नीतू मालवीय [Hindi, pdf, 128kB]
कक्षा को पढ़ाते समय काफी शिक्षक इस बात को महसूस करते हैं कि बच्चों को पढ़ाई के दौरान सोचने, विचार करने और अपनी बात कह पाने के पर्याप्त मौके मिलते रहें। लेकिन कई दफा सूझता नहीं कि कक्षा में इसे किस तरह किया जाए। यह अनुभव होशंगाबाद ज़िले के हिरनखेड़ा गांव की एक निजी शाला का है, जिसमें शिक्षिका ने कक्षा-चार के बच्चों को वर्षा-चक्र पढ़ाते समय अपने पढ़ाने के तरीके में बदलाव लाने की कोशिश की। इस कोशिश में उनके लक्ष्यों की कहां तक पूर्ति हो पाई, पढ़िए इस अनुभव में।
प्राथमिक कक्षाओं में जहां बच्चों का अक्षर-ज्ञान ही ठोस नहीं हो पाता वहीं किताबों का पाठ्यक्रम ये डर दिखाता रहता है कि बच्चे को सारी किताब पढ़ा देनी चाहिए। भले ही बच्चों की रुचि हो या नहीं। बतौर शिक्षक हम सारी व्यवस्था को तो नहीं बदल सकते लेकिन कुछ ऐसा रास्ता ज़रूर निकाल सकते हैं जिससे कि किताबें बोझिल न बनें। यानी किताबों को मनोरंजक ढंग से बच्चों के सामने रखने की कोशिश करना, जिससे बच्चों की समझ बढ़े।
एक शिक्षक होने के नाते हमेशा मेरे दिमाग में यही बात घूमती रहती है कि मैं कौन-सी चीज़ को कितना अधिक मनोरंजक ढंग से बच्चों को बता पाऊं। ऐसे ही एक बार मौका मिला बच्चों को वर्षा-चक्र पढ़ाने का। मैंने सोचा कैसे बताऊं। पहले बोर्ड पर वर्षा-चक्र का चित्र बनाओ। पानी, वाष्पन, बादल और फिर वर्षा। तीर के निशान द्वारा क्रम निर्धारित कर दूं और फिर ‘देखो बच्चो.....’ कह कर शुरू हो जाऊं।
लेकिन फिर अहसास हुआ कि इस तरीके में बच्चों की भूमिका ही कहां बची? आपने चित्र बनाया, बच्चे ने देखा, आपने समझाया, बच्चों ने समझा (भले ही बच्चों की समझ में कुछ भी न आया हो, पूछने पर तो वे यही कहेंगे कि समझ में आ गया)। बस पाठ खत्म। अब मैडम ने पढ़ाया है किताब में भी लिखा है तो ये गलत तो होगा नहीं, लेकिन कहीं-न-कहीं ये तरीका बच्चों की सोच सकने की क्षमता को पंगु बना देता है। इस प्रक्रिया में बच्चे सवाल नहीं करते क्योंकि उनके दिमाग में सवाल पैदा ही नहीं होते और यदि गुरुजी सवाल पूछें तो एक या दो होशियार बच्चों को छोड़ कोई जवाब नहीं देता।
खैर, मैंने वर्षा-चक्र पढ़ाने के लिए जो कोशिश की और जो मेरा अनुभव रहा वह मैं आपके साथ बांट रही हूं। इसे पढ़कर आप बताइए कि मेरी कोशिश कैसी रही।
कक्षा शुरू होते ही मैंने बच्चों से कहा, “लाओ भई, पहले कोई पानी तो पिला दो।”
बच्चे - “हम लाएं, हम लाएं।”
मैं - “ठीक है, कोई भी पिला दो। अच्छा प्रीति तुम लाओ।”
प्रीति पानी लाती है तब तक मैं चुप हूं, और मुझे चुप देखकर बच्चे भी आपसी गपशप में लग जाते हैं।
मैं - “अच्छा ले आई पानी? कहां से लाई?”
प्रीति- “मैडम जी, नलकूप से।”
मैं - “सही बताओ, कहां से लाई हो?”
प्रीति- “मैडम जी, सही बोल रहे हैं, नलकूप से लाए हैं।”
मैं - “फिर झूठ बोला, सही बताओ?”
अब तक सारे बच्चे मुझे देख रहे थे, और सोच रहे थे कि आखिर मैडम पानी के पीछे क्यों पड़ गईं?
प्रीति - “मैडम जी, भगवान कसम नलकूप से लाए हैं।”
मैं - “अच्छा नलकूप में पानी कहां से आया?”
प्रीति के जवाब देने के पहले ही बाकी बच्चे चिल्ला पड़े।
“हम बताएं, हम बताएं।”
मैं - “अरे-अरे! एक-एक बताओ, चलो अमित तुम बताओ।”
अमित- “मैडम जी, धरती में से आता है।”
मैं - “पक्का।”
सभी बच्चे - “हां, धरती से आता है।”
मैं - “अच्छा धरती में से कैसे आता है?”
रजत - “मैडम जी, जब नल चलाते हैं तो धरती में से पानी ऊपर आ जाता है।”
संदीप- “अरे ऐसे नहीं। मैडम जी हम बताएं?”
मैं - “हां बताओ।”
संदीप - “मैडम जी, लंबा पाइप धरती में गड़ा रहता है और उसके ऊपर नल लगा रहता है। जब ऊपर डंडा चलाते हैं तो अंदर पाइप में से पानी ऊपर आ जाता है।”
मैं - “ये तो तुम बता रहे हो कि पानी कैसे ऊपर आता है। मैंने पूछा है, कहां से आता है?”
सभी बच्चे - “मैडम जी, धरती में से तो आता है।”
मैं - “लेकिन धरती में कहां से आता है?”
भारत - “मैडम जी... धरती में पानी जमा रहता है।”
मैं - “अच्छा कैसे जमा रहता है?”
उर्वशी - “मैडम जी जब पानी गिरता है तो वो सब धरती में चला जाता है और इकट्ठा हो जाता है।”
मैं - “हां, ये बात तो बिल्कुल सही बताई। तो इसका मतलब पानी कहां से आया।”
सभी बच्चे - “ऊपर से।”
मैं - “ऊपर! मतलब आकाश से?”
सभी बच्चे - “नहीं। बादल से।”
मैं - “अरे, तुम तो सब बादल जैसे गरजने लगे। अब बरस मत पड़ना।”
(सब हंसने लगते हैं।)
मैं - “चलो पक्का है न कि पानी बादल से आता है?”
मोहिनी - “हां मैडम। बरसात के दिन में बादल आते हैं और पानी बरसा के चले जाते हैं।”
मैं - “अच्छा लेकिन ज़रा सोचो कि बादल पानी कहां से लाता है?”
(सब चुप)
मैं - “बादल भी तो कहीं-न-कहीं से पानी लाता ही होगा न?”
रजत -“मैडम जी, मैं बताऊं बादल है न भगवान जी से पानी लाता होगा। हमारी दादी कह रही थी कि भगवान जी ही पानी गिराते हैं।”
मैं - “अरे भई... भगवान जी के पास इतना समय थोड़े ही रहता होगा कि वो एक-एक बादल को पानी बांटें। और फिर सोचो यदि भगवान जी पानी बरसाते तो कहीं ज़्यादा कहीं कम क्यों बरसाते! हर जगह एक बराबर क्यों नहीं बरसाते?”
संदीप - “हां मैडम जी, कहीं-कहीं पूर आ जाती है और कहीं सूखा पड़ जाता है। यदि भगवान जी पानी बरसाते तो सब जगह बराबर बरसाते और टाईम पे बरसाते।”
मैं - “तो फिर? गाड़ी कहां अटकी है?”
सभी बच्चे - “मैडम जी, आप ही बताओ न बादल में पानी कहां से आता है?”
मैं - “अच्छा ठीक है। बताती हूं। पहले मुझे ये बताओ कि तुम लोगों ने पानी गरम होते देखा है?”
सब - “हां-हां, देखा है।”
मैं - “उसमें से भाप निकलती है न?”
सब- “हां-हां।”
मैं - “अच्छा, यदि उस भाप के ऊपर थोड़ी देर अपना हाथ रखो तो क्या होता है?”
प्रियंका - “मैडम जी, हाथ गीला हो जाता है।”
मैं - “अच्छा और जब हम उसको ढंक देते हैं तब?”
अमिता - “मैडम जी, जब हम ढक्कन उघाड़ते हैं तब हमें ढक्कन में पानी की बूंदें मिलती हैं।”
मैं - “मतलब कुछ समझ में आया?”
बच्चे - “नहीं।”
मैं - “और क्या पानी भी ऐसे ही गिरता है?”
मैंने समझाने की कोशिश की, “पहले पानी गर्म हुआ, फिर भाप बनी, भाप ऊपर उड़ती है। यदि ढांक दो तो भाप ढक्कन में जम जाती है, और ठंडी होकर पानी बन जाती है।”
प्रीति - “तो पानी भी ऐसे ही बरसता है क्या?”
मैं - “हां, पानी भी ऐसे ही बरसता है। सोचो गर्मी के दिनों में सारा पानी क्यों सूख जाता है?”
सब - “गर्मी के कारण।”
मैं - “मतलब पानी गर्म होकर भाप बनकर उड़ जाता है। भाप तो समझते हो न?”
सब बच्चे - “हां।”
मैं - “हां, तो ये भाप धीरे-धीरे ऊपर जाती है और बादलों का रूप ले लेती है। अच्छा, ऐसा नहीं होता कि इधर गर्म हुई, वो उड़ी और वो बादल बनी और फिर पानी गिरा। बल्कि ये सब धीरे-धीरे होता रहता है। इस तरह भाप यानी कि पानी बादल बन जाता है और फिर इन बादलों को हवा इधर से उधर करती रहती है। तुमको ये तो मालूम है न कि अपने देश में कौन-सी हवाओं से वर्षा होती है?”
सभी बच्चे - “हां, मॉनसूनी हवाओं से।”
मैं -“बहुत अच्छा।”
प्रीति - “लेकिन मैडमजी, जब बादल में पानी रहता है तो वे सब बरसते क्यों नहीं रहते हैं। हवा लाएगी तभी बरसते हैं क्या?”
मैं - “देखो, सब बादलों में पानी नहीं होता। कुछ बादल धूल आदि के कारण भी बनते हैं। लेकिन जब बहुत-से बादल इकट्ठे होने लगते हैं तो पानी की बूंदें बड़ी होने लगती हैं और जब वे इतनी बड़ी और इतनी भारी हो जाती हैं कि आकाश में न रुक सकें तो वे धरती पर गिरने लगती हैं और ......”।
सभी बच्चे - “पानी गिरने लगता है।”
मैं - “अब तो समझ में आया पानी कहां से आता है?”
कुछ बच्चे- “थोड़ा-थोड़ा समझ आया।”
मैं - “थोड़ा-थोड़ा क्यों?”
(कुछ बच्चे झिझक रहे थे।)
मोहिनी- “क्योंकि, बादल से पानी नीचे गिरा, धरती पर इकट्ठा हुआ, वो ही पानी भाप बनकर उड़ गया, और फिर से बादल बन गया, फिर नीचे गिरा, मतलब ये पानी तो घूमता रहता है।”
मैं - “हां, मतलब यह चक्र चलता रहता है।”
संदीप - “हां मैडम जी, पानी का चक्र।”
मैं - “इस चक्र को कहेंगे - वर्षा-चक्र। अच्छा तो इस वर्षा-चक्र का चित्र बना सकते हो? जो कुछ भी अभी हमने ढूंढा - पानी कहां से आया, कहां गया। वो सब कुछ।”
सब - “हां-हां मैडम जी, हम तो बना लेंगे।”
और फिर जिस चित्र को मैंने सबसे पहले ब्लैक-बोर्ड पर बनाने का विचार किया था, वही चित्र अब बच्चे खुद पूरी समझ-लगन से बना रहे थे।
नीतू मालवीय: होशंगाबाद ज़िले के हिरनखेड़ा गांव में निवास। कुछ समय गांव की एक निजी शाला में प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाया है। साथ ही शिक्षा के विविध मुद्दों में रुचि।