गायत्री [Hindi PDF, 40kB]
एकलव्य, होशंगाबाद स्थित बाल पुस्तकालय बच्चों के लिए एक खुली जगह है जहाँ किताबों तक उनकी पहुँच है तो कुछ भी कलात्मक करने की स्वतंत्रता भी। काफी बच्चे यहाँ आते हैं। नियमित आने वाले बच्चों में से एक है - प्रमोद, जो छठवीं में पढ़ता है। मैं इस बच्चे की निरन्तरता को देख कर दंग हूँ। पिछले पाँच सालों से, जब से मैंने पुस्तकालय का काम सम्हाला है, तभी से, चाहे बरसात हो, धूप हो या ठण्ड वह लगभग हर रोज़ ही पुस्तकालय आता है।
पुस्तकालय में समय का सदुपयोग प्रमोद अच्छी तरह से जानता है। उसे नई-नई चीज़ें बनाने में बेहद रुचि है - चीज़ें जिनमें कुछ नयापन हो। कमाल की बात तो यह है कि वह जो भी कुछ बनाता है उसमें इस्तेमाल होने वाली सारी चीज़ें औरों के द्वारा कबाड़ समझी जाने वाली होती हैं। पुस्तकालय में पढ़ने-लिखने और चित्र बनाने के अलावा उसने कई चीज़ें बनाई हैं।
एक दिन हम सब ओरिगामी कर रहे थे - कागज़ से चौकोर डिब्बा बनाना। प्रमोद भी हमारे साथ था। इस गतिविधि में ड्रॉइंग शीट से चौकोर कागज़ काटने के बाद लम्बी-सी पट्टी शेष बचती थी, प्रमोद ने उस पट्टी में से पहले चौकोर डिब्बे के ऊपर एक छत बना दी। देखते ही देखते उसने कागज़ काटकर एक घोड़ा बनाया, दो पहिए बनाए और धीरे-धीरे उसे एक सुन्दर ताँगे का रूप दे दिया। सच कहें तो चौकोर डिब्बा बनाते समय हमने यह नहीं सोचा था कि यह एक ताँगा भी हो सकता है। प्रमोद के ताँगे में सारथी भी था और उसके हाथों में घोड़े की लगाम भी। उसके पहिए रंगीन थे और घोड़ा भी। ये बने थे रद्दी के रंगीन कागज़ों से जिससे उन्हें रंग करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी।
ऐसे ही एक अन्य दिन गतिविधि के लिए मैं मिठाई के कुछ खाली डिब्बे ले आई। ज़्यादातर बच्चों ने उनसे घर, मेज़, पेन-स्टैण्ड जैसी चीज़ें बनाईं। वहीं प्रमोद ने एक डिब्बा लिया और चुपचाप कोने में जा बैठा। उसने उस डिब्बे को काफी देर तक निहारा, शायद कुछ सोच रहा था। कुछ समय बाद वह मुझे अपनी अद्भुत कलाकृति दिखाने के लिए लाया - पुस्तकालय में उपयोग की जाने वाली अलमारी! और यह अलमारी खाली नहीं थी, उसमें कागज़ की छोटी-छोटी किताबें भी विषयवार जमी थीं। यहाँ तक कि उन किताबों पर एक्सेशन नम्बर भी डले हुए थे! अलमारी में थे अलग-अलग खाने, एक में कहानियों की किताबें, दूसरे में कविता और तीसरे में शब्दकोष आदि...। कुछ क्षण के लिए तो मैं स्तब्ध रह गई।
जो भी चीज़ हाथ में ली हो, उसे तल्लीनता से करना प्रमोद की आदत है। मिठाई के डिब्बे की इस छोटी-सी अलमारी में खाने बनाना और फिर कागज़ की ही छोटी-छोटी किताबें बनाना कितना महीन और मुश्किल काम है। इसे करने में उसे काफी वक्त लगा होगा, कुछ दिक्कतें भी आई होंगी, मगर वह तल्लीनता से लगा रहा और अलमारी बन जाने पर ही रुका। अब तक जिसने भी उसकी यह अलमारी देखी, वह प्रमोद के हुनर की तारीफ किए बिना न रह सका।
ऐसे ही डिब्बे सेे एक दिन उसने एक और छोटी-सी अलमारी बनाई जिसमें लॉकर भी है। यह अलमारी ठीक वैसे ही दिखती और काम करती है जैसे अपने घरों की लोहे की आम अलमारियाँ। इसमें तार के ताले भी हैं जो दाएँ-बाएँ घुमाने से खुलते हैं। नीचे कई खाने हैं जो माचिस की डिब्बियों के बने हैं और जिन पर खींचने-खिसकाने के लिए हैण्डल भी लगाए गए हैं। यानी कि अलमारी भले ही छोटी हो पर इसमें व्यवस्था पूरी है। ऐसी और भी कई चीज़ें हैं, जैसे कागज़ की नलियों, पेपर स्ट्रॉ आदि से बनी बैलगाड़ी और घर जो उसकी कला के नमूने हैं।
इतना कुछ देखने के बादमैं खुद को रोक नहीं पाई और एक दिन उसकी कलात्मकता मुझे उसके घर खींच ले गई। हाथ से बनाई विविध कलाकृतियों और खिलौनों से उसने अपना घर सजा रखा है। थर्मोकॉल का बना हुआ कैरम बोर्ड और ढक्कन से बनी उसकी गोटियाँ जिस पर मज़बूत-सा कागज़ चिपकाकर पूरी तरह से खेलने लायक बनाया गया है। इसी तरह बेकार के गत्ते से शतरंज बनाकर, मिट्टी से उसके मोहरे बनाए गए हैं। आग से सेंक और उन पर रंग चढ़ाकर इन्हें खेलने के लिए तैयार किया गया है। पुस्तकालय के अन्य बच्चों ने प्रमोद के इन स्वनिर्मित कैरम और शतरंज से खेलकर भी देखा है। एक-एक मोहरे को आकार देने में उसको कितना समय, श्रम और धैर्य लगा होगा इसकी हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं।
महज़ बारह साल के बच्चे की यह कलात्मकता उपलब्धि का विषय है। हम अकसर बच्चों को ऐसी रचनाशीलता के लिए प्रेरित करते हैं मगर प्रमोद स्वप्रेरित है। उसके लिए इस काम में रोचकता भी है और आनन्द भी।
गायत्री: एकलव्य, होशंगाबाद में कार्यरत। बाल-पुस्तकालय सम्हालती हैं। बच्चों के साथ गतिविधियों में रुचि।