कमलकिशोर कुंभकार
परागकणों का सफ़र कीट, हवा, पक्षियों आदि के माध्यम से फूल के वर्तिकाग्र तक पहुंचकर पूरा होता है। लेकिन किस्सा यहीं खत्म नहीं होता। फूल के वर्तिकाग्र तक पहुंचा परागकण उस फूल की प्रजाति का न हुआ तो वो परागकण वर्तिकाग्र पर वैसा ही पड़ा रहेगा। किन्तु फूल और परागकण एक ही प्रजाति के हुए तो परागकण उस वर्तिकाग्र से पानी और शर्करा जैसे पदार्थ ले सकता है। इस खानपान से परागकण फूलने लगता है और परागनली बनने का सिलसिला शुरू हो जाता है। परागनली बढ़ते हुए वर्तिकाग्न में प्रवेश कर लेती है और धीरे-धीरे अंडाशय तक पहुंच जाती है। यहां परागनली बनने की प्रक्रिया को छह चरणों में दिखाने की कोशिश की है।
परागनली को बनते हुए देखना घास के फूल के साथ भी संभव है।
हमारे आपके लिए फूल भले ही आकर्षण और सुंदरता का पर्याय हो सकता है पर पौधे के लिए यह अधिकतम ऊर्जा खर्च करके अगली पीढ़ी का सूत्रपात करने के लिए बनाया गया एक ऐसा हिस्सा है जो जनन क्रिया से सीधे-सीधे जुड़ा है। कुल मिलाकर फूल जननांगों को धारण करता है। फूल की संरचना में मुख्य रूप से चार भाग अंखुड़ी, पंखुड़ी, पुंकेसर और स्त्रीकेसर होते हैं। इनमें से अंखुड़ी और पंखुड़ी दोनों सहायक भाग होते हैं तथा पुंकेसर नर जननांग व स्त्रीकेसर मादा जननांग हैं। पुंकेसर में नर गेमेट यानी नर जनन कोशिका (पराग कण) और स्त्रीकेसर में मादा गेमेट यानी मादा जनन कोशिका (अण्ड कोशिका) का निर्माण किया जाता है जो निषेचन की क्रिया से अर्थात मिलकर बीज बनाते हैं।
इस क्रिया के दौरान फूल के परागकोष फटते हैं और इनमें से हज़ारों की संख्या में परागकण निकलकर आसपास फैल जाते हैं। इनमें से कुछ परागकण स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र (Stigrma) पर पहुंच जाते हैं। इस प्रकार पराग कणों का स्त्रीकेसर तक पहुंचना परागण (Pollination) कहलाता है। हवा, कीट, पानी, जानवरों, मनुष्यों आदि के द्वारा परागण का यह कार्य होता है। बहरहाल इस के बारे में और चर्चा न करते हुए हम इस लेख के खास मुद्दे पर आ जाते हैं।
निषेचन की विधि
परागण के दौरान परागकण तो स्त्रीकेसर के वर्तिका पर गिरते हैं, पर स्त्रीकेसर के नीचे स्थित अण्डू कोशिका के साथ अपने केन्द्रक को मिलाने के लिए परागकण के सामने मुख्य बाधा होती है स्त्रीकेसर की लम्बी वर्तिका। इस लम्बी वर्तिका (स्टाइल) को पार करने के लिए परागकण वर्तिकाग्र की सतह पर अंकुरित होता है और एक लम्बी नलिका बनाकर वर्तिकाग्र को भेद देता है। इसके बाद यह परग नलिका नर केन्द्रक को लेकर वर्तिका में वृद्धि करती जाती है और अंत में नर केन्द्रक को अण्ड कोशिका से मिला देती है। इस मिलन यानी निषेचन से बीज बनने की शुरुआत होती है।
पराग अंकुरण का महत्व
फूलों के पराग कणों का अंकुरण पौधों के जीवन की निरंतरता बनाए रखने के लिए बहुत आवश्यक है क्योंकि पराग कणों में अंकुरण नहीं होने मात्र से ही बीज बनना रुक सकता है। प्रयोगशाला में पराग कणों के अंकुरण को अध्ययन करने की विधि में पराग कणों को पानी में या शक्कर के हल्के घोन में कुछ देर रखते हैं और बाद में सुक्ष्मदर्शी से देखने पर इनमें लम्बी - लम्बी पराग नलिका दिखाई देती है। अक्सर इस छोटे से प्रयोग मात्र से ही पराग अंकुरण देखकर संतोष कर लिया जाता है। हालांकि प्राकृतिक रूप से होने वाले पराग अंकुरण को एक सरल प्रयोग के जरिए देखा जा सकता है। अर्थात इस प्रयोग में पराग कण, पराग नलिका, स्त्रीकेसर का वर्तिकाग्न और वर्तिका एक साथ देखे जा सकते हैं।
यहां रेखाचित्र के द्वारा स्टिग्मा के एक रोम पर पड़ा पराग कण और उसकी अंडाशय की ओर जाती पराग नली को दिखाने की कोशिश की गई है।
पौधे की पहचान
यह पौधा वास्तव में एक घास है, जो हमारे आसपास पाई जाती है। हो सकता है चित्र देखकर शायद तुरन्त पहचान में आ जाए; और यदि पहचानने में दिक्कत हो तो किसी वनस्पति-शास्त्री से पूछा जा सकता है। इसे वनस्पति शास्त्र की भाषा में ‘डाइकेन्थियम एन्यूलेटम' कहा जाता है जिसमें सबसे ऊपर तीन से पांच तक बालियां लगी होती हैं। पहचान का एक तरीका है इसकी गठानों पर मिलने वाले रोओं का घेरा यानी एन्युलूस। पहचान के लिए इस घास का फोटो पीछे के अंदर के आवरण पर दिया गया है।
ये बालियां वास्तव में इस घास के फूलों का समूह (पुष्पक्रम) होती हैं जिनमें छोटे-छोटे अनेक फूलों में से बाहर झांक रहे स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र देखे जा सकते हैं। इनमें पुंकेसर भी बाहर लटकते हैं।
प्रकृति बनाम प्रयोगशाला
प्रयोगविधि के पहले एक बात जान लेनी चाहिए कि जीव-विज्ञान के अध्ययन के दौरान किसी भी घटना को पूरी तरह उसकी वास्तविक और प्राकृतिक स्थितियों में देखा-समझा जाए तब इसे ‘इन विवो' स्थिति कहते हैं, जबकि प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से इसे करके देखने की विधि को 'इन विट्रो' स्थिति कहते हैं।
पराग अंकुरण की प्रयोगशाला विधि में केवल पानी और शक्कर की आवश्यकता होती है जबकि प्राकृतिक स्थिति में अध्ययन के लिए साधारण रसायनों की जरूरत पड़ती है।
ऐसे करें प्रयोग
इस घास में प्राकृतिक स्थिति में संपन्न पराग अंकुरण को देखने की विधि इस प्रकार है। सबसे पहले एक सूक्ष्मदर्शी, पोटेशियम हाइड्रॉक्साइड का 4 प्रतिशत घोल (कास्टिक पोटाश), लेक्टिक अम्ल का सांद्र घोल, कॉटन ब्लु (कवकों को रंगने वाला रंजक जो स्नातकोत्तर प्रयोगशाला में मिल जाता है), स्लाइड, स्प्रिट लेम्प या मोमबत्ती आदि को इकट्ठा करना होगा। ये सब सामग्री जुटाने के बाद इस तरह से आगे बढ़ना होगा।
चित्र देखकर या किसी अनुभवी से पूछकर डाइकेन्थियम घास का पौधा खोजकर इसकी बाली वाला हिस्सा तोड़ लेते हैं। इस पौधे के फूलों के पुष्पक्रम में रोमयुक्त (फेदरी) स्टिग्मा हल्के चमकदार व बैंगनी रंग के होते हैं जो बाहर झांकते दिखाई देते हैं। इस पौधे को तोड़कर लाने के लिए दोपहर का समय अच्छा होता है क्योंकि आमतौर पर इसी समय इसके पुंकेसर फटते हैं जिनसे पराग कण निकलकर स्टिग्मा पर धूल के समान पदार्थ के रूप में चिपके दिखाई देते हैं।
फिर, इस बाली (पुष्पक्रम) से स्टिग्मा निकालकर या बाली सहित सभी स्टिग्मा को कास्टिक पोटाश के घोल में डालकर तब तक गर्म करते हैं जब तक कि परखनली के विलयन का रंग हल्का पीला न हो जाए। इसके बाद इस बाली को लेक्टिक अम्ल में डालकर साफ करते हैं। यह अम्ल इसके उतकों को साफ करता है।
तत्पश्चात, स्लाइड पर स्टिग्मा वाले भागों को रखकर इन्हें कॉटन ब्लू नामक रंजक से रंग देते है। यह रंजक यदि लेक्ट्रोफिनोल में बना हो तो बेहतर होगा। इस रंजक का सामान्यतः कवकों (फंजाई) को रंगने में उपयोग करते हैं। यह रंजक काइटिन को नीला रंग देता है। इस प्रयोग में इसका उपयोग इसलिए करते हैं क्योंकि पराग नलिका की भित्ती यानी दीवार भी काइटिन की बनी होती है, जो स्टिग्मा को भेदकर धंसने में सहायक होती है।
रंगने के बाद इन स्टिग्मा का ग्लिसरीन डालकर, कवरस्लिप रखकर स्लाइड बना लेते हैं तथा सूक्ष्मदर्शी में रखकर देखते हैं। इस स्लाइड में चित्रानुसार पंखनुमा (फेदरी) स्टिग्मा तथा इन पर पड़े पराग कण दिखते हैं। इन पराग कणों से निकली हल्के नीले रंग से रंगी पराग नलिका स्टिग्मा में से होकर जाती हुई दिखाई देती है। यदि स्लाइड सावधानी से बनाई गई है और इस घास का जो पौधा आपने चुना है उसमें पर्याप्त परागण हुआ हो। तो पराग नलिका में नर केन्द्रक भी देखे जा सकते हैं।
कमलकिशोर होमकार: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यम से संभव। उज्जैन में रहते हैं।