लेखक : डेविड जरनेर मार्टिन
अनुवाद: ऊषा चौधरी [Hindi PDF, 123 kB]
शिक्षा के परंपरागत रूप में शिक्षक बच्चों की जानकारी के लिए सूचनाएं देते हैं और बच्चे अपने उत्तरों और विभिन्न स्थितियों में अपनी प्रतिक्रियाओं व प्रत्युत्तरों द्वारा यह प्रदर्शित करते हैं कि उन्होंने इन सूचनाओं को ग्रहण कर लिया है। कुछ उत्तरों को ‘सही’ समझा जाता है और कुछ को ‘गलत’।
आइए, हम प्राथमिक शिक्षा के दो मूलभूत प्रश्नों पर विचार करें - क्या उत्तरों को केवल सही कहा जा सकता है? क्या उत्तरों को केवल गलत कहा जा सकता है?
भालूओं का पाठ
एक छात्र अध्यापिका ने भालू की शक्ल की टॉफियों का प्रयोग करके कक्षा एक के लिए गणित व विज्ञान विषयों का संयुक्त रूप से एक सुंदर पाठ तैयार किया। पाठ का उद्देश्य यह था कि बालकों को प्लास्टिक की पारदर्शी थैली में टॉफी की शक्ल के जो भालू दिए गए हैं, वे उन्हें रंगों के आधार पर छांटें, तालिका में ऊपर से नीचे उन्हें सिर से पैर की ओर लिटाकर रखें और एक चार्ट बनाकर उसमें, उनके प्लास्टिक बैग में हर रंग के जितने भालू हैं, उनकी संख्या लिखें। ये काम पूरा कर लेने पर, वे इन टॉफी वाले भालुओं को खा सकेंगे। छात्र अध्यापिका ने विभिन्न रंगों के भालुओं की शक्ल की टॉफियों से भरी एक-एक थैली कक्षा के हर विद्यार्थी को बांट दी। कक्षा में शिक्षण के दौरान उचित मौका देखते हुए छात्र-अध्यापिका ने विद्यार्थियों से कहा कि हर विद्यार्थी देखकर अनुमान से बताए कि उसकी थैली में कितने भालू हैं। (इससे पहले विद्यार्थी कक्षा की कुछ सामान्य वस्तुओं के बारे में अनुमान लगाना सीख चुके थे)। हर बैग में लगभग पंद्रह से बीस टॉफी-भालू थे। शिक्षिका एक-एक बच्चे के पास गई और पूछा, “अनुमान से बताओ कि तुम्हारे बैग में कितने ‘भालू’ हैं?” ‘बीस’ एक बच्चे ने कहा। ‘पच्चीस’ दूसरा बच्चा बोला। सत्रह, बीस, तीस, पांच, अठारह। एक क्षण रुकिए। क्या “मैलिसा ने अभी पांच नहीं बताया?” होशियारी से अध्यापिका कक्षा में मैलिसा या अन्य बच्चों के अनुमान पर टिप्पणी किए बिना आगे बढ़ गई। बच्चे कक्षा में अपने पाठ संबंधी कार्य करने लगे और अध्यापिका इसमें उनकी सहायता करने लगी। किसी ने भी अनुमान लगाने की प्रक्रिया पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। जब सबने अपना-अपना कार्य कर लिया, मैलिसा ने अपना हाथ ऊपर उठाया। “मैंने कहा था बैग में पांच ‘भालू’ हैं,” उसने कहा, “मैंने सोचा कि आपने पूछा कि कितने रंग के हैं?”
यह दृष्टांत उस सिद्धांत को प्रदर्शित करता है जो न केवल विज्ञान शिक्षा के बारे में वरन् सामान्य शिक्षा के बारे में भी बार-बार ज़ोर देकर यह स्थापित करता है कि ‘केवल कुछ उत्तर ही सही नहीं होते।’
मान लीजिए कोई शिक्षिका अपने दूसरी कक्षा के बच्चों से पूछती है कि 5 और 2 जोड़ने पर कितने होते हैं, स्वाभाविक है कि उसे अपेक्षा है कि उत्तर 7 होगा। मान लीजिए बच्चा कहता है - ‘10’। क्या यह उत्तर गलत है? वह बच्चे से पूछती है ‘ये 10 कैसे हुआ?’ बच्चे ने जो कुछ कहा, शिक्षिका ने उससे यह निष्कर्ष निकाला कि बच्चे ने ‘जोड़’ के स्थान पर ‘गुणा’ कर दिया। यहां गलती ‘विधि’ (तरीके) में थी। शिक्षिका आसानी से बता सकती है कि गलत उत्तर क्यों आया।
मान लीजिए कोई इसका उत्तर 3 देता है तो स्पष्ट है कि बच्चे ने ‘घटाने’ की प्रक्रिया अपनाई है। ध्यान देने की बात यह है कि इन उत्तरों से पता लगता है कि आवश्यकता अ – न् और श्र् के संकेतों के महत्व को ज़ोर देकर समझाने की है। 52 के बारे में आपका क्या विचार है? हम सबको वह पहेली तो पता ही है जिसमें पूछते हैं कि “पांच जमा दो कितने?” “52”। पुन: बच्चे के उत्तर को समझा जा सकता है। मान लीजिए बच्चा उत्तर देता है - ‘9’। शिक्षिका अपने दिमाग में खोज करती है कि बच्चे का उत्तर 9 क्यों आया होगा, पर उसे ऐसा एक भी कारण नज़र नहीं आता ... फिर वह एक रूढ़िवादी अध्यापिका की तरह इस उत्तर को नकार कर गलत बता देती है। जब तक उत्तर ‘10’ या ‘3’ या ‘52’ था तब तक उसे रद्द नहीं किया क्योंकि तब अध्यापिका ने अपने दिमाग में बच्चे के सोचने के ढंग का विश्लेषण कर लिया था कि बच्चे ने ऐसा क्यों सोचा होगा। लेकिन उसे अपनी विचार शक्ति से कोई भी ऐसा तरीका सोचना असंभव लगा जिससे उत्तर 9 आता। क्या इस तरह ‘9’ उत्तर गलत हो जाता है? यह प्रश्न आप पर छोड़ते हैं।
अनपेक्षित को पहचानना
अल्बर्ट आइंस्टीन (1954) ने लिखा था - “वास्तव में यह किसी आश्चर्य से कम नहीं है कि शिक्षण के वर्तमान तरीकों ने जिज्ञासा का गला नहीं घोंट दिया है। यह सोचना एक गंभीर गलती है कि देखने और खोजने के आनंद को ज़ोर-ज़बरदस्ती और कर्त्तव्य मात्र समझ कर बढ़ाया जा सकता है।”
नया ज्ञान नई सोच से उत्पन्न होता है - ऐसी सोच जो ‘सही’ और ‘गलत’ की सीमाओं को नहीं मानती। वैज्ञानिक जो विज्ञान कर रहे हैं, वे ‘सही’और ‘गलत’ उत्तरों में जकड़े हुए नहीं हैं, बल्कि वे तो लगातार नई और अनपेक्षित चीज़ों की खोज में लगे रहते हैं जो पहले की धारणाओं के, मापदण्डों के ढांचे में ठीक न बैठती हों। इस बात को स्पष्ट रूप से समझने के लिए आइए हम कुछ आविष्कारों और खोजों की कहानियों पर विचार करें।
— चार्ल्स गुडईयर कई सालों से खोज कर रहा था कि कच्चे रबर को कैसे उपचारित और सुरक्षित करके रखा जाए ताकि तापमान बढ़ने के बाद भी उसका लचीलापन बना रहे। उसके द्वारा विकसित ‘वल्कनीकरण’ की प्रक्रिया (जिसमें कच्चे रबर को परिष्कृत कर टायर बनाने की विधि होती है), उसके मन में एक अन्त:प्रेरणा से आई जो वह कहता है, उसे स्वप्न में प्राप्त हुई - ‘गंधक को रबर में मिला देना।’ उसने लिखा, “मुझे अपने प्रयत्नों में इस बात से बहुत उत्साह मिला कि जो गुप्त है, अनजाना है और वैज्ञानिक अनुसंधान से नहीं खोजा जा सकता, वह बहुत करके अगर मिला तो अचानक आकस्मिक घटना से मिल जाता है। यह उस व्यक्ति को प्राप्त होता है जो अपने आपको बड़ी एकाग्रता से, अपने विषय को जानने में लगा देता है और उससे संबंधित हर चीज़ को बड़ी बारीकी से देखता है।”
— सेमुअल मोर्स को टेलीग्राफ की संकल्पना अनायास ही अमेरिका लौटते समय पानी के जहाज़ पर एक सहयात्री से बिजली के बारे में बातें करते-करते आई।
— टेलीफोन का विकास भी अचानक एक घटना से हुआ। अलैक्ज़ैंडर ग्राहम बैल और उनके साथी थॉमस वॉटसन इस संदर्भ में प्रयोग कर रहे थे कि शायद कंपन कर रही झिल्ली से विद्युत धारा में परिवर्तन ला पाना संभव हो; जैसे कि मनुष्य के कान का पर्दा अन्दरूनी कान की हड्डियों तक कंपन पहुंचाता है। सन् 1875 में एक दिन वॉटसन ट्रांसमीटर के संदेश भेजने वाले भाग पर काम कर रहा था। अचानक बैल को रिसीवर के ऊपर झनझनाने जैसी आवाज़ सुनाई पड़ी। ट्रांसमीटर के अंदर एक स्पिं्रग फंस गई थी और जब वॉटसन उसे निकालने का प्रयास कर रहा था तभी झनझनाहट की ध्वनि हुई जिससे बिजली का हल्का-सा करेंट पैदा हुआ जो तार के माध्यम से दूसरे छोर पर रिसीवर तक पहुंच गया। इस घटना के परिणामस्वरूप टेलीफोन का विकास हुआ।
— पैनिसिलीन की खोज का प्रारंभ अलैक्ज़ैंडर फ्लेमिंग द्वारा 1928 में अकस्मात हवा में उड़ते कुछ सूक्ष्म पदार्थों को देखकर हुआ जो बाद में फंगस के रूप में जाने गए और जिन्होंने ‘कल्चर मीडियम’ में बढ़ रहे स्टैफीलोकोकस बैैैैक्टीरिया को मार कर नष्ट कर दिया। उस समय फ्लेमिंग इस आविष्कार की चिकित्सकीय उपयोगिता नहीं समझ पाए, किंतु कई वर्ष बाद ग्लैडिस हॉबी अपने साथियों मॉर्टिन हैनरी और कार्ल मेयर के साथ पैनिसिलीन बनाने में सफल हुए और सबसे पहले इस दवा द्वारा मरीज़ को निरोगी बनाने में कामयाब हुए। तत्पश्चात् हॉबी ने इसी सिद्धांत द्वारा ‘टैरामाइसिन’नामक और भी अधिक कारगर एन्टीबॉयोटिक बनाया।
उक्त सभी प्रकरणों में खोज इसलिए हुई क्योंकि इनके द्वारा लोग उन चीज़ों के महत्व को समझने में समर्थ हुए थे जो वे पहले नहीं जानते थे। यही वैज्ञानिकों की मूल विशेषता है। नवीन ज्ञान या जानकारी केवल पुराने ज्ञान के प्रति समर्पित रहने और उसे याद रखने भर से प्राप्त नहीं होती, यद्यपि इसके लिए निश्चय ही आधार स्वरूप पूर्वज्ञान का होना आवश्यक है। नया ज्ञान ऐसे प्रश्न पूछने से पैदा होता है जिन्हें पूछने के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था, ऐसी कोशिशें करने से जिन्हें करने के बारे में औरों ने विचारा तक नहीं था, ऐसे निष्कर्ष निकालने से जो और लोग नहीं निकाल पाए, चीज़ों का ऐसा चुनाव करने से जो और लोग नहीं कर पाए और अपना ध्यान ‘सही’ उत्तरों पर कम और ‘समझदार’ उत्तरों पर अधिक केन्द्रित करने से। नए ज्ञान की उत्पत्ति वैज्ञानिक प्रयोग ‘करने’ की योग्यता प्राप्त करने के फलस्वरूप होती है।
अनुभूति बोध (Perception)
लोग जिस तरह से किसी घटना को समझते या देखते हैं, वह उनकी अनुभूति का सीधा परिणाम होता है।
एक शब्द के अर्थ इसे करके देखें। कोई ऐसा शब्द चुनें जो कुछ असामान्य हो पर सब उसे जानते हों, फिर पूरी कक्षा के विद्यार्थियों से कहिए कि इस शब्द को सुनकर उनके दिमाग में जो शब्द सबसे पहले आए, उसे वे लिख लें। उदाहरण के लिए आप छात्रों से पूछ सकते हैं कि आपके ‘जगुआर’ शब्द कहने पर उनके दिमाग में जो शब्द सबसे पहले आया, उसे वे लिख लें। |
इसके उत्तर में आपको ‘चीता’, ‘जानवर’, ‘कार’, ‘चांदी’, ‘पैसा’, ‘अमीर’ और ‘बिल्ली’ जैसे शब्द मिल सकते हैं। हर उत्तर उस शब्द से उनके प्रारम्भिक संबंध का प्रतिनिधित्व करता है। ध्यान दें कि एक ही ‘उद्दीपन’ (stimulus) आपकी कक्षा में कितने अलग-अलग प्रकार से अनुभूत किया जा रहा है।
अपनी कक्षा के विभिन्न छात्रों के उत्तरों की तुलना कीजिए। किसने बंदर शब्द के साथ कुछ जोड़ कर जोड़ा बनाया? शायद किसी ने ‘केले’ के साथ ‘बंदर’ को जोड़ा हो क्योंकि बंदर केले खाते हैं। शायद किसी और ने ‘बंदर’ के साथ ‘पत्थर’ शब्द जोड़ा होगा क्योंकि बंदर पत्थरों पर चढ़ना पसंद करते हैं। क्या किसी ने बंदर का जोड़ा ‘इमारत’ के साथ बनाया? किसने cats के साथ कोई शब्द जोड़ा? एक विद्यार्थी ने cats के साथ tacks शब्द का जोड़ा बनाया क्योंकि दोनों शब्दों में चार अक्षर समान थे। दूसरी जोड़ियों के बारे में क्या ख्याल है? अलग-अलग लोगों ने शब्दों की अनुभूति अलग-अलग ढंग से की।
वाक्य का अर्थ
इसे करके देखें - निम्नलिखित वाक्य को लोगों के समूह के सामने ज़ोर से पढ़ें और उनसे कहें कि इसे सुनकर जो चीज़ सबसे पहले उनके ध्यान में आती है, उसे वे लिख लें -
‘घर में नकाब पहने हुए एक आदमी है और दूसरा आदमी घर की ओर आ रहा है।’
कुछ उत्तरों में ‘डाकू’, ‘साधू’, ‘बलात्कार’ आदि जैसे शब्द सम्मिलित हो सकते हैं। एक विद्यार्थी ने लिखा ‘बेसबॉल’। इस समूह के सभी बच्चों ने एक ही वाक्य सुना, परंतु उसके अर्थ को अलग-अलग ढंग से अनुभूत किया। दिखाई देने वाली विविधता इस बात को प्रदर्शित करती है कि लोग एक ही उद्दीपन (stimulus) को अलग-अलग ढंग से अनुभूत करते हैं। दृष्टिभ्रम में भी यही बात सामने आती है कि एक ही उद्दीपन को लोग अलग-अलग तरीके से अनुभूत करते हैं। (देखिए चित्र-1)
— क्या ये रेखाएं सीधी हैं?
— क्या इन रेखाओं की लंबाई भिन्न है?
— सीढ़ी का ऊपरी हिस्सा कौन-सा है?
— क्या आप ऐसा डिब्बा बना सकते हैं?
“इंद्रियजनित प्रेरकों या उद्दीपनों को खोजना और उनका अभिप्राय समझना अनुभूति बोध कहलाता है।” यह एक मानसिक छवि है जो तब बनती है जब हम किसी सूचना या जानकारी को अपनी इंद्रियों से ग्रहण करते हैं और उस पर ध्यान देते हैं। जब एक ही उद्दीपन दो व्यक्तियों द्वारा देखा जाता है तो उनकी अनुभूति एक जैसी नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सबके पूर्व-अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं, उनकी गंभीरता अलग-अलग होती है और इसका सीधा असर इस बात पर पड़ता है कि हम चीज़ों को कैसे देखते-समझते हैं। आपकी कक्षा में अलग-अलग लोगों ने ‘जगुआर’ शब्द का संबंध अलग-अलग चीज़ों से जोड़ा, शब्दों की एक ही सूची से विभिन्न लोगों ने विभिन्न जोड़ियां बनाईं, विभिन्न लोगों ने ‘नकाब वाले आदमी’ से भिन्न-भिन्न अर्थ लगाया।
जब यह बात शब्दों जैसी सरल चीज़ के साथ सच है तो फिर यह अधिक क्लिष्ट विषयों जैसे ‘लावा का फूटना’ आदि के साथ भी सच ही होगी। कक्षा तीन के बच्चों से ज्वालामुखी के बारे में पूछिए, आप देखेंगे कि बच्चे तमाम तरह की बातें करेंगे - विस्फोट, लावा, माउंट सेंट हेलेन (अगर वॉशिंगटन में उनके कोई रिश्तेदार होंगे) और हवाई (अगर वे हवाई गए होंगे, या वहां उनके रिश्तेदार होंगे या अगर हवाई में उनकी रुचि होगी तो)। क्या इनमें से कोई एक उत्तर सही है? क्या इनमें से कोई उत्तर गलत है? जगुआर के बारे में क्या कहेंगे? कौन-सा उत्तर सही है और कौन-सा गलत? सबसे उचित बात हम यही कह सकते हैं कि कोई एक उत्तर किसी एक व्यक्ति के लिए सही है। हम अध्यापक लोग जैसी अपेक्षा करते हैं, विद्यार्थी उससे बहुत अलग ढंग से उत्तर दे सकते हैं। इससे बच्चों के उत्तर गलत नहीं हो जाते, इससे वे उत्तर ‘उनके’ हो जाते हैं।
यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारण है जिसकी वजह से स्तरीय परीक्षणों का भी पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा है, खासतौर से पूर्व विद्यालयीन शिक्षा के स्तर पर। अलग-अलग बच्चे उन्हीं शब्दों को अलग-अलग अर्थों से जोड़ते हैं। उदाहरण के लिए जब पूछा गया, “आप तैरने कब जाते हैं?” तीन वर्ष के कुछ बच्चों ने जवाब दिया ‘गर्मी के मौसम में’ और दूसरे बच्चे जो इमारत के अंदर तैरते थे, उन्होंने कहा, ‘जाड़े में’।
सुनना
इस लेख की आधारभूत भूमिका यही है कि प्राथमिक स्तर के विज्ञान के शिक्षकों को बच्चों की बात सुननी चाहिए - उनके उत्तरों को सुनना चाहिए जिससे वे यह जान सकें कि बालकों के पूर्व अनुभवों का आधार क्या है, उनकी अनुभवजन्य अनुभूतियां क्या हैं, वे नए ज्ञान और सूचनाओं को पुराने अनुभवों व समझ से कैसे जोड़ते हैं और किस प्रकार वे जानकारियों का निर्माण करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो कोई ‘सही’ उत्तर होते हैं और न ही कोई ‘गलत’ उत्तर; जो उत्तर बच्चे देते हैं, वह उनकी विचारधारा को प्रकट करते हैं। शिक्षकों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह बच्चों को सुने और उनसे यह जानने की कोशिश करे कि उनके द्वारा दिए गए उत्तरों का कारण क्या है, बजाय इसके कि उनके उत्तरों को ‘सही’ या ‘गलत’ घोषित करे।
डेविड जरनेर मार्टिन: विज्ञान शिक्षण में पढ़ाई करने के बाद अमरीका में केनेसा स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। उन्होंने अन्य भी कई पाठ्य पुस्तकें लिखी हैं।
अंग्रेज़ी से अनुवाद: ऊषा चौधरी। पिछले पैंतीस वर्षों से विभिन्न शिक्षण संस्थाओं से संबद्ध व शिक्षा के नए आयामों के प्रति सजग। भोपाल में रहती हैं।
ऐलिमेंट्री सायंस मेथड्स, प्रकाशक: वेड्स वर्थ, थामसन लर्निंग 2000 से साभार।
लेख इस किताब के पहले हिस्से - प्राथमिक विज्ञान कार्यक्रम की संरचना के पहले अध्याय ‘विज्ञान शिक्षण की अनिवार्यताएं’ से अनूदित।