किशार पंवार
छोटे जीवों मसलन कीट-पतंगों और पक्षियों में तो ढेरों सहयोगी संबंध मिलते हैं। विशेषकर परागण और परागण की क्रिया के फलस्वरूप बने बीजों के बिखराव और अंकुरण में। परन्तु पौधे और स्तनधारी के बीच ऐसे रिश्ते कम ही देखने को मिलते हैं। परन्तु जो हैं, वे बड़े मजेदार हैं। जैसे एक भानू का, खीरे के पौधे के साथ। दोनों जीव कई मायने में बड़े विचित्र हैं। रंग, रूप और व्यवहार सभी में अत्यन्त भिन्न। आइए देखें, कैसे?
पहले भालू की चर्चा करते हैं। इसका नाम है आडवर्क बीयर या चींटीखोर भालू। वैज्ञानिक इसे ओरिक्टेरोपस अफर कहते हैं। अफ्रीका में इसे अर्थपिग कहा जाता है क्योंकि यह देखने में थोड़ा बहुत सुअर जैसा दिखता है और अपने शक्तिशाली पंजों से दीमक की बांबी खोदकर चींटियों और दीमकों का भक्षण करता है। इसके पंजे कहीं-कहीं 'सौभाग्य के प्रतीक' के रूप में घरों में रखे जाते थे।
दक्षिणी अफ्रीका के रेगिस्तानी प्रदेशों के खुले क्षेत्रों में पाए जाने वाला यह प्राणी शर्मीला निशाचर है। इसका शरीर भूरे पीले बालों से ढंका रहता है। यह लगभग 150 से. मी. लंबा व 60 से. मी. लंबी पूंछ का मालिक है। सिर संकरा, स्नाउट लंबा, वज़न लगभग 45 से 77 किलो के आसपास। कान खरगोश जैसे लंबे, अतः सुनने में पक्का है। ज़रा-मी आहट भी खूब पहचानता है। अपनी छोटीछोटी मज़बूत जालीदार टांगों और लंबे पंजे से अपनी मांद खोदता है। उन्हीं से चींटी और दीमक के घरोंदे भी, जो इसका प्रमुख भोजन है।
अपनी लंबी चिपचिपी जीभ से इधर-उधर भागती दीमकों को फटाफट चट कर जाता है। यह वर्षा वनों से लेकर सूखे सवाना तक उन सभी जगहों पर रहता है जहां दीमकों की बांबियां पाई जाती हों। इसकी दृष्टि कमजोर है। परन्तु अन्य संवेदी अंग, मसलन श्रव्य और घ्राण अत्यन्त प्रभावी हैं। इस विचित्र सुअरनुमा भालू के कान हमेशा खड़े रहते हैं। इसके नासिका छिद्र शिकार की गंध को दूर से ही पकड़ लेते हैं। नाक के छिद्र घने बालों से ढंके रहते हैं, जो खोदते समय नाक को बंद रखते हैं।
मादा अक्टूबर-नवंबर में 7 महीनों के पश्चात एक-दो बच्चों को जन्म देती है। बंदी अवस्था में ये 10 वर्षों तक जीवित रहते हैं।
अब आते हैं इस रिश्ते के दूसरे पात्र पर, जो खीरा जाति का एक पौधा है। नाम है आडवर्क कुकुम्बर (कुकुमिस यूमिफ्रक्टस) जो पूरे कुल का एक मात्र ऐसा पौधा है जिसके फल ज़मीन के ऊपर नहीं, बल्कि ज़मीन के अंदर लगते हैं। इसके मादा फूल निषेचन के पश्चात गुरुत्व के प्रति संवेदी हो जाते हैं और जमीन में 15 से 30 से.मी. तक अंदर घुस जाते हैं। फलों का आगे का विकास जमीन के अंदर ही होता है। अर्थात इसका फल मूंगफली की तरह जमीन में पाया जाता है, परन्तु उससे कहीं बहुत बड़ा और रसीला।
रेगिस्तान में आडवर्क भालू इसके ज़मीनी फलों को अपनी प्यास बुझाने के लिए खोदकर खाता है। उल्लेखनीय है कि खरबूज हो, तरबूज या खीराककड़ी, सभी में मुख्य रूप से पानी ही होता है। खीरा खाने के बाद कुछ बीज इसकी आंतों से विष्ठा के साथ साबुत बाहर निकल आते हैं। यह सावधानीपूर्वक विष्ठा विसर्जन के पश्चात बाकायदा ढीली-ढाली मिट्टी से उसे ढंकता भी है। भालू का यह व्यवहार खीरे के बीजों के लिए एक नर्सरी का काम करता है, जहां नए पौधे अंकुरित होते हैं। भालू और खीरा के बीच बना यह संबंध एक तरह का सहजीवी रिश्ता है। इससे खीरे का फैलाव और भालू को उसके क्षेत्र में जरूरत पड़ने पर पौधे की उपलब्धता, दोनों सुनिश्चित हो जाते हैं।
क्या भालू से यहां कुछ सीखने की गुंजाइश नहीं है कि जिन प्राकृतिक संसाधनों का हम उपभोग करते हैं, उनकी सुरक्षा और फैलाव की चिंता व्यवस्था भी करनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि स्थानीय आदिवासी इस खीरे को आडवर्क कुकम्बर के नाम से पुकारते हैं। जाहिर है, वे इस आपसी रिश्ते से वाकिफ हैं।
किशोर पवार: इंदौर के होल्कर साइंस कॉलेज में वनस्पति विज्ञान पढ़ाते हैं।