसके आधार पर पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों की स्थितियां और समय की गणना करता था; तो फ्रांस और जर्मनी क्रमशः पेरिस और बर्लिन से गुजरने वाली देशांतर को शून्य मानकर गणनाएं करते थे।
ग्रीनविच की प्रोयोगशाला के पास से गुजरती शून्य डिग्री देशांतर रेखा, रेखा से दहिनी और पूर्वी गोलार्द्ध है तो रेखा के बायीं और पश्चिमी गोलार्द्ध है।
एकरूपता के हिसाब से यह जरूरी था कि दुनिया के सभी देश किसी एक देशांतर पर अपनी आम राय कायम कर सकें। इसके लिए 1884 में वाशिंगटन में एक बैठक हुई। इस बैठक में ग्रीनविच को शून्य डिग्री देशांतर रेखा मानने पर आम सहमति बनी। ग्रीनविच को चुनने के पीछे चाहे जो भी राजनैतिक कारण रहे हों लेकिन 16वीं सदी में ग्रीनविच वेधशाला की स्थापना ही देशांतर पता करने की विधियों को विकसित करने के लिए की गई थी। ग्रीनविच के चुनाव का एक अन्य कारण भी था - 1884 में दुनिया के समुद्रों में जितना भी यातायात था उसका लगभग तीन-चौथाई ग्रीनविच को शून्य डिग्री मानकर हो रहा था। जहाज़ों पर मौजूद नक्शे, तालिकाएं, घड़ियां ग्रीनविच को आधार मानकर बनाए गए थे। ऐसे में ग्रीनविच को शून्य डिग्री देशांतर मानना शायद एक व्यावहारिक कदम भी था।
आज ग्रीनविच की वेधशाला वहां से स्थानांतरित हो गई है, इमारत ज़रूर वहीं खड़ी है और शून्य डिग्री की रेखा भी वहीं मौजूद है। चित्र देखिए।
ग्रीनविच की प्रयोगशाला के पास से गुज़रती शून्य डिग्री देशांतर रेखा। रेखा से दाहिनी ओर पूर्वी गोलार्द्ध है तो रेखा के बायीं ओर पश्चिमी गोलार्द्ध है।