शुरोजीत सेनगुप्ता

गैसों का कोई निश्चित आकार और आयतन नहीं होता। आप इस बात से किस हद तक सहमत हैं?
चलिए सीधे ही आपसे एक सवाल पूछ लेते हैं - सवाल रसायन शास्त्र या भौतिक शास्त्र के उस अध्याय से जुड़ा है जिसका शीर्षक ‘पदार्थों की अवस्थाएं' होता है। इस अध्याय में अक्सर निम्न कथन पाए जाते हैं:
1. गैसों का कोई निश्चित आकार और आयतन नहीं होता।
2. द्रवों का आयतन तो निश्चित होता है, लेकिन आकार नहीं।
3. ठोस का आयतन और आकार दोनों ही निश्चित होते हैं।

मामला गैस के आयतन का     
अब भई, इन वाक्यों को पढ़कर मुझे तो पसीना आ गया - क्या आपके साथ ऐसा नहीं हुआ? अब देखो ज़रा, खाना पकाने वाली गैस का आयतन और आकार निश्चित होता है ना ... आयतन और आकार उस सिलिंडर के बराबर जिसमें कि वह भरी रहती है।
लेकिन आप कहेंगे कि यह भी भला कोई बात है - गैस जिस किसी भी बर्तन में रखी जाती है उसी का आकार और आयतन ग्रहण कर लेती है। जरा सिलिंडर का वाल्व खोल दीजिए - सारा कमरा गैस से भर जाएगा और अगर खिड़कियां खुली हों तो सारा पड़ोस गैस की रिसन से महक उठेगा। अगर गैस भोपाल के हादसे में निकली गैस की तरह घातक है तो कई लोग बीमार भी पड़ जाएंगे।
लेकिन मैं अभी भी आपके इस तर्क से असहमत हूं - बताता हूं क्यों?
चलिए, डॉक्टर के इंजेक्शन की तरह एक बड़ा-सा सिलिंडर बनाते हैं, जिसमें एक तरफ गैस जाने के लिए छेद हो और दूसरी ओर पिस्टन जो अंदर बाहर हो सकता है, यानी सिलिंडर का आयतन घटाया-बढ़ाया जा सकता है, परन्तु गैस बाहर की ओर रिस नहीं सकती। चलिए अपने इस सिलिंडर में छेद के ज़रिए गैस भरते हैं - आपको क्या लगता है कि क्या होगा?

जैसे ही गैस अंदर की ओर भरेगी, पिस्टन खिसकेगा ताकि गैस के अणुओं के लिए जगह बन सके। जैसे-जैसे अधिक अणु भीतर आएंगे आयतन भी बढ़ता जाएगा। लेकिन जब गैस का प्रवाह रुक जाए और छेद को भी बंद कर दिया जाए, तो अब आयतन भी और नहीं बढ़ता। यानी कि यह आयतन अब निश्चित है। यहां देखिए मिलिंडर के अंदर भरी गैस मुक्त है। चाहे जितना फैलने के लिए - लेकिन ऐसा नहीं होता, गैस और नहीं फैलती - गैस का आयतन निश्चित रहता है। ऐसा क्यों? 
गैस के अणु सिलिंडर की दीवारों से लगातार टकराते हैं और टिप्पा खाकर वापस फिका जाते हैं। टकराने पर हर अणु एक तरह से दीवार पर एक छोटा-सा धक्का लगाता है। एक अणु का धक्का तो नगण्य ही होगा, लेकिन सब मिलाकर इतने सारे अणु होते हैं कि कुल बल आगे-पीछे हो पाने वाली दीवार यानी पिस्टन को खिसका देता है। जैसे ही पिस्टन पीछे की ओर जाता है, अंदर की जगह थोड़ी और बढ़ जाती है। फलस्वरूप गैस के कणों की दीवार पर टक्कर की संख्या प्रति/सेकेण्ड थोड़ा कम हो जाती है, इस तरह लग रहा बल भी थोडा घट जाता है। वहीं दूसरी तरफ बाहर से भी हवा के अणु पिस्टन और इस इंजेक्शननुमा बर्तन की दीवारों पर बाहर से टक्कर मारते रहते हैं। यह विपरीत बल पिस्टन को अंदर की तरफ धकेलने की कोशिश करता है। इस स्थिति में पिस्टन उस स्थिति में रुकता है जहां अंदर और बाहर दोनों तरफ से लग रहे बल संतुलन में हों।

दीवार पर लग रहे बल को अगर दीवार के क्षेत्रफल से विभाजित कर दें तो हमें जो मिलता है उसे दबाव कहते हैं। गैस के दबाव को अगर हम उसके आयतन से गुणा कर दें तो जो संख्या मिलती है - वह गैस के कुल अणुओं और उनकी औसत गति जिससे वे दीवार से टकराते हैं, के समानुपाती होती है। और गति ताप से निर्धारित होती है, गैस जितनी अधिक गर्म, अणुओं की गति उतनी ही अधिक होगी। एक निर्धारित दबाव, तापमान और अणुओं की संख्या के मद्देनजर किसी गैस का आयतन भी निश्चित होता है। भौतिक और रसायन के इस मूलभूत नियम को 400 साल पहले खोजा था इंग्लैंड के रॉबर्ट बॉयल ने, जो आइज़क न्यूटन का समकालीन था।
लेकिन उस गैस के आकार वाले सवाल का क्या हुआ? 
 
इंजेक्शन की बड़ी-सी सीरिज जैसी रचना जिसके ऊपर की ओर छेद है जिसमें से हवा अंदर डाली जा सकती है और जरूरत पड़ने पर उसे बंद भी किया जा सकता है। नीचे की तरफ ऐसा पिस्टन है जिस पर थोड़ा-सा धक्का लगने पर भी वह सरक जाएगा, परन्तु फिर भी पिस्टन के किनारों से गैस नहीं रिस सकती। सवाल यह है कि अगर इस सिलिंडर में एक निश्चित मात्रा में गैस डालें तो पिस्टन बाहर की ओर सरकता ही जाएगा या कहीं जाकर रुक जाएगा। और ऐसी स्थिति में गैस के आयतन के बारे में क्या कहा जा सकता है - वह निश्चित होता है या नहीं?

मामला गैस के आकार का     
उम्मीद है कि यह कथन कि गैसें और द्रव का आकार उस बर्तन के आकार पर निर्भर है जिसमें वो रखे जाते हैं - सही होना चाहिए; क्योंकि हममें से शायद किसी ने भी गैस के घन को या फिर द्रव के गोले को अपने आप ही हवा में खड़े होते नहीं देखा। गैसों और द्रवों का कोई निर्धारित आकार नहीं होता, वे वही आकार ग्रहण कर लेते हैं जिसमें कि उन्हें रखा जाता है। लेकिन जरा दिल थाम लीजिए - मैंने हकीकत में द्रव के एक गोले को अपने आप ही स्वतंत्र खड़ा रहते देखा है - बिना बर्तन की किसी दीवार का सहारा लिए, डिस्कवरी चैनल पर! चलिए इसकी पड़ताल करते हैं।
 
गैस का गोला: बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेपच्यून हमारे सौर मंडल के बड़े-बड़े ग्रह हैं लेकिन बनावट के हिसाब से ये गैस के विशालकाय गोले भर हैं। वैसे तो सूरज भी एक विशाल गैसीय पिंड है। इस फोटोग्राफ में बृहस्पति ग्रह दिख रहा है।

गुरुत्वाकर्षण, धरती पर मौजूद हर आकार पर अपना प्रभाव डालता है। इसलिए गैस, द्रव और ठोस के प्राकृतिक रूप के बारे में जानने के लिए हमें ऐसी जगह जाना पड़ेगा जहां गुरुत्वाकर्षण बिल्कुल ही नहीं हो, जैसे कि धरती की कक्षा में घूम रहा कोई अंतरिक्ष यान। जब गुरुत्व शून्य या. नगण्य हो जाता है तो गिलास में भरा पानी कूद कर बाहर आ जाता है और पारदर्शी गोलेनुमा आकार ग्रहण कर लेता है, यानी द्रव किसी भी बर्तन का आकार ग्रहण करने से मानों इंकार कर देता है। हांलाकि आप पाएंगे कि आप इस गेंद के आकार को अदलबदल सकते हैं, इस गेंद को हौले-से झटका दीजिए और यह कई छोटीछोटी गेंदों में बदल जाती है। वहीं इसे अगर छेड़ा नहीं जाए तो यह अपने आप में एक पूर्ण गोला होता है। दरअसल गोला किसी भी द्रव के लिए सबसे प्राकृतिक आकार है क्योंकि किसी दिए गए आयतन के लिए गोले का पृष्ठ क्षेत्रफल सबसे कम होता है और इस आकार में परमाणु भी एक-दूसरे से सबसे करीब रहते हैं।

गुरु, शनि, नेपच्यून - गैस के पिंड   
इसी तरह अगर गैसों को भी विचलित न किया जाए तो वे भी गोलीय आकार ग्रहण करना चाहेंगी लेकिन इसके लिए गैस की काफी अधिक मात्रा की जरूरत पड़ेगी। गैसों की काफी बड़ी मात्रा जो गुरुत्वाकर्षण के सहारे आपस में थमी हो दरअसल गोलीय आकार की ही होगी। और मैं काफी बड़ी मात्रा की ही बात कर रहा हूं। कितनी बड़ी? गुरु, शनि, नेपच्यून के आकर जितनी बड़ी। हमारे सौर मंडल के ये ग्रह दरअसल गैस की बड़ी-बड़ी गेंदें हैं, और तो और अपना सूर्य भी एक ऐसा ही गैस का गोला है। यदि गैस की मात्रा काफी बड़ी है तो गुरुत्व की वजह से यह भीतर की ओर इकट्ठा होना शुरू हो जाती है यानी ‘कोलेप्स' की वजह से घनी होने लगती है। जब यह गेंद काफी घनी हो जाती है तो इसका तापमान काफी बढ़ जाता है। एक निश्चित सीमा के बाद तापमान इतना अधिक हो जाता है कि हाइड्रोजन हीलियम में परिवर्तित होने लगती है; और इस प्रक्रिया में काफी अधिक ऊष्मा और रोशनी उत्सर्जित होती है। जब सर्य के आकार का तारा - जो कि यूं तो काफी छोटा है ब्रह्मांड के अन्य तारों के संदर्भ में, बूढ़ा होता है तो इसका बाहरी हिस्सा फैलता है और ठंडा हो जाता है। वहीं अंदर का ठोस हिस्सा यानी केन्द्र और सिकुड़कर जिस संरचना में बदलता है। उसे हाइट ड्वार्फ यानी सफेद बौना तारा कहते हैं। इसका बाहरी खोल एक धुंधली-सी रोशनी से चमकता रहता है जिसे प्लेनेटरी नेब्युला कहते हैं, जैसे कि लाइरा तारामंडल में चमकता हुआ रिंग नेब्युला।

गैंसे, द्रव और ठोस के मुकाबले ज्यादा लचीली होती हैं और गैस की किसी बड़ी मात्रा का आकार उन बलों पर निर्भर करता है जो उन पर लग रहे होते हैं। पुच्छल तारे के उदाहरण को देखिए - जब वे सूर्य से दूर होते हैं तो सिर्फ गैस और बर्फ के मिलेजुले गोले-से होते हैं। जब वे सौरमंडल के भीतरी हिस्से में दाखिल होते हैं तो सूर्य से निकल रहे आवेशित कणों की धारा गैस के कणों को पीछे धकेल देती है और इनकी पूंछ-सी बन जाती है। आपने शायद कभी पुच्छल तारे को निहारा हो या फिर चित्र में देखा हो; अभी पिछले कुछ दशकों में भारत में भी कुछ पुच्छल तारे दिखाई दिए।
 
रिंग या प्लेनेटरी नेब्युलाः लायरा तारामंडल में दिखाई देने वाली प्लेनेटरी नेब्युला। इस तरह की अनेक नेब्युला इस ब्रह्मांड में मौजूद हैं। जब पहली बार इस तरह की नेब्युला को टेलीस्कोप से देखा गया तो वो यूरेनस-नेपच्यून के समान दिखाई दे रही थी इसलिए इसे प्लेनेटरी नेब्युला कहा गया। इस किस्म की नेब्युला में एक मंद चमक वाले लेकिन बेहद गर्म तारे के चारों ओर गैसीय पदार्थ का घेरा होता है। तारे से निकलने वाले पराबैंगनी विकिरण की वजह से बाहर का गैसीय पदार्थ चमकता है।
पिलर्स ऑफ हरक्युलिस नाम का नेब्युला जिसमें गैस ने अत्यन्त विचित्र आकार अख्तियार किया हुआ है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि ब्रह्मांड के हमारी आकाशगंगा में पाए जाने वाले इस इलाके में तारों का निर्माण जारी है।

एक तो अप्रैल, 2002 में सवेरे-सवेरे दिखाई देता था। इसका नाम था इकेया-झांग।
कभी-कभी तो गैस कुछ विचित्र से आकार ले लेती है। इस चित्र को देखिए यह एक अन्य नेब्युला का है। जिसे एम-16 या ‘पिलर्स ऑफ हरक्युलिस' भी कहते हैं। इसमें गैस के दो स्तंभ एक दूसरे के भीतर बहते या समाए हुए से लगते हैं। एक स्तंभ घना और काला है, वहीं दूसरा हल्का और चमकीला है। जब वैज्ञानिकों ने इस नेब्युला को समझना शुरू किया तो हमें गैसों की संरचना और गुणों के साथ-साथ उन पर लग रहे बलों के बारे में काफी कुछ जानने को मिला।
 
तो ठीक क्या है?  
तो चलिए कहानी की इति करते हैं - उस वाक्य के साथ जो हमें लगता है कि पाठ्यपुस्तकों में दिया जाना चाहिए। गैस, द्रव और ठोस तीनों का निश्चित आकार और आयतन होता है और यह उन पर लग रहे बलों पर निर्भर करता है। गैसों का आकार और आयतन परिवर्तित करना तुलनात्मक रूप से ज्यादा आसान होता है क्योंकि इनके अणु एक दूसरे के काफी दूर होते हैं।
द्रव के अणु एक दूसरे के काफी पास होते हैं इसलिए उनका आयतन परिवर्तन काफी मुश्किल है। लेकिन उनका आकार परिवर्तित कर पाना अपेक्षाकृत आसान है - क्योंकि द्रव के अणु यहां-वहां जा सकते हैं, लेकिन गैस जितना आसानी से नहीं। द्रव और गैस के किसी बर्तन के आकार में ढलने के लिए गुरुत्वाकर्षण जिम्मेदार है।

वहीं ठोस में अणु एक दूसरे के काफी करीब होते हैं - और यहांवहां नहीं घूम सकते। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ये स्थिर होते हैं बल्कि ये इधर-उधर इस तरह से होते हैं कि अपने पड़ोसी अणुओं से जुड़े रहते हैं। इस वजह से ठोस का आकार और आयतन बदलना इतना आसान नहीं होता - हालांकि यह असंभव भी नहीं होता। आखिर स्टील की चादर को ही मोड़-तोड़कर कार के ढांचे को बनाया जाता है - हां, इसमें बल जरूर अधिक लगता है।
किसी भी पदार्थ का आयतन बदलने के लिए जितने बल की ज़रूरत होती है उसे बल्क मोड्युलस यानी आयतन प्रत्यास्थता गुणांक कहते हैं; जबकि शीयर मोड्युलस या विरूपण प्रत्यास्थता गुणांक बल की उस मात्रा को दर्शाता है जो पदार्थ का आकार या रूप (शेप) बदलने के लिए जरूरी है। इसलिए सही कथन इस प्रकार होंगे:
1. गैसों का बल्क मोड्युलम कम होता है और शीयर मोड्युलस एकदम शून्य।
2. द्रव में बल्क मोड्यूलस काफी ज्यादा होता है और इनमें भी शीयर मोड्युलस शून्य होता है।
3. ठोस पदार्थों में बल्क मोड्युलस और शीयर मोड्युलम दोनों बहुत ही अधिक होते हैं।


हिन्दी अनुवादः दीपक वर्मा: संदर्भ पत्रिका से मंबंद्ध।
यह लेख जंतर-मंतर पत्रिका के जुलाई-अगस्त, 2002 अंक मे माभार।