किशोर पवार

जी हां, यह सौ फीसदी सच बात है। पौधों के लिए जितना आसान है भोजन बनाना, उतना ही मुश्किल है। भोजन चुराना। लेकिन इस तरह भोजन जुटाना भी काफी मशक्कत भरा काम है इसके लिए अपनी जड़ों, पत्तियों, फूलों और दूसरे सूक्ष्मजीवों की मदद भी लेनी पड़ती है। और भी कई पापड़ बेलने पड़ते हैं।
 
अपने दम पर हवा पानी और धूप से भोजन बना लेने वाले हरे पेड़ों की दुनिया में कुछ ऐसे भी पौधे हैं जिनमें अन्यान्य कारणों से यह गुण नहीं होता। मसलन भोजन बनाने के लिए चाहिए पानी व खनिज सोखने वाली जड़ें, क्लोरोफिल युक्त हरी पत्तियां व अन्य हिस्से और सुर्य का प्रकाश। अब यदि इनमें से किसी भी एक का अभाव हो तो ज़ाहिर है भोजन बनाना संभव न होगा।
मान लीजिए कि आपके घर में दाल, चावल, आटा, नमक, मिर्च तो है पर बर्तन नहीं हैं तो खाना बनेगा किसमें? यदि बर्तन भी हैं परन्तु लकड़ी या गैस अर्थात ऊर्जा नहीं है तो भोजन पकेगा कैसे? कारण जो भी हों, ऐसा ही कुछ पौधों के साथ हुआ है। किसी के पास पत्तियां तो ढेर सारी हैं जैसे चन्दन और चीड़ के पेड़, परन्तु लायक जड़े नहीं हैं जो मिट्टी से पानी व खनिज लवण सोख सकें। कुछ वनस्पतियां ऐसी भी हैं जिनके पास न तो पत्तियां हैं और न ही जड़े जैसे अमर बेल, तो भला बात बने तो कैसे?

परन्तु ये पौधे हैं कि हिम्मत नहीं हारते या फिर यूं कहिए कि इनका विकास कुछ ऐसे हुआ है कि कुछ जोड़-तोड़ कर जैसे-तैसे कुछ यहां से, तो थोड़ा कहीं और से, अपना भोजन हासिल कर ही लेते हैं। बिना छोटा-बड़ा देखे। बिना जात-पात के बन्धन के। इनका तो उद्देश्य एक मात्र है - जैसे भी हो जीवित रहने के लिए भोजन जुटाना और वंश को बनाए रखना। इसके लिए इनमें तरह-तरह के उपाय विकसित हुए हैं। तरह-तरह के संबंध जोड़ने होते हैं, नए-नए अंग विकसित हुए इस दौरान इनमें - संबंधों को मज़बूत बनाने हेतु और भोजन को चुराने के लिए। आइए, ऐसे ही कुछ उपायों का जायजा लिया जाए। शुरुआत करते हैं हमारे चिरपरिचित पेड़ चन्दन से।

चदन यानी उधार की खुशबू   
सौंधी-सौंधी सुगन्ध देने वाला चन्दन का पेड़ आंशिक रूप से परजीवी है। इसमें बाकायदा सामान्य रंग-रूप की हरी पत्तियां होती हैं। 30-40 फीट ऊंचा सदा हरा रहने वाला यह पेड़ पत्तियों की बदौलत प्रकाश संश्लेषण के द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाने में सक्षम है, परन्तु इस हेतु लगने वाला पानी व खनिज लवण इसे दूसरे पेड़ों से प्राप्त करने पड़ते हैं।

अपनी शुरुआती ज़िन्दगी का पहला साल चन्दन का पौधा खुद अपने बलबूते पर खींच लेता है, परन्तु इसके बाद जिन्दा रहने के लिए यह शीशम, शिरीष, यूकेलिप्ट्स, रीठा, बबूल, करंज, साल, हर्रा, खेर और अर्जुन जैसे पेड़ों से अपना नाता जोड़ता है। चन्दन की जड़े जमीन के अन्दर-ही-अन्दर पोषक
 
जड़ों से भोजन जुटाना: यहां परजीवी पौधे द्वारा अपनी जड़ों को दूसरे पौधे की जजों से जोड़कर अपनी भोजन संबंधी जरूरतों को पूरा करने का एक उदाहरण दर्शाया गया है।  चित्र: अ में आपस में दो लिपटी हुई जड़ें दिखाई दे रही हैं। गहरे रंग वाली जुनीपरिम मोनोस्पर्मा की जड़ है जो मेजबान पौधा है। हल्के रंग वाली जड़ पेडिकुलेरिम मेंटेनधिका की है जो परजीवी है। चित्रः च में उस जगह का क्रॉस सेक्शन है जहां परजीवी में मेजबान जड़ को थाम रखा है। यहां परजीवी तंतु मेज़बान जड़ के जायलम में घुम गए है। चित्र: स में दाहिनी ओर डोटी, गहरे रंग की जड़ मेजबान की है जिसके अंदर बाई और की हल्के रंग की परजीवी जड़ घुस गई है।
 
आंशिक परजीवी लोरेन्थसः आंशिक परजीविता का एक और उदाहरण - किसी पेड़ के तने पर जड़ें फैलाता हुआ हरी पत्तियों वाला लोरेन्थस।
पेड़ों की जड़ों से जा चिपकती हैं। चिपकने का काम कुछ विशेष प्रकार की चूषक जड़े करती हैं जिन्हें चूषकांग (हॉस्टोरिया) कहते हैं। चन्दन एक आंशिक रूप से जड़-परजीवी है क्योंकि शेष भोजन इसकी पत्तियां बनाती ही हैं। चूंकि चन्दन में खुशबू इसके परिपक्व होने पर ही आती है जिसमें अन्य पेड़ों का भी योगदान रहता है, अतः इसकी खुशबू उधार की ही हुई न! चन्दन की लकड़ी बहुत महत्वपूर्ण होती है और कई धार्मिक अनुष्ठानों में काम आती है। इसकी महत्ता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है। कि इसकी तस्करी भी खूब होती है।
चीड़: सहारे की ज़रूरत   
प्रकृति में सूक्ष्म और विशाल के बीच पनपा एक अनूठा रिश्ता है। माइकोराइजा (माइकोस यानी फफूद और राइज़ोम यानी जड़)। पोषण के लिए बना यह संबंध ऊंचे-ऊंचे विशालकाय चीड़, ओक व बर्च और सूक्ष्म फफूदी का है। इन पौधों की। जड़ों में अन्य पौधों की तरह मिटटी से पानी व खनिज लवण सोखने वाले मूल रोम नहीं होते। ऐसी स्थितियों में इन ऊंचे पेड़ों के लिए भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा पानी कैसे सोखा जाए, यह एक बड़ी समस्या होती है, जिसका निदान सूक्ष्म फफंदों की सहायता से किया जाता है। वैसे फफूदों को भी अपने भोजन का कुछ हिस्सा इन पेड़ों से मिलता रहता है। कुछ लेना, कुछ देना की तर्ज पर बना यह रिश्ता बीज धारण करने वाले 80% परिवारों में पाया जाता है; जो यह बताता है कि बड़ा होने के लिए भी कमज़ोर की मदद लगती है।
बड़े पेड़ व लघु फफूदी का यह संबंध दो तरह का होता है। कुछ पेड़ों की जड़ों पर यह बाहरी आवरण के रूप में रहती है जैसे चीड़ और ओक। जबकि मैपल में यह जड़ों के अन्दर ही अपना डेरा जमा लेती हैं। जड़फफूदी संबंध में जो फफंदें जड़ से चिपकी रहती हैं उनके नाम हैं - सीनोकोकम, जीऐस्ट्रम व स्केलोडर्मा।

अमरबेलः एक नहीं हज़ार जड़े   

एक्टोट्रोफिक फफूंद यानी ऐसी फफूंद जो जड़ों के संपर्क में और आसपास  फेल कर पेड़ को खनिज, लवण व पानी उपलब्ध करवाती है। बाएं चित्र में सफेद चीड़ का तीन साल का पौधा जिसकी जड़ों के आसपास फफूंद नहीं है और दाहिनी ओर चीड़ का एक ऐसा पौधा जिसकी जड़ों के आसपास खूब सारी फफूंद फैल गई है।
एंबोट्रोफिक फफूंद यानी वो फफूंद जो जड़ों के अंदर घुस गई है और इम उदाहरण में ऑर्किड़ की जड़ों की कोशिकाओं के इर्द-गिर्द दिखाई दे रही है। यह रिश्ता परजीवी नहीं है बल्कि सहजीवी है क्योंकि फफूंद एक तरफ पौधे को पानिज, लवण, नाइट्रोज" आदि उपलब्ध कराती है तो दूसरी ओर जड़ों में में शर्करा व अन्य कुछ पदार्थ चूस भी लेती है।
 
अमरबेल का तो नाम ही रोचक है। यह बिना जड़ की एक हरी-पीली, बिना पत्ती की, मोटी धागेनुमा बेल है। यदि इसे तोड़कर दूसरे पौधों पर डाल दें तो यह वहां भी अपना डेरा जमा लेती है। इसका बंगाली नाम स्वर्णलता, इसके सुनहरी रूप की ओर इशारा करता है। संसार में इसकी लगभग 180 प्रजातियां मिलती हैं। हमारे यहां कस्क्यूटा रिफलेक्सा और कस्क्युटा चाइनेनसिस प्रजाति सामान्यता देखी गई है। इस पौधे के पास न तो पत्तियां हैं, न ही ज़मीन से जोड़ने वाली जड़। अतः भोजन न बना पाने की स्थिति में इसे भोजन चुराना पड़ता है।
यह एक पूर्णतः परजीवी बेल है। जिसे अपना भोजन पोषक पौधों से प्राप्त करना पड़ता है। हालांकि अमरबेल में ज़मीन से जोड़ने वाली मुख्य जड़ नहीं है परन्तु इसके तने से जगह-जगह पर विशिष्ट प्रकार की हज़ारों चूषक जड़े निकलती हैं, जो इसे पोषक के तने से चिपकाए रखती हैं, और वहां से अपने लिए बना बनाया भोजन प्राप्त करती रहती हैं।

अमरबेल को अमर बनाने में इन खूंटे के समान जड़ों का विशेष योगदान है। इन जड़ों के सिरों पर उंगलीनुमा रचनाएं पाई जाती हैं जो पोषक के तने में घुसकर पोषक की भोजन लाने, ले जाने वाली कोशिकाओं से संपर्क स्थापित करती हैं। भारतीय वैज्ञानिक जोड़ी मलिक और सिंह ने बताया है कि इन चूषक जड़ों में विशेष प्रकार के एंजाइम पाए जाते हैं। ये सिर्फ उन स्थानों पर ही मिलते हैं जहां अमरबेल अपने पोषक से चिपकती है। ये एंजाइम पोषक के तने की कोशिकाओं की दीवार को गला देते हैं। इस तरह इनका दाब संतुलन बिगड़ जाने से ये चूषक जड़ पोषक के तने में घुस जाती है।
परजीवी होने के कारण इसकी संपर्क जड़ों में एक और विशेषता देखी गई है। सामान्य पौधों के संवहन तंत्र में जायलम-फ्लोएम दोनों मिलते हैं। जायलम का काम पानी व खनिज लवणों का संवहन होता है और फ्लोएम का कार्य भोजन को स्थानांतरित करना। देखा गया है कि अमरबेल के चूषक अंगों में केवल फ्लोएम ही होता है, जायलम नहीं। अर्थात जैसा काम, वैसा ऊतक। इस तरह हम देखते हैं कि सामान्य पत्तियां और जड़ न होने से अमरबेल को अपना भोजन जुटाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है।

कीटभक्षी पौधे  
खनिजों की कमी की वजह से लगभग दो लाख पचास हजार फूलधारी पौधों में 450 प्रजातियां कीटभक्षियों की श्रेणी में आती हैं। ये पौधे पृथ्वी के विस्तृत भू-भाग पर फैले हुए हैं। इन सभी में कुछ-न-कुछ विशेषताएं होते हुए भी एक समानता यह है कि ये सभी अपने पोषण की पूर्ति हेतु कीट-पतंगों को पकड़ते हैं, उनका शिकार करते हैं।
इन सभी में एक और समानता है। कि ये सभी दलदली भूमि में उगते हैं। इन स्थानों पर हवा-पानी व रोशनी तो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होती है। परन्तु ज़मीन दलदली होने से हवा से नाइट्रोजन लेकर उसे मिट्टी में छोड़ने वाले सूक्ष्म जीव नहीं रहते। अतः इन जगहों की मिट्टी में मुख्यतः नाइट्रोजन के लवणों की कमी रहती है जो जीवन के लिए ज़रूरी हैं। इसके अतिरिक्त यदि मिट्टी अम्लीय हुई तो केल्शियम, फॉस्फोरस, पोटेशियम और मोलिबुडेनम जैसे महत्वपूर्ण तत्वों की उपलब्धता भी कम होती है।

साधारण पौधों की पत्तियों को तो मुख्य रूप से भोजन ही बनाना पड़ता है। खनिज लवणों की पूर्ति उनकी जड़े कर लेती हैं। परन्तु इन कीटभक्षी पौधों की पत्तियों को तो विभिन्न कीट पतंगों को आकर्षित कर अपना शेष भोजन भी जुटाना पड़ता है। इसके लिए इन पौधों की पत्तियों में तरह-तरह के रूप रंग मिलते हैं जो इस विशेष कार्य हेतु विकसित हुए अनुकूलन के परिणाम स्वरूप विकसित हुए हैं।
कीटभक्षी पौधों में कुछ पौधों की थोड़ी-सी पत्तियां विशेष रचनाओं में बदल जाती हैं जैसे सिफेलोटस; वहीं ड्रॉसेरा में सारी पत्तियां और वीनस फ्लाई ट्रेप या नीपन्थिस (कलश पादप) में पत्तियों का कुछ हिस्सा कीटों को पकड़ने के लिए विशेष रचना में बदल जाता है। भोजन में खनिजों की पूर्ति हेतु हुए इनके परिवर्तन आश्चर्यजनक और हैरतअंगेज़ हैं। वीनस फ्लाई ट्रेप की पेटीनुमा खुलती, बंद होती पत्तियों को देख डार्विन ने इसे दुनिया का आश्चर्यजनक पौधा यूं ही नहीं कहा था। पिचर-प्लांट्स (नीपेन्धिस) में तो कुछ पत्तियां तरह-तरह के छोटे-बड़े, सजे-धजे नक्काशीदार रंग-बिरंगे कलशों के रूप में मिलती हैं। ये सब साजो-सामान सारी मशक्कत इसलिए कि पर्याप्त और संतुलित भोजन मिलता रहे अपने पौधे को।

पोषण की दृष्टि से इन कीट भक्षियों को स्वपोषी कहें या परजीवी यह भी बड़ी मजेदार बात है, क्योंकि इनकी हरी पत्तियां अपना कुछ भोजन तो स्वयं बनाती हैं और बाकी पोषण के लिए ये कीटों का भक्षण करती हैं। अतः कीट भक्षी पौधे स्वपोषी के साथ परजीवी भी हैं।

अंत में एक भ्रम का निवारण और करना ज़रूरी है - दुनिया में कहीं कोई नरभक्षी पेड़ नहीं है। जैसाकि अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहता है। कीटभक्षी अधिकांश छोटे-छोटे पौधे हैं या कमज़ोर लताएं। कुछ तो ऐसे कि हमारे पैरों तले कुचले जाएं तो पता भी न चले जैसे ड्रॉसेरा। नरभक्षी पेड़ होना तो
 
मांसाहारी पौधेः कुछ पौधे अकार्बनिक यौगिकों को तो प्रकाश संश्लेषण के मार्फत प्राप्त करते हैं लेकिन अपनी कार्बनिक यौगिकों की जरूरतों के लिए छोटे-मोटे कीटों को पकड़कर उन्हें पचा लेते हैं। नाइट्रोजन की कमी वाली मिट्टी में पाए जाने वाले कुछ पौधों की पत्तियों में ऐसे परिवर्तन पाए जाते हैं जो कीटों का शिकार करने में मदद करते हैं।

चित्रः 1 और 2 में वीनस फ्लाई ट्रेप की पत्ती को दिखाया गया है। वीनस फ्लाई ट्रेप की पत्ती दो चंद्राकार हिस्सों (लोब) से मिलकर बनी होती है। प्रत्येक चंद्राकार सोब के बाहरी किनारे पर नुकीले दांतों की कतार होती है। पत्ती की भीतरी सतह पर संवेदनशील महीन रोएं होते हैं। जैसे ही कोई कीट पत्ती की भीतरी सतह पर महीन बालों को छूता है तुरंत
 
चिपके मतलब गए काम सेः सनड्यू के पौधे में एक ग्रंथि पर बालनुमा स्पर्शक (टेनटेकल्स) होते हैं। यह ग्रंथि एक चिपचिपा, खुशबूदार तरल छोड़ती है। इस खुशबू मे आकर्षित होकर जो कीट-पतंगे स्पर्शक पर आते हैं, चिपककर वे वहीं रह जाते हैं। जैसे ही कीट चिपक जाता है। पड़ोसी स्पर्शक फुर्ती दिवाकर उन कीट को दबोच लेते हैं। यहां चित्र में एक डेमसेल फ्लाई स्पर्शक पर चिपक गई है। इसका भी वही हश्र होगा जो पिचर प्लांट और वीनस फ्लाई ट्रेप में अन्य कीटों का हुआ है।
इस लेख के पहले पृष्ठ पर दिर गए चित्र में भी गनड्यू एक चींटी को पचाने की कोशिश कर रहा है।

लोब हरकत में आते हैं और अपना आकार बदलते हुए पत्ती को बंद कर देते हैं। पी के किनारे पर स्थित दांत इंटरलॉकिंग में मदद करते हैं। कीट को पकड़ने के बाद पत्ती पर मौजूद अंधियों में कुछ एंजाइम निकलते हैं जो उस कीट को पचाने का काम शुरू कर देते है। इस कीट के पाचन के फलस्वरूप पौधे को कुछ अमीनो अम्न प्राप्त होते हैं जिसे व सोय लेता है। चित्र:3 में पिचर प्लांट की पत्नी को दिखाया गया है। पिचा प्लांट की पत्तियां नलीनुमा हैं जिनमें तरल भरा है। नली के मुंह पर अंदरुनी सतह पर महीन बान हैं जिनके नुकीले सिरे अंदर की ओर हैं। जैसे ही कोई कीट या मक्खी पिचर प्लांट की नमी के भीतर पहुंचता है, अंदर भरे तरल में वह फेम जाता है। यदि वह कीट पनी की दीवार पर चढ़कर बाहर आने की कोशिश करता है तो महीन बाल उसे ऐसा करने से रोकते हैं। पत्ती के भीतर तरल में मौजूद एंजाइम कीट को पचा लेते हैं और पत्ती प्रोटीन को सोख लेती है। दूर, इनमें तो कोई झाड़ी भी नहीं है।

रेफ्लेसिया - कुछ भी नहीं अपना     
हमने देखा कि आंशिक रूप से परजीवी पौधों में सामान्य रूप-रंग की हरी पत्तियां होती हैं जिनमें भोजन निर्माण होता है, जैसे चन्दन, लोरेन्थस और विस्कम। परन्तु जैसे-जैसे पोषक पर इनकी निर्भरता बढ़ती जाती है वैसे-वैसे तना व पत्तियां लगातार कम होती जाती हैं। हमारा अगला परजीवी रेफ्लेसिया इस स्थिति के अंतिम छोर पर है। इसे सर स्टेमफोर्ड रेफ्ल्स ने 1818 में सुमात्रा के जंगलों से पहली बार खोजा था। इस जड़ परजीवी की लगभग 14 जातियां इंडोनेशिया और बर्मा (म्यांमार) के जंगलों में मिलती हैं। पोषक पौधों की जो मुख्यरूप से कठलताएं (Liana) होती हैं, उनकी जड़ों से इसका संबंध धागेनुमा रचनाओं से होता है। इस पूर्ण-परजीवी का शरीर केवल पतले धागेनुमा तंतुओं से बना होता है। न तना, न पत्ती। जो कुछ हमें दिखाई देता है वह ज़मीन के ऊपर खिलने वाला इसका विशालकाय फूल। इन फूलों को सबसे बड़े फूल होने का दर्जा प्राप्त है। रेफ्लेसिया अरनोल्डी के लगभग एक मीटर व्यास और 15 किलो वज़न के फूलों की पंखुडियों की मोटाई एक से.मी. तक होती है। लाल-क्रीमी रंग के इस फूल से सड़े मांस जैसी गंध आती है अतः इसका परागण मुर्दाखोर मक्खियों द्वारा किया जाता है। नर और मादा फूल अलग-अलग खिलते हैं। इस फूल के आकार का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी कलियों का आकार बन्दगोभी के बराबर होता है। रेफ्लेसिया भी पोषक से प्राप्त सारी ऊर्जा अपनी वंश वृद्धि के लिए फूल बनाने में लगाता है।

मोनोट्रोपाः मृतोपजीवी नहीं    
मोनोट्रोपा आसाम में खासी पहाड़ियों पर 1800 मीटर की ऊंचाई पर उगने वाला एक विचित्र पौधा है। इसे इंडियन पाइप कहते हैं। यह पूर्णतः क्लोरोफिल-विहीन पौधा है जिसमें सिर्फ एक फूल खिलता है, जो इसके नाम मोनोट्रोपा यूनीफ्लोरा से परिलक्षित होता है।
इसके पौधे ऐसी जगहों पर मिलते हैं जहां ढेर सारा सड़ा-गला कार्बनिक पदार्थ जमा हो। अतः प्रारंभ में इसे मृतोपजीवी कहा जाता रहा है। परन्तु बर्तमान में पता चला है कि यह सच नहीं है। बोनार्कमेन ने स्पुस के तने में रेडियो सक्रिय फास्फोरस व कार्बन प्रविष्ट करने के बाद इसके नीचे सड़ेगले वनस्पति पदार्थों पर उगने वाले मोनोट्रोपा का जब रासायनिक विश्लेषण किया तो पता चला कि वहां उपस्थित जड़-फफंद और मोनोट्रोपा दोनों में रेडियो सक्रिय तत्व पहुंच चुके थे।
 
फंगल ब्रिज: इंडियन पाइप के नाम से मशहूर पौधा पड़ोसी पौधा की जड़ से भोजन प्राप्त करता है। दूसरे पौधे से इंडियन पाइप तक भोजन पहुँचने में फफूंदों द्वारा तैयार किया गया 'फंगल ब्रिज' महती भूमिका निभाता है। 

तिहरा रिश्ता: स्प्रुस के पौधे की जड़ों के चारों और फैला जड़-फफूंद का जाल। यह है तिहरे रिश्ते का तीसरा साथी। 

अतः इससे यह निष्कर्ष निकला कि जड़-फफूंदी (मायकोरायज़ा), स्प्रूस व मोनोट्रोपा की जड़ों के बीच एक पोषण पुल का कार्य करती है। इस तरह स्प्रुस की जड़ों से जड़-फफ़ेद की मार्फत मोनोट्टोपा को भोजन मिलता रहता है। अत: मोनोट्रोपा मृतोपजीवी नहीं, बल्कि जीवितों पर आश्रित रहने वाला एक जड़-परजीवी पौधा है। विशालकाय हरे पेड़ स्प्रूस, रंजक विहीन सुक्ष्म जड़ - फफूंदी और विचित्र पौधे मोनोट्रोपा के बीच पोषण के लिए बना यह तिहरा संबंध सचमुच प्रकृति की विलक्षणता का एक अद्भूत उदाहरण है।


किशोर पवारः इंदौर के होलकर साइंस कॉलेज में बनस्पति विज्ञान आते हैं।