जे. बी. एस. हाल्देन
शरीर की व्यवस्थाए भाग 4
इस बार---उस सांस के बारे में जिस पर काफी हद तक जिंदगी का दारोमदार टिका हुआ है।
आदिमानव सोचते थे कि जीना और सांस लेना एक ही बात है। इस विचार ने हमारी भाषा को प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए लैटिन भाषा में सांस के लिए दो शब्द हैं - एनिमा और स्पिरिट्स। इनसे बने अंग्रेजी शब्द एनिमल और स्पिरिट के अर्थ अलग-अलग हैं किन्तु मूलतः इन दोनों का अर्थ था, सांस लेने वाला।
कुछ सरल जीव तो बगैर सांस के भी जी सकते हैं। अधिकांश जीव ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड से निजात पा लेते हैं। ज़मीन पर रहने वाले बड़े जंतु इस काम के लिए कुछ विशेष अंगों यानी फेफड़ों का उपयोग करते हैं। हम अपनी पसलियों की गति से और सीने व उदर के बीच स्थित एक गुम्बदनुमा मांसपेशी (डायाफ्राम, मध्यपाट) के संकुचन से फेफड़ों को फुलाते हैं। जब डायाफ्राम का संकुचन होता है तो वह नीचे की ओर झुक जाता है जिससे उदर के अंदर की जगह कम हो जाती है, जबकि सीने के अंदर की जगह बढ़ जाती है। स्त्रियों की तुलना में पुरुष डायाफ्राम का उपयोग ज्यादा करते हैं।
मनुष्य में सांस का मूल तत्व यह है कि वातावरण की हवा और फेफड़ों
सांस लेना और छोड़नाः स्थिति-1 आराम की मुद्रा है; इसमें डायाफ्राम ऊपर की ओर उठा हुआ दिख रहा है। स्थिति-2 में सांस खींची जा रही है; इसमें पसलियां मांस पेशियों की मदद से ऊपर की ओर उठ रही हैं और डायाफ्राम नीचे की ओर खींचा जा रहा है। सांस छोड़ते समय फिर से स्थिति-1 को दोहराया जाएगा।
गैसों का आदान-प्रदान: नाक या मुंह से प्रवेश करके श्वास नली से होती हुई वातावरण की हवा छोटी नलियों, और छोटी नलियों, अत्यन्त महीन नलियों से होती हुई अंततः हवा से भरे इन बुलबुलों तक पहुंच जाती है। इसी तरह शरीर में घूम चुका खून भी बारीक होती जाती शिराओं में से होता हुआ इन हवा के बुलबलों के इर्दगिर्द बिठे रक्तनलियों के जाल तक पहुंच जाता है। यहां पहुंचकर खून कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ देता है और ऑक्सीजन ग्रहण कर लेता है। फिर यह ऑक्सीजन-मुक्त खून ह्रदय में से होता हुआ धमनियों के सहारे फिर से शरीर के समस्त अंगों तक पहुंच जाता है।
के बीच गैसों का आदान-प्रदान हो। यदि सांस लेने से संबंधित मांसपेशियां लकबा ग्रस्त हो जाएं तो भी सांस लेने का कार्य कृत्रिम फेफड़ों की मदद से चल सकता है। यह भी कतई ज़रूरी नहीं है कि सांस लेने व छोड़ने के लिए व्यक्ति अपने सीने की धौंकनी को फुलाता-पिचकाता रहे। सांस लेनेछोड़ने का काम तो सीने को हिलाए डुलाए बगैर भी हो सकता है। इसके लिए व्यक्ति को एक स्टील के बर्तन में रख देना होगा जिसके अंदर हवा का दबाव क्रमशः कम-ज्यादा किया जाएगा। एक मिनट में लगभग 15 बार हवा के दबाब में 360 ग्राम/वर्ग सेंटीमीटर का उतार-चढ़ाव पर्याप्त होगा। व्यक्ति को जब ऐसे प्रकोष्ठ में रखा जाता है तो जल्दी ही वह सामान्य अर्थों में सांस लेना बंद कर देता है। उसके फेफड़ों में हवा का फैलना-दबना ही गैसों के आदान-प्रदान के लिए पर्याप्त होता है।
कितनी हवा चाहिए फेफड़ों को
फेफड़ों की बनावट खूब स्पंजी होती है और इनकी सतह का क्षेत्रफल 100 वर्ग मीटर के लगभग होता है। हवा व खून को अलग-अलग रखने वाली झिल्ली अत्यंत महीन होती है। यह हमारे शरीर का सबसे दुर्बल हिस्सा है। सात में से तकरीबन एक व्यक्ति फेफड़े के रोग से मरता है। ये रोग किसी संक्रमण, धूल अथवा दोनों के मिले-जुले प्रभाव से हो सकते हैं। वैसे फेफड़ों के पास अतिरिक्त गुंजाइश काफी होती है कोई व्यक्ति एक ही फेफड़ों के सहारे भली प्रकार जी सकता है। फेफड़ों की अपेक्षा हृदय रोगों से ज्यादा लोग मरते हैं। किन्तु इसका कारण यह है कि हृदय का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है। जिसके बगैर भी काम चल सके। यदि हृदय आधा हो, तो शायद आप पांच मिनट भी नहीं जी पाएंगे।
विश्राम करता कोई व्यक्ति प्रति घण्टे लगभग एक घन फुट ऑक्सीजन का उपयोग करता है। कड़ी मेहनत के दौरान यह खपत दस गुना तक बढ़ सकती है। मनुष्य जितनी ऑक्सीजन की खपत करता है उससे थोड़ी कम कार्बन डाईऑक्साइड (आयतन में कम) उत्पन्न करता है। जब सांस में ली जाने वाली हवा में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 3 प्रतिशत से अधिक हो जाए तो हम गहरी सांस लेने लगते हैं। जब यह 6 प्रतिशत से अधिक हो जाए तो हम बुरी तरह हांफने लगते हैं। इसका एक उदाहरण देखिए। यदि किसी पनडुब्बी में प्रति व्यक्ति 200 घन फुट हवा हो, और सामान्य कामकाज करते समय व्यक्ति 1 घन फुट कार्बन डाईऑक्साइड प्रति घंटा उत्पन्न करे और यदि इस कार्बन डाईऑक्साइड को वहां से कृत्रिम ढंग से न हटाया जाए, तो 24 घंटे के अंदर उस पनडुब्बी के सारे लोग बुरी तरह हांफने लगेंगे।
कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2)की भूमिका
हमारे खून में अधिकांश ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड रासायनिक रूप से संयोजित स्वरूप में रहती है। यदि आप 100 इकाई आयतन खून में पंप द्वारा ऑक्सीजन व कार्बन डाईऑक्साइड निकालें तो लगभग 1820 इकाई आयतन ऑक्सीजन तथा 50-60 इकाई आयतन कार्बन डाईऑक्साइड निकलेगी। इसका अर्थ है कि एक इकाई आयतन खून में लगभग उतनी ऑक्सीजन होती है जितनी हवा के एक इकाई आयतन में। खून में ऑक्सीजन हिमोग्लोबीन नामक लाल रंजक से जुड़ जाती है। आप चाहे कितनी गहरी सांस लें या चाहे शुद्ध ऑक्सीजन लें, यह रंजक तो उतनी ही ऑक्सीजन जोड़ेगा। दूसरी ओर यदि हवा में ऑक्सीजन की मात्रा थोड़ी कम हो जाए, तो भी ऐसा नहीं होता कि यह रंजक कम ऑक्सीजन ले ले।
कार्बन डाईऑक्साइड खून में मूलतः सोडियम बाई कार्बोनेट के रूप में पाई जाती है। चूंकि विभिन्न दुर्बल अम्ल सोडियम के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, इसलिए होता यह है कि यदि आप ज़रूरत से ज्यादा सांस लें तो आपके खून में से काफी सारी कार्बन डाईऑक्साइड निकल भागती है। दूसरी ओर यदि आप ऐसी हवा में सांस लें जिसमें 7 प्रतिशत से ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड है तो आपका खून बहुत ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोख लेता है। दोनों ही स्थितियों में आपको अजीब लगेगा। यदि आप एक कुर्सी पर बैठकर गहरी-गहरी सांसें जल्दी-जल्दी लेने लगें तो संभव है कि एक मिनट में आपकी उंगलियों में झुनझुनाहट होने लगे। यदि आप इसके बाद भी जारी रखेंगे तो शायद आपके हाथ-पैरों में ऐंठन (Cramps) होने लगेगी। कुछ लोगों को इससे ऐच्छिक पेशियों में ऐंठन (Convulsions) होने लगते हैं। और यदि इस लेख का प्रत्येक पाठक यह कोशिश करे तो एक-दो की मृत्यु निश्चित है।
आपके शरीर के सामान्य कामकाज के लिए जरूरी है कि आपके खून व विभिन्न अंगों में सही मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड मौजूद रहे। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि कार्बन डाईऑक्साइड जहर भी है और जीवन की अनिवार्यता भी है। सांस लेने-छोड़ने का नियमन प्रायः इस तरह किया जाता है कि खून में कार्बन डाईऑक्साइड का एक निश्चित स्तर बना रहे। जब व्यायाम के कारण खून में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है तो आप हांफने लगते हैं। यदि इसकी मात्रा कम हो जाए तो आप धीमी गति से सांस लेने लगते हैं, और यह तभी सामान्य गति पर पहुंचती है जब कार्बन डाईऑक्साइड सामान्य स्तर पर पहुंच जाए। सांस की गति का नियमन करने बाला एक कारक और भी है जो गति को तेज़ कर देता है। यह कारक है खून में ऑक्सीजन की मात्रा; जैसे ही यह मात्रा एक मानक स्तर से नीचे हो जाती है, सांस की गति तेज़ हो जाती है। किन्तु नियमन का यह तरीका तभी क्रियाशील होता है जब आप अत्यंत कठोर परिश्रम करें।
मस्तिष्क में पहुंचने वाले खून की लगातार जांच की जाती है। जांच का यह काम कुछ हद तक तो मस्तिष्क की कोशिकाएं स्वयं ही करती हैं, जबकि इसके लिए कुछ विशेष अंग भी होते हैं। ये अंग कैरोटिड धमनी में उपस्थित दाबमापियों के पास स्थित होते हैं। दरअसल सांस लेना व छोड़ना एक ऐसी क्रिया है जो खून के संघटन पर निर्भर है।
वास्तव में सांस लेना व छोड़ना शरीर की उन कई सारी गतिविधियों में से एक है जो हमारी कोशिकाओं का अंदरुनी पर्यावरण एक-सा बनाए रखने का काम करती हैं। चूंकि सांस की क्रिया का अध्ययन सबसे आसान है, इसलिए इसका अध्ययन हुआ तथा इसने अन्य ऐसे क्रिया-कलापों को समझने में मदद दी। रोचक बात यह भू॒ रहता है जब हम अपने फेफड़ों का इस्तेमाल किसी और काम (जैसे बोलने या गाने) के लिए कर रहे होते हैं। आमतौर पर नियमन अचेतन स्तर पर चलता रहता है। किन्तु यदि इसमें खलल पड़े, मसलन हम सांस रोक लें या 7 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड युक्त हवा में सांस लें तो हमें हवा की भूख लगती है। यह एक ऐसी अनुभूति है जो शरीर सबसे प्राथमिक मानता है। यह हमारे शरीर की आम कार्य प्रणाली है - जब तक हमारा शरीर ठीक-ठाक काम करता रहे, हमारा दिमाग उस पर अधिक ध्यान नहीं देता। किन्तु कुछ गड़बड़ होते ही उस और प्राथमिकता से ध्यान दिया जाता है। कुछ ज़रूरतें ऐसी हैं जिन्हें हमारी चेतना भली प्रकार पहचानती है। हम जानते हैं कि कब हमें हवा, पानी या भोजन की कमी हो रही है। बदकिस्मती से, हमें इस बात का भान नहीं हो पाता कि हमें भोजन के किसी खास घटक का अभाव हो रहा है। जैसे ट्रिप्टोफेन या विटामिन-ए। और इसी के साथ हम आ जाते हैं भोजन और पाचन के विषय पर।
जे. बी. एस. हालेनः (1 892-1964) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विज्ञानी। विकास (Evolution) के सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान। विख्यात विज्ञान लेखक प्रस्तुत निबंध 'बॉट इञ्च लाइफ' नाम के संकलन से लिया गया है।
अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य के होशंगाबाद बिज्ञान शिक्षण कार्यक्रम और स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन एवं अनुवाद भी करते हैं।