रेणु बोर्दिया

बचपन से ही मुझे लगता था ५ इन स्कूली किताबों के अलावा भी कुछ और पढ़ने को मिल जाए तो मज़ा आ जाएगा। इत्तफाक से मुझे स्कूली किताबों के अलावा काफी कुछ पढ़ने को मिला। शिक्षिका बनने के बाद मैं अपने पुराने दौर को याद करते हुए बच्चों के लिए एक लाइब्रेरी बनाना चाहती थी। इस लेख के माध्यम से बच्चों के लिए किताब घर बनाने संबंधी कुछ अनुभव मैं आपके साथ बांटना चाहती हूँ।
1993 से मुझे उदयपुर के विद्या भवन स्कूल में अध्यापिका बनकर कार्य करने व सीखने का अवसर प्राप्त हुआ। उन दिनों अध्यापक कक्ष में तीन अलमारियां बाल पुस्तकों से भरी देखी जा सकती थीं जिन पर ताले लटके रहते थे। पूर्व पुस्तकालय प्रभारी की सेवानिवृति के बाद किसी अध्यापक अध्यापिका को इनका चार्ज नहीं दिया गया था। कुछ बाल पत्रिकाएं भी विद्यालय में आ रही थीं जिसे एक अध्यापिका रजिस्टर में नोट कर लेती थी। ये पत्रिकाएं अध्यापक कक्ष में ही रखी रहती थीं। जब कोई अध्यापक अध्यापिका छुट्टी पर होते तो खाली पीरियड में उस कक्षा का लीडर आकर उन पत्रिकाओं को कक्षा में पढ़ने के लिए ले जाता था। दो कक्षाओं के एक साथ खाली होने की स्थिति में जो लीडर पहले आ जाता उसके हाथ पत्रिकाएं लग जाती थीं और दूसरा लीडर अपनी बारी का इंतज़ार करता रह जाता था। एक और समस्या थी कि समय सारणी में पुस्तकालय का कालांश नहीं था। अन्य अध्यापकों अध्यापिकाओं से पूछे जाने पर कि ‘पर्व में पुस्तकालय की व्यवस्था क्या थी?' बताया गया कि पहले पुस्तकालय का कालांश समय सारणी में होता था जिसमें 15 दिनों में एक बार पुस्तक इशू की जाती व बाल-पत्रिकाएं भी पढ़ी जाती थीं।

पुस्तकालय में मेरी रुचि को देखते हुए, काफी प्रयासों व बातचीत के बाद मुझे जूनियर स्कूल के पुस्तकालय की लगभग 4000 पुस्तकों का चार्ज दिया गया। मेरे विशेष अनुरोध पर अध्यापक कक्ष में रखी किताबों की अलमारियों को उनके पुराने स्थान यानी संगीत कक्ष में रखा गया। संगीत अध्यापिका मेरी अच्छी दोस्त थी, उसने मेरी पूरी मदद की।
अब किताबें थीं, जगह थी, लेकिन पुस्तकालय हेतु कोई कालांश नहीं था, न ही उसके मिलने की कोई संभावना चालू सत्र में नज़र आती थी। नियमों के आधार पर बताया जा रहा था कि प्राथमिक कक्षाओं में पुस्तकालय के लिए कालांश नहीं दिया जा सकता। अब जो तरीका नज़र आ रहा था वह यह कि रोज मध्यावकाश में एक-एक कक्षा को और शनिवार को दो कक्षाओं को पुस्तकालय में बिठाने की अनुमति मांगी जाए। मेरा यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। इसमें किसी को कोई एतराज़ नहीं था। चालू सत्र में इस व्यवस्था को प्रभावी तरीके से चलाया गया।
अगले सत्र की शुरुआत में ही सिंहावलोकन मीटिंग में मैंने विधिवत पुस्तकालय के कालांश की मांग की; और शनिवार को एक कालांश बढ़ाकर उसकी पूर्ति की गई। किताबों के एक ढेर को एक लाइब्रेरी में तब्दील करने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता यह बात मेरे आगे के अनुभवों से साफ हो सकेगी।

बच्चों द्वारा पुस्तकों का वर्गीकरण
विद्यार्थियों को यह पता चले कि उनके पुस्तकालय में कौन-कौन-सी पुस्तकें हैं और उनकी पुस्तकें पढ़ने की रुचि जागे इसलिए मैंने अलमारियों की पुस्तकें दरी पर ढेर के रूप में बच्चों के सामने रखवा दीं। अब बच्चों को 5-5 के समूहों में बांटकर निर्देश दिया कि किताबों को विषयानुसार - कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, महापुरुष, नैतिक कथाएं, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, गणित, अंग्रेज़ी आदि के हिसाब से अलग-अलग छांट लें और विषयानुसार अलमारी में निश्चित की गई जगह पर सलीके से जमा दें।

एक बार ऐसी व्यवस्था हो जाने के बाद मुझे इस ओर ज्यादा ध्यान भी नहीं देना पड़ता था। लेकिन बच्चों द्वारा जमकर किए गए इस्तेमाल व मुख्य पुस्तकालय प्रभारी के चेकिंग के कारण पुस्तकें पुनः कुछ मिल-सी गई थीं। इसलिए इस वर्ष पुनः कक्षा 3, 4 व 5 के विद्यार्थियों के साथ यह गतिविधि दोहराई गई। इस बार उन्होंने न केवल किताबों को छांटा बल्कि विषयों के नाम व आधार भी स्वयं तय किए। विद्यार्थियों ने इस कार्य में बड़ी रुचि दिखाई। कुछ पुस्तकों को पढ़ने की रुचि भी जाहिर की। शायद यह काम मुझे अकेले करना पड़ता तो कई दिन लग जाते जो विद्यार्थियों ने बहुत कम समय में कर दिखाया।

किताबें जारी करना
विद्यार्थियों को पुस्तकें देने हेतु इशू रजिस्टर मंगवाए गए। प्रारंभ में जब मैं पुस्तकालय कालांश लंच-टाइम में लेती थी तब समयाभाव के कारण इशु रजिस्टर में क्रमांक, पुस्तक का नाम, विद्यार्थी का नाम, का, विद्यार्थी के हस्ताक्षर, लौटाने की तारीख, पुस्तकालय प्रभारी के हस्ताक्षर व अन्य विवरण ... आदि काफी संक्षेप में भरती थी। इससे कम समय में लगभग सभी विद्यार्थियों को पुस्तकें दे पाती थी। परन्तु अब ऑडिट ऑब्जेक्शन व मुख्य पुस्तकालय प्रभारी के निर्देशानुसार किताबें इशू करने की सभी कवायदें करनी पड़ रही हैं।
पहले वाले तरीके में मुझे बच्चों के अवलोकन का अधिक मौका मिलता था। अब किताबें इशू करने पर प्रत्येक विद्यार्थी के हस्ताक्षर भी लेने होते हैं। जिसमें काफी वक्त जाया होता है।
कक्षा तीन के विद्यार्थियों को जब भी मैं पुस्तक देती या लौटाती तब यह ज़रूर पूछती कि क्या पढ़ा, क्या  अच्छा लगा? इस प्रश्न पर अक्सर उनके चेहरे लटक जाते। वे तो पुस्तकों के आकार को देखकर पुस्तकें चुनते थे मगर उनमें उनके पढ़ने लायक चीजें काफी कम होती थीं। इसलिए इन पुस्तकों की जगह बाल पत्रिकाएं इशू करने की आज्ञा प्रधानाध्यापिका से मांगी। इस मांग की वजह से मुझे अपने साथी अध्यापक-अध्यापिकाओं के विरोध का सामना भी करना पड़ा। उनका कहना था कि नियमानुसार बाल पत्रिकाएं इशू नहीं की जा सकतीं। परन्तु आज्ञा मिल गई और इससे मुझे विद्यार्थियों की पढ़ने के प्रति रुचि बढ़ाने में काफी सफलता मिली।

बाल पत्रिकाए   
बाल पत्रिकाओं में विद्यार्थियों की बड़ी रुचि देखी गई। प्रारंभ में चंपक बना रहा बच्चों का विशेष आकर्षण। सब पत्रिकाओं की एक ही प्रति आती थी यानी कि महीने के शुरू में लगभग 10 से 15 पत्रिकाएं आती थीं, जबकि विद्यार्थी थे लगभग डेढ़ सौ। पहले की तरह यदि ये पत्रिकाएं अध्यापक कक्ष में रखी जाती तो समस्या ज्यों-कि- त्यों बनी रहती इसलिए इन्हें पुस्तकालय कक्ष की अलमारियों में रखा जिस पर ताला भी लगाया गया। इस पर अन्य अध्यापक-अध्यापिकाओं ने आपत्ति भी उठाई किन्तु सही समय पर सभी विद्यार्थियों को पुस्तकालय कालांश में ये पत्रिकाएं सहज ही उपलब्ध हों इसलिए ऐसा करना आवश्यक था। धीरे-धीरे बाल पत्रिकाओं का संख्यात्मक रूप से अच्छा संग्रह हो गया। पिछले पांच सालों से इन बाल पत्रिकाओं को पुस्तकालय में विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है। ये पत्रिकाएं खाली पीरियड में विद्यार्थियों के पढ़ने के काम भी आती हैं।

ऐसा अक्सर होता था कि जब भी कोई नई बाल पत्रिका पुस्तकालय में आती थी तो बच्चों की ओर से उसका पुरज़ोर स्वागत नहीं होता था। जैसे मुझे याद पड़ता है कि 'चकमक' पत्रिका के अंक जब हमारे किताबघर में आने लगे तो मुझे यह पत्रिका बच्चों के लिए काफी उपयोगी लगी। मैंने उन्हें अन्य बाल पत्रिकाओं के साथ रखना शुरू किया। परन्तु शुरुआती समय में बच्चे उसे चंपक के नाम के भ्रम में उठाते और पुनः रख देते। चंपक बाल पत्रिका के तो पढ़-पढ़ कर हाल बुरे हो जाते जबकि चकमक ज्यों-कि-त्यों? तब मैंने उनमें से ‘कागज़ के खेल जैसी चीजें बच्चों से बनवाना प्रारंभ की। तब देखते-ही-देखते बच्चों की रुचि चकमक की सरल सहज कविताओं, कहानियों में बढ़ने लगी। अब पढ़ने में बार-बार अध्यापकों से भी नहीं पूछना पड़ता। वे स्वयं किसी की मदद के बिना पढ़ पा रहे थे।
 
बच्चों के लिए पुस्तकालय    
पुस्तकालय का पीरियड सप्ताह में एक बार ही आता है और यदि किसी सप्ताह विशेष में उस दिन छुट्टी हो तो बस विद्यार्थियों का रोष ...! विद्यार्थियों की पुस्तकों के प्रति तारतम्यता बनी रहे व पुस्तकें उनकी कक्षा में हर समय उपलब्ध हों जिनका उपयोग वे स्वेच्छा से कर सकें इसलिए प्रत्येक कक्षा में सत्र के प्रारंभ में ही पुस्तकें व बाल पत्रिकाएं दे दी जाती थीं जिसका रिकॉर्ड - प्रारंभ में कितनी पत्रिकाएं दी गई व सत्र के अंत में उनमें से कितनी लौटाई गईं, रखा जाता था। उपयोग के आधार पर सत्र के अंत में इस रिकॉर्ड का कक्षावार तुलनात्मक अध्ययन पेश किया जाता है। कक्षा में पुस्तकालय संचालन की जिम्मेवारी कक्षा में से ही स्वेच्छा से आगे आए दो विद्यार्थियों को दी जाती है। इस व्यवस्था के बावजूद भी कक्षा पुस्तकालय की जिम्मेबारी लेने वाले विद्यार्थियों व अन्य विद्यार्थियों में किताबों के लेन-देन को लेकर बहस चलती रहती थी। इसी समस्या से उबरने के लिए पिछले वर्ष एक प्रयोग किया गया।

विद्यालय भवन (जूनियर) में एक कक्षा खाली थी, इसका उपयोग कक्षा पुस्तकालय हेतु किया गया। एक-एक बाल पत्रिका हेतु एक-एक डेस्क रखा गया व उस बाल पत्रिका का नाम व उसकी संख्या डेस्क पर लिख दी गई। खाली पीरियड में विद्यार्थी उस कमरे में जाकर पत्रिकाएं पढ़ते व निकलते समय उन पत्रिकायों को वापस सही स्थान पर रखते। परन्तु फिर भी कई बार अधिक विद्यार्थियों के होने पर अनुशासन की समस्या आ जाती।
इसके अतिरिक्त हमने बच्चों के सामने एक और योजना रखी कि यदि उनके घर में ऐसी कोई पुस्तक, बाल पत्रिका या पुरानी पाठ्य-पुस्तक पड़ी हो तो वो उसे इस पुस्तकालय में जमा करवा दें व उसके बदले में घर पर पढ़ने हेतु बाल पत्रिकाएं ले जा सकते हैं। काफी विद्यार्थियों ने इसमें सहयोग दिया। एक विद्यार्थी की मां ने लगभग 90 बाल पत्रिकाएं जमा करवाई;  जिसमें कई चित्र कथाएं थीं जिनको पढ़ने के लिए विद्यार्थी काफी उत्सुक रहते थे। जब उस छात्र ने अपनी पत्रिकाएं विद्यालय में देखी तो बोल पड़ा यह तो मैंने पढ़ी नहीं। उसे उनमें से कुछ चित्र कथाएं इशू की गई जिसे पढ़कर उसने पुनः जमा करवाई।
इतना सब कुछ चल पड़ने के बाद भी अभी पुस्तकालय के स्वरूप को लेकर कुछ सवाल बरकरार थे।

कुछ नज़ारे हमारी लाइब्रेरी के    
हमारी लाइब्रेरी में कुछ बेहद आम बातें हैं जिन्हें बिना किसी विशेष कोशिश के देखा-समझा जा सकता है।
 कक्षा 3 के विद्यार्थियों के साथ ये समस्या अक्सर आती है कि वे 30 मिनट के पुस्तकालय कालांश में अधिकांश समय पत्रिकाओं या पुस्तकों के चयन में ही निकाल देते हैं। ऐसे कुछ विद्यार्थी कक्षा चार व पांच में भी मिल जाते हैं।
वे स्थिरता से किसी पुस्तक का चयन कर सकें इस हेतु उन्हें थोड़ी मदद की आवश्यकता होती है। प्रारंभ के कई विद्यार्थी आकार के आधार पर पुस्तकों का चयन करते हैं। छोटी या फिर मोटी से मोटी पुस्तकों का चयन करते हैं। पुस्तक लौटाते समय मैं अक्सर उनसे पूछती कि तुमने क्या पढ़ा तो वे उत्तर नहीं दे पाते। तब मैं उन्हें उन पुस्तकों से परिचय करवाती जो वो वास्तव में पढ़ सकते थे। कभी-कभी बाल पत्रिकाएं भी घर पर पढ़ने को देती। अब धीरे-धीरे अपने साथी के पास वाली किताब में पढ़नी है' ऐसी डिमाण्ड भी आने लगी। एक ही पुस्तक के लिए तीन या चार विद्यार्थी पढ़ने के उम्मीदवार हो जाते तब उन्हें अपनी बारी का इंतज़ार भी करना पड़ता।

जो विद्यार्थी पुस्तक पढ़ने में रुचि नहीं लेते उनको कुछ अंतर ढूंढो, शब्द पहेली, वर्ग पहेली आदि करने को कहती। वे सहज ही उससे जुड़ जाते व अगले सप्ताह आते ही उन पत्रिकाओं को ढूंढकर काम करना शुरू कर देते। अक्सर वे यह कार्य दो-तीन साथियों के झुण्ड में करते थे।
यह भी देखा गया है कि यदि कोई विद्यार्थी कोई कहानी पढ़ रहा है और वह अधूरी रह जाए तो विद्यार्थी उस किताब को नीचे कहीं छुपा देता है। ताकि उसे वह दुबारा मिल सके। यह बात जब हमारी समझ में आई तो हमने बच्चों से कहा कि यदि कोई कहानी अधूरी रह जाए तो वे उस किताब पत्रिका को इशू करवा सकते हैं।
जहां बच्चे किताबें पढ़ने में रुचि लेते हैं वहीं फटी हुई किताबों की मरम्मत के लिए भी हर कक्षा से दो बच्चे इस काम के लिए आ जाते हैं।
जहां पढ़ने वाले कक्षा -1 से लेकर कक्षा -5 तक के बच्चे हों, वहां पढ़ने के भी कई तरीके नजर आते हैं।
कक्षा 1, 2 और 3 के बच्चे शब्दों पर अंगुली फेरते हुए ज़ोर-ज़ोर से पढ़ते हुए नज़र आएंगे वहीं कक्षा 5, 6 के बच्चे एकाग्रता से पढ़ते देखे जा सकते हैं। बड़े बच्चे अपनी पढ़ी हुई किताबों पर आपस में चर्चा करते हुए भी देखे जा सकते हैं।

विद्यार्थी हर प्रकार की पुस्तकें पढ़ें इस हेतु उन्हें प्रेरित किया जाता है; चाहे वे कहानी, महापुरुषों के बारे में रोचक जानकारी, विज्ञान, गणित या अन्य विषय ही क्यों ना हों। प्रार्थना सभा व सांस्कृतिक कार्यक्रमों हेतु भी पुस्तकों से अनमोल वचन, कविताएं, चुटकुले, कहानियां आदि के चयन में मदद ली जाती। किसी विद्यार्थी ने कोई पुस्तक पढ़ी तो वह अपने दोस्तों को उसे पढ़ने की सलाह भी देता जिससे उनमें भी उसे पढ़ने की इच्छा जागृत होती। पाठ्यक्रम से जुड़ी संदर्भ पुस्तकें भी समय-समय पर विद्यार्थियों को पढ़ने हेतु दी जाती हैं।
कुछ अन्य प्रयास  
➔    वर्कशॉप, सेमिनार से प्राप्त रपट एवं अन्य संस्थाओं द्वारा दी गई पुस्तकों, लेखों आदि का एक अलग सेक्शन बनाया गया है जिसे संदर्भ हेतु प्रयोग में लिया जाता है।
➔    बाल साहित्य की पुस्तकों का बाहुल्य होने से बी. एड. के प्राध्यापकों द्वारा हिन्दी, गणित व पर्यावरण अध्ययन के कोर्स के दौरान इन पुस्तकों का नियमित प्रयोग किया जाता है।
➔    इस सत्र के शीतकालीन अवकाश में प्रत्येक विद्यार्थी को एक हिन्दी व एक अंग्रेज़ी की पुस्तक दी गई व उसी के आधार पर गृहकार्य दिया गया जो एक नया प्रयोग था।
➔    अध्यापक/अध्यापिकाओं को संदर्भ हेतु जिन पुस्तकों की आवश्यकता होती है उन्हें पुस्तकालय के लिए मंगवाने का प्रयास किया जाता है।
➔    पुस्तकों के चयन हेतु एक समिति बनाई गई जो विद्यार्थियों के स्तर, रुचि व आयु के आधार पर पुस्तकों का चयन करती है।
➔    पिछले वर्षों में कक्षा पुस्तकालय के लिए कुछ पुस्तकें व बाल पत्रिकाएं परमानेन्ट रजिस्टर से हटकर खरीदी गईं, ताकि ये कक्षा में उपलब्ध करवाई जा सकें।
कई बार मैं सोचती हूं कि क्या मामला किताबों के आगे भी बढ़ पाएगा। हमारे पुस्तकालय में सुनने के लिए कैसेट भी होना चाहिए। बच्चे आपस में किताबों के अलावा विचारों का, किसी मॉडल का या गतिविधि का आदान-प्रदान भी कर सकें। पुस्तकालय की अपनी कुछ स्वतंत्र गतिविधियां भी होनी चाहिए।
खैर, योजनाओं की यह फेहरिस्त और भी लंबी हो सकती है। अभी तो बस एक शुरुआत की है। देखना है इस पुस्तकालय को और कितना आगे ले जा सकते हैं; कितनी और योजनाओं को अमली-जामा पहना सकते हैं।


रेणु चोर्नियाः उदयपुर के विद्या भवन स्कूल में अध्यापिका है। बच्चों के साथ विविध गतिविधियां करवाने में रुचि रखती है।