नरेश दधीच
पिछले अंक में हम बात कर रहे (ष थे कि मुक्त कण की गति वक्र ज्यामिति की 'सरल रेखा' से परिभाषित होती है। गौरतलब है कि एक गोले की सतह पर 'सरल रेखा वह वृत्त होता है जिसका केन्द्र गोले का केन्द्र हो। अर्थात् गुरुत्व पूरी तरह दिक्काल (स्पेस-टाइम) की ज्यामिति में अंगीकार हो चुका है और उसी की वक्रता से परिभाषित होता है। इससे हम आइंस्टाइन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर पहुंचते हैं, जिसका नाम है सापेक्षता।
हर चीज़ का अंत
किसी सिद्धांत के ध्वस्त हो जाने यानी ब्रेक-डाऊन को एक सुंदर नाम दिया गया है - विशिष्टता (Singularity)। यह वह स्थिति होती है जब किसी सिद्धांत के भौतिक मापकों का मूल्य अनंत हो जाता है और तब वह सिद्धांत इन मूल्यों के लिए सही नहीं रह जाता। सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के संदर्भ में विशिष्टता' पर न सिर्फ दिक्काल (स्पेस-टाइम) की वक्रता बल्कि घनत्व व दबाव भी खत्म हो जाएंगे। दिक्काल की वक्रता अनंत होने का मतलब है स्पेस-टाइम की संरचना तहस-नहस हो जाना। सामान्य सापेक्षता की 'विशिष्टता', न सिर्फ सामान्य सापेक्षता बल्कि हर चीज़ के अंत की द्योतक है। दिक्काल (स्पेस-टाइम) की उपयुक्त पृष्ठभूमि के बगैर कोई अन्य भौतिक सिद्धांत या संरचना चल नहीं पाएगी। यानी गुरुत्वाकर्षण के समान इसकी 'विशिष्टता' भी सार्वभौमिक है।
आगे की दिशाएं
गुरुत्वाकर्षण एक सार्वभौमिक अंतक्रिया है। यानी अन्य बलों के समान यह एक बल नहीं बल्कि ब्रह्मांड की स्पेस-टाइम संरचना का एक गुणधर्म है। सवाल यह है कि हम दिक्काल (स्पेस-टाइम) की संरचना में उस ‘विशिष्टता' को कैसे संबोधित करें जो न सिर्फ दिक्काल (स्पेस-टाइम) के ढांचे के नाकाम होने की, परन्तु समस्त भौतिक घटनाओं के खात्मे की द्योतक है। यह हर चीज़ के अंत की द्योतक है। और क्या इस सवाल का उत्तर हमें एक सर्वसमावेशी सिद्धांत दे सकता है? स्ट्रिंग सिद्धांत के प्रवर्तक यहीं दावा करते हैं।
स्ट्रिंग सिद्धांत एक प्रस्ताव है जो सामान्य सापेक्षता को अपने में समाने का दावा करता है। इसके अंतर्गत समस्त बलों के एकीकरण, गुरुत्व बल के क्वान्टमीकरण और ब्रह्मांड में पदार्थ की उत्पत्ति की एक विहंगम दृष्टि प्रस्तुत करने के प्रयास हो रहे हैं। यह सब कुछ दस आयामों में होगा। आकाश के अतिरिक्त आयाम अत्यन्त सघन हैं तथा ये मात्र उच्च ऊर्जा के संदर्भ में ही प्रकट होंगे। सामान्य सापेक्षता इस सिद्धांत का निम्न ऊर्जा संस्करण होगी। अलबत्ता 10 आयामों से 4 आयाम तक पहुंचने के लिए कोई प्राकृतिक व एकमेव मार्ग नहीं है।
दूसरा तरीका अभय अष्टेकर व उनके सहयोगियों द्वारा प्रस्तुत कैनॉनिकल क्वांटम गुरुत्वाकर्षण का है। स्पेस-टाइम की ज्यामिति को किस तरह ढाला जाए कि वह क्वान्टमीकरण के लिए उपयुक्त हो जाए? दरअसल
दिक्काल (स्पेस-टाइम) की ज्यामिति का ही क्वांटमीकरण करना है। दिक्काल (स्पेस-टाइम) की संरचना मूलतः निरंतरता पूर्ण है। उसे खण्डित स्वरूप देने के लिए नवीन गणितीय औज़ार व संरचनाएं विकसित की जा रही हैं। ये लोग वास्तव में क्वांटम ज्यामिति विकसित कर रहे हैं। यह प्रस्ताव चिर-परिचित 4-आयामों की सीमाओं के अंदर ही है।
दोनों ही तरीकों को लगभग बराबर सफलता मिली है। मसलन श्याम विवर यानी ब्लैक-होल की एण्ट्रॉपी को समझने में दोनों ही कुछ हद तक सफल रहे हैं। परन्तु अभी दोनों को काफी विकास होना शेष है। स्ट्रिंग सिद्धांत को कण-भौतिकविदों के एक व्यापक समूह का समर्थन प्राप्त है, जबकि कैनॉनिकल क्वांटमीकरण के सिद्धांत का विकास चंद सापेक्षतावादी कर रहे हैं। दोनों सिद्धांत काफी अलग-अलग हैं।
स्ट्रिंग सिद्धांत में फील्ड सिद्धांत की तकनीकों व अवधारणाओं का उपयोग किया जाता है जबकि कैनॉनिकल क्वांटमीकरण में ज्यामिति संरचनाओं का। दिक्काल (स्पेस-टाइम) के अंतिम सिद्धांत की ओर बढ़ते हुए इन्हें देर सबेर परस्पर मिलना होगा। बहरहाल, इतना तो निश्चित है कि हमें एक नए सिद्धांत की ज़रूरत तो है। वह स्ट्रिंग सिद्धांत हो, या कैनॉनिकल क्वांटमीकरण का सिद्धांत, या कुछ और।
आइए अपने अतीत के अनुभव की नज़र से भविष्य के अज्ञात को देखें। न्यूटन से आईस्टाइन तक मार्गदर्शक शक्ति प्रकाश, उसका स्थिर बेग तथा गुरुत्वाकर्षण के साथ उसकी अंतक्रिया थी। गुरुत्वाकर्षण के साथ अंतक्रिया के लिए जरूरी था कि दिक्काल (स्पेसटाइम) में वक्रता हो। इन सरल तथ्यों के आधार पर हमने तर्क किया कि गुरुत्वाकर्षण से सामान्य कणों को त्वरण मिलने के अलावा, आकाश में वक्रता उत्पन्न होनी चाहिए ताकि फोटॉन गुरुत्वाकर्षण को महसूस कर सकें।
चूंकि त्वरण एक क्रमिक रूप (Gradient) से उत्पन्न होता है, इसलिए स्थिर विभव का कोई गतिज प्रभाव नहीं होता। आकाश की वक्रता के ज़रिए फोटॉन प्रत्यक्ष रूप से इस विभव को महसूस करते हैं और इसलिए वे इसके मान के प्रति संवेदी होते हैं। इसलिए स्थिर विभव को अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह गैर-शून्य वक्रता उत्पन्न करता है। अर्थात् जिस विभव को न्यूटन के सिद्धांत में निरपेक्ष (परम) रूप में निकाला गया था, उसे आइंस्टाइन का सिद्धांत सापेक्ष रूप में देखता है। पुराने से नए सिद्धांत की यात्रा सदैव एक संश्लेषण होती है। यह दरअसल वही पुराना न्यूटनीय विभव है जिसका शुन्य अनंत में निर्धारित कर दिया गया है। यह
कल्पना की उड़ानः लैक होल की तलाश के लिए जिन विभिन्न आकाशीय पिंडों का अध्ययन किया जा रहा है उनमें से एक, पृथ्वी से 6500 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित तारा साइगनस-1 है। पास के एक विशाल तारे को धीरे-थीरे निगलते हुए साइगनस-1 का कल्पना चित्र।
एक नवीन संश्लेषण है।
चूंकि समयनुमा कणों के लिए पलायन बेग की लक्ष्मण -रेखा का अस्तित्व है, इसलिए फोटॉन के लिए भी ऐसी कोई दहलीज़ होनी चाहिए। सामान्य कणों की तरह फोटॉन लौट नहीं सकते। उन्हें किसी गुरुत्व पिण्ड से जोड़े रखने का एकमात्र तरीका यह है कि उन्हें एक अत्यन्त सघन सतह से बाहर न फैलने दिया जाए। चूंकि फोटॉन किसी भी भौतिक सूचना के प्रसार की सीमांत अधिकतम गति के द्योतक हैं, इसलिए ऐसी सतह से कुछ भी बाहर नहीं आ सकता। अर्थात् यह एक एकमार्गी सतह बन गई है जो एक श्याम विवर या ब्लैक-होल के क्षितिज को परिभाषित करती है। यानी जैसे ही हमें फोटॉन को रोके रखना होता है, वैसे ही ब्लैक-होल एक प्राकृतिक ज़रूरत बन जाते हैं।
सामान्य सापेक्षता के ये विशिष्ट व गहरे लक्षण का प्रतिपादन तो हम पूरे सिद्धांत का जिक्र किए बगैर ही कर गए। | मैं कहना यह चाहता हूं कि नए सिद्धांत के कुछ गुणधर्मों का पूर्वानुमान कर पाना तथा उनको प्रतिपादित कर पाना संभव होना चाहिए। तो अब जब हम उच्च ऊर्जा के संदर्भ में आइंस्टाइन से आगे जाना चाहते हैं तो हमें किस तरह की बातों की उम्मीद करनी चाहिए। बदकिस्मती से, प्रकाश जैसी कोई चीज़ हमारा मार्ग प्रशस्त करने के लिए मौजूद नहीं है। एक संभब चीज है गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र ऊर्जा - जैसे न्यूटन-आइंस्टाइन संश्लेषण में गुरुत्वीय विभव था। सामान्य सापेक्षता में यह विभव सिर्फ दिक्काल (स्पेसटाइम) की वक्रता के रूप में नज़र आता है। क्या ऐसा हो सकता है कि उच्च ऊर्जा की सीमा पर यह अन्य ‘पदार्थ क्षेत्रों की तरह ठोस रूप ले ले? शायद यह आगे बढ़ने की सही दिशा हो।
किसी सिद्धांत की कसौटी यह है कि वह किस तरह के सवालों को स्वीकार करता है। नया सिद्धांत ऐसे सवालों को शामिल करता है जिन्हें पुराने सिद्धांत में स्थान नहीं दिया जा सकता था। मसलन, सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के अंतर्गत यह एक वैध सवाल है कि दिक्काल (यानी ब्रह्मांड) की शुरुआत कब हुई। और इसका जवाब यह है कि इसका विस्फोटक जन्म करीब 15-20 अरब वर्ष पूर्व एक गर्म बिग बैंग के जरिए हुआ था। इसी श्रृंखला में नए सिद्धांत के लिए एक प्रश्न यह होगा कि दिक्काल (स्पेस-टाइम) किस चीज़ से बना है। यह एक बुनियादी प्रश्न है जिसका जवाब नए सिद्धांत को देना होगा।
एक मूलभूत सिद्धांत का असर विश्व दृष्टि पर भी होता है। यह वह दृष्टि होती है जिसे आमतौर पर लोगों के बीच स्वीकार्यता मिल चुकी है। मसलन आज के समाज ने इस तथ्य को अंगीकार कर लिया है कि पृथ्वी सपाट न होकर गेंद के समान गोल है। थोड़े ज्यादा अमूर्त स्तर पर यह बात भी हमारे सामान्य ज्ञान व संस्कृति का अंग बन चुकी है कि सारे भौतिक पिण्ड एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं।
इसी सिलसिले में अगला कदम इस तथ्य को अंगीकार करने का होगा कि विशाल पिण्ड अपने आसपास के आकाश में वक्रता उत्पन्न करते हैं। यह एक अमूर्त दिक्काल (स्पेस-टाइम) ब्रह्मांड है जो सपाट न होकर गोलाई लिए हुए है। इस वक्रता को नापने का एक तरीका यह है कि यह देखा जाए कि विशाल पिण्ड के समीप गुजरने पर प्रकाश कितना मुड़ता है। अर्थात् दिक्काल (स्पेस-टाइम) की ज्यामिति का महत्व उतना ही है जितनी हमारे अह पृथ्वी की ज्यामिति का अंतर इतना ही है कि दिक्काल (स्पेस-टाइम) की ज्यामिति एक अमूर्त विचार है जबकि पृथ्वी की ज्यामिति ठोस चट्टानों से बनी है।
गुरुत्वाकर्षण के समान सामाजिक अंतक्रियाएं भी सार्वभौमिक हैं और हमारे अस्तित्व ब खुशहाली के लिहाज़ से महत्व रखती हैं। इसलिए इन पर हम सबको सामूहिक रूप से पुरी संजीदगी ब निष्ठा के साथ ध्यान देना चाहिए। हमें अपने साथी नागरिकों को कदापि नहीं भूलना चाहिए जो अपनी खरी कमाई में से हमारे लिए और हमारे काम की सुविधाओं के लिए योगदान देते हैं। अपने काम के जरिए ज्ञान के भण्डार में योगदान देने के अलावा, विज्ञान की विधि के अनुशीलनकर्ता होने के नाते हमें व्यापक सामाजिक मुद्दों संबंधी विचार-विमर्श में जिम्मेदारी से भाग लेना चाहिए।
आइए सबसे अंतक्रिया के इस बुनियादी गुरुत्वीय गुण का अनुसरण करें और परस्पर करीब आएं। यदि विज्ञान व समाज दोनों में इस बात को सही अर्थों में स्वीकार कर लिया जाए तो उम्मीद है कि सामंजस्य, शांति व एक रोशनख्याल विश्व समुदाय की स्थापना हो पाएगी। यह सभी के लिए एक गुरुतर महत्व का सवाल है। और अंत में गालिब का एक शेरः
कहने को तो दुनिया में हैं और
सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है
अंदाजे बयां और।
नरेश वधीच: पुणे के इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) में खगोल विज्ञान में शोधकार्य कर रहे हैं। इस संस्थान को बनाने में उनकी विशेष भूमिका रही है।
अनुवाद- सुशील जोशीः एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। स्वतंत्र रूप से विज्ञान लेखन एवं अनुवाद करते हैं।
यह लेख 'इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेशन' (LAGRG) द्वारा आयोजित एक व्याख्यान माला में, नरेश दधीच द्वारा दिए गए व्याख्यान पर आधारित है। यह आयोजन 30 जनवरी, 2001 को नागपुर में किया गया था। यह सामान माला एसोसिएशन के दो वरिष्ठतम सदस्यों प्रोफेसर पी, सी, वैद्य एवं ए. के. रायचौधरी के सम्मान में आयोजित की जाती है।
संदर्भ के अंक-37 में प्रकाशित, इस लेख के पहले भाग में पृष्ठ 32 पर, चित्र के नीचे दिए गए विवरण के आखिरी वाक्य से ऐसा आभास मिलता है कि प्रकाश की गति में 'नगण्य परिवर्तन संभव है, जो सही नहीं है। इस बुक के लिए हमें बंद है।
---संपादक मंडल