के. ए. सुब्रह्मणियन
जब दैत्य उड़ने लगे
बावेरिया से मिले कार्बोनीफेरस युग के चूना पत्थर में ड्रेगनफ्लाइ की छाप दिखाई दे रही है। इस जीवाश्म में ड्रेगनफ्लाइ के विभिन्न अंग स्पष्ट दिख रहे हैं।
आपने उन्हें ज़रूर देखा होगा शायद कभी पकड़ा भी होगा। कभी उनको धागे से बांधकर या कागज़ की लंबी पट्टी उनकी दुम से बांधकर उन्हें हवा में फरफराते देखा होगा। आप भी शायद उन्हें देख हैरान हुए होंगे कि आखिर ये हैं क्या? ये रहते कहां हैं? आते कहीं से हैं और कहां चले जाते हैं? बचपन में इन्हें हम हेलिकॉप्टर या चिड्डा कहते थे।
ये चिड्डे सैकड़ों प्रकार के होते हैं, अलग रंगों और छटाओं के। कुछ तो काटने वाले खतरनाक किस्म के, तो कुछ बेहद नाजुक और खूबसूरत। हमारे आसपास आसानी से दिखने वाले ये कीट कभी-कभी तो रात में हमारे घर में घुस आते हैं और बल्ब और ट्यूब के इर्द-गिर्द खूब चक्कर लगाते हैं। और कभी-कभी जमीन की ओर गोता भी लगाते दिखते हैं।
कीट-जगत में इनसेक्टा वर्ग के ओडोनेट उप-समूह में ड्रेगनफ्लाइ और डेमसलफ्लाइ के अलावा अन्य बहुत सारे सामान्य कीट शामिल हैं जिन्हें हम आसपास के नदी-तालाबों पर उड़ते हुए देख सकते हैं।
इन कीटों की आज लगभग पांच हजार जीवित प्रजातियां मौजूद हैं, जिनमें से करीब पांच सौ प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। ओडोनेट के पुरखे सबसे पहले कार्बोनीफेरस काल* में लगभग 28.5 करोड़ साल पहले देखे गए थे।
कार्बोनीफेरस युग के ऐसे जीव विशालकाय हुआ करते थे (देखिए चित्र)। इनमें से कुछ की दोनों पंखों के बीच की लंबाई 71 सेमी तक होती थी। ‘ओडोनेट' और 'इफिरोमेप्टोरा' पहले कीट समूह थे जिनके पंख विकसित हुए और वे पहली बार हवा में उड़े। ड्रेगनफ्लाइ ने उड़ने की कला में महारत पाई और आज भी इस कला में अन्य कीटों के मुकाबले वह कहीं आगे है।
*कार्बोनीफेरस काल यानी हमारी धरती पर आज से 34 करोड़ साल से 28 करोड़ साल पहले का समय। वह काल वनस्पतियों और जीवों की विविधताओं से परिपूर्ण था। धरती पर पाए जाने वाले कोयला भंडारों में से अधिकांश उस दौर की वनस्पतियों से निर्मित हुए हैं।
शरीर रचना के आधार पर ओडोनेट समूह के कीटों को तीन वर्गों में बांटा गया है - डेम्सले फ्लाइ, एनीसोज़ायगोप्टेरा और ड्रेगनफ्लाई। बीच वाले उपवर्ग में सिर्फ दो ही प्रकार की प्रजातियां मिलती हैं, जिनमें से एक दार्जिलिंग में पाई जाती है।
ड्रगनफ्लाई और डेम्सल फ्लाइ को आसानी से अलग-अलग पहचाना जा सकता है (देखिए चित्र)। दोनों की शारीरिक रचना में अन्तर है, लेकिन उनके जीवन चक्र में काफी समानताएं हैं। इस लेख में दोनों के तुलनात्मक अध्ययन की कोशिश की गई है।
ओडोनेट्स अपनी वयस्क अवस्था से पहले के चरण में प्रमुखतः जलचर होते हैं इसलिए बहते या रुके हुए पानी से उनके जीवन का प्रगाढ़ संबंध होता है। कुछ प्रजातियां बहुत ही सीमित तरह के आवास में रहती हैं, जबकि कुछ ने शहरीकरण की वजह से उत्पन्न हुए नए मानव निर्मित आवास स्थलों यानी कि जलाशयों आदि को भी अपना लिया है। अपने आवास संबंधी रवैये से ही ओडोनेटस का भौगोलिक दायरा तय होता है। मसलन वे प्रजातियां जो सिर्फ पहाड़ी झरनों को अपना आवास बनाती हैं, वे सिर्फ एक सीमित क्षेत्र -विशेष में ही पाई जाती हैं। लेकिन वे प्रजातियां जो पानी के पोखरों को अंडे देने के लिए चुनती हैं, उन्हें फैलाव के ज्यादा मौके मिलते हैं।
डेम्सलफ्लाइ के दोनों पंख लगभग एक जैसे होते हैं। ड्रेगनफ्लाइ के पंख न सिर्फ ज्यादा बड़े होते हैं, बल्कि पीछे वाले पंख का आधार ज्यादा चौड़ा होता है।
अंडे
ओडोनेट अपने अंडे पानी के अलग-अलग स्रोतों में देते हैं -- नम जमीन से लेकर धुआंधार झरनों में। यह प्रजाति विशेष पर निर्भर करता है कि वे कौन-सा स्थान चुनेंगी। मादाएं अंडे देने के लिए स्थान का चुनाव करते समय स्थान की भौगोलिक विशेषताओं पर ध्यान देती हैं जैसे कि तट की लंबाई। वे प्रजातियां जो अंडे देने के लिए नदी जैसे स्थलों को चुनती हैं, वे लंबे किनारों को प्राथमिकता देती हैं। यह भी देखा गया है कि तालाबों के या झीलों के लंबे किनारों पर कई बार नदीय प्रजातियां अंडे देती पाई जाती हैं। कई बार पतंगा मादाएं चमकती, सपाट सतह को पानी की सतह समझ बैठती हैं, और इस गलतफहमी की वजह से कार के बोनट, गीली सडकों जैसी अप्राकृतिक सतह पर भी अंडे देने की कोशिश करती हैं।
डेम्सलफ्लाइ अपने लम्बे और बेलनाकार अंडे किसी पौधे के अन्दर डालती है। डेम्सल के ओविपोज़िटर (ovipositor) आरी की दांतों के समान नुकीले होते हैं, जिससे पौधों के तंतुओं को काटने में मदद मिलती है। इससे अंडों को पौधों के भीतर सुरक्षित रखा जा सकता है।
अंडे देने के लिए डेम्सलफ्लाइ की कई प्रजातियां कुछ खास पौधों का ही चयन करती हैं, जबकि कुछ प्रजातियां किसी भी पौधे पर अंडे दे देती हैं। विशेष मेजबान पौधे के चयन की वजह से कई प्रजातियों का वितरण काफी हद तक प्रभावित होता है। कुछ बरं (हायमनोप्टेरा) डेम्सलफ्लाइ के अंडों पर परजीवी होते हैं। परजीवी मादाएं पानी की सतह के नीचे तैरती हुई पानी में डूबे हुए पौधों में डेम्सलफ्लाइ के अंडों को खोजती हैं।
ड्रेगनफ्लाइ अपने चौड़े और दीर्घवृत्ताकार अंडे या तो हवा में या पानी के ऊपर लटक रहे पौधों या चट्टानों पर बैठकर देती है। मादा ड्रेगनफ्लाइ एक के बाद एक कई गुच्छों में अंडे देती है। एक गुच्छे में अंडों की संख्या सैकड़ों से हजारों तक हो सकती है। वहीं मादा डेम्सलफ्लाइ एक बार में 100 से 400 अंडे देती है। गरम जलवायु वाले प्रदेशों में अंडे 5-40 दिनों में फूटते हैं, जबकि समशीतोष्ण प्रजातियों में करीब 80-230 दिनों में अंडे फूटते हैं।
नदियों के आसपास रहने वाले कई ड्रेगनफ्लाइ के अंडों के साथ जिलेटिन जैसा पदार्थ होता है, जो पानी के संपर्क में आने पर फैलकर गोंद जैसा चिपचिपा बन जाता है। इसकी वजह से अंडे पानी के साथ बह नहीं जाते और अपने शुरुआती आवास के आसपास ही रहते हैं।
लार्वा अवस्था
पानी में ओडोनेट के लार्वा चपल शिकारी साबित होते हैं। परिवेश से मिलते-जुलते रंग जहां उन्हें छुपने में मदद देते हैं, वहीं उनकी तेज़ नज़र उन्हें खतरनाक शिकारी बनाती है। इनके लार्वा आमतौर पर घात लगाकर हमला करते हैं और अपने शिकार की छुपकर राह देखते हैं ताकि पास आने पर उसे दबोचा जा सके। लेकिन कुछ प्रजातियां ऐसी भी हैं जिनके लार्वा अपने शिकार का शेर की तरह पीछा करते रहते हैं; जैसे ही शिकार पहुंच के दायरे में आता है, वे अपने नुकीले जबड़े बाहर निकालकर अपने शिकार को घायल कर देते हैं। ये लार्वा बहुत ही पेटू होते हैं और चलते-फिरते और ठीक-ठाक साइज़ के किसी जीव को अपना भोजन बनाने की कोशिश करते हैं, चाहे वे अपनी ही प्रजाति के दूसरे लार्वा हों। कुछ बड़ी प्रजातियों के अंतिम चरण के लार्वा तो छोटी मछलियों, टेडपोल और अपनी ही प्रजाति के नवजात कीटों को खाने का भी कमाल दिखा चुके हैं।
ड्रेगनफ्लाइ के लार्वा के मलाशय की भीतरी दीवार खूब सारी बारीक झिल्लियों (Foliations) में बंटी होती है । ये झिल्लियां या ‘रेक्टल गिल' इन कीटों के श्वसन अंग हैं। ड्रेगनफ्लाइ का पेट लगातार फूलने सिकुड़ने की क्रिया करके एक प्रकार से पम्प का काम करता है जिससे मलाशय के अन्दर लगातार नया पानी आता रहता है। डेम्सलफ्लाइ में पेट के अंतिम छोर पर बारीक पत्रक (लेमेला) पाए जाते हैं जो सहायक श्वसन अंग की तरह काम करते हैं। डेम्सलफ्लाइ में मलाशय, शरीर की पूरी सतह और पंखों की सतह पर गैसों के आदान-प्रदान का काम तो चलता ही रहता है।
आमतौर पर लार्वा दो महीनों में पूरा विकसित होता है। विभिन्न प्रजातियों में, या किसी एक प्रजाति में भी लार्वा कितने चरणों (इनस्टार) में से गुजरेगा, इसकी संख्या बहुत ही अलग-अलग होती है। आमतौर पर यह संख्या 9 से 15 के बीच होती है। जब लार्वा काया उतारने (moulting) के लिए तैयार हो जाता है, वह खानापीना बन्द कर देता है और रेंगता हुआ किसी नए पौधे या किसी चटटान पर पहुंच जाता है। सामान्यतः लार्वा ऐसा सूर्यास्त के बाद करता है, और सूरज उगने से पहले एक वयस्क के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यह नया वयस्क गीला और कोमल होता है परन्तु जैसे-जैसे दिन चढ़ता है और गर्मी बढ़ती है, वयस्क का गीलापन कम होता जाता है और वे सशक्त हो जाते हैं। अब वे अपनी पहली उड़ान के लिए तैयार हैं।
वयस्क डेमसल और ड्रेगन फ्लाइ
नए-नए नर और मादा उस जगह को छोड़ देते हैं जहां वे लार्वा की स्थिति से निकलकर वयस्क के रूप में विकसित हुए थे। लेकिन वे अभी भी आसपास के इलाके में निवास करते हैं जब तक उनमें प्रजनन क्षमता विकसित न हो जाए। नर, मादा की अपेक्षा ज्यादा दूर तक चले जाते हैं। कुछ प्रजातियों में परिपक्व होने की यह विश्राम अवधि 8-9 महीनों तक भी हो सकती है। लेकिन अधिकांश डेम्सलफ्लाइ तीन हफ्ते या उससे कम समय में परिपक्व हो जाती हैं। वहीं ड्रेगनफ्लाइ को लगभग दो हफ्ते का समय लगता है। परिपक्वता प्राप्त करने के इस दौर में उनके शरीर और पंखों के रंग में क्रमबद्ध तरीके से बदलाव आता है।
उड़ान
उड़ने के कौशल में ओडोनेट की क्षमता अन्य कीटों की अपेक्षा कहीं बेहतर होती है। ओडोनेट के पंख - पतंगों, तितलियों और मधुमक्खियों की तरह जुड़े हुए नहीं होते। उनके आगे के दोनों पंख, पीछे के पंखों से स्वतंत्र रूप से फड़फड़ाते हैं।
इनकी वक्षस्थलीय मांसपेशियां बहुत मजबूत होती हैं जो उन्हें लम्बी उड़ान में मदद करती हैं, साथ ही कलाबाजी या पैंतरे बदलने में भी मदद करती हैं। इन मज़बूत मांसपेशियों की मदद से ओडोनेट हवा में रुककर एक ही जगह उड़ते रह सकते हैं, और उड़ते हुए अपने आप को 180 डिग्री के कोण से घुमा भी सकते हैं।
ड्रेगनफ्लाइ, डेम्सलफ्लाइ के मुकाबले बेहतर उड़ाकू होते हैं और 25-30 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से भी उड़ सकते हैं। इनके उड़ने की क्षमता में इस अंतर की वजह से उनका प्रसार और भौगोलिक वितरण तय होता है। ऐसा अक्सर देखा गया है कि उड़ने वाले बड़े और ताकतवर जीवों का भौगोलिक दायरा, छोटे और उड़ने में कमज़ोर जीवों के मुकाबले कहीं ज्यादा फैला हुआ होता है।
कई अन्य जीवों की तरह ड्रेगनफ्लाइ भी प्रवास (माइग्रेशन) करती हैं। हमारे यहां इनकी सबसे आम प्रजाति पेटेला फ्लावेसेन्स को मॉनसून के तुरंत बाद सड़कों और रेलवे लाइनों जैसे खुले स्थानों पर से बड़े झुंडों में गुजरते हुए देखा जा सकता है। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ये कहां और किस तरह प्रवास करती हैं। इनकी कई प्रवासी प्रजातियां पक्षियों पर रहने वाले कुछ परजीवियों को अस्थाई आवास प्रदान करती हैं। सामूहिक प्रवास के दौरान बहुत से जलीय पक्षी इनका शिकार करते हैं। - इस चक्कर में भोजन के साथ-साथ वे परजीवी को भी ग्रहण कर लेते हैं।
ड्रेगनफ्लाइ का भोजन
वयस्क ड्रेगनफ्लाइ हवा में शिकार करती हैं और छोटे-छोटे कीड़ों जैसे मच्छर, छोटी तितलियों, पंख वाले कीड़ों और मक्खियों को अपना भोजन बनाती हैं। ज्यादातर वे दिन की रोशनी में शिकार करती हैं लेकिन कुछ प्रजातियां सुबह या शाम के धुंधलके में शिकार करती हैं। ड्रेगनफ्लाइ किसी मौके की जगह पर बैठकर शिकार के लिए वहां से बार-बार उड़ान भरती रहती है, या फिर लगातार उड़ती रहती है। इस मायने में उनके शिकार का तरीका कीट-भक्षी चिड़ियों व अबाबील के शिकार के तरीके से मिलता-जुलता है। कई बार वयस्क ड्रेगनफ्लाइ के झुंड पेड़ की चोटी पर भिन-भिनाते कीड़ों को अपना शिकार बनाते हैं। ऐसा अक्सर भोर व गोधूलि के समय देखा जा सकता है।
वयस्क ड्रेगनफ्लाइ और डेम्सलफ्लाइ हवा में शिकार को पकड़ने व उसे मुंह तक ले जाने के लिए अपनी टांगों का इस्तेमाल करते हैं। इस काम के लिए उनकी टांगें अत्यन्त कारगर होती हैं। खासकर उनकी लम्बाई, उनकी स्थिति, उनका रीढ़ की हड्डी से जुड़ाव आदि उन्हें शिकार में मददगार बनाते हैं।
डेगनफ्लाई की नजर बहुत विकसित होती है और उनके सिर को अधिकांश भाग आंखों से ही ढका होता है। इन आंखों से वे अपने शिकार को लगभग 40 फीट की दूरी से देख सकती हैं।
प्रजनन
लैंगिक रूप से परिपक्व ड्रेगनफ्लाइ अपने-अपने चारागाहों और बसेरों से अंडे देने के स्थलों की ओर लौटते हैं। प्रायः नर, मादाओं से पहले परिपक्व होते हैं और अंडे देने की जगह पर पहले पहुंच जाते हैं। हर परिपक्व नर का अपना क्षेत्र होता है जिसमें वह किसी अन्य नर को नहीं आने देता। प्रत्येक नर, अपनी ही प्रजाति के अन्य नरों से अपने क्षेत्र की बड़ी आक्रामकता के साथ रक्षा करता है। ऐसा वे या तो पंखों को हिलाकर या अपने शरीर का पेटवाला भाग दिखाकर भी करते हैं। ज्यादा आक्रामक दांवपेंच अक्सर उड़ते हुए होते हैं जो धमकाने से शुरू होकर शारीरिक लड़ाई का रूप ले सकते हैं।
ओडोनेट में लैंगिक द्विरूपता पाई जाती है यानी कि वयस्क नर और मादा एकदम अलग दिखते हैं। आमतौर पर नवजात नर और मादा समान रंग के होते हैं। जैसे-जैसे नर ड्रेगनफ्लाइ प्रजनन के लिए परिपक्व होने लगते हैं, उनका रंग अधिक चमकीली हो जाता है। ड्रेगनफ्लाइ के शरीर और पंखों का रंग और उस पर बनी आकृतियां प्रत्येक नर के क्षेत्राधिकार और मादा के साथ उसके प्रणयनिवेदन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डेम्सल में प्रणय-निवेदन की प्रवृत्ति ड्रेगनफ्लाइ की अपेक्षा ज्यादा दिखाई पड़ती है। नर डेम्सलफ्लाइ मादा को रिझाने के कई तरीके अपनाता है -- जैसे वह या तो मादा के आगे समर्पण की मुद्रा अपना लेता है, या वह उस स्थान पर उड़कर चला जाता है जहां मादा डेम्सल अंडे देती है और थोड़ी दूरी तक पानी के बहाव के साथ खुद को बहने देता है। लैंगिक रूप से सक्षम मादाओं को लेकर नर ओडोनेट में काफी कड़ी स्पर्धा होती है।
प्रजनन के लिए परिपक्व मादा संभावित नर के प्रति विशेष मुद्रा में रहती है और जल्दी ही वे एक जोड़ी बना लेते हैं। नर के पेट के सबसे आखिरी खंड में क्लास्पर यानी आलिंगक होता है। नर क्लास्पर का इस्तेमाल मादा को पकड़कर रखने के लिए करता है। नर, क्लास्पर की मदद से मादा की गर्दन (थोरेक्स) पर पकड़ बनाता है। मादा के गर्दन की रचना ऐसी होती है कि क्लास्पर उसमें सटीक तरीके से फिट हो जाए। दरअसल मादा के गर्दन की यह रचना जिसमें नर आलिंगक चाबी की तरह फिट हो जाए, ही वह तरीका है जो नज़दीकी प्रजातियों के बीच मैथुन क्रिया को रोकता है।
समागम के दौरान या ठीक पहले नर अपने शुक्राणुओं को शरीर के अंतिम खंड से निकालकर अपने पेट के द्वितीय खंड में रखता है, जहां उसका सहायक जनन अंग मौजूद है। इस सहायक जनन अंग में हारपून या बरछी की तरह की
शुक्राणु का सफर: नर डेम्सलेफ्लाइ शरीर के अंतिम खंड में मौजूद अपने जनन छिद्र से शुक्राणुओं को निकाः सहायक जनन अंग (शुक्राणु थैली) में रखते हुए।(चित्र ) रचना होती है। यह रचना मैथुन के दौरान मादा जनन अंगों से, पहले से किसी नर द्वारा डाले गए शुक्राणुओं को निकाल बाहर करती है और उसके बाद अपने शुक्राणुओं को मादी जनन अंगों में छोड़ती है। ओडोनेट नर तथा मादा दोनों में बहुमैथुन (multiple mating) काफी सामान्य है।
अंडे देना
संयुग्मन के तुरन्त बाद मोदी अण्डे देना शुरू करती है। नर या तो मादा को पकड़े रखकर अण्डे देने वाली जगह तक जाता है, या उसके साथ उड़कर वहां तक पहुंचता है। यह अक्सर देखा गया है कि अपना विशेष क्षेत्राधिकार रखने वाले नर, मादा के साथ-साथ उड़ते हैं जबकि अन्य नर मादा के अण्डे देने तक उसको पकड़कर रखते हैं। इस दौरान मादा पर अन्य नर हमला कर सकते हैं। ऐसे समय वे नर जिन्होंने अभी मैथुन नहीं किया होता, इस जोड़ी पर हमला कर मादा को अगवा करने की कोशिश कर सकते हैं।
कुछ डेम्सल मादाएं पानी में डूबे पौधों पर अण्डे देती हैं। ऐसे समय नर हवा में एक जगह पर ही उड़ते हुए मादा को थामकर रखता है यानी कि एक तरह का लंगर प्रदान करता है। और मादा अंडे देती है।
आयुकाल
आमतौर पर जब भी प्राकृतिक आयुकाल की बात होती है, तो सिर्फ प्रजनन अवधि पर ही ध्यान दिया जाता है। अधिकांश डेम्सलफ्लाइ में यह अवधि लगभग 8 हफ्ते तक होती है, और ड्रेगनफ्लाई में तकरीबन 6 हफ्ते तक। यदि इसमें हम परिपक्व होने की अवधि भी जोड़ दें तो यह आयु काल डेम्सलफ्लाइ के लिए लगभग 7-9 हफ्ते और ड्रेगनफ्लाइ के लिए 810 हफ्ते तक पहुंच जाएगा।
ड्रेगनफ्लाइ का अपने संपूर्ण जीवन में कई तरह के शिकारियों से सामना होता है। लार्वा अवस्था में सबसे बड़ा खतरा मछलियों से होता है। पक्षियों में हॉबी, बी-ईटर, किंगफिशर, टर्न आदि ओडोनेट्स को भोजन बनाने से नहीं चूकते। विशाल ड्रेगनफ्लाइ, रोबरफ्लाइ और मकड़ी आदि ओडोनेट्स के महत्वपूर्ण अकशेरुकी शिकारी हैं।
पर्यावरणीय महत्व
ओडोनेट जलीय कीटों का एक महत्वपूर्ण समूह है। इनके लार्वा और वयस्क दोनों ही शिकार करते हैं, इसलिए पानी वाले इलाके की भोजन श्रृंखला में ये महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वयस्क ओडोनेट मच्छरों, काली मक्खियों और दूसरी खून चूसने वाली मक्खियों को अपना शिकार बनाते हैं, और मनुष्य के लिए नुकसान-देह इन कीटों पर जैविक नियंत्रण बनाए रखते हैं। थाइलैंड के शहरी इलाकों में एक विशेष ड्रेगनफ्लाइ के लार्वा का ‘इडस' नाम के मच्छरों पर काबू पाने के लिए सफलतापूर्वक उपयोग हुआ है। ये मच्छर डेंगू बुखार फैलाते हैं। कृषि बहुल क्षेत्रों में ओडोनेट की कई प्रजातियां कृषि के लिए हानिकारक कीटों का सफाया करती हैं।
मनुष्य के पर्यावरण सहायक होने के अलावा ओडोनेट्स की किसी भी क्षेत्र की जैव -वासिकता की गुणवत्ता को पहचानने की भूमिका को महत्व दिया जाने लगा है। उदाहरण के लिए दक्षिण अफ्रीका में यह पाया गया कि जहां-जहां प्रकृति में मनुष्यों के दखल का स्तर बढ़ा है, वहां ड्रेगनफ्लाइ की विभिन्न प्रजातियों का वितरण व आबादी भी प्रभावित होती है।
ऐसे जलीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली ड्रेगनफ्लाइ जहां मनुष्य ने अभी उथल-पुथल नहीं मचाई है, चयनित विशेष आवासों में ही रहती हैं और उनका वितरण भी ऐसी जगहों तक सीमित होता है। जबकि औद्योगिक या शहरी इलाकों में पाई जाने वाली प्रजातियों की ऐसी कोई विशेष पसंद नहीं होती और वे कहीं भी पाई जाती हैं। विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि ड्रेगनफ्लाइ न केवल जलीय संसाधनों की गुणवत्ता के प्रति संवेदनशील होती हैं बल्कि आसपास के परिदृश्य, खासतौर पर पानी के स्रोतों में बदलावों के प्रति भी।
भारत के पश्चिमी घाट में रहने वाली ड्रेगनफ्लाइ पर हाल के दौर में जो अध्ययन हुए हैं उनसे पता चलता है कि ड्रेगनफ्लाइ यहां के इकोसिस्टम के स्वास्थ्य का संकेतक हो सकते हैं। पश्चिमी घाट की लगभग 38 प्रतिशत ओडोनेट स्थानीय (Endemic) हैं और इनकी निवास संबंधी विशेष प्राथमिकताएं होती हैं। भारत में वयस्क ओडोनेट के वर्गीकरण के बारे में तो काफी जानकारी है लेकिन इनके पारिस्थितिक पहलुओं पर कम ही अध्ययन हुआ है।
यदि ओडोनेट्स को एक संकेतक मानकर हम जैवमंडल का निरीक्षण करना चाहते हैं तो दो बातों पर हमें गंभीरता से काम करना होगा - पहली, ओडोनेट्स के सम्पूर्ण जीवन चक्र की हमारी समझ को विकसित करना। देश में पाई जाने वाली लगभग 500 प्रजातियों में से केवल 76 की लार्वा अवस्था की जानकारी हमारे पास उपलब्ध है, जबकि केवल 15 प्रजातियों के सम्पूर्ण जीवन-चक्र का अध्ययन हुआ है। जलीय स्रोतों के स्वास्थ्य के मद्देनज़र लार्वा अवस्था के बारे में विस्तृत जानकारी का होना काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। इस जानकारी के अभाव में बायो-मॉनीटरिंग पर काम कर पाना कठिन है।
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है पिछले 50 सालों में पश्चिमी घाट के भौगोलिक परिदृश्यों में हो रही तब्दीलियों से ड्रेगनफ्लाइ का वितरण और जीवन बहुत प्रभावित हुआ है। इस समस्या से निपटने के लिए नए फील्ड सर्वेक्षण करवाए जाने चाहिए ताकि विभिन्न प्रजातियों के वितरण और उन पर मंडराते खतरों का जायजा लिया जा सके। संभवतः इस संबंध में भविष्य में होने वाले अध्ययन ड्रेगनफ्लाइ की सम्पूर्ण पारिस्थितिक समझ बनाने और बायो-मॉनीटरिंग के साधन के रूप में उसके महत्व को रेखांकित करने वाले होंगे।
के. ए. सुब्रह्मणियनः बंगलोर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ के इकॉलॉजीकल साइंसेज विभाग में कार्यरत। वर्तमान में वे पश्चिमी घाट इलाके की जल धाराओं से संबद्ध कीटों पर शोधकार्य कर रहे हैं। साथ ही इन कीटों की विविधता और संरक्षण में भी उनकी रुचि है। यह लेख रेजोनेन्स पत्रिका के अक्टूबर, 2002 अंक से लिया गया है।
अनुवादः कल्याणी डिके।
इन कीटों के समागम के तरीके के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें संदर्भ का अंक 28.
जुलाई-अगस्त 1999, पृष्ठ 91-96.